Monday, October 10, 2011

तटस्थता और सुकून ....

मेरी चिर-परिचित सहेली राधिका ने कहा- "दिव्या यदि मैं तुम्हारा साथ दूँगी तो रेवती मुझसे दूर हो जाएगी और इस तरह तो मैं अकेले पड़ जाउंगी आखिर मैं भी तो एक सामाजिक प्राणी हूँ। इसी समाज में रहना है , तो हर किसी के साथ निभाना ही होगा वर्ना मैं अकेले कैसे जी सकुंगी ...और फिर मुझे तो किसी ने कुछ कहा नहीं है, मुझे तो किसी ने गाली नहीं दी , फिर मैं क्यूँ खुद को मुसीबत में डालूँ। और फिर मेरे आलेख तो हमेशा ऐसे होते हैं की लोग वाह-वाह ही करेंगे, फिर मैं क्यूँ तुम्हारी खातिर अपनों को खो दूँ ? "

राधिका की बात तो सही है। गैरों के कष्ट से खुद को क्यूँ व्यथित किया जाए। सही तो किया राधिका ने तटस्थ रहकर। आजकल सामाजिकता और औपचारिकता ही तो निभाई जाई है। जब तक सब ठीक हो तो 'बतरस' लो , प्रेम लो , स्नेह लो और जब कोई कष्ट में हो तो तटस्थ रहो।

वाह रे दोस्ती ! धन्य हो राधिका !

खैर ऐसी समस्या बहुतों के सामने आती होगी अतः इस विषय पर भी लिख देना उचित ही समझा मन में आये विचारों को स्थान मिलना ही चाहिए ब्लॉग में।

मेरे विचार से कभी भी किसी का सगा बनने का दावा नहीं करना चाहिए और यदि सगे बनते हैं तो आड़े वक़्त पर साथ भी देना चाहिए। वरना सब दिखावा है , मौकापरस्ती है भावनाओं के साथ खिलवाड़ है

यदि निभाने की ताकत हो तो रिश्तों को औपचारिक ही रखना चाहिए , तटस्थ बने रहने में ही भलाई है

लेकिन एक बात स्पष्ट कर दूँ। तटस्थता इंसान की कमजोरी ज़ाहिर करती है। तटस्थ रहकर आप अपने मित्र को तो खो ही देते हैं आप इस मनभरोसे में रहते हैं की चलो अच्छा हुआ दोनों से सेटिंग कर रखी है। लेकिन यकीन जानिये आप दोनों के साथ कभी नहीं निभा सकते। आपका मित्र चुपचाप बिना आपसे शिकायत करे आपसे दूर चला जाएगा।

और जब तक आपकी तटस्थ बने रहने की आदत बनी रहेगी आपका कोई भी मित्र नहीं बन सकेगा। आप अकेले ही रहेंगे मात्र औपचारिक और सामाजिक। सब ऊपर-ऊपर का बचा रहेगा। अन्दर कुछ भी शेष रहेगा।

तटस्थता कभी भी सुकून नहीं देती वह अपनों के साथ घात करने का अपराध बोध कराती है। तटस्थ व्यक्ति केवल एक स्थिति में ही सुकून से जीता है , जब की वह दोनों के ही साथ घात कर रहा हो।

दुनिया में प्रतिक्षण घट रही घटनाओं में जहाँ दो पक्ष होते हैं , वहां दोनों ही सही अथवा दोनों ही गलत नहीं हो सकते एक की गलती तो स्पष्ट दिखती है। फिर दुविधा कैसी ? जो सही लगे उसका साथ दीजिये ...निडर और निर्भय होकर।

तटस्थता कोई विकल्प नहीं और तटस्थता को निष्पक्षता का नाम कदापि मत दीजिये। ऐसे भ्रम पालकर आप खुद को भुलावे में रख रहे हैं।

खैर मुझे तो तटस्थ रहने से बड़ा अपराध दूसरा कोई नहीं लगता। अपने विवेक से नीर-क्षीर विभाजन करके सही गलत को देखकर , सप्रयास जो सही है उसका साथ देती हूँ और जो गलत है उसका विरोध करती हूँ। इस प्रक्रिया में यदि कोई दूर हो जाए तो कोई गम नहीं। अकेले रह जाऊँगी , इसका कोई भय नहीं है मन में। अकेले ही इस पृथ्वी पर जन्म लिया है और अकेले ही प्रयाण भी होगा। फिर भय किस बात का ?

सत्य की राह पर अक्सर अकेले ही चलना पड़ता है। एक बार चल पड़ो तो फिर आदत सी पड़ जाती है , उसी में सुकून भी आने लगता है वही जीवन का मकसद भी बन जाता है। जो कमज़ोर होते हैं वे एक एक करके साथ छोड़ देते हैं, लेकिन सत्यवादी आगे ही बढ़ता रहता है ...अकेले नहीं , अपनी आस्था और आत्मविश्वास के साथ ....Link
सत्यमेव जयते

Zeal

42 comments:

रविकर said...

दुनियादारी ऐसी ही है ||
आभार |||

Prem Prakash said...

सच कांच की तरह होता है... हर कोई इसका सामना नही कर सकता है...!

अरुण चन्द्र रॉय said...

हर किसी में इतनी हिम्मत नहीं होती...

vandana gupta said...

आपका कहना सही है।

सदा said...

सत्‍यवादी आगे ही बढ़ता रहता है ... अकेले नहीं, अपनी आस्‍था और आत्‍मविश्‍वास के साथ ..बिल्‍कुल सही कहा है आपने ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

Atul Shrivastava said...

यदि कही गलत हो रहा है तो उस पर आपत्ति करने में दिक्‍कत नहीं होनी चाहिए। जो आज किसी के साथ हुआ वो हमारे साथ भी हो सकता है और फिर तब कोई हमारे पक्ष में नहीं खडा हुआ तो....यह बात यदि मन में आ जाए तब सच बोलने का साहस आएगा....
तटस्‍थ रहना कुछ मायनों में सही हो सकता है पर गलत होने पर चुप रहना भी एक तरह से गलत का साथ देना ही कहा जाएगा उसे तटस्‍थता नहीं माना जा सकता....
आपने अच्‍छा लिखा है.... आभार

Maheshwari kaneri said...

बहुत सही और सटीक बात कही आप ने दिव्या जी..सच्चा दोस्त वही है जो अन्तिम समय तक साथ निभाये ..बाकी सब दिखावा या मतलबी...

JC said...

मेरी सोच, अथवा योगियों की सोच के अनुसार, नाद बिंदु विष्णु / राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य, अर्थात शुक्र ग्रह के सार का, निवास स्थान - साकार मानव शरीर में - ध्वनि ऊर्जा के स्रोत, कंठ में है... जिसके माध्यम से बोलने, गाने आदि द्वारा - जिव्हा की सहायता से - प्रत्येक नोर्मल व्यक्ति अपने मन में उठते विचारों को समय समय पर व्यक्त करता रहता है, अथवा मौन भी रह सकता रहता है (जो अधिकतर 'स्वीकृति का सूचक' माना जाता है) ... अन्यथा विचारों को आवश्यकतानुसार हाथ / पैर के माध्यम से भी लिख / टंकण कर अन्य व्यक्ति (अथवा व्यक्तियों) के साथ आदान प्रदान किया जा सकता है... यह कदापि आवश्यक नहीं की सभी किसी भी व्यक्ति विशेष से हर बात पर सहमत हों... कहावत है, "पसंद अपनी अपनी / विचार अपना अपना"...

इसी कारण तो किसी भी, छोटे से छोटे विषय पर भी, मानव समाज तीन भाग में बंट सा जाता है - कुछ आपके साथ सहमत, कुछ असहमत, और कुछ न इधर के न उधर के, अर्थात तटस्थ, यानी बीच के, सिक्के के खाली बीच के मोटे स्थान के जिन्हें मानव शरीर में गले से जुड़े ऊपर सर और नीचे शरीर, अर्थात धड... राक्षस राज राहू के समान उसका अमृत सर, जिसमें मुख्य ज्ञानेन्द्रियाँ, आँख, नाक, कान, जिव्हा और मस्तिष्क समाये हैं, और नीचे 'पापी पेट' और हृदय से जुड़े विभिन्न अंश :)

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ…
तटस्थता की स्थिति प्रखर प्रज्ञा की चरमस्थिति है उसे प्रेम और सामाजिक व्यवहार में “मैनेजमेंट” के गुर अपना कर जीवन जीने वाले कैसे समझ सकते हैं। ब्लॉगिंग में कमेंट्स और फॉलोवर्स की संख्या से प्रभावित होकर लिखने वाले प्राणी जैसे मुखौटाधारी मित्र होते हैं उन्हें वैसे ही छद्ममित्र मिलते भी हैं जो विपत्ति आने पर छू… हो जाते हैं और बाद में मरहम लगाने आ जाते हैं राधिका बाई भी शायद ऐसी ही हैं। सीधे शब्दों में आपको बता रहा हूँ कि कई बार ऐसे लोग ही खुद दर्द और दर्द की दवा दोनो का ही धंधा करते हैं ये कुछ-कुछ वणिक वृत्ति के लोग हैं जो नया मुखौटा पा गये हैं तो वही लगा कर ब्लॉगर बने रेंगते रहते हैं साइबर संसार में इनसे रीढ़ की हड्डी की उम्मीद मत लगाना कि ये सीधे खड़े होने पर आपकी भीगी आँखों को पोंछ देंगे ।
सत्य की राह है ही ऐसी कि अकेले ही चलना होता है जरा एक बार गौर से देखो कि जितने भी प्रवर्तक हुए हैं क्या उनमें से किसी ने दूसरे के पदचिह्नों पर चला है वे तो आसमान में उड़ते हैं बाकी जो पीछे चल कर पंथ बना लेते हैं वे पिछलग्गू से अधिक कुछ नहीं होते । धर्म की बात करूं तो जो पक्ष में है वो अपना और जो विरोध में है वो शत्रु है यहाँ तटस्थता का कोई विकल्प है ही नहीं ।
पिछली पोस्ट में कमेंट करते समय जो बात लिख नहीं पाया उसे यहाँ लिख रहा हूँ कि हम दोनो भाई-बहन डॉक्टर हैं सो आप करो न करो लेकिन मैं घोषित तौर पर ये लिख रहा हूँ कि आपके लिये schizophrenic और paranoid जैसे शब्द लिख रहा है ये सारे लक्षण तो उस पागल, बौराए, बिलबिलाए, तिलमिलाए हुए अनुराग शर्मा(अजीब बात है कि शर्म से जिसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं उसके नाम में “शर्मा” जुड़ा है बड़ा विरोधाभास है जो कि इस तरह के पागलों में पाए जाने वाले लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है जो कि इलाज के समय रोगनिर्धारण में काम आता है ) में मौजूद हैं। इस प्राणी(और इन जैसे तमाम प्राणियों को जो कि ब्लॉगिंग करके खुद को नॉर्मल जताने की चेष्टा कर रहे हैं) को सत्यतः मुंबई आकर भड़ासाना उपचार ले ही लेना चाहिये अन्यथा पूरी उम्र लतखोरी में गुजारोगे, हमारे पास विशेषज्ञों की पूरी टीम मौजूद है जो कि पिछले कई साल से सफलता पूर्वक इस तरह से वैचारिक जुलाब के रोगियों को स्वस्थ कर रही है। भड़ास हॉस्पिटल का सम्पर्क है aayushved@gmail.com और मोबाइल नंबर है 9224496555 (मुंबई से बाहर के मरीज शून्य लगा कर डायल करें)
ज्यादा बीमार मरीजों को हम घर पर आकर भी सेवा-पूजा दे दिया करते हैं जो कि उपचार का प्राथमिक चरण है।
लिखो बहना…. फिलहाल शॉक ट्रीटमेंट के डिपार्टमेंट का चार्ज मैं ले लेता हूँ वैसे तो हम मुफ़्त उपचार ही देते हैं इसलिये मरीजों से ठीक होने पर जो दुआएं मिलेंगी उसमें बराबर की हिस्सेदारी रहेगी
हृदय से प्रेम सहित
भइया
डॉ.रूपेश श्रीवास्तव

S.N SHUKLA said...

बहुत सार्थक प्रस्तुति , बधाई

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

jeewan me vastav me aise avsar roj hi aate rahte hain..samaj me ab bishwash jaisi beshkeemti cheej ka sarvatha abhav hai..jise ham mitra samajhar burai mol le ho sakta hai apni anukool parishtiyon me radhika jaisa ho jaaye..jindagi me jab jab khone ke liye hamare paas kuch nahi hota hai ham sacche hote hain..jabh kuch thoda sa bhi khone ka kisi ke paas hota hai uska dimag kam karna shuru kar deta hai..isiliye dil aaur dimag ka birodh raha hai..dosti jab dil se hogi tab koi bhi radhika sa bartav nahi karega..jahan mahtwakankshaon ki manjil tak pahuchne ke liye riston ko dosti ka naam dekar chadhne ki jarurat hogi wo hi tatashta ka nirwah samay aane per karenge

Kunwar Kusumesh said...

ज़बरदस्त दिमागी मंथन के बाद आपने ये पोस्ट लिखी है ऐसा लगता है.मुझे रहीम दास जी का एक दोहा याद आ रहा है,आपने भी सुना होगा.ये दोहा बहुत राहत पहुंचता है.
दोहा है:-
रहिमन चुप हो बैठिये,देख दिनन के फेर.
जब नीके दिन आइहें,बनत न लगिहे देर.

Human said...

बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने दिव्या जी,बधाई !

Aruna Kapoor said...

ऐसा ही हमारे समाज का चलन है दिव्या!...९० प्रतिशत लोग राधिका की तरह की मानसिकता वाले ही होते है!...किसी को कोई कोई पीट रहा है या किसीको कोई गालियां दे रहा है तो उस प्रसंग की जानकारी हासिल भी नहीं करेंगे और कहेंगे 'हमें क्या? हमारा क्या लेना देना?'...इस प्रकार तटस्थ रहने वाले बड़ी संख्यामें मिल जाते है!...ऊपर से कहते हुए मिलेंगे कि' अरे भाई!..ताली एक हाथ से तो नही बजती!...जरुर उसने कुछ गलत किया होगा,तभी तो मार खा रहा है.."
ऐसे तटस्थ रहने वाले लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि बहुत बार किसी निर्दोष को भी जानबूझ कर दोषी ठहराया जाता है!

..हां!..जब अपने पर यही सब गुजरता है तब मित्रता और रिश्तेदारी की दुहाई दे कर गिड-गिडाकर कहते है कि.." अरे!..मेरे साथ अन्याय हो रहा है ..मै बे-कुसूर हूँ!...मेरा कोई साथ दे..मेरी कोई सुने!"

...ऐसे तटस्थ लोगों से कभी ना कभी सभी का पाला पड़ ही जाता है!
...बहुत ही सशक्त विषय है...धन्यवाद दिव्या!

mridula pradhan said...

prerna deti hui post.......sachchayee ke sath.

Bikram said...

friendship is a a big word and it comes with a LOT OF RESPONSIBILTIY.. pity is people dont think about it when they become friends ...

Never mind MAM .. not to worry .. keep smiling

Bikram's

मनोज भारती said...

वह तटस्थता जो व्यक्ति को विवेकशून्य करे और पलायनवादी बनाए, तटस्थता नहीं बल्कि जड़ता है जो उसे परिवर्तनशील नहीं होने देती । निंदा और चुगली सांसारिक स्वार्थ सिद्धि के योग हैं । इनसे व्यक्ति दूसरों से क्षणिक संतुष्टि पा सकता है, लेकिन आत्मतुष्टि नहीं । जिम्मेवारी से जो बचता है, वह तटस्थ नहीं हो सकता । कर्म करते हुए तटस्थ हुआ जा सकता है । तटस्थ हुआ व्यक्ति स्वयं के कार्य के प्रति अधिक समर्पित होता है । उसके कार्य की गुणवत्ता बढ़ जाती है । उसके कार्यों से अशुद्धियाँ मिट जाती हैं ।

विचार के तल पर और व्यवहार के तल पर जो दूरी है; जिसके कारण व्यक्ति निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता, यह द्वंद्वात्मक स्थिति ही तटस्थता को जन्म देती है । तटस्थ व्यक्ति में विशेष अवलोकन शक्ति आ जाती है । वह दूर की सोचता है । निष्कर्ष तो जीवन यात्रा में एक पड़ाव से अधिक कुछ नहीं हैं । आगे बढ़ने पर शायद तुम इन्हें भूल ही जाओ । लेकिन तटस्थता चीजों के मूल स्वरूप को दिखाने वाली एक कला है । इसकी साधना से विचार और व्यवहार में संतुलन साधा जा सकता है ।

शूरवीर रावत said...

दोस्त से उम्मीद की जाती है कि वह हर मौकों पर आपका साथ दे... और जो न दे वह दोस्त नहीं.

ZEAL said...

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mahendra verma to me

show details 8:14 PM (2 hours ago)

प्रिय दिव्या,
आज भिलाई गया था। लौट कर तुम्हारा पोस्ट देखा। टिप्पणी टाइप करने के बाद देखा कि कमेंट आप्शन बंद है। इसलिए जो लिखा था , उसे मेल कर रहा हूं।

शुभाकांक्षी
महेंद्र
.............................

भरपूर आत्मविश्वास के साथ तटस्थ रहने वालों की सोच का सही विश्लेषण। आपका यह आत्म विश्वास बना रहे।

हर घटना के दो पक्ष होते हैं, सत्य या असत्य। जाहिर है, सत्य का साथ देना चाहिए। सत्य को पहचानने वाले सत्य का साथ निर्भीक होकर देते हैं। जो लोग सत्य को नहीं पहचान पाते वे भ्रमवश असत्य को सत्य मान लेते हैं इसलिए असत्य का साथ देने लगते हैं।
तटस्थ रहने वाले दो प्रकार के होते हैं। जो लोग सत्य और असत्य दोनों का निर्णय नहीं कर पाते ऐसे तटस्थ कमजोर चिंतन शक्ति वाले होते हैं।
कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो जानते हैं कि सत्य क्या है और असत्य क्या है...मगर जान बूझ कर सत्य का साथ नहीं देते। ऐसे लोग यह दर्शाना चाहते हैं कि वे दोनों पक्षों के साथ हैं, यही तटस्थ कमजोर इच्छा शक्ति वाले होते हैं। वे यह सोच नहीं पाते कि जब इन पर विपत्ति आएगी तो दोनों पक्ष किनारा कर लेंगे।

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Unknown said...

दिव्या जी सत्य का साथ दिया जाना चाहिए और पुरजोर ताकत के साथ जिससे सत्य कभी हारे नहीं.तटस्थ रहकर सत्य को झुठलाने का प्रयास कदापि नहीं होना चाहिए. अगर तटस्थ रहना मजबूरी हो तो भी सत्य के पक्ष में खड़े जरूर दिखना चाहिए. एक छोटी सी बात से अपनी बात ख़त्म करूंगा " संत न छोड़े संतई कोटिक मेले असंत " आपके मन शांति हेतु शुभकामनाये

हिज(ड़ा) हाईनेस मनीषा said...

दिव्या दी, भाई ने बात सच्ची कही है कि तटस्थता का कोई विकल्प ही नहीं है, जो हमारे साथ नहीं है वो हमारा विरोधी है। लिबलिबे बिना रीढ़ की हड्डी वाले लोग किसी भी पक्ष में रहें उनके सत्यतः होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । एक बात आज भाई ने बतायी कि किसी कमीने ने कुतिया-पिल्ले वाली बात लिखी है उसका नाम बताइये ताकि उसे हम अपनी शैली में बता सकें कि जब भड़ासी खाँस भी देते हैं तो तूफ़ान आ जाता है। उस बेवकूफ़ को शेरनी के पंजे का एहसास नहीं हुआ क्या अब तक, जरा नाखून दिखा दीजिये तो समझ जाएगा कि गुलगुला पंजा फाड़ देने की कुव्वत भी रखता है। हम लोग घोषित तौर पर बुरे लोग हैं हमें शरीफ़ बने रहने की जरा भी बीमारी नहीं है यदि कोई आपको एक गाली देगा तो हम उसे पूरा गालीपुराण सुना देंगे और कान भी न बंद करने देंगे। आप नाम बताइये हम ऐसे लोगों की तस्वीर भड़ास पर लगा कर उनकी प्रसिद्धि की मनोकामना पूरी कर देंगे जैसा कि यशवंत सिंह की पूरी करी है।
आपको हृदय से प्रेम

रम्भा हसन said...

खबीस और मूँजी किस्म के नरपशुओं के इलाज के लिये भाई ने हमें ब्लॉगिंग सिखा कर इंसानी समाज पर बड़ा उपकार किया है। कौन है ये अनुराग बेशर्मा, निर्लज्ज कहीं का जो आपको गाली दे रहा है। गाली देने का इतना ही शौक है तो जरा हमें दो और फिर देखो कि जवाब कैसे मिलता है। हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं माउंट एवरेस्ट पटक कर देते हैं।
तुम्हें स्नेह और ढेर सारा आशीर्वाद

Asha Lata Saxena said...

मनुष्य को तटस्थ होना चाहिए पर कायर नहीं |यह तो किसी विवादों को टालने का बहुत अच्छा तरीका है|
बधाई

मदन शर्मा said...

बिलकुल सही कहा आपने...
किसी भी कारण की वजह से आदमी को सच्चाई को स्वीकारने में और खुद को सुधारने में देर नहीं करनी चाहिए। इंसान होने का अर्थ तो यही है। जो इस गुण से ख़ाली है, वह इंसान होने का दावेदार तो हो सकता है लेकिन इंसान नहीं हो सकता

दिवस said...

दिव्या दीदी
निश्चित रूप से तटस्थ रहना कमजोरी है| मुसीबत के समय ही तो अपनों की पहचान होती है| ऐसे समय में भी जब अपना दोस्त, दुश्मन से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश करे तो निश्चित रूप से वह कमजोर ही होगा|
सच तो यहिओ है कि दोस्त का दुश्मन अपना भी दुश्मन है, अन्यथा दोस्त के नज़रिए से स्वयं को दुश्मन की श्रेणी में मान लेना चाहिए|
राधिका से पूछिए, उसे क्या चाहिए, दोस्त की दोस्ती अथवा दोस्त के दुश्मन की दोस्ती? दोनों मिलना असंभव है| दोनों से सेटिंग बनाने की कोशिश की तो दोस्त से तो हाथ धोना ही पड़ेगा, दोस्त के दुश्मन का भी कोपी भरोसा नहीं|

Anonymous said...

सच बहुत विराट होता है | इसे स्वीकार कर पाना आसान नहीं होता |

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ said...

जितनी खुराक दवा की देना थी गुरूजी, मनीषा दीदी, रम्भा अक्का ने दे दी है अब अगर मैं भी दे दूंगी तो “ओवरडोज़’ हो जाएगा । आप लिखती रहिये बिना किसी जड़बुद्धि की परवाह किए बिना....
जय जय भड़ास

ZEAL said...

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धन्यवाद रूपेश भैया , मनीषा दीदी , रम्भा जी , मुव्वर सुल्ताना जी।

आप लोगों का विशेष आभार, क्यूंकि आप लोगों ने नाम लेकर इस बेशरम , सफेदपोश अनुराग का दिमाग ठिकाने लगाया, वरना यहाँ तो लोग प्रवचन करने आते हैं अपनी टिप्पणियों में , क्यूंकि इसी अनुराग की एक टिपण्णी इन्हें भी तो मिलती है न। कैसे बेचारे मोह छोड़ दें एक टिपण्णी का।

यहाँ तो लोग अंधे, बहरे और गूंगे भी हैं। एक व्यक्ति अपनी साथी लेखिका को गाली दे रहा है और लोग अंधे बने हुए हैं। अच्छा हुआ पहचान हो गयी एक-एक नकाबपोश की।

सब के सब सरकार को गाली देते हैं , मनमोहन, अडवानी , मोदी , अन्ना, रामदेव और सोनिया को गाली देते हैं। क्यूंकि कोई डर नहीं है सोनिया और मोदी की टिपण्णी खो देने का। कोई कविता में और कोई व्यंग विधा में सरकार को गाली देता है , लेकिन इतना दम नहीं की नाम लेकर गाली देने वाले एक सामान्य ब्लौगर की भर्त्सना कर सकें, क्यूंकि ये सारे के सारे उसकी टिपण्णी छापेंगे और उसके ब्लॉग पर जाकर चापलूसी भी करेंगे।

आप लोगों का विशेष आभार जिन्होंने दोषी को देखा और उसका नाम लिखकर विरोध जताया। टिपण्णी लोभियों में आप जैसा साहस कहाँ से आएगा ? ...कभी नहीं सुधरेंगे ये।

राधिका जैसे लोग, एक नहीं अनेक हैं इस ब्लॉगजगत में। चापलूसी रग-रग में समाई है यहाँ के प्रवचनकर्ताओं में।

इसी राधिका के खिलाफ जब एक महानुभाव ने आलेख लिखा था तो मैंने ओखली में सर दे दिया था, लेकिन इस एहसानफरामोश राधिका ने अपना असली रूप दिखा दिया।

जाओ राधिका तुम्हें आजाद किया आज अपने स्नेह के बंधन से।

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सञ्जय झा said...

apki santusti hi hamari khushi hai......

pranam.

M VERMA said...

तटस्थता तो हर समस्याओं की जड़ है.
सुन्दर और सचेत करता आलेख

विवेक रस्तोगी said...

बिल्कुल सही बात है सत्य की राह ही सही राह है ।

DR. ANWER JAMAL said...

आदमी को सच्चाई को स्वीकारने में और खुद को सुधारने में देर नहीं करनी चाहिए।

Nice Words .

JC said...

दिव्या जी, मैं गीता के तेरहवें अध्याय के दो श्लोक, २८ और २९ आपकी सूचना हेतु प्रस्तुत करना चाहता हूँ -

"जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है //
"जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से वर्तमान देखता है, वह अपने मन के द्वारा अपने आपको भ्रस्ट नहीं करता // इस प्रकार वह दीव्य गंतव्य को प्राप्त करता है //"

यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए दीव्य अर्थात परम गंतव्य क्या है?
यही परम ज्ञान, अथवा परम ज्ञानी अमृत शिव है!
देवताओं अर्थात हमारे सौर-मंडल के सदस्यों ने अमरत्व, अर्थात शिव को, गुरु बृहस्पति की देखरेख में क्षीर-सागर मंथन द्वारा चार चरणों में, विषैले 'कलियुग' से आरम्भ कर - द्वापर और फिर त्रेता युग पार कर - सत्य युग के अंत में प्राप्त किय...

और प्राचीन ज्ञानी हिन्दुओं, सिद्धों के अनुसार महाकाल शिव द्वारा रचित काल-चक्र में ब्रह्मा के लगभग साढ़े चार अरब वर्षों में इन युगों के योग से बने महायुग के बार बार आने से हर युग १०००+ (१०८०) बार आता है, और क्यूंकि वर्तमान वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे सौर-मंडल की आयु वर्तमान में साढ़े चार अरब वर्ष आंकी गयी है, इस कारण संभव है कि अब ब्रह्मा की रात्री निकट है...
"जो कल करना है, आज करले / जो आज करना है, अब /// पल में प्रलय होएगी / बहुरि करोगे कब?" कह गए हमारे पूर्वज...
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ / पंडित भाया न कोई", और "सीख उसी को दीजिये / जाको सीख सुहाए", भी कह गये ज्ञानी ध्यानी पूर्वज...
शेष तो हरेक की अपनी अपनी मान्यता है, और इस कारण अपना अपना 'भाग्य' माना जाता है...

aarkay said...

अवसरवादी होने की अपेक्षा कड़वा सच कह देना अधिक वांछनीय है.
मित्रों के साथ धोखा कत्तई नहीं !

सुंदर आलेख !

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

सच ,सच होता है और झूठ , झूठ |

सच और झूठ के मामले में तटस्थता .......किसी काम की नहीं , बल्कि एक तरह से झूठ का साथ देना ही हुआ |



बस यही कहना है ;



"आदमी कीड़े की तरह रेंग रहा है ,

अब उसमे एक रीढ़, लगाने की देर है |

ढह जायेंगे ये ख़ूनी सियासत के सब किले ,

बस साथ मिलके जोर लगाने की देर है |

ZEAL said...

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@ इमरान अंसारी ,

तुमने अब तक पांच अभद्र टिप्पणी लिखी , और हर टिप्पणी लिखने के बाद तुमने मुझसे माफ़ी मांगी । मैंने तुम्हारी अशिष्ट और द्वेषपूर्ण टिप्पणी मोडरेट कर दी और तुम्हे माफ़ कर दिया, लेकिन तुम बेशर्मों की तरह पीछे ही पड़े हो , आज भी तुमने अभद्र टिप्पणी लिखी । समझ नहीं आता मेरे पीछे क्यूँ पड़े हो । गजलें लिखो और मुझसे दूर रहो। तुम्हारे जैसे आस्तीन के साँपों से मैं कोसों दूर रहती हूँ।

अगर तुम्हारी भड़ास पूरी न निकली हो तो तुम भी भाड़े के टट्टुओं ( अमरेन्द्र, अरविन्द मिश्र, राजेश उत्साही , चला बिहारी ब्लॉगर बनने और अनुराग, संतोष त्रिवेदी और अमित शर्मा , प्रवीण शाह आदि की तरह सूंघ-सूंघ कर हर उस आलेख पर जाना जो दिव्या के खिलाफ हो , उस पर जाकर विष-वमन कर आना।

नामर्दों की पहचान यही है। जो मर्दों के खिलाफ कुछ नहीं कर सकते वे चूड़ियाँ पहनकर महिलाओं के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं।

तुम चाहे लाख कोशिश कर लो , तुम्हा कतई स्वागत नहीं है मेरे ब्लौग पर। अपवित्र नहीं करना मुझे अपना ब्लॉग ईर्ष्यालुओं की टिप्पणियों से।

Just get lost !

.

दिवस said...

दिव्या दीदी, साधुवाद
एक और भाड़े के टट्टू से आज परिचय हुआ है| चलिए अमरेन्द्र, अरविन्द, राजेश उत्साही, बिहारी, अनुराग, संतोष त्रिवेदी, अमित शर्मा के साथ अब इमरान अंसारी का नाम भी जुड़ गया| दो नाम और बताना चाहूँगा. १. उड़न तश्तरी (इन महाशय का नाम नहीं मालूम) और २. मासूम सा एम् एस मासूम|
एक स्त्री के सामने भौंकने में इनकी मर्दानगी दिखती है| अब चाहे कोई नायकों पर श्रृंखला लिखे चाहे शहीदों पर, इन्हें नैतिक नहीं माना जा सकता|
इमरान अंसारी की उन भद्दी टिप्पणियों को तो नहीं पदग सके किन्तु आपकी टिपण्णी से अंदाजा जरुर लगा लिया|

दिव्या दीदी, अब आपकी गिनती वीरांगनाओं में हो रही है| देखिये ब्लॉगजगत में ही इतने कथित पुरुषों की नाक में सनसनी मची है|
बेहतरीन...

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

सत्य के मार्ग पर अकेले ही चलना पड़ता है.इस मार्ग के अनुगामी भी बनते हैं- सीमित संख्या में, किंतु ये सच्चे अनुगामी होते हैं.इतिहास साक्षी है कि विजय अंतत: सत्य की ही होती है.तटस्थता भ्रम व भटकाव की स्थिति होती है अत: इसके मार्ग का सुनिश्चित होना सम्भव ही नहीं है.

Rajesh Kumari said...

ye hui na baat Divya bloging chodne ki bajaay yese logon ko yesa hi treatment do to achcha hai.khair yeh to upar valli tippani ke liye likha hai.aapka article humesha ki tarah laajabaab hai.achche vishay par likha hai kuch logon ki samajh me to aayega hi.very nice.god bless you.(kuch din ke liye baahar gai thi aaj hi lauti hoon)

अनोप मंडल said...

आदरणीय दिव्या बहन
क्या ये प्रवीण शाह वही है जिसने अपने प्रोफ़ाइल में हाथ से मुँह छिपाए हुए तस्वीर लगा रखी है? यदि ये वही है तो हमने सिद्ध कर दिया है कि ये मनुष्य नहीं है राक्षस है। भड़ास पर ये इतना घसीटा गया है कि अब उस तरफ मुँह नहीं करता ब्लॉग जगत के शीर्षस्थ धूर्तों में से एक है इस निर्लज्ज ने तो अवतार स्वरूपी डॉ.रूपेश श्रीवास्तव जी पर भी अनेक अपमान भरे आरोप लगाए हैं लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने इसकी सदस्यता समाप्त नहीं करी और इसको तार्किक तरीके से इतना रगेदा कि मुँह काला करके भागा हुआ है। आपने अच्छा करा जो कि इन मक्कारों के नाम लिख दिये। अनूप मंडल के हम सभी सदस्य आपके साहस को नमन करते हैं। ईश्वर आपको इसी तरह मजबूत बनाए रखे।

JC said...

'हिन्दू' मान्यता के अनुसार ब्रह्मा के चार मुख समान मानव को भी - उनके मुख्य कार्य करने की क्षमता के अनुसार - प्राकृतिक तौर से चार वर्णों में विभाजन किया हुआ जाना गया है...
किन्तु यह आवश्यक नहीं माना गया कि जो व्यक्ति किसी वर्ण विशेष के परिवार में जन्म ले तो वो उसी वर्ण का हो गया...

अब, यहाँ पर आता है मन के रुझान द्वारा व्यक्ति विशेष का अपने को स्वयं पहचानने की आवश्यकता... (योगियों ने मानव को शिव का ही स्वरुप जाना, किन्तु विभिन्न मात्रा में बने सौर-मंडल के सदस्यों के सार से बने होने के कारण विभिन्न काल के रूप दर्शाते)...
इस का ज्वलंत उदाहरण वर्तमान में डॉक्टर आंबेडकर का हो सकता था, किन्तु कलियुग के कारण, अर्थात काल के प्रभाव से प्रकृति द्वारा उसे एक अन्य मोड़ दे दिया गया, क्यूंकि इस युग की मान्यता के अनुसार मानव समाज वर्तमान में - काल की गुलामी के कारण - सत्य को स्वीकार नहीं करता, अथवा कर सकता...

यद्यपि अंतर्मन से अधिकतर सभी मानते हैं कि जो हो रहा है वो सही नहीं हो रहा, और मान्यता भी है की सत्य की अंततोगत्वा असत्य के ऊपर विजय होती ही है... किन्तु शायद तब तक बहुत देर हो गयी प्रतीत होती है...
और कहावत भी है कि प्रभु के राज्य में देर है / अंधेर नहीं है"!...

इस कारण साईं बाबा समान वर्तमान युग के ज्ञानी भी "श्रद्धा और सबूरी" का पाठ पढ़ा गए...
अब वो व्यक्ति विशेष के हाथ के बाहर हो तो ऐसा ही होगा जैसा आज देखने को मिल रहा है, कि 'हिन्दू' जो कभी अपने सब्र अथवा धैर्य के लिए जग प्रसिद्द थे आज उनके सब्र का बाँध टूट गया है, जो शायद तथाकथित प्रलय की ही निशानी हो...!

"होई है जो राम रचि राखा..." , तुलसीदास जी भी कह गए...

दिवस said...

दिव्या दीदी
आपको मानना पड़ेगा| आपके द्वारा सोची गयी संभावना संभव हो जाती है|
आपने कहा था कि दिव्या को बदनाम करती हुई कोई पोस्ट लगा दो तो ब्लॉग जगत के कई भाड़े के टट्टू (अरविन्द मिश्र, अमरेन्द्र त्रिपाठी, संतोष त्रिवेदी, अनुराग शर्मा, अमित शर्मा, समीर लाल, मासूम आदि) सूंघते हुए वहां पहुँच जाएंगे|
आज सुबह ही किलर झपाटा नामक एक मंदबुद्धि प्राणी ने आपकी बातों पर गौर फरमाया और लाभ भी उठाया| जहाँ कई भाड़े के टट्टू सूंघते हुए वहां पहुँच गए| इनका तुर्रा तो देखिये, इस गुमनाम ब्लोगर की जानकारी भी इन टट्टुओं को आपके ब्लॉग पर आपकी पोस्ट
http://zealzen.blogspot.com/2011/10/blog-post_14.html
से ही मिली| इनका उतावलापन भी देखिये, कि यहाँ इन्हें यह भी मतलब नहीं कि यह गुमनाम ब्लोगर (जिसे कल तक कोई जानता तक नहीं था) देश्तोड़क बातें कर रहा है| ये उन बातों को भी अनदेखा कर गए और केवल दिव्या पर केन्द्रित हो गए|
इनको देखकर कुत्तों की याद आ गयी जो भूखे प्यासे मरते रहते हैं और यहाँ वहां बोटियाँ सूंघते रहते हैं| जैसे ही कहीं से कुछ बोटी-शोटी की गंध आई नहीं कि भौंकते हुए कूद पड़े|

साथ ही गंदगी व नीचता की सभी हदें इस गुमनाम ब्लोगर ने पूरी कर दीं| अर्जी फर्जी नामों से खुद ही कमेन्ट कर रहा है| कमेन्ट करने वाली प्रोफाइलों के नाम भी ऐसे ऐसे कि सोचें तो चकरा जाएं| और तो और यहाँ आदरणीय JC जी को भी बदनाम किया गया| उनके नाम के आगे एक बेहद अश्लील शब्द लिखकर एक प्रोफाइल बनाई गयी व कमेन्ट किया गया|

ज़रा आप भी एक नज़र इस गंदगी पर डालें|
http://killerjhapata.blogspot.com/2011/10/blog-post_17.html