Saturday, April 30, 2011

क्या लेखनी पर लगाम उचित है ?

चरक की यायावरी वाले अंदाज़ में भ्रमण करते हुए एक अति रोचक ब्लॉग पर पहुंची तो पाया वहां लिखा था..."लोगों को आभासी दुनिया में रिश्ते नहीं बनाने चाहिए , और यदि दुर्भाग्यवश बन भी जाएँ तो उन पर आलेख नहीं लिखना चाहिए। "

आश्चर्य हुआ ये जानकार की विद्वान् ब्लॉगर इतनी सीमाएं क्यूँ निर्धारित करते हैं की किस विषय पर लिखा जाए और किस विषय पर नहीं। मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है । हर दो व्यक्ति के बीच कोई न कोई रिश्ता अवश्य रहेगा। चाहे उसे नाम दिया जाए अथवा न दिया जाए। सैकड़ों रचनाएँ लोग प्रेमी-प्रेमिका पर लिख चुके हैं और निरंतर लिख रहे हैं ।

तो भाई-बहन के रिश्ते पर कविता लिखना गुनाह हो गया क्या ? लेखन अभिव्यक्ति का माध्यम है। जो विचार जिस वक़्त ह्रदय को मथ रहे होंगे उसी पर तो लिखा जाएगा ? इसमें बुराई क्या है ?

क्या लेखनी पर लगाम उचित है ?

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हम जो आज हैं वो कल नहीं रहेंगे -- ( बदलाव प्रकृति का नियम है )

समय गतिमान है , उसके साथ ही व्यक्ति और परिस्थिति दोनों बदलती रहती है। जो समय के साथ नहीं बदलता , वो बहुत पीछे छूट जाता है। प्रतिदिन और हर पल हम हज़ारों अनुभवों से दो-चार होते हैं । यदि हम में उन अनुभवों और अपनी गलतियों से सीखने की प्रवित्ति ही नहीं होगी तो जीवन व्यर्थ है।

इश्वर के सिवा ऐसा कोई भी नहीं जो गलतियाँ न करता करता हो । नित्य प्रतिदिन कुछ न कुछ गलतियाँ मैं भी करती हूँ , सुधार जारी है , जो मृत्यु पर्यंत जारी रहेगा। और यही संघर्ष मुझे मनुष्य बनाए रखता है।

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Friday, April 29, 2011

"प्रेम की आँच"--(छोटे भाई को उलाहना देती एक कविता)

छोटे भाई को समर्पित है यह कविता-

तुम कहते हो नफरत करते , पर तुमको मुझसे प्यार है
मेरा प्रेम है हल्का-फुल्का, ये नफरत तुमपर ही भार है

जो नफरत बनकर है फूट पड़ी , बस वही प्यार का सार है
चाहे जितनी शिद्दत से कर लो , मुझको सब स्वीकार है

या तुम क्या जानो कितना , करते मुझसे प्यार हो
अपने ही दिल के हाथों तुम, इतना क्यूँ बेज़ार हो ?

तेरे दर पर आउंगी जब , क्या दूर खड़े रह पाओगे ?
निश्चल, जड़ बन खड़े रहोगे , अंक में भर पाओगे?

मामा कह जब वे दौड़ेंगे , क्या गोद में ले पाओगे ?
बच्चों की मुस्कान देख तुम, क्या निष्ठुर रह पाओगे ?

शादी होगी जब तेरी तो, जीजू से द्वेष मनाओगे?
बहनें करती है जो रस्में , वो किससे करवाओगे ?

कौन करेगा टीका तेरा, हल्दी किससे लगवाओगे
बहन से होगी इतनी नफरत तो , गैरों से ख़ाक निभाओगे

प्यार में ज्यादा शक्ति है या, नफरत में है बतलाओ
मैं तुम्हें चुनौती देती हूँ, तुम नफरत करके दिखलाओ

गुस्से को मत शांत करो , नफरत मुझसे करते रहना
स्नेह की अग्नि पावन है , तुम पिघलोगे ये कहती बहना

आभार

Tuesday, April 26, 2011

स्त्री उपभोग की वस्तु नहीं है -- Do not treat her like commodity.

झगडा मत करना
झूठ मत बोलना
अहंकार मत रखना
विनम्रता का व्यवहार रखना
मधुर वचन बोलना और अहिंसा का पालन करना आदि आदि ...

ऐसे बहुतेरे उपदेश/संस्कार दिए जाते हैं , लेकिन कोई ये नहीं बताता की जब किसी स्त्री के साथ अभद्र या अश्लील व्यवहार तो ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए ?

क्या चुप रहना चाहिए ?,
क्या लज्जावान सुशीला बनकर सबकुछ सहना चाहिए ?,
या अपने आप में तिरस्कार और अपमान सहकर घुटते रहना चाहिए ?
या फिर अदालतों में कभी मिलने वाले न्याय के लिए लड़ना चाहिए ?
या फिर पुरुष को श्रेष्ठ समझकर अपनी नियति को स्वीकार कर लेनी चाहिए ?

या फिर हिम्मत और साहस से काम लेकर सामने वाले को उसकी गलती का एहसास करा देना चाहिए ?
या फिर बिना डरे , बिना रोये , बिना स्वयं को कमतर समझे साहस के साथ , उस जड़ता प्राप्त , अज्ञानी , जाहिल एवं दुष्ट पुरुष को उसके कृत्यों की सजा दे देनी चाहिए , जिससे भविष्य में वो ऐसी हरकतें करे जिससे किसी स्त्री के सम्मान और शील को चोट पहुंचे ?
क्या उस महिला की तरह , जिसे विधायक ने त्रस्त कर रखा था , खून कर देना चाहिए ?
या फिर राजेश गुलाटी जैसे पुरुषों द्वारा शारीर के ७२ टुकड़े किये जाने का इंतज़ार करना चाहिए ?
या फिर अरुणा शानबाग की तरह बलात्कार के बाद ३७ साल तक कोमा में रहकर बलात्कार से भी बदतर जिंदगी जिया जाए ?
या फिर निशाप्रिया भाटिया की तरह की तरह न्याय व्यवस्था के हाथ का खिलौना बन कर तिल-तिल घुटना चाहिए?
या फिर मनु हत्या काण्ड या राठोर काण्ड की तरह पीडिता को आत्महत्या कर लेनी चाहिए ?

क्या "शठे शाठ्ये समाचरेत" का विकल्प नहीं अपनाना चाहिए जब नपुंसक हो रही व्यवस्था., स्त्री को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकती है तो ?
क्या बलात्कारी को मौत के घाट नहीं उतार देना चाहिए ? जब अदालतों के चक्कर ही लगाने हों तो पीडिता बनकर क्यूँ ? क्यूँ स्वयं ही सजा दे दो फिर मांगने दो दुर्जनों को न्याय की भीख अदालतों में
क्या स्त्री को उपभोग की वस्तु समझने वाले पुरुषों को उनका सही स्थान नहीं बता देना चाहिए ?
सेक्स के भूखे इन नामर्दों के शिश्न काटकर इनके गले में लटका देना चाहिए।

आज घरों में , ऑफिसों में, अस्पतालों में बस में , रेल में हर जगह स्त्री का शोषण हो रहा है। छोटी छोटी बच्चियों को भी ये दरिन्दे नहीं बख्श रहे क्या स्त्रियाँ इस उम्मीद में हैं कोई राजकुमार सफ़ेद घोड़े पर आकर उनकी रक्षा करेगा ? समय गया है अपनी रक्षा स्वयं करने का मत देखो उम्मीद भरी आखों से किसी की ओर कोई नहीं आएगा तुम्हारे अंतर्मन को समझने, तुम्हारे शील को बचाने अथवा तुम्हारे सम्मान की रक्षा करने।

एक सत्य घटना का उल्लेख कर रही हूँ , शायद किसी स्त्री को हिम्मत मिले --
उस समय मैं १२ वीं कक्षा की छात्रा थी , एक बार मैं एक जाने-माने नेत्र-विशेषज्ञ के पास , उनके आवास स्थित क्लिनिक पर विज़न -टेस्ट के लिए गयी उन्हें देखकर उनकी योग्यता से अभिभूत होकर किसी के भी मन में उनके लिए त्वरित सम्मान उत्पन्न हो जाए , ऐसा था उनका बाहरी व्यक्तित्व लेकिन असली चरित्र कैसा था ?
......कक्ष में करीब २० मरीज अपनी बारी आने के इंतज़ार में बैठे थे। डॉ साहब ने लेंस बदलकर जाँच करके चश्मे का नंबर देने के बजाये retinoscope द्वारा एक अनावश्यक जाँच की (एक ऐसा यंत्र जिसके द्वारा जाँच करते समय चिकित्सक एवं मरीज के चेहरों के मध्य बमुश्किल - सेंटीमीटर की दूरी रहती है)

फिर उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर कागज़ पर लिखना शुरू किया , चूँकि कक्ष में बैठे मरीज़ बहुत करीब थे , और कोई भी संवाद सभी को श्रव्य था इसलिए वे लिखकर संवाद कर रहे थे , जिसे केवल मैं पढ़ सकती थी। उसमें जो लिखा था उसे पढ़कर किसी का भी मन करता की इनको दो थप्पड़ मारकर इनका चरित्र सबके सामने ला दे।

लेकिन स्त्री की लज्जा, उसकी विवशता , उसे बहुत मजबूर करती है ज़रा सी भी उफ़ तक करने को। फिर मैंने क्या किया ? अपना परचा लिया और बहुत सफाई से उस कागज़ को भी उठा लिया जिसपर उनकी कारगुजारी की दास्तान उन्हीं की लिखाई में लिखी हुई थी।

वहां से बाहर निकलते ही , बिना विलम्ब किये उनके आवास के मुख्य द्वार पर जाकर घंटी बजायी। उनकी गरिमामय ५० वर्षीय पत्नी बाहर आयीं मैंने पूछा आप इस लिखाई को पहचानती हैं ? उन्होंने कहा हाँ ये तो डॉक्टर साहब की लिखाई लगती है। मैंने कहा - "उन्हीं की है , आराम से पढियेगा क्या -क्या लिखा है और रात का भोजन परसते समय ये कागज़ का टुकड़ा अपने स्वामी को देना मत भूलियेगा "

कहकर मैं वहां से चल दी बाहर मेरे भैया हतप्रभ खड़े थे , वो आज भी नहीं जानते की क्या हुआ था। हम घर वापस गए , फिर कभी वहां जाना नहीं हुआ। नहीं जानती उनकी पत्नी ने क्या किया। वो चिकित्सक सुधरे अथवा नहीं , लेकिन मुझे पूरा संतोष था की मैंने उन्हें समय रहते सही पाठ पढाया है।

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स्त्री की समाज में दुर्दशा का एक रूप --

औरत ने जनम दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाज़ार दिए।
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।

तुलती है कहीं दीनारों में, बिकती है कहीं बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है, उन ऐयाशों के दरबारों में
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो , बंट जाती है इज्ज़त्दारों में
औरत ने जनम दिया.......

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवाँ , औरत के लिए रोना भी खता
मर्दों के लिए लाखों सेजें , औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश पर हक , औरत के लिए जीना भी सजा
औरत ने जनम दिया.......

जिन होठों ने उनको प्यार किया , उन होठों का व्यापार किया
जिस कोख में उनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया
जिस तन से उगे कोपल बनकर , उस तन को जलीलोखार किया।
औरत ने जनम दिया .................

मर्दों ने बनायी जो रस्में , उनको हक़ का फरमान कहा
औरत के जिन्दा जलने को , कुर्बानी और बलिदान कहा
किस्मत के बदले रोटी दी , और उसको भी एहसान कहा
औरत ने जनम दिया ......................

संसार की हर एक बेशर्मी , ग़ुरबत की गोद में पलती है
सपनों ही में आकर ही रूकती है , ख़्वाबों में जो राह निकलती है
मर्दों की हवास है जो अक्सर, औरत के पाप में ढलती है
औरत ने जनम दिया................

औरत संसार की किस्मत है , फिर भी तकदीर की हेती है
अवतार पयम्बर जनती है , फिर भी शैतान की बेटी है
ये वो बदकिस्मत माँ है जो , बेटों की सेज पर लेटी है
औरत ने जनम दिया....................


http://youtu.be/WJAfEimtkHM

साहिर लुधियानवी जी का लिखा हुआ तथा लता मंगेशकर की आवाज़ में साधना फिल्म का ऊपर लिखा गीत सुनिएशायद समाज में स्त्रियों की दुर्दशा से रूबरू हों आप भी

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क्या मच्छर के काटने से एड्स हो सकता है ?

प्रश्न - क्या मच्छर के काटने से एड्स हो सकता है ?
जवाब - नहीं , मच्छर के काटने से एड्स नहीं होता।

  • एड्स केवल Blood, Semen, Vaginal fluid के transfer से ही होता है
  • saliva में एड्स के विषाणु नहीं होते।
  • मच्छर जब काटता है तो अपना saliva (लार) , Blood में छोड़ता है ताकि रक्त की तरलता बनी रहे और मच्छर आसानी से रक्त चूस सके ।
  • जब तक संक्रमित रक्त मच्छर की लार में नहीं पहुंचेगा , तब तक मच्छर के काटने से एड्स होने की कोई संभावना नहीं है।
  • बहुत सी बीमारियों में कुछ insects अथवा जानवर carrier की भूमिका निभाते हैं ( जैसे मच्छर , फीता कृमि , गोल कृमी आदि ) , लेकिन HIV virus की 'Life-cycle' , मच्छर में पूरी नहीं होती । HIV virus केवल मनुष्य से ही मनुष्य में पहुँचता है।
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Sunday, April 24, 2011

अविरल विचारों का अनवरत सफ़र-लेखन

डॉक्टर, इंजिनियर , वकील , पाईलट तो शिक्षा और ट्रेनिंग के तहत बनते हैं , लेकिन एक लेखक का 'जन्म' होता है, जो , जीवन के किस पड़ाव पर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता आज हर प्रांत, भाषा , व्यवसाय , और वय के लोगों को लिखते हुए देखती हूँ यही लगता है सृजन की एक अद्भुत क्षमता और नैसर्गिक इच्छा सभी में होती है

लेखन के लिए एक प्रेरणा अवश्य चाहिए जो हमें परिवेश और परिस्थितियों से मिलती है लेखक, विभिन्न स्तरों पर परिस्थितिजन्य , शौक के अनुसार , पीड़ा की गहनता के प्रेरित होकर अथवा समाज में व्याप्त अनियमितताओं से विचलित होकर लिखते हैं

जब हम अपने परिवेश में हो रही घटनाओं से व्यथित होते हैं और उसमें बदलाव लाना चाहते हैं , लेकिन कहीं कहीं उस बदलाव को लाने में अशक्त भी रहते हैं तो एक 'लेखक का जन्म' होता है शायद अपनी बात ज्यादा लोगों तक लेखनी के माध्यम से पहुंचाकर समान विचारों वालों की एक जागरूक फ़ौज तैयार करता है और वैचारिक आदान-प्रदान की जो एक लहर चलती है , उससे बहुत से मकाम हासिल भी होते हैं

सिक्के के दो पहलू होते हैं लेकिन आज किसी भी विषय के अनेक पहलू होते हैं इसलिए हर विषय को लेखक अपने नज़रिए से लिखता है और उसी विषय पर जब पाठकों के विचार शामिल होते हैं, तो अनेक अन्य पक्ष भी उजागर होते हैं , जो विषय को विस्तार एवं सार्थकता प्रदान करते हैं।

विभिन्न वय और परिवेश के लेखों द्वारा विभिन्न विचार और रचनायें पढने को मिलती हैं , कम उम्र लेखकों में 'कच्ची और गुनगुनी घूप' जैसे कोमल एहसास , और व्यस्क लेखकों द्वारा उनके जीवन के अमूल्य अनुभव और वैचारिक परिपक्वता के दर्शन होते हैं

किन्ही रचनाओं में प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति तो कहीं वेदना से भरी गागर, कहीं देशप्रेम से लबरेज़ लेखन तो कहीं भारत-स्वाभिमान जगाती रचनायें, कहीं ह्रदय को मथती हुयी यादें तो कहीं मस्तिष्क को मथते हुए वैचारिक आन्दोलन। लेखक को लिखने की प्रेरणा अपने परिवेश से मिलती है लेकिन उसका लेखन बहुत से लोगों के लिए अनेक क्षेत्रों में एक प्रेरणा का स्रोत भी बन जाता है। इसलिए निरंतर लेखन से धीरे-धीरे एक जिम्मेदारी का एहसास भी होने लगता है। लोगों की अपेक्षाएं बढती जाती हैं और उसके साथ ही एक लेखक की जिम्मेदारी भी

- वर्ष पहले मैंने एक पुस्तक लिखने की सोची विषय था 'AIDS" मैंने सोचा सरल भाषा में एक पुस्तक होनी चाहिए , जिसमें हर तरह के छोटे-बड़े प्रश्नों के उत्तर होने चाहिए जिसे आम जनता समझ सके और जागरूक हो सके। मेरे साथ बहुत से लोग मेरे इस महा-अभियान में शामिल होगये। बहुत से अस्पताल और संस्थानों में विभिन्न प्रकार की जानकारी हासिल की। एक नए अंदाज़ में पुस्तक लिखने का विचार था। जब पुस्तक लिखना शुरू किया तो मन में विचार आया देख लूँ कहीं इस तरह की कोई पुस्तक पहले से तो नहीं उपलब्ध है फिर क्या था , बनारस में 'FRIENDS' नाम की एक दूकान है जहाँ मेडिकल की पुस्तकें मिलती हैं। वहाँ पहुंची तो देखा हर विषय पर अनगिनत पुस्तकें उपलब्ध हैं लिखने वाले बहुत हैं लेकिन पढने का शौक रखने वाले कम हैं। फिर लिखने का विचार त्याग दिया , सोचा पहले पढ़ा जाए फिर कुछ लिखा जाएगा। लिखने से ज्यादा पढना श्रेष्ठ लगा जो सीखने का अवसर देता है। बाद में लिखना शुरू किया जब महसूस किया की समाज को कुछ दे सकती हूँ। अपने अनुभव, विषयगत ज्ञान या फिर वैचारिक आन्दोलन

लेकिन एक बात सच है की लिखने के लिए एक 'पीड़ा' बहुत जरूरी है जो प्रेरणा का काम करती है। कभी कभी रचनाओं में व्यक्ति कि निज-व्यथा झलकती है, तो कभी समाज कि पीड़ा का वृहद् रूप दृष्टिगोचर होता है। जितनी असीम पीड़ा होगी उतना ही बेहतर लेखन होगा। जैसे-जैसे हमारा परिवार बड़ा होता जाता है हम पूरे समाज को अपने परिवार का अंग मानने लगते हैं , तभी उसके रिसते घावों कि पीड़ा को महसूस कर पाते हैं फिर स्वतः ही लेखनी उन पर मरहम कि तरह चलती है।

लेखन यदि स्वान्तः सुखाय है तो निसंदेह लेखक को खुश एवं प्रसन्नचित रखता है , लेकिन यदि परहित में समाज के कष्ट निवारण के उद्देश्य से किया गया है तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है। लेखन प्रेरक हो , अनुकरणीय हो , वैचारिक मंथन कराने वाला हो , किसी को दुःख देने के उद्देश्य से किया गया हो , तथा समाज को दिशा देने वाला हो तो बेहतर है।

लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।

आभार

Thursday, April 21, 2011

एक पवित्र पेशे को शर्मसार करते मुट्ठी भर डॉक्टर --Hysterectomy (removal of uterus)

जयपुर राजस्थान में कुछ अस्पतालों में (मदन नर्सिंग होम, साईं बालाजी तथा विजय अस्पताल) , स्त्रियों के गर्भाशय निकालने की घटना प्रकाश में आई है। जिसमें तकरीबन १८ मौतें भी हो चुकी हैं। ज्यादातर मरीज कम उम्र के , गरीब एवं पिछड़ी जाती के थे , जिन्हें आसानी से अपनी दलीलों द्वारा बहकाया जा सकता था और मौत का भय दिखाकर जबस्ती गर्भाशय निकलवाने के लिए तैयार किया गया।

कुछ चिकित्सक पैसों की लालच में स्त्रियों का गर्भाशय निकाल कर उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एक सामान्य स्त्री यह निर्णय नहीं ले सकती की गर्भाशय निकाले जाने की आवश्यकता किन परिस्थितियों में होती है। यह निर्णय केवल एक चिकित्सक ही ले सकता है। मरीज तो उस पर भरोसा करके अपना स्वास्थ और अपनी खून-पसीने की कमाई उसके हवाले कर देता है।

डॉक्टर का दायित्व है की वो मरीज के इस भरोसे का सम्मान करे।निज स्वार्थ के लिए उसके स्वास्थ से खिलवाड़ न करे। मरीज को किसी भी शल्य चिकित्सा से गुजरने से पहले किसी अन्य डॉक्टर से "second opinion" अवश्य ले लेना चाहिए। जो गरीब हैं अशिक्षित हैं , उनके सामने ज्यादा बड़ी समस्या है, वो ज्ञान , निर्णय, उचित सलाह , हर बात के लिए पराश्रित हैं । हमारा नैतिक दायित्व है की हम आस-पास के परिवेश में जरूरतमंदों को शिक्षित और जागरूक करें।

गर्भाशय निकालने की आवश्यकता निम्न परिस्थियों में पड़ती है-

  • Vaginal prolapse
  • Excessive obstetrical heamorrhage (अत्यधिक रक्तस्राव)
  • गर्भाशय का कैंसर
  • ओवरी का कैंसर
  • सरवाईकल कैंसर
  • गर्भाशय में ट्यूमर
  • placenta praevia आदि।

गर्भाशय
निकल जाने के दुष्प्रभाव-
  • गर्भधारण नहीं हो सकता .
  • यदि गर्भाशय के साथ ओवरी भी निकाल दी जाएँ तो Estrogen नामक हारमोन बहुत कम हो जाता है और ह्रदय रोग बढ़ते हैं और हड्डियों का घनत्व(डेंसिटी) कम होने से 'ऑस्टियोपोरोसिस' हो जाता है, जिससे हड्डी के फ्रैकचर होने की संभावनाएं बढ़ जाती है , ऐसा 'surgical menopause' के कारण होता है।
  • urinary incontinence
  • Vaginal prolapse
  • bladder और bowel का proper support ख़तम हो जाता है।
  • दैनिक कार्यों में कम से कम चार माह तक बाधा उपस्थित होती है।
  • Ectopic pregnancy (यदि ओवरी नहीं निकाली गयी तो) very rare
  • गर्भाशय को निकालने का विकल्प अंतिम होना चाहिएइसके पूर्व अन्य चिकित्सा विधियों द्वारा इलाज करना चाहिएलाभ होने की अवस्था में Hysterectomy (removal of uterus) को अंतिम विकल्प की तरह अपनाना चाहिए

    Dysfunctional uterine bleeding, uterine fibroid , prolapse आदि की चिकित्सा , ablation आदि अन्य चिकित्सा विधियों से की जा सकती हैंकेवल लाभ होने की स्थिति में ही अंतिम विकल्प का उपयोग होना चाहिए

    किसी भी रोग में क्या उचित है और क्या नहीं इसका निर्णय चिकित्सक ही ले सकता है, लेकिन मरीज को जागरूक होना बहुत जरूरी हैमन में आये किसी भी संशय को अपने डॉक्टर से पूछकर समाधान अवश्य कर लें

    आभार

Tuesday, April 19, 2011

भाई-बहन का काल्पनिक संवाद


इस काल्पनिक संवाद में भाई अपनी उदास बहन को हिम्मत दिला रहा है , कुछ इस प्रकार से..

इन चंचल नयनों में नीर भरे वो कौन है निष्ठुर पापी 'शय'
अवनत पलकों में छलक रहे , क्यूँ काँप रहे हैं आँसू द्वय
क्यूँ गला तुम्हारा रूंध रहा , स्वर कम्पन में है किसका भय
हर दुःख को तेरे हर लूँगा, हर क्षण पर तेरी होगी जय

बहन मेरी उदास हो , यश सदा तुम्हारा अमर रहे
हर मुश्किल में तुम बढ़ी चलो, चाहे कितनी भी समर रहे
मैं जान लड़ा दूंगा अपनी, यूँ अटल तुम्हारी आस रहे
हर बहना का अपने भैया में, मधुर बना विश्वास रहे

जिस भवन में तुम हम पले-बढे,हैं वहां बहुत से फूल खिले
उस उपवन के रंगीं फूलों को , उर में रखकर हैं द्वार सिले
है सदा तुम्हारा स्थान अलग, जिसमें किसी को जगह मिले
अधरों पे तेरे मुस्कान सजे, हर 'लोक' में तुझको मान मिले

मैं भाई तुम्हारा गर्वीला , तुम बहन हो मेरी लाखों में
उर में रहो मन में रहो, तुम सदा रहोगी आँखों में
भैया भैया कह-कह कर ही यूं , तुम मुझे सदा सताती रहना
बहना मेरी मैं पुलकित हूँ , तुम यूँ ही जाती, आती रहना

आभार

Monday, April 18, 2011

थाईलैंड की होली (सोंगक्रान)-songkran

थाई होली (songkran) खेलते हुए यहाँ के निवासी








cruise में खड़े मास्टर सुयश



"View point" नामक खूबसूरत स्थल , जहाँ से कोचांग के चारों island देखे जा सकते हैं।









समुद्र किनारे , तन्हा-तन्हा। ( मेरा प्रिय शगल)





resort का एक दृश्य । जिस पुल से गुज़र कर Restaurant तक पहुँचते हैं।


समुद्र में snorkeling करते हुए सेनानी ।


snorkel पहने हुए । आँख तथा नाक पूर्णतया सील हो जाती है । पानी अन्दर नहीं जा सकता। होकी जैसा pipe मुह के अन्दर रखते हैं तथा मुख से ही सांस लेते हैं । इसे पहनकर आराम से पानी के अन्दर जा सकते हैं । पानी में बहुत सुन्दर दृश्य दिखे जैसा हम टीवी पर देखते हैं।


वाटर फौल -- दो शिला खण्डों के मध्य जो सफ़ेद रेखा दिख रही है । इसे देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। यहाँ सेनानियों ने जमकर Swimming की। मैं आलसी की तरह बैठी हूँ।





होली खेलते थाईलैंड निवासी , यहाँ "pick up" नामक ट्राली टाइप गाडी में सवार होकर , टबों में पानी रखकर होली खेलते हैं। पानी में बरफ होता है। तथा खुशबूदार भी होता है। यदि आप सड़क पर हैं तो आपको तर-बतर कर देंगे। यदि कार में हैं तो आपकी कार पर बहुत सा पानी डालेंगे। नाचते-गाते मस्ती करते हुए songkran (होली) मनाते हुए।
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सवादी-खा (नमस्ते)

थाईलैंड में भी भारत की तरह होली होती है जिसे सोंगक्रान (songkran) के नाम से जानते हैं। यह शब्द संस्कृत के 'संक्रांति' से आया है। जिसका अर्थ है 'गति' अथवा 'बदलाव' । इस समय सूर्य अपनी गति के कारण मेष राशि में प्रवेश करता है। सोंग्क्रान १३, १४, १५ अप्रैल को मनाते हैं लेकिन उत्तर थाईलैंड में यह त्यौहार एक सप्ताह तक मनाया जाता है। यह त्यौहार यहाँ पर भारत से ही प्रचलन में आया है।

भारत के वैशाख पर्व की तरह यहाँ भी 'नए वर्ष' को मनाते हैं। इस अवसर पर बड़ों को , पड़ोसियों को , मित्रों को , तथा बौद्ध भिक्षुओं को आदर सम्मान देते हैं। अच्छी फसल और वर्षा के लिए प्रार्थना करते हैं तथा घरों की सफाई करते हैं। सड़क पर hose pipe तथा पिचकारियों से बरफ के ठन्डे पानी की होली खेलते हैं ।

इस अवसर पर थाईलैंड में , देश-विदेश से बहुत बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। हम लोगों ने 'सोंगक्रान' , थाईलैंड के , 'Koh-Chang' नामक एक खूबसूरत Island पर मनाया। जो Bangkok से तकरीबन १००० km दूर है। यादगार के लिए कुछ तसवीरें संलग्न है।

ज़िन्दगी में पहली बार समुद्र की गहराइयों में पहुंचकर गोताखोरी , snorkeling का आनंद लिया। अद्भुत दृश्य थे। स्वर्गिक अनुभव।

खपून खा (आभार)......

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Thursday, April 14, 2011

दोषी पीढ़ी

"आजकल के युवा दिशाहीन हैं " ऐसा जुमला लोगों की ज़बान पर चढ़ा रहता है ज़ाहिर सी बात है ये जुमला युवाओं की जबान पर तो नहीं रहता।

किस पीढ़ी को दोष दिया जाए ? क्या वाकई में 'युवा' दोषी हैं ? या फिर इन युवाओं को मिलने वाले दिशा-निर्देशन में दोष है ?

जब युवा वर्ग कुछ अच्छा करता है , माता-पिता और समाज और देश को गौरवान्वित करता है तो तुरंत सुनने को मिलता है -"माँ-बाप ने अच्छे संस्कार दिए हैं " ..इसके विपरीत युवा यदि कुछ गलत करता है तो -"युवाओं से उम्मीद रखना बेकार है" , ऐसा जुमला आम होता है यहाँ कोई दोष नहीं देता घर के बड़ों को , शिक्षकों और समाज को जिसने संस्कार देने में भूल की।

बदलाव प्रकृति का नियम है , देश काल परिस्थिति बदलती जा रही है तो उसमें बड़ा होने वाला युवा भी समय के साथ बदल रहा है। जो समय की मांग है , उसी के अनुसार अपने को ढाल रहा है। बिना संस्कारों को ग्रहण किये कोई भी बच्चा युवा नहीं होता और संस्कार उसे अपने से पहले वाली पीढ़ी से , माता-पिता से , शिक्षकों से तथा समाज और परिवेश से मिलते हैं , इसलिए युवा जैसे भी है , उसके लिए जिम्मेदार ये सभी कारक होंगे।

कुम्भार मिटटी को जैसा आकार देगा , निर्मित वस्तुएं वैसी ही होंगी काबिलियत तो कुम्हार की है की वो कितना संतुलित , सुन्दर और नक्काशीदार सृजन करता है। कच्ची गीली मिटटी तो अपने सृजन के लिए अपने निर्माता की तरफ निश्छल भाव से देख रही है।

हम जो बोयेंगे वही काटेंगे। हम जैसी शिक्षा अपने आने वाली संतति को देंगे , वो उसे ही ग्रहण करेंगे। यदि हम ज्यादा से ज्यादा वक़्त युवाओं को दें तभी सही दिशा-निर्देश कर सकेंगे और एक बेहतर व्यक्तित्व के सृजनकर्ता बन सकेंगे।

  • हम व्यस्त रहेंगे और बच्चों के लिए समय नहीं निकालेंगे तो युवा भी खुद को कहीं और व्यस्त कर लेंगे और हमारे साथ समय नहीं बितायेंगे।
  • यदि हम अपने से छोटों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे तो युवाओं की नज़रों में भी सम्मानित नहीं रह सकेंगे।
  • प्यार और सम्मान देंगे तो प्यार और सम्मान करना सीखेंगे युवा भी।
  • बड़े बुज़ुर्ग यदि बात-बात पर युवाओं को नीचा दिखायेंगे तो धीरे-धीरे वे स्वयं ही युवाओं की नज़रों में छोटे होते चले जायेंगे।
  • आज दादी-दादा , माता-पिता , चाचा-चाची अपने आप में व्यस्त है फिर युवाओं को समय कौन दे ? वो भी अपने उम्र के दोस्तों के साथ , तो कहीं विडिओ-गेम, टीवी आदि देखने में व्यस्त हो जाते हैं , जहाँ उन्हें गलत और सही का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं होता। फिर उनसे कोई भूल होती है यदि तो क्या हमें ये हक है की हम उनके दोष बताएं , जबकि हमने उन्हें समय ही नहीं दिया और मार्ग दर्शन करने की जहमत ही नहीं उठाई।

यदि हम १०, २० , ३० , ४० , ५० , ६० एवं ७० वर्ष की आयु वर्ग को ध्यान में रखकर बात करें तो हर दशक अपने आप में एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ वो अपने से छोटे अथवा कमतर को एक दिशा-निर्देश कर सकता है और उसके व्यक्तित्व को आकार देने में मदद कर सकता है।

जब हम किसी को कुछ सिखाते हैं तो उसमें अहम् नहीं होना चाहिए विनम्रता और दोस्ताना अंदाज़ में कही गयी बातें ही सुनने वाला ग्रहण करता है। यदि समझाने वाले की आवाज़ में दंभ , अपमान और छींटा-कशी होगी तो युवा उसे ग्रहण नहीं करेगा और आपका प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए यदि हम कुछ देना ही चाहते हैं तो लेने वाले के अबोधपन , स्वछंदता, उच्श्रंखलता का मान रखते हुए , बिना उनके बालमन को कोई ठेस पहुंचाए अपनी बात कहनी चाहिए।

सबसे अहम् है धैर्य और चाव के साथ बच्चों की बातें सुनना उनके पास आपसे कहने के लिए बहुत कुछ होता है , उससे भी ज्यादा उनके पास अनुत्तरित प्रश्न होते हैं , जिसे सुनने और उत्तर देने का वक़्त नहीं होता है पढ़े-लिखे संस्कारित वयस्कों के पास। फिर युवा , मन की उलझनें लिए हुए जायेंगे कहाँ और किसके पास इसी भागम-भाग की जिंदगी में बच्चा बड़ा हो जाता बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों और आशंकाओं के साथ और फिर वही बांटता है जो उनसे बड़ों से पाया है

उम्र के इस पड़ाव पर मेरे ऊपर एक बुज़ुर्ग पीढ़ी है , जिससे सीखने को मिलता है लेकिन उससे भी ज्यादा सीखती हूँ मैं अपनी युवा पीढ़ी से। चाहे वो तकनीक का क्षेत्र हो , चिकित्सा का, अथवा सामाजिक सन्दर्भों हों। हर जगह युवा बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं , वो बड़ों का अनुभव भी ले रहे हैं और अपने नव-सृजन से हर क्षेत्र में विस्तार कर रहे हैं और बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं हमें तो गर्व होना चाहिए अपनी युवा पीढ़ी पर

कैसे कह दूँ की युवाओं में संस्कार नहीं है। जब भी आस-पास परिवेश में अनेक बच्चों को देखती हूँ तो उपवन के रंग-बिरंगे फूलों के समान मोहक, मासूम और उमंग से चहकते हुए ही लगते हैं और युवाओं से मिलती हूँ तो उन्हें अद्भुत प्रतिभा से संपन्न पाती हूँ। मुझसे बहुत बेहतर मुझे आज के युवा लगते हैं , जो बुद्धिमान भी हैं , जागरूक भी हैं और संस्कारी भी। उनके अन्दर आक्रोश भी है जो दुनिया बदलने का जज्बा भी रखता है।

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा , ऐसा मेरा विश्वास है।

आभार।