टिप्पणीकारों के कमेन्ट पढ़कर इस मस्तिष्क में एक नयी पोस्ट जन्म ले लेती है और मैं वापस आ जाती हूँ आप सभी का ह्रदय छलनी करने।
एक पाठक ने कहा -"आप अपने बारे में बहुत लिख चुकीं , अब मत लिखियेगा"
मैंने सोचा अपने बारे में न लिखूं तो किसके बारे में लिखूं । किसी को ठीक से समझ ही सकी आज तक । दुसरे के बारे में लिखूं उससे तो बेहतर है अपने अनुभव ही लिखूं। वरना कुछ ऊंच नीच हो गयी हो गयी तो लोग बुरा मान जायेंगे ।
वैसे मुझे लगता है हर लेखक अथवा लेखिका अपने अनुभवों को ही अपनी लेखनी में उतारता है। वही मैं भी करती हूँ। विज्ञान की छात्रा रही हूँ , इसलिए उदाहरण देकर समझाने की आदत सी हो गयी हो। अब लेखों पर किसी मनोवैज्ञानिक विषय को समझाने के लिए अपने अनुभवों को ही तो लिखूंगी , नया कहाँ से लाऊंगी ?
बहुत ज्यादा दुनिया भी नहीं देखी , इसलिए अनुभव भी सीमित ही हैं। उन्हीं को साझा करती हूँ । मेरे विचार तो मात्र एक टिप्पणी के समान है , उस पर 'बहुरंगी' पाठकों के विचार आने से विषय को विस्तार मिल जाता है और मुझ गरीब को लोगों का 'मनोविज्ञान' समझने में मदद मिलती है। आम जनता का दिमाग पढना मेरा एकमात्र शौक है।
एक बार दीपक बाबा बोले- "आपकी प्रति टिप्पणियों से बहुत डरता हूँ, इसीलिए कमेन्ट नहीं करता हूँ "
लोग मनचाही टिप्पणी करने में तो पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं , लेकिन लेखिका को कुछ भी लिखने की स्वतंत्र नहीं है।
प्रति-टिप्पणी के विषय में एक बार यह पोस्ट - [विमर्श में प्रति-टिप्पणियों की उपादेयता] - लगायी थी , जिसमें पूछा था की --" क्या मुझे प्रति-टिप्पणी लिखनी चाहिए ? सभी ने एक सुर में कहा था --"ज़रूर "
लेकिन मैंने देखा है की मेरी प्रति-टिप्पणी लोगों को पसंद नहीं है । लोग बुरा मान जाते हैं और अनायास ही पलायन कर जाते हैं।
सच तो ये है की - मैं डरती हूँ , बहुत डरती हूँ !
बेहद निराश मन से ये 'प्रतिज्ञा' कर रही हूँ आज कि कभी 'प्रति-टिप्पणी' नहीं लिखूंगी।
Sigh !
[मन की बात है , सो लिख दी। शायद अब हमारे बीच संवाद कम होगा ।
एक निरर्थक पोस्ट है , इसलिए कमेन्ट आप्शन बंद कर रही हूँ]
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एक पाठक ने कहा -"आप अपने बारे में बहुत लिख चुकीं , अब मत लिखियेगा"
मैंने सोचा अपने बारे में न लिखूं तो किसके बारे में लिखूं । किसी को ठीक से समझ ही सकी आज तक । दुसरे के बारे में लिखूं उससे तो बेहतर है अपने अनुभव ही लिखूं। वरना कुछ ऊंच नीच हो गयी हो गयी तो लोग बुरा मान जायेंगे ।
वैसे मुझे लगता है हर लेखक अथवा लेखिका अपने अनुभवों को ही अपनी लेखनी में उतारता है। वही मैं भी करती हूँ। विज्ञान की छात्रा रही हूँ , इसलिए उदाहरण देकर समझाने की आदत सी हो गयी हो। अब लेखों पर किसी मनोवैज्ञानिक विषय को समझाने के लिए अपने अनुभवों को ही तो लिखूंगी , नया कहाँ से लाऊंगी ?
बहुत ज्यादा दुनिया भी नहीं देखी , इसलिए अनुभव भी सीमित ही हैं। उन्हीं को साझा करती हूँ । मेरे विचार तो मात्र एक टिप्पणी के समान है , उस पर 'बहुरंगी' पाठकों के विचार आने से विषय को विस्तार मिल जाता है और मुझ गरीब को लोगों का 'मनोविज्ञान' समझने में मदद मिलती है। आम जनता का दिमाग पढना मेरा एकमात्र शौक है।
एक बार दीपक बाबा बोले- "आपकी प्रति टिप्पणियों से बहुत डरता हूँ, इसीलिए कमेन्ट नहीं करता हूँ "
लोग मनचाही टिप्पणी करने में तो पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं , लेकिन लेखिका को कुछ भी लिखने की स्वतंत्र नहीं है।
प्रति-टिप्पणी के विषय में एक बार यह पोस्ट - [विमर्श में प्रति-टिप्पणियों की उपादेयता] - लगायी थी , जिसमें पूछा था की --" क्या मुझे प्रति-टिप्पणी लिखनी चाहिए ? सभी ने एक सुर में कहा था --"ज़रूर "
लेकिन मैंने देखा है की मेरी प्रति-टिप्पणी लोगों को पसंद नहीं है । लोग बुरा मान जाते हैं और अनायास ही पलायन कर जाते हैं।
सच तो ये है की - मैं डरती हूँ , बहुत डरती हूँ !
बेहद निराश मन से ये 'प्रतिज्ञा' कर रही हूँ आज कि कभी 'प्रति-टिप्पणी' नहीं लिखूंगी।
Sigh !
[मन की बात है , सो लिख दी। शायद अब हमारे बीच संवाद कम होगा ।
एक निरर्थक पोस्ट है , इसलिए कमेन्ट आप्शन बंद कर रही हूँ]
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