गाँव की भोली भाली बबली अपने सपनों को सच करने में यकीन रखती थी। पहले बड़े-बड़े सपने देखना फिर उसे सच करना यही उसकी ज़िन्दगी थी। कोई शिकायत नहीं थी उसे । खुश रहती थी वो। गाँव की बड़ी बड़ी समस्याएं हल कर चुकी थी वो , सभी गाँव वालों को उस पर आस्था और श्रद्धा हो गयी थी। उनकी अपेक्षाएं बढती जा रही थी उससे। गाँव का एक नौजवान मिहिर बबली को बहुत प्यार करता था। उसके कार्यों की सराहना करता और उसका साथ देता था। बबली की अपेक्षाएं भी मिहिर से कुछ ज्यादा ही हो गयी थीं। मिहिर बबली को अपना चाणक्य कहता था और खुद को 'सिंहरण'।
एक बार उस गाँव में कुछ अत्याचारी आ गए। बबली उन्हें भगा नहीं पा रही थी अपने गाँव से क्योंकि वे बहुत ताकतवर थे। उनके पास सत्ता का बल था जिसके कारण वे मासूम जनता पर जुल्म कर रहे थे। बबली ने सोचा शायद इन्हें हराने के लिए स्वयं को भी इतना ही ताकतवर बनाना पड़ेगा । उसने 'सरपंच' का चुनाव लड़ने की ठान ली। उसने सोचा मिहिर उसकी इस काम में मदद अवश्य करेगा, लेकिन हुआ कुछ इसके विपरीत ही।
मिहिर ने उससे कहा की उसे 'शासक' बनने की नहीं सोचनी चाहिए अपितु उसे सिंहरण की तरह गाँव के हित में युद्धरत रहना चाहिए। यदि तुम भी चुनाव लड़ोगी तो जिसके लिए मैं लड़ रहा हूँ , वो कैसे जीतेगा। गाँव के वोट बंट जायेंगे , न तुम जीतोगी , न ही वो जीतेगा। फिर ये अत्याचारी दुबारा सरपंच बन जायेंगे।
उसकी बात से स्तब्ध , वह चुप रह गयी। बबली को चुप देखकर मिहिर ने कहा- " मैं मनमोहन सिंह की तरह यस मैडम, यस मैडम कहकर तुम्हारी जी हुजूरी नहीं कर सकता। "---{ आजकल किसी को मोहन या सोनिया कहना गाली समान ही है , बुरा लगना लाजमी है}
बबली ने मिहिर की बातें ध्यान से सुनी । वह सही कह रहा था । गाँव-देश की रक्षा में तत्पर होकर लड़ते रहना ही सबसे बड़ा धर्म है। शासक होने में कोई बड़प्पन नहीं।
उस दिन के बाद से बबली ने सपने देखना छोड़ दिया। वह चंद्रगुप्त के सेनापति की तरह 'सिंहरण' बन चुकी थी।
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