ऋषियों , मुनियों और विद्वानों की धरती से उसकी पहचान ही विलुप्त होती जा रही है। क्यों हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी पश्चिम की भाषा, संस्कृति और चिकित्सा पद्धति को अपना रहे हैं। निज पर गर्व नहीं करते , ना ही उसके महत्त्व को समझते हैं।
आयुर्वेद न सिर्फ रोगी की चिकित्सा करता है अपितु स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा भी करता है।
स्वस्थस्य स्वास्थ रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।
एलोपैथिक पद्धति तो मात्र २०० वर्ष पुरानी है , जबकि हमारा आयुर्वेद , ब्रम्हा जी के मुख से निकला है और हमारे वेदों में वर्णित है। आयुर्वेद , अथर्वेद का ही एक उपवेद है, जिसमें कायिक और मानसिक सभी व्याधियों का उल्लेख एवं निदान है। आज के समय के एड्स (AIDS), और सार्स (SARS) जैसी व्याधियों का भी सम्पूर्ण उल्लेख है हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में।
आयुर्वेद द्वारा आतुर (रोगी) की चिकित्सा की जाती है और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा का प्राविधान है। इसके उहाहरण हमारे दीर्घायु ऋषि-मनीषी हैं। कंद मूल फल पर जीवित रहने वाले हमारे तत्कालीन विद्वानोंऔर बुद्धिजीवियों ने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए एक चमत्कारिक , चिकित्सा पद्धति की रचना कर डाली थी। मुह में छाले हो अथवा पीलिया जैसा घटक रोग हो अथवा अस्थिभंग हो या फिर मधुमेह जैसा सुख्रोग हो, या पथरी हो, सभी का आशुकारी इलाज , बिना हानिकर प्रभावों वाली प्राकृतिक दवाईयों क्रमशः नकछीवक , अस्थि श्रंखला, स्ट्रिविया, गोक्षुरु आदि से अपने प्राकृतिक रूप चूर्ण, क्वाथ, आसव अथवा अरिष्ट के रूप में किया जाता है जो सर्वथा हानिकर प्रभावों से मुक्त है।
देव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा द्वारा , इलाज करने वाले देवताओं के चिकित्सक 'अश्विनी कुमारों' की वैदिक चिकित्सा पद्धति है ये, जिसमें किस व्याधि का इलाज नहीं है भला ? दमा, राजयक्ष्मा, अतिसार , आमवात और प्रमेह से लेकर उन्माद आदि सभी व्याधियों की सम्पूर्ण चिकित्सा का वर्णन है , सुश्रुत, अष्टांग संग्रह आदि वृहदत्रायी और लघुत्रयी में।
दीपावली से दो दिन पूर्व हम धनतेरस मनाते हैं। जिसमें हम भगवान् धन्वन्तरी की पूजा करते हैं। कौन हैं ये धन्वन्तरी ? समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर अवतरित हुए धन्वन्तरी को ही 'Father of medicine' कहा गया है। और सुश्रुत को 'Father of Surgery' कहा गया है।
हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में , उस समय भी शल्य क्रिया आज से कहीं ज्यादा उन्नत अवस्था में थी। आज का 'Organ Transplant' और Plastic surgery जिसमें सफलता का प्रतिशत संशयात्मक ही बना रहता है , वही वैदिक काल में १०० प्रतिशत सफलता के साथ किया जाता था।
सुशुत के काल में त्वचा की सात परतों के अध्ययन के लिए लाश को नदी में बाँध दिया जाता था। और गलन प्रक्रिया के बाद बहुत सफाई के साथ त्वचा की सातों परतों का अध्ययन सुलभ होता था। आज के दौर की 'Blood letting' , उस समय सफलतापूर्वक 'जोंक और 'श्रृंग' के माध्यम से होती थी। उस समय भी शल्य क्रिया के बाद stitching होती थी , बस अंतर केवल इतना था की Catgut की जगह काले चींटों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता था।
समय के साथ विज्ञान ने जो तरक्की की इस पद्धति ने , उस तरक्की को पश्चिम ने एलोपैथ का नाम देकर उस पर अपनी मुहर लगा दी। और भेंड-चाल जनता ने उसका अंधानुसरण करके अपनी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' को उपेक्षित कर दिया । आज बड़े-बड़े चिकित्सा उपकरण विज्ञान की उप्लाधियाँ हैं , एलोपैथ की नहीं । इसको प्रत्येक चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ा जाना चाहिए, किसी एक के साथ नहीं। ताकि विज्ञान के अविष्कारों का लाभ लेते हुए आतुर ( रोगी ) की चिकित्सा की जा सके।
हमारे वैदिक ग्रंथों में वर्णित 'नीम', 'हल्दी', 'ब्राम्ही' जैसे द्रव्यों को भी ये अपने नाम से पेटेंट करा कर सब पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। ज़रुरत है हमें अपनी धरोहर की रक्षा करने की और अपनी चमत्कारिक वैदिक पद्धति में विश्वास करने की।
चीनी, ग्रीक, रोमन, पर्सियन, इजिप्शियन , अफगानिस्तानी और यूरोपियन भी हमारे देश भारत आये और इस वैदिक पद्धति को सीखा इन्होने। लेकिन अफ़सोस की इन्होने हमारे वैदिक ग्रंथों का अनुवादन करके और थोड़ी हेर-फेर करके इसे आधुनिक पद्धति का नाम दे दिया, और विज्ञान के विकास के साथ जोड़कर खुद को ज्यादा उन्नत बता दिया। भारत में अंग्रेजी शासन ने हमें गुलामी में जकड लिया और हमारे ग्रथों को नष्ट किया गया। उस समय उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति की बहुत उपेक्षा की । मुगलों ने इसे अरबी भाषा में अनुवादित करके इसी की सहायता से यूनानी पद्धति को जन्म दिया।
अतः सभी चिकित्सा पद्धतियों के मूल में हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' ही है, लेकिन इसे उपेक्षित और तिरस्कृत किया गया। आजादी के बाद आयुर्वेद ने पुनः अपनी प्रतिष्ठा को वापस प्राप्त किया है , और देश भर में १०० से ज्यादा आयुर्वेदिक विद्यायालाओं में विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
७० के दशक के बाद से आयुर्वेद की लोकप्रियता विदेशों में बहुत बढ़ी है, वहां से विद्यार्थी इस पद्धति को सीखने निरंतर यहाँ आ रहे हैं, और अपने देश को समृद्ध कर रहे हैं , लेकिन अफ़सोस की हमारे अपने देश में इस वैदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति जागरूकता बहुत कम है।
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी...
हमारे पास तो चमत्कारिक धन-सम्पदा है, लेकिन अफ़सोस की हमारे पास 'पारखी नज़रें' नहीं हैं। पश्चिम की अंधी दौड़ ने हमें इस चमत्कारी चिकित्सा-पद्धति (आयुर्वेद) से होने वाले लाभों से वंचित कर रखा है, और मूढ़ जनता अनेक हानिकर प्रभावों वाली पश्चिमी चिकित्सा पद्धति से अपना इलाज करके स्वयं को क्षति पहुंचा रही है।
Zeal