राजमहल में रहता।
सोने का सिंघासन होता ,
सर पर मुकुट चमकता .......
क्या किन्नरों को सपने देखने का हक है ?
पूर्व काल में हिजरों को किन्नर कहा जाता था। सहज महसूस करने के लिए मैं अपने इस लेख में एक , ज्यादा-सम्मानित शब्द किन्नर का प्रयोग करुँगी।
किन्नर हमारी तरह ही इंसान हैं। फिर समाज में इनके साथ इतना भेद-भाव क्यूँ है। ये हमारी तरह ही एक दिल और दिमाग रखते हैं, जिससे वो हमारी तरह ही सोच सकते हैं और प्यार कर सकते हैं। फिर क्यूँ नहीं हम उनकी भावनाओं को समझने का प्रयत्न करते हैं। क्यूँ नहीं हम उनके दुखों को महसूस कर पाते हैं । क्यूँ हम उनको समाज के एक निचले स्तर पर जीवन यापन करते हुए देख रहे हैं और सहज ही असंवेदनशील होकर आगे बढ़ जाते हैं। किन्नर हमारे सम्माज का एक बड़ा हिस्सा हैं। हम उनके प्रति बेरुखी का रवैय्या नहीं अपना सकते।
यदि हममें सही मायनों में इंसानियत है तो हमे चाहिए की हम किन्नरों के मानवाधिकारों के लिए भी लड़ें। भारतीय संविधान में केवल स्त्री और पुरुष दो ही प्रकृति को स्थान मिला है। समाज का ये थर्ड- सेक्स उपेक्षित है और अपने अधिकारों के लिए दर-दर भटक रहा है, अपमानित होकर।
समाज के किसी भी क्षेत्र में चाहे वो -शिक्षा हो, रोजगार हो, स्वास्थ्य हो, कानून हो, प्रवास हो अथवा अप्रवासन की बात हो, सभी जगह इन्हें मुश्किलों और भेद-भाव का सामना करना पड़ता है।
कानून में इंडियन पैनल कोड के सेक्शन ३७७ में भी इन्हें इनके मौलिक अधिकारों से वंचित ही किया गया है। क्यूंकि कानून में सिर्फ स्त्री और पुरुष को ही मान्यता प्राप्त है, किन्नरों को नहीं। इसलिए ये कुछ भी करेंगे तो कानून के दायरे में रहेंगे और हमेशा पुलिस के चंगुल में फंसे रहेंगे। क़ानून के रखवाले इन्हें पकड़ कर ले जाते हैं औत इन पर जेल में तरह तरह का अत्याचार होता है। जो पैसा ये मुश्किल से कमाते हैं, उसे भी पुलिस हफ्ता वसूली में ले लेती है। आखिर ये अपने जीवन यापन के लिए क्या करें ?
शादी-ब्याह, बेटा होना अथवा किसी शुभ अवसर पर पर नाच गाकर ये अपनी जीविका अर्जित करते हैं। लेकिन उसके लिए कितना पापड बेलना पड़ता है इन्हें। लोगों की हिकारत भरी नज़र , इन्हें अपने कमाए हुए पैसो की ख़ुशी नहीं होने देती, न ही किसी प्रकार के सम्मान का एहसास दिलाती है।
आज ज़रुरत है किन्नरों को भी उनका पूरा सम्मान दिया जाए । एक सुखी जीवन बसर करने के मूलभूत सुविधायें मुहैया कराई जाएँ। शिक्षा और रोजगार में भी इन्हें पूरे अवसर मिलने चाहिए ताकि समाज के इस समुदाय का भी उत्थान हो सके। इनके पास भी हमारी तरह भावनाएं है, संवेदनाएं हैं। ये भी भावुक होते हैं। इनकी भावनाओं की पूरी कद्र होनी चाहिए । समाज में उचित सम्मान और प्यार मिलना चाहिए।
किन्नर एवं स्वास्थ्य -
हमारे देश में करीब दस लाख किन्नर हैं। मुलभुत सुविधाओं से वंचित ये समुदाय अनेकानेक बीमारियों जैसे एड्स आदि से ग्रस्त हो जाता है। पैसों की कमी तथा समाज में भेद-भाव के चलते इन्हें समुचित स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलती और ये समय से पहले ही काल-कवलित हो जाते हैं। मुझे लगता है किन्नरों को स्वास्थ्य सम्बन्धी सभी सेवाएं मिलनी चाहिए । ये संकोच-वश चिकित्सा करवाने में भी हिचकते हैं।
किन्नरों में- ' जेंडर आईडेंटीटी क्राईसिस ' के कारण अवसाद , फ्रस्टेशन, असहायता, तथा पीड़ा-जनित क्रोध भी पनपता है। लेकिन ये ' जेंडर आईडेंटीटी क्राईसिस ' कोई मानसिक रोग नहीं है और इसके बहुत से सरल उपाय , चिकित्सा विज्ञान में मौजूद हैं। जैसे :-
- हार्मोन रिप्लेसमेंट थिरेपी ।
- लेसर हेयर रेमोवल या एलेक्ट्रोलिसिस ।
- सेक्स रि-असायिन-मेंट थिरेपी - [एस आर टी ]
किन्नर और क़ानून -
कानून में इसकी व्यवस्था की किन्नर , खुद को एक स्थापित लैंगिक पहचान देने के लिए अपना नाम और लिंग परिवर्तित कर सकते हैं। अब एक नए कानून के तहत अप्रवासन के लिए इन्हें 'एम् ' और 'ऍफ़' के स्थान पर 'इ' लिखने की अनुमति मिल गयी है।
क्यूंकि ये हमारी तरह ही इंसान हैं , इसलिए मौलिक अधिकारों में कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
यदि कोई इनके साथ भेद भाव करता है तो उसे भी नस्लीय-जुर्म की तरह ही सजा मिलनी चाहिए।
मुस्लिम अल्प संख्यकों को तो वोट-बैंक के लिए बहुत से नेताओं का आश्रय प्राप्त है , लेकिन अल्पसंख्यक किन्नरों के विषय में इंसानियत से महरूम सरकार क्यूँ नहीं सोचती ?
हिजरे पैदायशी या फिर समाज के बनाए हुए ?
कुछ तो जन्म'जात किन्नर होते हैं , लेकिन अठारवीं शताब्दी में अरबों/मुगलों के आक्रमण के बाद अमानवीय तरीके से पुरुष को बधिया करना [ कासट्रेशन ], प्रचलन में आ गया। मुगलों ने अपने हरम में स्त्रियों की देखभाल तथा अन्य निम्न कार्यों के लिए इन्हें हिजरा बनाकर इनका इस्तेमाल किया।
किन्नर एवं धर्म -
किन्नर सभी धर्मों में है. --हिन्दू धर्म में किन्नर जाति , 'बहुचरा देवी ' की पूजा करती है। ' बहुचरा-माता ' का मंदिर गुजरात में है । किन्नर इन्हें अपनी आश्रयदात्री मानते हैं।
भगवान् शंकर का अर्ध-नारीश्वर रूप भी विशेष रूप से पूज्य है। इस रूप को किन्नर अपना आश्रयदाता मानते हैं।
किन्नर और रामायण -
भगवान् राम जब वनवास जा रहे थे तो किन्नरों का समूह उनसे प्रेम-वश उनके पीछे-पीछे आने लगा । भगवान् राम ने उन्हें रोककर समझाया और वापस जाने के लिए कहा । १४ वर्ष बाद जब भगवान् राम वापस अयोध्या लौटे तो उन्होंने , उन किन्नरों को उसी स्थान पर पाया। इस पर प्रसन्न होकर श्रीराम ने किन्नरों को आशीर्वाद देने के सामर्थ्य का वरदान दिया। और तभी से किन्नर समुदाय , ख़ुशी के अवसरों पर पहुंचकर आशीर्वाद देते हैं।
किन्नर और महाभारत -
महाभारत युद्ध के पहले ' अरावानी ' माँ काली को अपने रक्त की बलि देता है और उनसे पांडवों की विजय का वरदान मांगता है। इसी अरवानी से भगवान् कृष्ण ने ' मोहिनी ' का रूप रख कर विवाह किया ।
दक्षिण भारत में किन्नर इन्हीं के कारण अरावन कहलाते हैं। तथा इन्हें अपना प्रोजेनिटर [ पूर्व-पुरुष] मानते हैं। तामिलनाडू में अप्रैल-मई के महीने में १८ दिन तक ये अरावन-त्यौहार मानते हैं , जिसमें शरीक होने के लिए देश -विदेश से किन्नर आते हैं। इस त्यौहार में ये अरावन-कृष्ण विवाह मनाते हैं फिर अगले दिन अरावन की मृत्यु का शोक मानते हैं। इश्वर से ये प्रार्थना करते हैं की अगले जन्म में इन्हें किन्नर न बनाएं।
अपील -
किन्नर इतने दुःख दर्द झेलते हैं फिर भी ये स्त्री एवं पुरुष से द्वेष नहीं रखते। हमारा भी ये नैतिक एवं सामाजिक दायित्व है की हम अपने किन्नर भाई-बहनों के लिए सोचें और उन्हें उनके अधिकार दिलाने में मददगार हों।
- यदि किसी अवसर पर किन्नर हमारे घर आते हैं , तो सम्मान के साथ पेश आयें।
- जितना संभव हो शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार में इनकी मदद करें।
- कानून में इन का साथ दें।
- इनकी भावनाओं को समझें, और मित्रवत रहे।
आभार ।
96 comments:
आम जनता के मन में किन्नरों के प्रति पहले काफ़ी सम्मान था, लेकिन पिछले कुछ समय से जबसे इन लोगों में भी "नकली" और "फ़र्जी" किन्नर घुस आये हैं, उससे इन लोगों के प्रति सहानुभूति खत्म होती जा रही है। ट्रेनों में जबरन पैसे वसूलना, बच्चे के जन्म के अवसर पर अश्लीलता परोसना, शादी-ब्याह में अतार्किक माँग रखना और फ़िर गालीगलौज करना, इत्यादि कारणों से अब लोग किन्नरों से या तो खौफ़ खाने लगे हैं या आक्रोशित होने लगे हैं…
जबकि मुझे अच्छी तरह याद है कि हमारे बचपन में (यानी आज से लगभग 35-40 साल पहले) लोग बच्चे के जन्म और शादी में खुद इन्हें निमंत्रण देकर बुलाते थे, और इनकी विशेष दुआ को परम सौभाग्यशाली माना जाता था… पर अब ज़माना बदल गया है…
लाजवाब...दिलचस्प पोस्ट..आपकी अपील विचारणीय है
दिव्या जी ,
किन्नर को विषय बना कर मेरे द्वारा लिखी पढी गई कुछ बहुत बेहतरीन पोस्टों में से एक है आपकी ये पोस्ट । और एक एक लफ़्ज़ से सहमत ..बांकी सुरेश भाई ने बहुत सी बातें काबिले गौर लिख ही दी हैं । मगर जब किन्नरों का ज़िक्र सुनता हूं तो मुझे मध्यप्रदेश की याद आती है ..जहां पर न सिर्फ़ शबनम मौसी बल्कि उन जैसे कई किन्नरों ने पूरे संसार को दिखा दिया कि ....किन्नर ..पुरूष महिला से कहीं बेहतर इंसान हैं .....उनके लिए कोई अपना पराया नहीं ..यही दर्द भी है उनका और शायद दवा भी । बहुत ही सार्थक पोस्ट
आपकी अपील विचारणीय है
किन्नरों के बारे में मेरी जानकारी काफी कम है आप डाक्टर है और आप ने काफी विचार क्या है उन पर संभवतः आप मेरे कुछ सवालो का जवाब दे सके |
१- क्या किन्नरों के हाथ पैर में इतनी ताकत नहीं होती है की वो एक आम इन्सान की तरह मेहनत मजदूरी कर सके |
२- क्या उनको दुसरे आम लोगो से कम बुद्धि होती है क्या वो सामान्य लोगो की तरह पढ़ लिख नहीं सकते है |
३- क्या किन्नरों को सभी को ये बताना जरुरी है की वो किन्नर है |
४- क्या लोग नौकरी देते समय ये बात पूछते है की कही आप किन्नर तो नहीं है |
५- क्या उनका नाचना गाना उनके किन्नर होने के कारण अपने आप होने लगता है या वो खुद ये करते है |
६- क्या लोग उन्हें नाचने गाने के लिए मजबूर करते है |
७- क्या सारे किन्नर बस यु ही नाचते गाते और दूसरो को शुभकामनाये दे कर पैसा कमाते है |
८- क्या वो दुसरे आम गरीब इन्सान की तरह कोई काम नहीं कर सकते है |
९- क्या एक सामान्य जीवन जीना उनके लिए गुनाह है क्या घर्म शास्त्र उन्हें ये करने के लिए कहते है |
१०- क्या पुरुष के रूप में जन्म लेने वाला किन्नर और स्त्री के रूप में जन्म लेने वाले किन्नर अपना लिंग कही पर स्त्री या पुरुष लिखते है तो वो कानून गलत होगा | ( जहा तक मुझे पता है की अदालत से साफ किया है चुनाव के परिपेक्ष में की यदि कोई सिट महिला आरक्षित है तो पुरुष के रूप में जन्म लेने वाला किन्नर उस सिट से चुनाव नहीं लड़ सकता है मतलब की कही ना कही कानून ने उनका लिंग निर्धारित कर दिया है शारीरिक रूप से वो जिस रूप में है उसके आधार पर मानसिक रूप से वो क्या है ये अलग मुद्दा है |)
मुझे नहीं लगता है की वो किसी भी रूप में इतने कमजोर या दया के पात्र है की वो एक सामान्य जीवन ना जी सके समाज के किसी प्रचलन को वो बड़ी आसानी से तोड़ सकते है हम आधुनिक जीवन में देख सकते है की कई लोग अपने इस पहचान को खुले रूप में स्वीकार करते है और एक सम्मानित काम भी कर रहे है | मुझे लगता है की ज्यादातर ( सभी नहीं ) ऐसा आसन जीवन खुद चुनते है | कई बार तो मैंने ट्रेन या ट्रैफिक सिग्नल पर किन्नर का रूप धरे कई पुरुषो को भीख मागतेदेखा है मुंबई में तो ये काफी आम है | उन लोगो को कई बार पुलिस ने पकड़ा है और कई बार तो खुद किन्नरों ने उनको जम कर पिटा है |
बेहतरीन विषय और एक उपयोगी लेख ! शुभकामनायें डॉ दिव्या !
अंशुमाला जी के बात से शत-प्रतिशत सहमति रखता हूँ..
# मुझे नहीं लगता कि वो शारीरिक या मानसिक तौर पर इतने कमजोर होते हैं कि एक सामान्य जीवन व्यतीत ना कर सकें...
# वो भी एक आम इंसान कि तरह पढ़ लिख सकते हैं और एक सुखद और सम्मानित ज़िन्दगी व्यतीत कर सकते हैं, उनहोंने अपनी यह छवि जान बुझकर बनायीं है..
# और अगर सवाल है वैवाहिक जीवन का तो अगर आज कल पुरुष पुरुषों से और स्त्रियाँ स्त्रियों से शादी कर रही हैं तो ज्यादा परेशानी उन्हें भी नहीं होनी चाहिए...
# हालाँकि मुझे उनकी मनःस्थिति से सहानुभूति है, लेकिन मुझे अच्छा लगेगा अगर वो भारत के सफल नागरिक बनकर देश का नाम ऊँचा करें ना कि ट्रेनों, सड़कों में आम जनता को परेशान करके मुफ्त के पैसे कमाएं....
# उनके सामने एक बहुत अच्छा उदाहरण शबनम मौसी का है, जिन्होने ना सिर्फ राजनीति में कदम रखा बल्कि सफल भी हुई...
विचारणीय लेख.
दिव्या जी आपसे एक गुजारिश है, कृपया अपने ब्लॉग का समय ठीक कर लें...उसे या तो GMT करें या फिर IST ... इससे टिप्पणी पढने वालों को सुविधा होगी...
यदि होता किन्नर नरेश मैं,
राजमहल में रहता।
सोने का सिंघासन होता ,
सर पर मुकुट चमकता .......
Bandijn gun gatey rhtey drwajey pr merey....
behtrin prastuti hetu abhaaaar
बहुत ही सुन्दर लेखन, बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत ही अच्छा और कुछ नई जानकारी देता हुआ आलेख.
शुक्रिया.
.
@ anshumala said...
@ Shekhar Suman said...
यदि आप आशुतोष राणा की बेहतरीन फ़िल्म ’ शबनम मौसी ’ देख सकें,
तो इनके मानवीय भावनाओं और इनके मध्य पल रहे ’ मकड़जाल ’ को बहुत नज़दीक से देख पायेंगे !
लगभग यही सवाल सेरेना नन्दा ने भी अपनी किताब में उठाया है, पर मैंनें उठाया नहीं !
चुँकि मसला बिसमिल्लाह रहमानुर्रहीम नुक्तियात का जो था ।
किन्नरों के बारे में बहुत ही विस्तृत विश्लेषण...यह सच है की किन्नर भी इंसान हैं और समाज में उन्हें उनका उचित स्थान मिलना चाहिए. लेकिन आज जो उनकी स्थिति है उसके लिए वे स्वयं भी ज़िम्मेदार हैं. उनका गालीगलौज भरा अशिष्ट व्यवहार उनके प्रति आज नफरत का मुख्य कारण है. बहुत सुन्दर और विषद पोस्ट...आभार..
मुझे लगता है की किन्नर लोगों को मुख्य धारा से जोड़ना सारे सवालो का जवाब होगा , वैसे अंशुमाला जी ने अच्छे प्रश्न उठाये है , अच्छी पोस्ट .
@anshumala & shekhar suman,ashish
क्या आप ने कभी अपने इन सवालों के उत्तर तलाशने के लिये दिव्या बहन की लिखी पिछली एक पोस्ट पर करी टिप्पणी में दी हुई लिंक पर जाने की जहमत करी थी वैसे तो आप एक ब्लॉग पर कौतूहल वश छह घंटे लगातार बैठने की क्षमता रखते हैं।
दिव्या बहन को सादर ये बताना है कि हमारे जैसी शारीरिक स्थिति के लिये किन्नर,वानर,नर आदि जैसे शब्द उचित नहीं हैं बल्कि भाई डॉ.रूपेश श्रीवास्तव जी का दिया शब्द "लैंगिक विकलाँग" ही सर्वथा उचित है, किन्नर शब्द मूर्ख मीडियाकर्मियों द्वारा प्रचारित कर दिया गया है, किन्नर शब्द तो हिमाचल प्रदेश के किन्नौर के लोगों के लिये प्रयुक्त होता है जैसे पंजाब के लोगों के लिये पंजाबी आदि; हमें आप मानव यक्ष,गंधर्व,किन्नर सब मानते हैं पर सामान्य इंसान नहीं वैसे पुराने गृन्थों में किन्नर उपदेवता माने गए हैं जिनका राज्य हिमालय के आसपास के क्षेत्रों में हुआ करता था। शबनम मौसी हों या लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ये मात्र हमारे वैसे ही नुमाइन्दे हैं जैसे कि राजनेता आम जनता के होते हैं। क्या किसी बच्चे की गुमशुदगी की रिपोर्ट इतिहास में आजतक दर्ज करायी गयी जो कि लैंगिक विकलाँग रहा हो?????? लोग कहते हैं हिजड़े बच्चे को ले गये अरे कुतिया के बच्चे को उठाने पर वो काट लेती है धिक्कार है समाज के डर से दबे वो लोग जो खुद अपने बच्चों से पिंड छुड़ा लेते हैं और फिर कहानियाँ गढ़ते हैं। आप में ही से किसी के परिवार में जन्मी हो सकती हूँ मैं और मेरे जैसे बच्चे। जाइये और हमारे ब्लॉग अर्धसत्य पर देखिये, डरिये मत वहाँ जाने से आप हिजड़े न बन जाएंगे।
दिव्या बहन साधुवाद स्वीकारिये।
.
अंशुमाला जी,
एक डाक्टर के नाते नहीं बल्कि इस समाज की एक संवेदनशील स्त्री होने के नाते जितना जानती हूँ या महसूस करती हूँ, उसके आधार पर आपके प्रश्नों का यथोचित उत्तर देने का प्रयास करुँगी।
* उनके हाथ परों में ताकत तो आम इंसान की ही तरह होती है , लेकिन अफ़सोस तो ये है की उनके दुःख दर्द समझने की ताकत आम-इंसान में नहीं होती।
* वो सामान्य लोगों की ही तरह बुद्धिमान होते हैं, लेकिन अफ़सोस तो इस बात का है की सामान्य कहा जाने वाला इंसान उनकी बुद्धि का आंकलन उनकी टांगों के बीच उपस्थित जननांगों से करते हैं। दुःख को आम इंसान की बुद्धि पर होता है।
* किन्नर कभी ये बताने नहीं आये की वो किन्नर हैं । वो हमसे सहानुभूति मांगने कभी नहीं आये। लेकिन एक इंसान के संवेदनशील मन को ये समझना चाहिए की वो किन्नर हैं , जो पैदायशी बहुत सी खुशियों और प्रकृति के उपहारों से वंचित हैं।
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* लोग पूछते नहीं हैं। बल्कि लोगों को अपनी तरफ से ये कोशिश करनी चाहिए की कुछ नौकरी समाज में उपेक्षित इस समुदाय को भी मिल जाए।
* नाचना गाना कोई स्वेच्छा से नहीं करता , बल्कि किन्नरों को जीवन यापन के लिए , जब अन्य कोई मार्ग नहीं दीखता , तब लाचार होकर वे इस मार्ग का चयन करते हैं। और यहाँ भी उन्हें उपेक्षा एवं तिरस्कार ही मिलता है।
* वे भी पढना चाहते हैं, अछि नौकरी करना चाहते हैं। बहुत से किन्नर तो बेहद पढ़े लिखे हैं , तथा कई भाषाओँ का ज्ञान भी रखते हैं , लेकिन समाज में उनके प्रति उपेक्षा का ही भाव है। उनके साथ हर क्षेत्र में भेद भाव किया जाता है। कानून से भी उन्हें कोई सुरक्षा या अधिकार नहीं प्राप्त हैं।
* सामान्य जीवन उनके लिए गुनाह नहीं है , बल्कि उनके लिए एक कभी न पूरा होने वाला एक सपना है।
* कभी किसी किन्नर से पूछिए की वो कितना छटपटाता है संसार में बिखरी हुई अनंत खुशियों में से दो बूँद अपनी झोली में समेटने के लिए।
कुछ तो प्रकृति ने उनके साथ अन्याय किया है और बाकी कसर पूरी की है सामान्य कहे जाने वाले असंवेदनशील समाज ने । यदि बच्चे , स्त्री, पशु एवं अल्पसंख्यक दया के पात्र हैं , तो फिर किन्नर क्यूँ नहीं , जिनके साथ प्रकृति ने ही खुला अन्याय किया है ।
सामान्य इंसान प्राकृतिक रूप से भी उनसे बेहतर है और सक्षम है । कानून एवं समाज भी हमारे साथ है। इसलिए जो सक्षम है, उसका नैतिक और मानवीय दायित्व है की वो अपने से कमतर का साथ दे और उसे भी इज्ज़त की जिंदगी बसर करने का एक मौका दे।
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मनीषा बहन -
किसी को विकलांग कहने में मुझे असहज लगता है इसलिए किन्नर शब्द का प्रयोग किया है , जिसके लिए अपनी पोस्ट पर पहले ही लिख दिया था। कृपया मेरी असमर्थता को समझें। मैं लैंगिक विकलांग शब्द से सहमत नहीं हूँ।
सादर,
आपकी दिव्या।
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wah....
aapke sambedanshilta ko naman....
pranam.
आपके विचारों और भावनाओं कि कद्र करता हूँ........
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शेखर जी ,
सदियों से स्त्री पुरुष , जो की इश्वर की कृपा से सामान्य हैं , वो भी लम्बे अरसे से अपने हक के लिए निरंतर लड़ रहे हैं, फिर किन्नर , जिन्हें मात्र १६ साल पहले [ १९९४] में मताधिकार मिला, वो इतनी जल्दी कैसे सब कुछ कर सकते हैं। वो अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। विषम परिस्थितियों में रहते हुए भी हमसे मदद नहीं मांग रहे । अपनी नियति को स्वीकार करने के साथ साथ वो अपना जीवन यापन और हपने हक के लिए लड़ रहे हैं। सामाज का अंग होने के कारण हमारा भी ये दायित्व है की हम उनकी लड़ाई में शामिल हों तथा उन्हें उनके अधिकार दिलाने में मददगार साबित हों।
युगों लगते हैं जब कोई गांधी पैदा होता है । हम अपने बच्चों से सीधे ये नहीं कह सकते की गांधी बन जाओ। उपदेश देना बहुत सरल होता है। हमारा प्राथमिक कर्तव्य ये है की हम उनकी ऊँगली पकड़कर पहले उन्हें चलना सिखाएं। जब हमारे बच्चे मजबूत और समझदार हो जायेंगे तो खुद ही अच्छे बुरे का निर्णय ले लेंगे।
गांधी जी, नेताजी, और शबनम मौसी बनना इतना आसान नहीं है।
क्या सामान्य इंसान में से कोई उनका मौसी और मौसा बनकर उनके अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकता ? क्या उनकी मदद के लिए पहले हिजरा बनना होगा ?
मदर टेरेसा ने तो सेवा करते समय ये नहीं कहा की - " क्या तुम्हारे हाथ-पैर नहीं है , अपनी देख-भाल खुद करो "
जब सेवा भाव होता है मन में तो व्यक्ति निःस्वार्थ हो जाता है , और फिर वो इन अनावश्यक प्रश्नों से दूर हो जाता है की क्या तुम्हारे हाथ पैर नहीं हैं क्या ?, क्या तुम्हें काम करते शर्म आती है ?, क्या और गरीब लोग नहीं ?
सेवा भाव और मददगार लोग प्रश्न कम करते हैं । सिर्फ मदद करते हैं।
..
बहुत अच्छा आलेख |कभी कभी हमारी दया ,सहानुभूति भी इन लोगो कुछ न करने का कारण बन जाती है |आजकल हर चीज का गलत उपयोग ज्यादा हो रहा है इसलिए इन पर अब दया दिखाना लोगो ने छोड़ दिया है |लोग डरने लगे है इस कारण जिन लोगो की हम मदद कर सकते है जिसके वे हकदार है समाज में दूसरो की बेईमानी के कारन उनसे वंचित हो जाते है |
फिर भी उन्हें शिक्षा ,चिकित्सा और व्ही सब बुनियादी चीजो का उतना ही अधिकार है जितना हम सबको |इसके लिए दया के साथ साथ उनकी क्षमताओ के आधार पर योजना बनाकर कार्य करने की आवश्यकता है |
मेरी किन्नरों के विषय में जानकारी बहुत सीमित है पर आपकी अपील के सम्बन्ध में कहना चाहूँगा की ट्रेनों में पैसे उगाहने के लिए जिस तरह की अभद्र हरकतें किन्नरों द्वारा की जाती है उससे भी इनके विषय में नकारात्मक प्रभाव ही लोगो के मन में बढ़ रहा है . अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान परिवार के साथ यात्रा कर रहें लोगो को कुछ किन्नरों की वजह से शर्मिंदा होते देखना बहुत ही दुखद था .
विचारणीय आलेख।
दिव्या जी
मै ने भावनाओ और उनके दुख पर कोई सवाल उठाया ही नहीं है | मेरे कहने का अर्थ बस इतना है की प्रकृति ने उन्हें बस एक शारीरिक काम करने से अक्षम रखा है बाकि शारीरिक और बौद्धिक रूप से वो सभी काम कर सकते है जो दूसरे सामान्य लोग कर सकते है कम से कम पैसे कमाने के लिए और आर्थिक रूप से सामान्य जीवन जीने के लिए वो सक्षम है |
@यदि बच्चे , स्त्री, पशु एवं अल्पसंख्यक दया के पात्र हैं , तो फिर किन्नर क्यूँ नहीं ,
आप खुद कह रही है की बहुत सारे आम इन्सान भी उनकी तरह या उनसे कही ज्यादा दया के पात्र है तो फिर वो भी तो आम इन्सान ही हुए ना | मुझे नहीं लगता की किन्नर होना उनके माथे पर लिखा है अगर उन्हें लगता है की लोग उनका मजाक उड़ा सकते है तो वो बड़ी आसानी से उसे छुपा सकते है और सामान्य तौर पर रह सकते है क्या आप ने या हमने किसी से मित्रता करते समय उससे परिचय बढाते समय ये पूछा है की भाई आप किन्नर तो नहीं हो | यदि वो सामान्य रूप से रहे तो उनके आस पास वाले उनसे वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसे वो दूसरे सामान्य लोगों के साथ करते है | अब तो कोर्ट ने इजाजत दे दी है वो जिसके साथ चाहे क़ानूनी तौर पर रह भी सकते है सम्बन्ध बना सकते है | वो तो सेरोगेट मदर की मदद से बच्चे भी पा सकते है कानून बच्चे गोद भी ले सकते है ( जहा तक मेरी जानकारी है ये संभव है ) प्रकृति समाज ने बहुतो के साथ उनसे बड़ी नाइंसाफी की है पर खुद को दया का पात्र बनाने से अच्छा है उनसे लड़ा जाये | ये मेरे निजी विचार है बाकियों के विचार इससे भिन्न हो सकते है |
Great-Great-Great Presentation. LOT OF THANKS FOR THIS TYPE POST
HSahi kaha hai aapne hame kinnaro ko uchit sthan dena chahiye
बहुत ही दिलचस्प और जानकारी भरी पोस्ट है ....
समाज में उचित स्थान ज़रूर मिलना चाहिए इन्हे ....
बहुत अच्छी और जानकारी पूर्ण पोस्ट है मगर द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की जिस कविता से इसे शुरू किया गया है, वह हिजड़ों के संदर्भ में नहीं है। हिमाचल प्रदेश का जिला और प्राचीन रजवाड़ा है किन्नौर, कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह भी इसी राजवंश से हैं। किन्नौर के लोग अब भी हिजड़ों को किन्नर कहे जाने का विरोध करते हैं। इसके लिए लगातार मुहिम भी चलाते रहे हैं। किन्नौर के लोग किन्नर को महाभारत काल की देव जाति बताते हैं। हिमाचल प्रदेश का किन्नौरी सेब सबसे अच्छा माना जाता है।
अब तो अच्छॆ भले मर्द भी किन्नर का भेस धारण करके पैसे कमाने में लगे हैं :)
बहुत अच्छी पोस्ट ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
बड़ा संवेदनशील विषय है । विचारणीय है ।
लेकिन जहाँ आम आदमी की जिंदगी की कोई कीमत नहीं , वहां भला इनकी कौन सोचेगा ।
क्या भारत से बाहर किन्नर नहीं होते ? वो तो आम जिंदगी ही जीते हैं .हमारे यहाँ खुद एक किन्नर ही दूसरे किन्नर को ऐसी जिंदगी जीने पर विवश करता है ..मैंने कितने उदहारण सुने,खुद एक किन्नर ने अपनी आप बीती एक बार हमें सुनाई. माँ - बाप ने इस तरह के बच्चों को किसी तरह छुपा कर रखा पढाया लिखाया योग्य बनाया पर किन्नरों ने ढूंढ निकला और जबर्दास्त्ती ले गए अपने साथ एवं उसी तरह कि जिंदगी जीने पर मजबूर किया.
कमाल का लेख है दिव्या जी। वाकई आंखें खोलता हुआ। एक डॉक्टर होने के नाते आपने स्वास्थ्य जैसे पहलू को भी संजीदगी से छुआ है, जिसपर आमतौर पर कोई चर्चा नहीं मिलती। मनीषा का कमेंट अंदर से झकझोरता है। हम कई बार इनकी ओर कितने संवेदनहीन हो जाते हैं। शुक्रिया दिव्या जी, इस लेख के लिए, इस चर्चा के लिए।
नमन है आपको!
ऐसे विषयों को चुन-चुन कर लाती हैं .. जो हतप्रभ कर देता है।
उस पर इतने शोध के बाद!
आपकी लेखनी है या जादू सोचने को विवश कर देती है, चमत्कारिक शैली, रोचक विश्लेषण, तार्किक परिणति, सार्थक संदेश ! एक पाठक के तौर पर और क्या चाहिए।
हैट्स ऑफ़ तू यू!!!
Ji haa Arjun bhi ek varsh ke agyatwas me VRIHALLA ban kar rahey they,lekin unkey samman me koi kami naa thi aur vey YUDH bhi jitey.
krantiswar.blogspot.com
किन्नर विषय पर आज आपकी एक अच्छी पोस्ट पढने मिली।
हमारे समाज में किन्नरों का मान सम्मान हमेशा से रहा है और गृहस्थ लोग तो बकायदा इनका आशीर्वाद लेते हैं। इनके आशीर्वाद से उनका घर फ़ले फ़ूलेगा, यह मान्यता है। सुरेश भाई का कहना सही है कि नकली किन्नरों ने बहुत धमाल मचा रखा है। हगांमा करके पैसे वसुल करते हैं। जिससे असली किन्नरों का हक मारा जाता रहा है।
हमारे इलाके में भी एक किन्नर हैं जि्न्हें मैं बचपन से जानता हूँ वे जब भी आते हैं तो माता जी उन्हे रुपए और साड़ियाँ आदि दे कर सम्मानित करती है। इनके इलाके बंटे होते हैं और उस इलाके में वही किन्नर जजमानी कर सकता है जिसे किन्नर समाज ने अधिकृत किया है, फ़िर उसका चेला इलाका संभालता है। लेकिन कभी-कभी नकली किन्नर इनके हक पर डाका डालने आ जाते हैं।
सभी किन्नर मुर्गे वाली माता की पूजा अवश्य करते हैं। मुर्गे वाली माता का स्थान हरियाणा के अग्रोहा में हैं। जहाँ प्रति वर्ष मेला भरता है और देश विदेश के किन्नर आते हैं। एक ऐसा ही मेला तमिलनाडू में होता है स्थान का नाम भूल रहा हूँ।
(इस विषय पर मुझे इतनी ही जानकारी है, आपकी पोस्ट से मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई)
आभार
सोचने का बाध्य करता हुआ रोचक आलेख!
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इसकी चर्चा दिनांक 13 अक्टूबर के चर्चा मंच पर भी लगा रहा हूँ!
http://charchamanch.blogspot.com/
ये लोग खुद ही अपने आप को असामान्य मानते हैं अपनी लैंगिक विकलांगता(जैसा वो खुद बताते हैं) को ही अपने रोजगार का एकमात्र बायस मानते हैं और फिर ये भी कहते हैं कि हमें सामान्य माना जाए।कम से कम मेहनत से कमाने में तो किन्नर होना आडे नहीं आ रहा ना।
संवेदनशील, ज्ञानवर्धक आलेख. आभार.
7.5/10
सार्थक / प्रशंसनीय
आदरणीय मनीषा जी,
ऐसा नहीं है कि मैं आपके ब्लॉग पर नहीं गया, वहां काफी समय भी बिताया ...मुझे आप लोगों से कोई निजी बैर नहीं है..आप भी हमारे समाज का हिस्सा हैं.. मुझे आप लोगों को होने वाली परेशानियों का ज्ञान है... मेरा कहना सिर्फ इतना है कि क्या जीवन यापन करने के लिए नाचना गाना ही एकमात्र रास्ता है..... उम्मीद करता हूँ आप मेरी बात समझ रहे होंगी....
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डॉ महेश सिन्हा जी की टिपण्णी -
Dr. Mahesh Sinha - The Election Commission was the first to do it, and the Unique Identification Authority of India (UIDAI) has followed the example - the transgenders of India are finally being recognised by its government.
Enrolment forms of the UIDAI will have a third column - 'T', for Transgender - along with the 'M' and 'F' for Male and Female respectively, so that over a million eunuchs can register their unique identities.
http://in.news.yahoo.com/48/20101012/804/tnl-after-ec-uidai-gives-transgender-ide.html5:52
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दिव्या जी...
जैसा कि अंशुमाला जी ने कहा हिजड़ा शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में जो छवि बनती है वो ट्रेनों में शोर करते, अश्लील हरकतें करते, लोगों से पैसे वसूलते लोगों की ही बनती है, मैं अपने इंजीनियरिंग के दौरान अपने घर बिहार से अपने कॉलेज शिमला जाता था तो ट्रेनों में ना जाने कितनी बार ये परेशानी झेली है... फिर भी मुझे लगता है इन्हें मदद की जरूरत है | लेकिन क्या एक समझदार इंसान इनकी मदद करना चाहेगा. मेरे निजी अनुभव उतने अच्छे नहीं रहे हैं..
सबसे पहले बधाई स्वीकार कीजिए।
आप ने एक रोचक, संवेदनशील विषय पर लिखा है
ऐसे विषय के बारे में कई लोगों को संकोच होता है।
हाँ, आपसे एक बात पर सहमत हूँ।
मनीषाजी इन लोगों को "लैंगिक विकलांग" कहना चाहती हैं और मुझे भी "विकलांग" शब्द पसन्द नहीं है।
ये लोग पुरुष या स्त्री जैसे ही हैं। मन, दिल, हाथ/पैर की शक्ति, उँग्लियों की दक्षता के हिसाब से हमारी बराबारी कर सकते है।
केवल बच्चे पैदा नहीं कर सकते।
अन्धे देख नहीं सकते । क्या हम उन्हें इंसान नहीं मानते?
बहरे सुन नहीं सकते । क्या हम उन्हें इंसान नहीं मानते?
इनकी हालत तो जन्म से अंधे या बहरे और गूँगे लोगों से फ़िर भी अच्छी है।
मेरी राय में सरकार/सामाजिक संस्थाएं को इन लोगों का अभिभावक बनना चाहिए, यदि इनके परिवार के लोगों ने उन्हें त्याग दिया
उनका देखबाल / प्रशिक्षण वगैरह का प्रबंन्ध करना चाहिए।
ये लोग अगर male / female नहीं हैं, तो इनके लिए कोई उपयुक्त लिंग निर्दिष्ट हो।
हम क्यों सोचते हैं कि लिंग केवल दो ही हो?
सरकार / समाज इन लोगों के लिए कोई politically/socially correct नाम के बारे में सोचना चाहिए।
हिजरा, किन्नर, लैंगिक विकलांग, सभी मुझे अच्छे नहीं लगे।
पुल्लिंग/स्त्रीलिंग के बजाय मध्यवर्ती लिंग (intermediate gender) शायद ठीक रहेगा?
या transgender कहना ठीक होगा?
Continued ....
मेरा एक मित्र था जिसने कहा था के यह लोग महिलाओं के होस्टेल में चौकीदारे कर सकते हैं।
रात के समय महिलाओं के लिए टैक्सी/बस चला सकते हैं।
कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में जब या तो महिला होना या पुरुश होना एक बाधा या हैन्डिकैप बन जाता है, वहाँ ये लोग आसानी से फ़िट हो सकते हैं।
पर मैंने नहीं माना। इन लोगों को विकलांग क्यों समझे। यह एक मेन्टल ब्लॉक है।
मेरी राय में सबसे पहले हम इन लोगों को भी साधारण इनसान मानना शुरू कर दें।
इन लोगों को एक अलग प्राणी मान कर हम उनपर नाईंसाफ़ी कर रहे हैं।
इन लोगों को हमारे सभी कामों और प्रक्रियाओं में हिस्सा लेने की छूट होनी चाहिए।
हाँ, इनमें से कुछ लोग रास्ते पर कुछ हरकतें करते हैं जिससे हम सब को घृणा होती है पर क्या साधारण स्त्री/पुरुष भी कुछ और ऐसी ही हरकतें नहीं करते?
हमको चाहिए कि इन लोगों को ऐसी हरकतें करने की आवश्यकता ही न हो।
कैसे? और कौन करेगा यह सब? क्या इन लोगों के लिए भी आरक्षण आवश्यक है?
सोचने के लिए बहुत है अब, और बाद में करने के लिए और भी बहुत है।
एक सामयिक पोस्ट के लिए धन्यवाद
जी विश्वनाथ
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शेखर जी,
जब तक हम परेशान रहते हैं , तब तक किसी के काम नहीं आ सकते। पहले खुद को बेहद मज़बूत करना होना है, मन और आत्मा से शिकायतों को दूर करना होता है, उसके बाद ही हम किसी और के बारे में सोच सकते हैं तथा उन्हें सहयोग कर सकते हैं।
किसी की भी भलाई सोचने के लिए पहले तो उनके प्रति सहानुभूति, फिर प्रेम पैदा करना होता है, तभी कुछ सार्थक प्रयास संभव हो सकता है।
उनसे शिकायत करने वाले और द्वेष रखने वाले तो बहुतेरे मिलेंगे। ज़रा हट के सोचिये तो कोई बात बने।
यदि हम उनके ट्रेन में व्यवहार से या फिर पब्लिक में , या फिर उनकी भाषा से आहत होते है तो क्या " टिट फार टैट " का फार्मूला अपनाना चाहिए या फिर उन्हें समझने का प्रयास करना चाहिए की वो ऐसा क्यूँ कर रहे हैं । कोई भी इंसान जब एक लम्बे अरसे तक कठिनाइयों व तनाव के बीच रहता है तो उसका व्यवहार प्रायः ऐसा ही हो जाता है।
किसी भी समुदाय में रिफार्म लाने के लिए , हमें सबसे पहले अपने दिल को बड़ा करना पड़ेगा , जिसमें सामने वाले का दोष कहीं , किसी कोने में छुप जाये और हम बिना किसी अड़चन के निस्वार्थ भाव से उसकी सेवा अथवा मदद कर सकें।
आभार।
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एक संवेदनशील मुद्दे पर सामयिक आलेख. दो-तीन बार पढ़कर फिर कई बार इस पर सोचना पड़ेगा..
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पाठकों की जानकारी के लिए--
प्राचीन काल में -- किन्नर।
हिंदी तथा उर्दू में -- हिज्र
उर्दू में -- खसुआ या खुसरा
तेलगु-- नापुन्साकुडू
तमिल -- थिरुनान्गायी
तमिल--अरावनी।
पंजाबी--खुसरा या जन्खा ।
गुजरती-- पवैय्या
उर्दू-- ख्वाजा सिरा
इंडिया--कोथी
थाईलैंड -- कथोय
कोलकाता--दुरानी
कोचीन - मेनका
पकिस्तान --ज़ेनाना
अंग्रेजी -- Ambigender, Androgyne, Bigender, Bisexual, Cisgender, Cross dresser, Drag queen, EUNUCH, Genderqueer, Hermaphrodite, Inter Gender, Third gender, Transgender, Transvestite and Intersex.
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मेरा निजी अनुभव--
यहाँ थाईलैंड में हर जगह , हर मॉल में 'कथोय' , सामान्य स्त्री पुरुषों की तरह जीवन यापन करते हैं। पहनावे और बिहेवियर में कोई असमानता नहीं दिखती। इनके साथ किसी प्रकार का भेद भाव नहीं किया जाता।
काश हमारे देश में भी ऐसा हो सके ।
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दिव्या जी,
क्या कहूं सच में उतना बड़ा दिल नहीं है मेरा...कोशिश करता हूँ कि दूसरों कि मदद करूं, लेकिन मैं खुद बहुत बुरे मानसिक दौर से गुजरा हूँ...आज भी अपने वजूद को तलाश रहा हूँ, अपनी पहचान बनाने कि कोशिश में हूँ... आप मुझे ज़िन्दगी में अब तक पूरी तरह असफल इंसान कह सकती हैं...फिर भी संघर्ष अनवरत जारी है...ऐसे में मैं भला दूसरों की क्या मदद करूं..खैर, कोशिश करता रहूँगा...
अंशुमाला,शेखर सुमन आदि जैसे भाई बहनों से एक निजी सवाल दिव्या बहन की इस पोस्ट के चलते कि क्या निजी तौर पर उन्होंने अब तक इस तरह के लोगों के जीवन में झांकने का प्रयास करा है अथवा कभी किसी नौकरी के फ़ॉर्म को देखा है जिस पर साफ़ लिखा रहता है Gender Male/Female चलिये पतलून या साड़ी पहन कर छिपा भी लिया लेकिन मेडिकल परीक्षा का क्या करेंगे जो कि दिव्या रूपेश(मेरी लैंगिक विकलाँग पुत्री) ने रेल्वे में सहायक चालक के पद पर उत्तीर्ण होने के बाद भी पास न कर पायी। एक चिकित्सक होने के नाते से बता दूँ कि देह में जब जननाँगों से संबद्ध हार्मोन लड़खड़ाए रहते हैं तब आप अंदाज नहीं लगा सकते कि आप क्या सोचेंगे और करेंगे। आप किस समाज में रहते हैं जो इतने सहज भाव से कह रहे हैं कि आप भी हमारे समाज का हिस्सा हैं? यदि आप साहस करके मनीषा दीदी के ब्लॉग पर गए हैं तो कभी अपनी उपस्थिति कमेंट बॉक्स में दर्शा कर जो जीविकोपार्जन का सवाल उठा रहे हैं उस जगह उठा कर देखते तो जरूर जवाब मिलता। राजन जी से एक ही सवाल कि आप अपनी बिल्डिंग में वाचमैन/अपने भाई-बहन का ट्यूटर किसी हिजड़े के रखना पसंद करते हैं। मैं आपको वचन देता हूं कि आप रोजगार दिलवाइये मैं मुंबई के कई हजार हिजड़ों की तरफ़ से वादा करता हूं कि वे नाचगाना/देहव्यवसाय करना बंद कर देंगे।
शिखा वार्ष्णेय जी बताएं कि जो कथा वे सुना रही हैं उस कथा के माता-पिता ने उन अपहरणकर्ता हिजड़ों के खिलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट करवाई क्या इस बात की उन्हें जानकारी है??? नहीं होगी।
दुःख के साथ कह रहा हूं कि अधिकाँश टिप्पणी करने वालों को किन्नरों से नहीं आपके लेखन से सरोकार है सभी का धन्यवाद।
लैंगिक विकलाँगता उनकी दैहिक स्थिति की व्याख्या के लिये है पुकारने का संबोधन नहीं जैसे कि अंधे को अंधा या काने को काना नहीं कहते आशा है कि दिव्या बहन मनीषा दीदी का आशय समझेंगी। किन्नर या वानर कह देने से उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं आ जाता। दूसरी बात कि अंशुमाला जी के निजी विचारों के चलते मेरी नजरों में वे भी दया की पात्र हैं क्योंकि वे जमीनी सच्चाईयों से कोसों दूर हैं।
साधुवाद स्वीकारें,ढकोसलेबाज टिप्पणीकर्ता धीरे-धीरे आपके पत्रा से गायब होते जाएंगे। मनीषा दीदी को साधुवाद इस बात के लिये कि वो ब्लॉग संसार में मुझसे अधिक सजग हैं और मुझसे पहले टिप्पणी कर गयीं।
दिव्या बहन उर्दू में इन बच्चों को मुखन्नस कहा जाता है।
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शेखर जी ,
मेरी शुभ-कामनाएं आपके साथ हैं।
और हाँ पहले मेरी मदद कीजिये। तकनिकी रूप से बहुत कमज़ोर हूँ। ब्लॉग पर टाइम कैसे सेट करते हैं कृपया बताएं।
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न केवल किन्नरों आत्मसम्मान के अधिकारी हैं पर Trans-gendered – सेक्स परिवर्तित पुरुष या स्त्री एवं वह युवतियां भी जो लड़के के शरीर में कैद थी।
@ divya ji..
go to your blogger homepage, then go to setting, then formatting and then u will see there time zone...
plz correct...thankz...
वर्तमान में किन्नर समुदाय को सामान्य समुदाय से पृथक एक विशेष समुदाय के रूप में देखा जाता है। ऐसा समुदाय बनाने में सामान्य समुदाय के माता-पिता और किन्नर समुदाय दोनों की भूमिका है। मेरी मान्यता है कि ऐसे व्यक्ति भी पढ़-लिख कर समाज में प्रतिष्ठित स्थान अर्जित कर सकते हैं। मैं ऐसे तीन व्यक्तियों के बारे में जानता हूं जो स्त्री या पुरुष नहीं है और वे प्रथम श्रेणी की राजपत्रित अधिकारी रही हैं-उनकी पहचान महिला के रूप् में रही है। वे सामान्य मानव की तरह अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही हैं। सामान्य समाज में भी वे सम्मान की नजरों से देखी जाती हैं। स्वाभाविक है, उनका विवाह नहीं हुआ है और वे अपने माता-पिता के साथ रह रही हैं। ऐसे ही और न जाने कितने व्यक्ति होगे जो माता-पिता के सहयोग से सामान्य समाज में घुल-मिल कर रह रही या रहे हैं।
आपने अपने लेख के अंत में जो अपील की है, उसके स्थान पर मैं इस तरह की अपील करना चाहूंगा-
1. माता-पिता अपने किन्नर संतान को किन्नरों को न सौंपें बल्कि उनका लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा एक सामान्य संतान की तरह करें।
2. किन्नर समुदाय से प्रार्थना है कि वे इस तरह के संतान को उनके माता-पिता से न मांगें, उन्हे उनके माता-पिता के साथ रहकर प्रतिष्ठित जीवन जीने का आशीर्वाद दें।
3. समाज के अन्य लोग उपर्युक्त दोनों अपीलों को क्रियान्वित करने में सहयोग करें।
4. शासन से अपेक्षा है कि चिकित्सकीय परीक्षण के पश्चात इन्हें विशेष लिंगी होने का प्रमाण पत्र देने तथा शासकीय सेवा में आरक्षण की सुविधा प्रदान करे।
उपर्युक्त अपीलों पर यदि अमल किया जाता है तो 25-30 वर्षों में किन्नर समुदाय की पृथक और उपेक्षित स्थिति समाप्त हो जाएगी और वे समाज की मुख्य धारा के साथ सम्मानपूर्वक जीवन-यापन कर सकेंगे।
divya ji,
ek bahut hi aham vishhay par aapne post likhi hai,jokivacharniy hone ke saath-saath sarahniy bhi hai.
hammari soho ko marg darshan deta hua ek mahatvpurn prastuti-karan.
bahut hi prabhavshali.
poonam
रुपेश जी ,
मैं जानता हूँ चीजें उतनी आसान नहीं होतीं जितनी हमें दिखायी देती हैं|सच में, मैं उनकी परेशानियों के बारे में सिर्फ सोच सकता हूँ, उन्हें महसूस नहीं कर सकता... असल मायने में किसी के ऊपर क्या गुजर रही है यह सिर्फ वही जान सकता है..|
खैर अब ज्यादा क्या कहूं उम्र में आप लोगों से काफी छोटा हूँ, अभी भी ज़िन्दगी के अनुभवों से काफी कुछ सीखना है...
आप भी मेरी उम्र के दौर से गुजरे होंगे इसलिए उम्मीद है आप मेरी बात समझेंगे | बहुत सी ऐसी नौकरियां हैं जहाँ इस तरह की मेडिकल जांच नहीं होती..वैसे आज कल सरकार काफी कुछ कर रही है, सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसले इस सन्दर्भ में सुनाये हैं |
Dearest ZEAL:
I have nothing to write on societal debris like eunuchs.
You might have spent so many valuable hours on google to get the stuff.
Wish it was for .......
Arth Desai
DOCTER, I SHYAM JUNEJA SALUTE YOU...
kinnron ke liye aapki manviya samvednaein prashansniya hain.
smaj janit mansik kunthaon ke karan bhi ye log apne jivan ko ninnar smaj tak seemit kar dete hain.
बहुत ही अच्छा और कुछ नई जानकारी देता हुआ आलेख.
शुक्रिया.
रुपेश श्रीवास्तव जी
मैंने अपनी पहली टिप्पणी में सबसे पहले यही लिखा है कि
@किन्नरों के बारे में मेरी जानकारी काफी कम है आप डाक्टर है और आप ने काफी विचार क्या है उन पर संभवतः आप मेरे कुछ सवालो का जवाब दे सके |
यहाँ दिव्या जी को डाक्टर इसीलिए कहा गया है कि वो ज्यादा अच्छे से उनकी शारीरिक समस्याओ कि बात कर सकती है |
@१०- क्या पुरुष के रूप में जन्म लेने वाला किन्नर और स्त्री के रूप में जन्म लेने वाले किन्नर अपना लिंग कही पर स्त्री या पुरुष लिखते है तो वो कानून गलत होगा | ( जहा तक मुझे पता है की अदालत से साफ किया है चुनाव के परिपेक्ष में की यदि कोई सिट महिला आरक्षित है तो पुरुष के रूप में जन्म लेने वाला किन्नर उस सिट से चुनाव नहीं लड़ सकता है मतलब की कही ना कही कानून ने उनका लिंग निर्धारित कर दिया है शारीरिक रूप से वो जिस रूप में है उसके आधार पर मानसिक रूप से वो क्या है ये अलग मुद्दा है |)
मैंने क़ानूनी रूप से भी उनसे पूछा है और साफ लिखा है कि मानसिक रूप से वो क्या है एक अलग मुद्दा है | लेकिन मुझे जैसे ही लगा कि मेरी बातो का कुछ गलत मतलब निकला जा रहा है मैंने अपनी दूसरी टिप्पणी में साफ कर दियाकि
@ मै ने भावनाओ और उनके दुख पर कोई सवाल उठाया ही नहीं है |
आपने कहा कि मै दया कि पात्र हु मैंने तो पहले ही कहा दिया है कि सभी दया के पात्र है फिर वो हिम्मत क्यों हार रहे है | ये सवाल आज से २० वर्ष पहले उठता तो हम कह सकते थे कि वो हमारे दवा के पात्र है पर अब नहीं जबकि कई लोग खुले आम इस बात को स्वीकार करके एक सामान्य जीवन जी रहे है |
@प्रकृति समाज ने बहुतो के साथ उनसे बड़ी नाइंसाफी की है पर खुद को दया का पात्र बनाने से अच्छा है उनसे लड़ा जाये |
मैंने तो उन्हें सभी से लड़ने कि प्रेरणा देने का प्रयास किया है दया दिखा कर और कमजोर बनाने की नहीं | अभी हाल ही में एक टैलेंट शो में एक मुश्किल से १५ साल का लड़का जो पोलियो ग्रस्त था एक सामान्य लड़की से योग में कम्पटीशन करने आया था और उसने पहले ही साफ कर दिया की आप सभी मुझे दया का पात्र समझ कर जज मत कीजियेगा एक सामान्य व्यक्ति ही समझिएगा | ये होता है दुनिया से लड़ने का जज्बा ना की ये की देखो हम दया के पात्र है | मुझे नहीं पता की आप को मेरी किस बात से इतना बुरा लग गया |
उन्हे भी सामान्य जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है।
बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है ये आलेख...
और टिप्पणियों में इतना गंभीर चिंतन लेख की सार्थकता का प्रमाण भी दे रहा है...
इस विषय को लेकर राजनेता तो शायद ही कुछ करें...
हां...
स्वयंसेवी संगठन ज़रूर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं...
इस मुद्दे को उठाने के लिए बधाई स्वीकार करें.
सार्थक विचारणीय आलेख. इस विषय पर जानकारी उपलब्ध कराने का आभार.
@रूपेश जी,अपने भाई बहनों के लिये क्यों मैं तो खुद के लिये ही ट्यूटर रखने के लिये तैयार हूँ।अभी तो पढने लिखने की ही उमर हैं मेरी सिर्फ 24+ साल।मैं किसी को भी ट्यूटर या वॉचमैन रखने के लिये तैयार हूँ यदि वह इस लायक हैं तो और वैसे भी यदि कोई मेरे पास इन कामों के लिये आएगा तो उससे मैं ये तो कभी नहीं पूछूँगा कि कहीँ आप हिजडे तो नहीं हैं ?परन्तु आप यह क्यों चाहते हैं कि मैं महज़ उनके किन्नर होने के कारण उन्हे काम दे दूँ?दलित,पिछडे यहाँ तक कि स्थाई रूप से वंचित तबके में आने वाली महिलाऔं तक से ये तो कहा ही जाता हैं कि तुम खुद हिम्मत करो अपने को लाचार मत समझो फिर किन्नरों को ही ऐसी क्या दिक्कत हैं?
Divya ji, undoubtedly your effort is highly appreciable but it's better to listen to Manisha ji.. I think only she can understand that which word is more appropriate for this community. She can better understand their pain... 'Sexually handicapped' is the word that's internationally accepted. Please don't take 'viklang' word as an abuse.. it's right tht it's just media creation actually there is nothing insulting in words like viklang or harijan.
Even Kinnar is a different race and we can not count them as sexually handicapped.
Rest is upto you but in reality we cann't fix kinnar word in this perspective.
Thanks for such a nice post and appeal.
सार्थक पोस्ट और उसपर टिप्पणियां .... कहने को कुछ नहीं रह गया है। निचोड़ यही कि समाज सभी विचारों को एकजुट होकर कुछ करना चाहिए। दरअसल सब एक ही बात कह रहे हैं सिर्फ कहने का अंदाज जुदा है। सबकोई आपकी बात से सहमत हैं बस बात के मायने अलग अलग समझे जा रहे हैं। एक बार फिर साधुवाद
इस्लाम में किन्नरों को बेहतर दर्जा प्राप्त है. इस लिए ये अधिकतर इसी धर्म को अपनाते हैं.
आपकी यह पोस्ट असाधारण रूप से विचारोत्तेजक है और आपकी अपील भी.
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@-- societal debris like eunuchs....
@ अर्थ देसाई-
आपको लज्जा आनी चाहिए , इस समुदाय को 'सामाजिक-कचरा ' कहते हुए।
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@--You might have spent so many valuable hours on google to get the stuff...
सिर्फ कुछ घंटे ? मैंने इसपर कई दिन लगाए हैं इस विषय को पढने और समझने में । बहुत से लोगों से चर्चाएँ की है , इस विषय को समझने के लिए और खुद में बहुत हिम्मत जुटाई है इस विषय को सामने लाने के लिए।
मेरी जानकारी का स्रोत तो गूगल, किताबें और लोगों से चर्चाएँ हैं। लेकिन बहुत से लोगों की जानकारी का स्रोत मैं ही हूँ। बहुत कम लोग होते हैं जो किसी की मेहनत के लिए शुक्रगुज़ार होते हैं, ज्यादातर लोग आप ही तरह बेईज्ज़त करने आते हैं।
आभार।
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@ दीपक मशाल --
जिस बात का जवाब मैं एक बार दे चुकी हूँ, उसे बार-बार उठाने के पीछे आपका क्या मंतव्य हो सकता है , मालूम नहीं । मुझे हिजरा शब्द अपमान-जनक लगता है और किसी को विकलांग कहने के लिए मेरी आत्मा गवाही नहीं देती ।
मुझे जो सहज लगा वो लिखा। शेष आप लोगों की अपनी समझ है , की क्या समझते हैं।
आपको मनीषा दीदी का दर्द समझ आया , इसके लिए ख़ुशी हुई , लेकिन शायद मेरी पिछली पोस्ट पर किसी ने उनकी दर्द भरी आवाज़ नहीं सुनी थी।
एक बात स्पष्ट कर दूँ...सबसे पहले मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनती हूँ...किसी को झूठ-मूठ खुश करने के लिए कुछ नहीं करती ।
किसी को हिजरा या विकलांग लिखना , मेरी आत्मा को कतई उचित नहीं लगता।
आपको यदि उचित लगता है तो आप शौक से कह सकते हैं।
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Dearest ZEAL:
I am not at all ashamed of my strongest denuniciation of the eunuchs.
I do not believe in pretenses. As I am openly appreciative of what I like, I am equally expressive about things I do not like.
The eunuchs are scum in my opinion and I am entitled to my beliefs.
I acknowledge the amount of efforts you have undertaken to assimilate all the information from various sources [not necessarily only Google] and present this post.
But for me, it is futile as I do not think it worthwhile to think on or about them.
I will look forward to your future posts which may stir in me a desire for greater participation.
Arth Desai
.
@ Ethereal infinia--
My posts are meant for normal people , not for sadists like you who come here just to humiliate one and all.
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Dearest ZEAL:
There is no humiliation at all anywhere.
Disagreement of thought never tantamounts to humiliation unless except the writer has a view that all who disagree are here to humiliate the views of the writer.
I let you have your views on things and I stand by my views on them.
Candid expression thereof is deemed to be humiliation, then we are redifining language.
Arth Desai
**
Candid expression thereof if* deemed to be .......
informative and thoughtful post divyaji...
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@ Ethereal --
You are a SADIST !---It's my diagnosis. And you are incurable.
You were the one who pestered me for removing moderation.
You were the one who accused me that only praises are posted here and not the criticism.
But people are not morons, they know very well that every single comment was published here, irrespective of praises and criticism .
Your sadistic approach forced me to remove the moderation and now i will bear your bull shit as well.
You might be waiting for my next post but I do not look forward for for your humiliating comments about fellow readers and about EUNUCHS.
-----------------
I consider your praises as FAKE and I consider your criticism as your frustration.
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This is my last reply to you.
I quit arguing with an incurable SADIST !
Thanks.
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बहुत अच्छा विषय लिया है चर्चा के लिए ....समाज को जागरूक होना चाहिए ...ऐसे लोगों का दोष नहीं है दोष है समाज का जो उनको उचित स्थान नहीं देते ...
ऐसा भी देखा गया है कि कोई माता - पिता अपनी ऐसी संतान को रखना भी चाहें तो इस समुदाय के लोंग ज़बरदस्ती बच्चा उठा कर ले जाते हैं ..
एक घटना आज से करीब ४० साल पहले की बता रही हूँ .. तब मैं स्कूल में पढ़ती थी ...शायद आठवीं कक्षा में ...हमारे साथ एक लडकी थी ..एक दिन अचानक पता चला कि उसने आत्महत्या कर ली ..क्यों ? क्यों कि उसके माता -पिता ने उसे लडकी की तरह पाला था ...इतने सालों तक किसी को नहीं पता था कि वो असामान्य है ..यह बात कैसे खुली यह तो पता नहीं पर जब ऐसे लोगों के समुदाय को पता चला तो उसको लेने आ गए ...और इसी कारण से उस लडकी ने आत्महत्या कर ली ...
आपकी पोस्ट ने मुझे ४० साल पहले का दृश्य दिखा दिया ..
विचारणीय पोस्ट ...
A PERSONAL NOTE:
( I could not help putting it. )
Last night , I heard a Dead Man / Dead Mind speaking from his tomb, In my comment follow up mail inbox.
It would look very personal to point out that it was some Ethereal Element at your end.
His observation for this poor creed, the central topic of this post, Sucks really.
I am shocked and belching, moreover I feel like mourning for him.
What is in a name, be it however ethereal .... Debris.. eah ?
No LaughZ , since I am posting it without an iota of Zmiles !
divya ji aapka prayas sarahniy hai..!
अच्छे आलेख बार-बार पढने का मन करता है।
जथा दरिद्र बिबुध तरू पाई ।
बहु संपति मागत सकुचाई ।
Dear Zeal,
First of all let me appreciate you for bringing up this in your blog / columns. Second of all, without being unfair let me say that people who read such articles that they dont like should not comment at all in the first place...
Now back to my comments :>
HIJRAS/EUNUCHS/TRANS...these are the kind of people who exhibit male/female characteristics and therefore they are neither here nor there..However, when people are born they are born naturally..i mean there is a definite gender there...Anyways, there is no point in digging into the background of the transformation of male/female characteristics..There is mention of eunuch even during the times of Pandavas....But, the fact is that they are human as well. We use a word "HUMANKIND" occassionally..The "KIND" suffix means that HUMAN is supposed to be KIND. By referring to a person in terms of gender or non gender or even age, in my opinion, it is gross discrimination. We talk about "SOUL" and spirituality but never practise what we preach. I think that everybody deserves the same love and respect as everyone else and therefore should be treated kindly. There is no necessity for anyone to elicit favours due to a given background. Having said that, I guess it's a matter of life, living normally and accept all things as they are, without complaining. I could go on and on...but hey zeal, it's a good topic.
mai is poat par kyaa kahoon....... bahut sundar aik bahut vicharniy post...
insaaniyat kaa jajabaa rakhne vale ko categorise (m/f/h )kar according treat karnaa achha nahi hai.. yah baat aapne saaf kahi hai...
Mahila kaA maapdand alag aur pusrush kaa alag aur eunuchs ka alag kyoo .. bhavnao ke aur jarurato me sabki basic jaroorte same hai... Fir mahilaaon ko bhi kai baar prataanaao kaa shikaar hona padta hai.. siksha se bhi pehle jamane me ladkiyo ko siksha kam dee jaati thee ..parda .. sati .. dahej.. banjh ..ladkiyo ko janm dene vali kultaa ..garbh me ladki ki hatyaa... .kya kya nahi saha mahilaaon ne.. ye galat hai jis tarah se usi tarah se "H " keh kar unki bhavnaao ke saath khilvaan karna bhi theek nahi...
Kinto mai yah bhi kehnaa chaungi ki unko bhi swaabhimaan ke liye usi tarah se apne karm karne chahiye... naach ganaa aur kabhi kabhi bahut abhadr baate jo vo kar jaate hai ye unko us stithi se ubarne nahi deti.......is liye Parents ki jimmedari hai ki vo uneh achhe siksha den... achhe sanskaar den...jaise har baccho ko dee jati hai......
आपने हिज(ड़ा) हाइनेस मनीषा का ब्लॉग, अर्धसत्य तो जरूर देखा होगा.
उपेक्षित किरदार किन्नर पर आपका आलेख वाकई सोचने को मजबूर करता है. ये भी हमारे समाज के अंग है हम इन्हे नज़रअन्दाज तो नही कर सकते.
Dearest ZEAL:
As to your comment, all I would say is -
Apni hasti hi se ho jo kuchh ho
Aagaahi gar nahi, gaflat hi sahi
[Aagaahi = Fore-knowledge, Gaflat = Lapse]
Hum bhi taslim ki khuu daalenge
Be-niyaazi teri aadaat hi sahi
[Taslim = Greeting, Khuu Habit,
Be-niyaazi = Independence]
Arth Desai
मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट है । इन दिनो इसी विषय पर एक लम्बी कविता लिख रहा हूँ । सन्दर्भ के लिए इसकी ज़रूरत होगी । चलिये टिप्पणी मे कुछ पंक्तियाँ ही लिख दूँ ...
महाभारत में केवल शिखंडी नहीं थे वे
एक मरते हुए योद्धा की
अंतिम इच्छा पूर्ण करने वाले कृष्ण थे
जिन्होने स्त्री का रूप धारण किया था
जिस देवत्व के प्रमाण में
वे अब भी जी रहे हैं कृष्ण के उस वैधव्य को
*******************
अपनी ध्रुवीय परम्परा में
विरोधाभास लिये पृथ्वी की तरह
वे भी उपस्थित हैं
लिंगभेद के आधार पर नामकरण किये गये
इस बृह्मांड में
उजड़े हुए जंगल में बची हुई बहार हैं वे
टूटे तार लिये खामोश सितार हैं वे
पहाड़ के शिखर तक पहुँच पाने के आनन्द से वंचित
समन्दर की गहराइयाँ न छू पाने को अभिशप्त
रूखा निर्जन समतल पठार हैं वे
समाज के एक वर्ग के प्रति संवेदना जगाता हुआ यह आलेख बहुत अच्छा लगा .मन और बुद्धि से ये भी सामान्य मनुष्य हैं इन को भी समाज के स्वाभाविक सदस्य के रूप में मान्यता दे कर सामान्य जीवन-पद्धति में लाया जाना उचित है .
दिव्या जी ,इस प्रयास के लिये आपकी प्रशंसा करती हूँ .
Hai,
I think most of the eunuchs in India are not born in that way, but are artificially created. I think it is not their mistake but forced upon them in their early life. Now we say that, we do not like them, we do not want to see them. What a pity? This is the real Hippocratic mind of Indians.
The eunuchs are part of our society from ancient time. We need not respect them but at least do not throw stones on them.
Regards,
Sandeep
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