Wednesday, October 19, 2011

पवित्र , पावन , कल्याणकारी क्रोध का महात्म्य --महिषासुरमर्दिनी और ईश्वर चर्चा भाग ११

बच्चों का क्रोध जिद्द होता है, यदि नहीं करेंगे तो उन्हें इच्छित वस्तु नहीं मिलेगी। कहीं प्यार भरा क्रोध होता है (माता-पिता और शिक्षकों का क्रोध)। कहीं आपस में द्वेश्जनित क्रोध होता है। कहीं अहंकार के स्वरुप अनायास ही मन में क्रोध अपना स्थान बना लेता है। कहीं ईर्ष्या क्रोध का कारण होता है जैसे पाकिस्तानी आतंवादियों का क्रोध। समाज में फैली कुरीतियों पर, दीन हीन पर हो रहे अन्याय को देखकर, भ्रष्ट आचरण को देखकर और अपने ऊपर हो रहे शोषण को देखकर भी क्रोध करना नपुंसकता है। .

लेकिन एक क्रोध पवित्र भी होता है , जहाँ क्रोध की अग्नि में भस्म होकर समस्त दैत्य और दानवों का विनाश होता है, क्रोध करने वाले का नहीं। जब-जब जगत में दत्यों और पापियों का प्रादुर्भाव बढ़ा है, तब-तब देवों, संतों और वीरों ने क्रोध करके ही दुष्टों का संहार किया है।

चंड , मुंड, शुम्भ, निशुम्भ, और रक्तबीज जैसे दैत्यों का मर्दन करने के लिए देवी अम्बिका को क्रोध करना पड़ा। रावण की भूल के लिए राम को युद्ध और कौरवों की दृष्टता के लिए महाभारत हुयी।

अतः असुरों के विनाश के लिए और आम जनता की रक्षा के लिए संतों को क्रोध करना ही पड़ता है , कोई अन्य विकल्प नहीं है। क्रोध वीरता का भी प्रमाण है और मनुष्य के अन्दर संचारी भावों का दोत्तक भी है। देशभक्तों में देश की रक्षा के लिए जो अग्नि जलती है , वही गद्दारों को पहचान करके उनसे युद्ध करके देश की रक्षा करती है। यह आक्रोश है देशभक्ति का जज्बा है। जो अनुकरणीय है यह क्रोध वीरों का आभूषण है। यदि यह जज्बा नहीं होगा तो धरती वीरों से विहीन हो जायेगी। सिर्फ उपदेशक बचेंगे और श्रोता। कर्मठ लोगों का अकाल हो जाएगा।

मन करे सो प्राण दे , जो मन करे तो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है
कृष्ण की पुकार है ये भागवत का सार है
की युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो या पांडवों का नीड हो
जो लड़ सका वही तो बस महान है।

आज भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद और नेताजी जैसे संतों के पवित्र क्रोध , जो वीरता से परिपूर्ण है , की आवश्यकता है। चंड-मुंड , रक्तबीज और महिषासुर जैसे दानवों के विनाश के लिए चामुण्डा, काली और महिषासुरमर्दिनी की ज़रुरत है।

हे देवी सर्वभूतेषु , शक्ति (क्रोध) रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नमः

Zeal

61 comments:

Amrit said...

Very well written

SAJAN.AAWARA said...

Bahut sarthak post..
Ab krodh karne ka wakt aa gaya hai,
ye des bachane ka wakt aa gaya hai.
Bahut sah liya ab or sahenge nahi,
ab dusman ka sarwnas karne ka wakt aa gaya hai....
Jai hind jai bharat

प्रवीण पाण्डेय said...

क्रोध में पवित्रता बनाये रखने को गुण को सीखना होगा माँ काली से।

JC said...

'महाभारत' की कथा का अनेक में से एक मात्र शक्तिशाली माना जाने वाला पात्र, सूर्य का प्रतिरूप, धर्नुर्धर अर्जुन 'क्षत्रिय' था, अर्थात राक्षस यानि रक्षा विभाग से सम्बंधित... वर्तमान फौजियों समान, जिनके कार्यक्षेत्र में केवल सीढ़ी नुमा मानव तंत्र में, ऊपर से आये, आदेशों का पालन ही होता है... अपना उससे भिन्न विचार होने पर भी 'जी हुकुम!' ही बोलने का अधिकार...जिसके लिए उसको कई वर्ष प्रशिक्षण दिया जाता है, क्यूंकि यह प्रश्न जीवन-मरण का होता है... यहाँ एक मामूली सी भी गलती हजारों की मृत्यु का कारण बन सकती है...

और, प्राचीन 'हिन्दू', 'ब्राह्मण' अर्थात जिन्होंने मन पर नियंत्रण कर परम ज्ञान (योगेश्वर विष्णु अथवा देवी / शिव अर्थात अमृत कृष्ण अथवा माँ काली) को पहले प्राप्त किया...

और फिर, श्रेष्ठ स्थान पा भारतीयों / संसारियों को चार वर्ण में विभाजित किया - उनके मानसिक रुझान और कार्य क्षमता के आधार पर, इस बदलते हुए, अर्थात परिवर्तनशील प्रकृति / संसार में, जो उनके अनुसार केवल सत्य युग में ही सभी - 'मनु' की संतान - मनुष्यों को लगभग एक ही समान जान गए...

किन्तु अन्य युगों में, प्रकृति / महाकाल शिव द्वारा रचित काल-चक्र के गुणों के आधार पर ज्ञानी और अज्ञानी के बीच की दूरी विशाल से विशालतर होते कलियुग में विशालतम स्तर पर पहुंचना प्राकृतिक है, ऐसा बता गए...

और, क्यूंकि हम आज उस स्तर में हैं जब 'समुद्र-मंथन' आरम्भ हुआ था, और ज्ञान अपने निम्नतम स्तर पर था, और अभी अमृत पाना बहुत दूर था देवताओं के लिए अर्थात 'अल्पसंख्यक' परोपकारी मानव के...
शारीरिक / भौतिक शक्ति अर्थात लक्ष्मी जहां होती है कहते हैं वहाँ सरस्वती निकट नहीं फटकती :)
और, दीपावली में पटाखे बजा उसे डरा कर हम और दूर भगा देते हैं, बाहर की बत्ती जला मन की बत्ती जलाना तो भूल जाते हैं, हम लकीर के फ़कीर :)

दीपावली की सभी ब्लोगरों को शुभ कामनाएं!
(कृपया मन की बत्ती जलाना मत भूलना)!


...

Rajesh Kumari said...

sahi samay par sahi soch ke saath sahi karan me krodh karna tarksangat hai.bahut uttam aalekh.

मनोज कुमार said...

क्रोध या गुस्सा भी रखना बहुत ज़रूरी होता है जीवन संघर्ष में सफलता पाने के लिए, तभी तो दिनकर जी कहते हैं,
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उस्को क्या जो दन्तहीन विषरहित विनीत सरल हो

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ said...

जो लड़ सका वही तो बस महान है.....
"गुलाल" का ये रंग ही तो है जो भाई के बोलों और गालों पर छाया रहता है, नाराज़ सा दिखने वाला क्रुद्ध युवक । क्रोध भी तो एक अभिव्यक्ति है उसे सही समय पर प्रकट करना ही चाहिये हमेशा नरमी से काम नहीं चलता, पर्याप्त अभिक्रिया के लिये उचित तापमान चाहिये ही होता है।
जय जय भड़ास

Human said...

बहुत अच्छा आलेख,चिँतन और चर्चा हेतु उत्तम विषय,अर्जुन को जो महाभारत का युद्ध मिला उसे भगवान कृष्ण ने अवश्यंभावी बताया क्योँकि वो विधि द्वारा मिला था इसीलिए ईश्वर भी पाण्डवोँ के साथ था,परन्तु उन्ही भगवान कृष्ण ने गीता मेँ सच्चा शूरवीर उसे बताया जिसने जीवित अवस्था मेँ अपने काम-क्रोध को जीत लिया।अतः सिक्के के दोनो पहलुओँ को देखना आवश्यक है और ये भी कि सात्विक क्रोध तामसिक क्रोध मेँ ना बदले।हमेशा ही अच्छे विषयोँ पर लिखने के लिये आपको हार्दिक बधाई!

Atul Shrivastava said...

बेहतर प्रस्‍तुति।

अशोक सलूजा said...

दिव्या जी ,कैसी हैं आप ? आप के लेखो पर बड़े गंभीर चिंतन होते है...जिस पर में अपनी टिप्पणी करने में अपने को असमर्थ पाता हूँ| पढता हूँ ...और वापस चला जाता हूँ |
आज भी आप को और आप के परिवार को आने वाली दिवाली के पर्व पर बधाई और शुभकामनाएँ देने के वास्ते ही आया हूँ | आप का इ-मेल नही है नही तो इ-मेल ही करता |
आप सब खुश और स्वस्थ रहें !
दिवाली की मुबारक हो ! अशोक सलूजा !

सदा said...

बहुत ही बढि़या लिखा है आपने ...आभार ।

JC said...

'प्राचीन हिन्दू' कथा-कहानियां सांकेतिक भाषा में लिखी होने के कारण इन्हें लाइनों के बीच पढने की, सार निकालने की, आवश्यकता है...

जो मुझे समझ आया, योगेश्वर विष्णु / शिव, परम ज्ञानी निराकार जीव, अर्थात शुद्ध शक्ति रूप को (८ x ८ =) ६४ योगिनियों से बना हुआ जाना प्राचीन सिद्धों ने जो शून्य विचार तक तपस्या द्वारा पहुँच पाए ...

जबकि प्रत्येक व्यक्ति, पुरुष अथवा नारी, पैदाईश के समय शरीर से केवल एक 'योगिनी' होता / होती है, अर्थात एक योगिनी वाले शरीर का योग चौंसठ योगिनी वाली आत्मा के साथ हुआ होता है...

इस प्रकार अपने जीवन काल में प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर में, अन्दर और बाहर एक समान होने के लिए, ६३ अतिरिक्त योगिनियों के योग की तालाश रहती है किसी भी एक जीवन काल में 'कृष्ण' की अनुभूति पाने हेतु :)

इसे ही बुद्ध समान सत्य का बोध होना, अथवा मोक्ष भी कहा गया...

इस कारण धर्मपत्नी, अर्थात शिव की मूल अर्धांगिनी सती, यानि शक्ति अथवा ऊर्जा के भण्डार समान, इस जन्म में उनकी दूसरी पत्नी पार्वती समान, प्रत्येक पुरुष की 'अर्धांगिनी', के रोल को प्राचीन हिन्दुओं ने उच्चतम स्थान दिया... पत्नी को भवसागर पार कराने हेतु, अर्थान मोक्ष, परम ज्ञान दिलाने हेतु केवट समान रोल दिया गया है - ऐसी प्राचीन हिन्दू मान्यता है :)

किन्तु काल चक्र के साथ साथ घटती क्षमता के कारण करवा चौथ के दिन स्त्रियाँ अपने पति की दीर्घ आयु की कामना के रूप में चन्द्रमा की पूजा (ज्येष्ठ शुक्ल, इस वर्ष जून १२ को) निर्जला एकादशी समान, घटते चंद्रकला के साथ (१५-११), चौथे दिन (कार्तिक कृष्ण) के दिन मनाते हैं, लगभग चार माह पश्चात (इस वर्ष १५ अक्तूबर को}...

पुनश्च - उपरोक्त टिप्पणी आपके ब्लॉग में ल्लिखने के लिए तैयार की... किन्तु तभी लाईट चली गयी, और जो थोड़ा समय हाथ में था, उस में आपके ब्लॉग के स्थान पर यह छोड़ दी डॉक्टर दराल के ब्लॉग में :)

जय नटखट नंदलाल!

S.N SHUKLA said...

इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.

Bharat Bhushan said...

क्रोध से संत भी खाली नहीं हो सकते. वे क्रोध का उपयोग पवित्र कर्मों के लिए करते हैं. गुरु गोविंद सिंह इसका उदाहरण हैं. बढ़िया आलेख.

aarkay said...

देवी चामुंडा उद्धार करें अथवा कालकी अवतार , उपयुक्त समय आ गया लगता है !
सार्थक आलेख !

Maheshwari kaneri said...

बहुत सुन्दर और सशक्त ठंग से अपनी बात कही आप ने..बधाई..

Anonymous said...

आपका यह श्रेष्‍ठ लेखन ...बहुत ही अच्‍छा लगा ..

Unknown said...

क्रोध एक प्रक्रिया है और इसका इस्तेमाल भली भाति आना चाहिए जिससे मंतव्य पूरा हो सके वरना क्रोध बाहरी और भीतरी दोनों तरफ अग्नि बिखेरता है और समूचा वातावरण पर्दूषित कर देता है. महिषासुर मर्दनी और त्रिनेत्र धारी भगवान् शंकर का क्रोध तो ब्रम्हांड नियंत्रण के लिए होता है ऐशा कल्याणकारी क्रोध किसी के बस में नहीं .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत ही अच्छी फटकार लगाई है आपने आज तो!

Anonymous said...

वाह -बहुत ही बेहतरीन आलेख | आभार :)
क्रोध के +VE पक्ष को बहुत बढ़िया रूप में प्रस्तुत किया है आपने |

JC said...

मानव शिव का प्रतिरूप है... और शिव की तीसरी आँख खुल जाए तो कामदेव हो या भस्मासुर, सभी भस्म हो जाए :)
ऐसी कई कथाएँ हैं जिसमें तपस्या कर जोगी ऐसी विचित्र विद्या प्राप्त कर इसे पक्षी आदि पर अजमा उनको भस्म कर गर्व से फूले न समाये - किन्तु उनकी यह विद्या आम गृहणी पर भी काम न आई!
महाभारत में एक ऐसे ही क्रोधी दुर्वासा मुनि और उनके चेले चपाटों को कृष्ण की सहायता से (अपने अन्दर विद्यमान? अर्थात अपने सतीत्व के बल से) भगाने में सफल हुईं :)
बालक प्रहलाद की बुआ होलिका तो ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली थी की अग्नि से जले ही नहीं, किन्तु प्रहलाद को मारने हेतु गोद में ले अग्बी में बैठी तो भस्म हो गयी :)
हिन्दू मान्यता है की हम सभी आत्माएं हैं:)
और आत्मा न आग से जलती, न पानी में घुलती, न वायु से सूखती, और न तलवार से ही कटती:)
इसी लिए कृष्ण कह गये की बाहरी संसार से विचलित न हो कोई, और अपने भीतर ही उनको ढूढने का प्रयास करें:)
ज्वालामुखी, अर्थात माँ काली का निवास शिव, अर्थात पृथ्वी के ह्रदय में ही है, पृथ्वी के केंद्र में संचित शक्ति, नादबिन्दू के साकार रूप, पिघली चट्टानों के रूप में... और जो पृथ्वी के केंद्र से ऊपर उठी हिमालय श्रंखला के नीचे सबसे निकट हैं धरा पर, और दक्षिण भारत का क्षेत्र तो ज्वालामुखी की चट्टान से ही बना है... न जाने कब फूट पड़े कभी भी कहीं भी...



...

दिवस said...

दिव्या दीदी,
गज़ब की पोस्ट| अब तक की बेहतरीन पोस्ट में से एक| निशब्द कर दिया|
जब जहां जिसकी आवश्यकता हो, उसे वहां होना चाहिए| क्रोध का भी अपना स्थान होता है|
आपने पवित्र क्रोध पर सटीक बात कही है| इसी की तो आवश्यकता है| क्रोध की जो आग दिल में जलती है, सभी उसे बुझाने में लगे हैं| सभी के उपदेश हैं कि क्रोध को शांत रखो| यदि ह्रदय में कुछ पीड़ा नही होगी तब तक कोई उसका उपचार नहीं करेगा| जब यह आग अन्दर तक जलाएगी तो इसके उपचार के लिए सही प्रयास भी किये जाएंगे| किन्तु यहाँ तो पहले से ही बर्फ जमा लेने की बातें होती हैं| आग के लिए कोई स्थान ही नहीं| स्वयं को शांत (ठंडा) रखो, बस यही उपदेश बांटे जाते हैं|

यदि भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष बाबू ठन्डे होते तो क्या आज़ादी के लिए कुछ प्रयास कर पाते? क्या नेताजी ठन्डे बैठे बैठे आज़ाद हिंद फ़ौज खड़ी कर पाते?

आवश्यकता ठन्डे बैठने की नहीं है|

मन करे सो प्राण दे...........

आपकी इन्ही पंक्तियों में कुछ और भी जोड़ना चाहूँगा, जिसकी आवश्यकता है|

जिस कवी की कल्पना में जिंदगी हो प्रेम गीत
उस कवी को आज तुम नकार दो
भीगती नसों में आज, फूलती रगों में आज
आग की लपट का तुम बघार दो

चंड-मुंड, रक्तबीज व महिषासुर जैसे दानवों के लिए चामुंडा, काली व महिषासुरमर्दिनी की ही आवश्यकता होती है| क्या ठन्डे बैठकर यह काम संभव था|

या देवी सर्वभूतेषु, शक्ति (क्रोध) रूपेण संस्थिता
नमस्तस्ये, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नम:

बेहतरीन पोस्ट...

महेन्‍द्र वर्मा said...

सार्थक चिंतन, समाजोपयोगी आलेख।
न्याय और समाज के हित के लिए किया जाने वाला क्रोध उचित है। जिस क्रोध से लोक कल्याणकारी कार्यों की सिद्धि होती हो ऐसा क्रोध वांछनीय है। ईश्वर, देवी-देवता, ऋषि-मुनि, संत-महात्मा, देशभक्त क्रांतिकारी ऐसे क्रोध से मानवता का कल्याण करते आए हैं।

G.N.SHAW said...

bahut hi yuktipurn aur sarthak lekh likhi hai aapane badhayi !

अनुपमा पाठक said...

सार्थक आलेख!

ashish said...

क्रोध से उत्पन्न उर्जा का सम्यक उपयोग हमेशा उचित फलदायी होता है . परशुराम और दुर्वासा के क्रोध की तरह

JC said...

दिव्या जी, यदि देवी को जानना हो जैसे हमारे पूर्वजों ने जाना, कृपया लिंक देखें और सुनें...दिव्या जी, यदि देवी को जानना हो जैसे हमारे पूर्वजों ने जाना, कृपया लिंक देखें और सुनें... आग लगाने से पहले... उसे देवी / काल पर ही छोड़ दें...

http://www.astrojyoti.com/devisooktam.htm

Asha Joglekar said...

सार्थक चिंतन भरा आलेख । क्रोध उचित कारणों से हो तो सही परिणाम देता ही है । ईश्वर भी तो क्रोध करते हैं जब जब अधर्म की अति होती है और आपने ठीक कहा क्रोध ना हो तो धरती वीरों से खाली हो जायेगी ।

मुनेन्द्र सोनी said...

शुभकामनाएं स्वीकारिये कि हमारा क्रोध फलीभूत हुआ और बकवादियों को भी मॉडरेशन के डर का एहसास सही अर्थों में करा दिया। पूरे पंद्रह दिन साँस नहीं लेगा। उचित परिस्थिति में क्रोध आवश्यक नहीं अनिवार्य है। शुभम अस्तु
दिव्या बहन हमारी सफलता की पुनः शुभकामना।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

क्रोध के विविध आयाम पढवा दिया आपने तो :)

Ritu said...

बहुत ही रोचक एवं जानकारीपूर्ण

हिन्‍दी कॉमेडी- चैटिंग के साइड इफेक्‍ट

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

सही लिखा है आपने..

'रो रहे जो मातु के अभागे लाल झोपडी में ,
गले से लगाके मीत......... उनको हँसाइ दे |
देश में घुसे हैं जो लुटेरे....... बक- वेश धारे ,
क्रांति की मशाल बारि.....देश से भगाइ दे |
गर वो उजाड़ते हैं...... तेरी फूस-झोपडी तो ,
तू भी दस-मंजिले में...... आग धधकाइ दे |
बलि चाहती हैं तो समाज के निशाचरों का ,
शीश काटि-काटि आज काली को चढ़ाइ दे |















सही लिखा है आपने..

'रो रहे जो मातु के अभागे लाल झोपडी में ,
गले से लगाके मीत......... उनको हँसाइ दे |
देश में घुसे हैं जो लुटेरे....... बक- वेश धारे ,
क्रांति की मशाल बारि.....देश से भगाइ दे |
गर वो उजाड़ते हैं...... तेरी फूस-झोपडी तो ,
तू भी दस-मंजिले में...... आग धधकाइ दे |
बलि चाहती हैं तो समाज के निशाचरों का ,
शीश काटि-काटि आज काली को चढ़ाइ दे |















सही लिखा है आपने..

'रो रहे जो मातु के अभागे लाल झोपडी में ,
गले से लगाके मीत......... उनको हँसाइ दे |
देश में घुसे हैं जो लुटेरे....... बक- वेश धारे ,
क्रांति की मशाल बारि.....देश से भगाइ दे |
गर वो उजाड़ते हैं...... तेरी फूस-झोपडी तो ,
तू भी दस-मंजिले में...... आग धधकाइ दे |
बलि चाहती हैं तो समाज के निशाचरों का ,
शीश काटि-काटि आज काली को चढ़ाइ दे |

amrendra "amar" said...

sunder prastuti

Jyoti Mishra said...

fantastic read..
a whole new perspective of anger :)

VIJAY PAL KURDIYA said...

सही बात बताई आपने...अच्छी प्रस्तुती के लिए साधुवाद
wel come.
http://vijaypalkurdiya.blogspot.com

Ankur Jain said...

गजब लिखा है...मजा आया

JC said...

दिव्या जी, जैसा मैंने पहले भी कहा, प्राचीन हिन्दू कथा कहानी सांकेतिक भाषा में लिखी गयी हैं, इस लिए इनको लाइनों के बीच पढना पड़ता है, यदि सत्य जानना हो...

यद्यपि राजा का नाम 'सागर' ही दर्शाता है कि यह कहानी सागर में गिरने वाली असंख्य नदियाँ (कहानी में सागर के ६०,००० पुत्र) से सम्बंधित होगी, और यूँ भगीरथी ही पुरानी गंगा होगी जो पहले अरब सागर में गिरती होगी...

और वो नदी फिर हिमालय के सागर को चीर पृथ्वी के गर्भ से, चाँद समान, उत्पन्न होने के पश्चात धरा पर हुए परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी होगी, जैसे आज भी दिखती है...

मैं आपके ब्लॉग में भी अपनी डॉक्टर दराल के ब्लॉग में दी गयी टिप्पणी दे रहा हूँ, आपको दर्शाने के लिए कि कैसे कपिल मुनि के क्रोध के कारण उनके अज्ञानतावश किये शक की वजह से सागर के पुत्रों को भस्म होना पडा, और फिर गंगा जल से वो पुनर्जीवित हो पाए (जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म के चक्र में)...

"...हम जब स्कूली बच्चे थे तो सरकारी स्क्वैयर में रहते थे अंग्रेजों के राज में, एक दिन शुभ अवसर कहलो ज्ञानवर्धन का मिल गया... शुद्ध भोजन के शौक के कारण कई लोग गाय या भैंस पालते थे...हम कहते थे कि जो सी पी डब्ल्यू डी में सुपरवाईज़र होता था उसके घर के आगे मोटर साईकिल मिलेगी और घर के पीछे गाय :)...

एक शाम एक अन्य स्क्वैयर के एक घर के सामने बच्चों की भीड़ देख उत्सुकता हुई और हम भी दर्शकों में खड़े हो गए...
मैदान में जिमनेजियम के बैलेंसिंग बार समान पोस्ट के बीच उन सज्जन की गाय को खड़ा किया गया था और कमिटी के कुछ कर्मचारी के साथ एक सरकारी सांड को बुलाया हुआ था जो अपने अगले पैर बार पर रख उन कुछ मिनट के लिए उस गाय को शायद गर्भवती कर गया!

पता नहीं अपने जीवन काल में एक सरकारी सांड (आप ही जानें) कितनी गायों का यूँ पति बन जाता होगा, कृष्ण के समान शायद ६०,००० का (वैसे १६,००० कहा जाता है, किन्तु राजा सागर के तो ६०, ००० लड़के कहे जाते हैं जिन्हें कपिल मुनि ने भस्म कर दिया था क्यूंकि शैतान इंद्र देवता ने अश्वमेध यज्ञं के घोड़े को उनके आश्रम में बांध दिया था, और वो अज्ञानी उनकी साधना भंग कर दिए :(

और उनको जिलाने के लिए सागर के पोते भागीरथ के अथक प्रयास से ही गंगा अवतरित हुई - शिव की जटा-जूट पर, चन्द्रमा से :)..."

ZEAL said...

.

@ JC जी ,

आप अपनी टिप्पणी से क्या दर्शाना चाहते हैं , यह स्पष्ट नहीं हुआ। वैसे मेरा मंतव्य क्रोध की पावन अग्नि में दुष्टों के विनाश को दर्शाना है। देश , काल परिस्थिति के अनुरूप ही निर्णय लेना होता है। पाप और दुष्टों के बढ़ने पर क्रोध करके ही उनका संहार किया जा सकताहै।

.

JC said...

"जो जो जब जब होना है / सो सो तब तब होता है", ऐसा मानना है हमारे पूर्वजों का... अर्थात कलियुग में विष का होना प्राकृतिक है, और इस में मानव के हाथ में कुछ नहीं है, क्यूंकि जैसे जैसे काल / समय आगे बढेगा, मानव क्षमता तुलनात्मक रूप से घटेगी ही - बचपन में सभी अबोध होते हैं, किन्तु हमारी प्रकृति बड़े होते होते भिन्न हो जाती हैं... इसे हमारे भूत पर निर्भर माना गया है... ...
और, यह भी कहा गया है कि हम वास्तव में सत्य युग की परम-ज्ञानी आत्माएं हैं, (परमात्मा के ही प्रतिरूप) जो कृष्ण लीला को, शून्य से अनंत स्टार को पाने को, उलटी दिशा में चलाई गयी फिल्म के समान देख रहे हैं, और दृष्टि दोष के कारण उसे सही मान रहे हैं - अर्थात हम आत्माएं सही विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं...

जिसे हम मानव जीवन कहते हैं उस में हम सभी दर्शक भी हैं और नाटक के पात्र भी हैं...
जब हम दूसरे का रोल देखते हैं तो उस के रोल में छोटी छोटी त्रुटियाँ भी निकालते हैं... किन्तु हम अपने रोल में कई त्रुटियाँ करते हैं, और उनको हम उसी तराजू में नहीं तोलते... हम को अपनी गलतियाँ या तो दिखती नहीं हैं, अथवा वे छोटी लगती हैं...
ऐसा मेरा ही कहना नहीं है, बल्कि इसे ज्ञानी पुरुषों ने कई बार दोहराया भी है...
इस कारण हम भूल जाते हैं की हमारा सही गंतव्य क्या है?
क्या हम केवल टाइम पास करने आये हैं, माया में ही उलझ कर?...
क्या गीता मूर्खों ने लिखी है, हमें भटकाने के लिए?
और यदि वो परम ज्ञानी थे तो क्या हमारा मुख्य गोल अपना परम सत्य होना ही जानना नहें हो सकता?
आत्मा आग से नहीं जल सकती, केवल मायावी शरीर जल सकता है!
और रावण का पुतला हर वर्ष जलता है किन्तु रावण के भीतर की आत्मा मर ही नहीं सकती क्यूंकि वो अनंत है...
फिर फिर रावण ही क्या उससे अधिक ज्ञानी और साधिक स्वार्थी आते रहेंगे...
एक दर्पण तोड़ देने से दूसरे दर्पण आ जाते हैं, उस से भी बढ़िया, शायद...
शब्दों से परम सत्य की अनुभूति किसी एनी व्यक्ति को नहीं कराई जा सकती... हाँ भटकाया अवश्य जा सकता है :)

Unknown said...

Very interesting and suitable creation..
Regards..!

Arvind Jangid said...

क्रोध भी स्वाभाविक एंव प्राकृतिक है....मगर क्रोध जिन स्तंभों के ऊपर खड़ा होकर आ रहा होता है वो महत्वपूर्ण है. अगर स्तंभ सामाजिक और मानवीय हैं तो क्रोध उचित ही होता है...आभार

JC said...

दिव्या जी, सन '५९ में कोलेज से दुर्गापूजा के समय भ्रमण पर एक सप्ताह के लिए गए हम विद्यार्थी 'माँ काली' के कोलकाता पहुँच सुबह सवेरे पहले दिन ही अपने लौज के निकट दर्शनीय स्थल आदि की भी जानकारी लेने हेतु एक बूढ़े हलवाई की दूकान ही खुली पा उस से पूछने वाले ही थे कि किसी नाटक के स्क्रिप्ट के अनुसार स्टेज में प्रवेश लेने वाले पात्र समान एक बच्ची भी वहां आ गयी तो वृद्ध हलवाई ने उससे पूछा "की लागे माँ"?
हम उत्तर भारतीयों के मुंह पर मुस्कान आ गयी जब एक वृद्ध को एक छोटी से बच्ची को भी 'माँ' पुकारते सुना :)
किन्तु उसके पश्चात बाद में कई बार कोलकाता जा जानकारी मिली कोलकाता / बंगाल की आत्मा की, जहां नारी स्वरुप को अनादि काल से पूज्य माना जाता आ रहा है...

और फिर उसी भ्रमण के दौरान कई सरकारी और गैर सरकारी इंजीनियरिंग संस्थानों के बारे में जानने हेतु आते -जाते पहले दिन ही एक पंजाबी इंजिनियर ने हमें सावधान करते बताया कि वहाँ रहते हम ध्यान रखें की किसी बंगाली लड़की को छेड़ें ना, क्यूंकि यदि वहाँ सड़क पर किसी की पिटाई हो रही होती है, तो नवागंतुक पहले मारता है और फिर पूछता है कि उसकी पिटाई क्यूँ की जा रही थी?!
पूर्व दिशा को सांकेतिक भाषा में उदयाचल / अस्ताचल पर 'लाल' दीखते शक्ति के स्रोत सूर्य को, संहारकर्ता माँ काली की लाल रंग की जिव्हा द्वारा दर्शाया जाता आ रहा है :)
और, ज्वालामुखी के 'मुख' से निकलती लौ को भी 'टंग' अर्थात जिव्हा कहते हैं :)...
और यद्यपि ज्वालामुखी से निकलता लावा जलाता / संहार करता तो है पहले, किन्तु कालांतर में इसी मिटटी में पैदावार और अधिक होती है, और भूत को भूल पशु और 'अपस्मरा पुरुष' फिर खिंचे चले आते हैं :)
यही जीवन का सत्य है - परम सत्य नहीं :)

मुकेश कुमार सिन्हा said...

aapki lekhni sashakt hai:)

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छी प्रस्‍तुति !!

sumeet "satya" said...

अतिउत्तम लेख.....क्रोध का अच्छा विश्लेसन....

sumeet "satya" said...

pls see my blog...... www.aclickbysumeet.blogspot.com

Dr.NISHA MAHARANA said...

good presentation n opinion.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

क्रोध भी उसी तरह का भाव है जिस तरह कि प्रेम, अनुराग, स्नेह आदि किन्तु यह नकारात्मक सा प्रतीत होता है। यदि उचित स्थान पर इस भाव का प्रदर्शन करा जाए तो यह अत्यंत सार्थक है, रामचरित मानस में संतकवि तुलसीदास जी ने कहा है - "विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब भय बिन होय न प्रीत" । यहाँ क्रोध को एक सर्जरी के औज़ार की तरह प्रयोग करा जा रहा है और यहाँ क्रोध रचनात्मक, सकारात्मक है। अनावश्यक अहिंसा मानसिक षंढ्त्व पैदा कर देती है। अहिंसा की पिपिहरी बजाने वाले लोगों ने न तो देश की आजादी के संघर्ष में हिस्सा लिया न ही किसी आक्रान्ता से लोहा लिया, तैमूर लंग से लेकर हलाकू और कत्लूखान जैसे रक्तपिपासुओं ने जब देश पर आक्रमण करके लूटा और नरमुंडों के पहाड़ खड़े कर दिये तब अहिंसा करने वाले शायद दाल-चावल या कफ़न का धंधा कर रहे होंगे।

Man said...

दीदी वीरता और क्रोध की आप ने सुस्पष्ट व्याख्या की हे ,क्रोधो के प्रकार बतला कर उन्हें और अधिक स्पष्ट किया हे |वर्तमान में इस आर्थिक युग में जिस भाव की कमी आमजन में हो चली हे वो वीरता ओर सात्विक क्रोध की ही हे |कल एक लेख पढ़ा था की इसी बारे में जिसमे इन भावो की बहुत ही सुंदर व्याख्या की गयी थी की हमने माँ दुर्गे की पूजा करना छोड़ दिया हे जिसके लिए उन्होंने इस संसार में रूप धारण किये थे ,हम नवरात्र माता से में केवल धन धान्य ,सुख शांती ओर परिवार की मंग्लता की ही कामना करते हे ,हम उन भावो ओर उस शक्ती के लिए माँ से प्रार्थना नहीं करते हे जिनके लिए माँ जानी जाती हे ,जिस से हमारे रास्ट्र की रक्षा हो सके हमारे समाज की रक्षा हो सके |ओर माँ का ये भी आशीर्वाद होता हे की यदि राक्षसों को मारने के लिए राक्षस बनना पड़े तो उसमें भी कोई परहेज नहीं |विनम्रता ,सीधापन ,एक हद तक ही सही हे |

JC said...

जो विज्ञान के विद्यार्थी नहीं हैं/ रहे हैं, वो डार्विन का इतिहास और जीव उत्पत्ति के अनुसंधान में बीगल नमक जहाज से यात्रा आदि इन्टरनेट पर निम्नलिखित लिंक पर भी देख सकते है -

http://en.wikipedia.org/wiki/Charles_डार्विन

धरा पर जीव उत्पत्ति के विषय में कहावत है, "छोटी मछली को बड़ी मछली खाती है"...
और हमारी माँ कहती थी (हिंदी रूपांतरण), "छोटी गाय पर बड़ी गाय / बड़ी गाय पर बाघ"!

सत्य तो यह है कि भोजन की श्रंखला में मानव का स्थान शीर्ष पर है...
और भोजन को निर्गुण भाव से देखें तो वो शक्ति का ही स्रोत होता है, अर्थात साकार रूप शक्ति का ही परिवर्तित रूप है...
किन्तु हमारी भौतिक आँखें दोषपूर्ण होने के कारण हमें धोखा दे रही हैं, यानि परम सत्य तक पहुँचने नहीं देतीं :)

उदाहरणतया हिन्दू कथा कहानियों के अनुसार सूरदास अंधा था किन्तु फिर भी 'कृष्ण' को देख पाया! दूसरी ओर कौरव राज ध्रितराष्ट्र भी अँधा था किन्तु संजय के बताने पर भी अपने १०० पुत्रों के एक के बाद एक मरते सुन भी कृष्ण को नहीं पहचान पाया, जबकि उनके विपक्ष दल, पांडवों, के सहायक कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान कर परम सत्य तक पहुंचा दिया :)
यही 'कृष्णलीला' की विशेषता है :)

और, आज तो पश्चिमी वैज्ञानिक भी पृथ्वी पर जीवन को 'ग्रैंड डिजाइन' मानने लगे हैं जबसे उन्होंने ब्लैक होल के केंद्र में समय को शून्य होना जान लिया...

और, आम आदमी की भाषा में, 'संयोगवश' 'ब्लैक होल' पर अस्सी के दशक में एक भारतीय अमरीकन एस चंद्रशेखर ने हमारे सूर्य की तुलना में पांच अथवा उससे भारी सितारों के रेड स्टेज पर पहुंच अपनी मृत्यु के पश्चात परिवर्तित रूप धारण करने के सत्य पर शोध कर नोबेल इनाम जीता...

अब हमारी सुदर्शन-चक्र समान दिखने वाली गैल्क्सी के केंद्र में ऐसे ही एक सुपर गुरुत्वाकर्षण वाले ब्लैक होल को अवस्थित माना जाने लगा है... जबकि प्राचीन हिन्दू 'कृष्ण' को (सहस्त्र सूर्य के प्रकाश वाले को), विष्णु समान, सुदर्शन-चक्र धारी दर्शाते आये हैं...:) इत्यादि इत्यादि...

Always Unlucky said...

I really enjoyed this site. It is always nice when you find something that is not only informative but entertaining. Greet!

In a Hindi saying, If people call you stupid, they will say, does not open your mouth and prove it. But several people who make extraordinary efforts to prove that he is stupid.Take a look here How True

प्रतिभा सक्सेना said...

जो परस्पर विरोधी लगते हैं वे भाव एक दूसरे के पूरक हैं -दोंनो का उचित संतुलन हमारे यहाँ शक्ति(देवी)के आचरण में दिखाया है और उसी मे सृष्टि का कल्याण संभव है !

JC said...

@ Unlucky ji, "यदि आप अपना मुंह बंद रखें तो धोखा हो सकता है कि आप मुनि हैं, अर्थात पहुंचे हुए ज्ञानी हैं!
किन्तु यदि आप अपना मुंह खोल देते हैं तो सबको पता चल जाता है आप कितने अज्ञानी हैं"!!

एक और है, "यदि आप प्रश्न पूछते हैं तो आप थोड़े से समय के लिए मूर्ख लगेंगे / किन्तु यदि आप प्रश्न नहीं पूछेंगे तो जन्म भर के लिए बुद्धू रह जायेंगे"!!

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

सत्य का साम्राज्य स्थापित करना हो तो असत्य का विनाश अनिवार्य है.क्रोध का सात्विक रूप विकास करता है वहीं क्रोध का तामसिक रूप केवल विनाश करता है.क्रोध का प्रयोजन कल्याणार्थम् होना चाहिए.सार्थक व सार्गर्भित आलेख.

Dr.NISHA MAHARANA said...

दीये की लौ की भाँति
करें हर मुसीबत का सामना
खुश रहकर खुशी बिखेरें
यही है मेरी शुभकामना।

Yashwant Singh Shekhawat said...

सराहनीय प्रस्तुती द्वारा मार्गदर्शन के लिए आभार व्यक्त करता हूँ |
.
चकमक को गतिशील बनाये रखने से कभी ना कभी अग्नि का प्रज्जलित होना निश्चित है |
इस प्रकार के यज्ञ में धेर्य भी महत्त्व पूर्ण है |
.
आक्रामक व्यवहार जब महत्वकांक्षा, पहल, साहस, और आत्मविश्वास से जुड़ जाता है तब वह सकारात्मक रूप धारण कर लेता है | लेकिन इसके विपरीत वह व्यवहार शत्रु, क्रोध, और घृणा जैसे नकारात्मक व्यवहारों में भी बदल सकता है |
.
मेरे विचार से यहाँ विषय का महत्व 'शब्द' से ज्यादा 'भावों और उद्देश्य' का एवं सकारात्मक द्रष्टिगत मापदंड में आंकने का है |

Rajesh Kumari said...

yeh post padhne me kuch der ho gai.bahut pasand aai yeh post.sahi krodh,pavitra krodh karne me koi buraai nahi bina anguli tedhi kiye to ghee nikalta nahi.

Rajesh Kumari said...

yeh post padhne me kuch der ho gai.bahut pasand aai yeh post.sahi krodh,pavitra krodh karne me koi buraai nahi bina anguli tedhi kiye to ghee nikalta nahi.

Arun sathi said...

gambhir..aalekh..

ZEAL said...

आरम्भ है प्रचंड बोल मस्तकों के झुण्ड,
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो
,मन करे सो प्राण दे,
जो मन करे सो प्राण ले,
वही तो एक सर्वशक्तिमान है ,
विश्व की पुकार है यह भागवत का सार है
की युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवो की भीड़ हो या, पांडवो का नीड़ हो ,
जो लड़ सका है वोही तो महान है
जीत की हवास नहीं, किसी पे कोई वश नहीं,
क्या जिंदिगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं तो मौत से भी क्यूँ डरे,
जा के आसमान में दहाड़ दो ,
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो ,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज इक धनुष के बाण पे उतार दो,
वो दया का भाव या की शौर्य का चुनाव
या की हार का वो घांव तुम यह सोच लो,
या की पुरे भाल पर जला रहे विजय का लाल,
लाल यह गुलाल तुम सोच लो,
रंग केसरी हो या मृदंग
केसरी हो या की केसरी हो ताल तुम यह सोच
लो ,
जिस कवी की कल्पना में जिंदगी हो प्रेम गीत
उस कवी को आज तुम नकार दो ,
भिगती मसो में आज, फूलती रगों में आज जो आग
की लपट का तुम बखार दो,
आरम्भ है प्रचंड बोल मस्तकों के झुण्ड आज जंग
की घडी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान आज इक
धनुष के बाण पे उतार दो , उतार दो,उतार दो,

Rakesh Kumar said...

क्रोध पर आपका शोध सार्थक और प्रेरणादायी है.
दैवी सम्पदा का आश्रय लिए विवेकयुक्त क्रोध कल्याणकारी होता है.

आपका आभार इस् पोस्ट का लिंक देने के लिए.