प्राचीन भारत में Scholarly शिक्षा का प्रादुर्भाव था , जो विदेशी अतिक्रमण के कारण लम्बे समय के लिए रुक गया तथा हमारी बहुत सी वैज्ञानिक सम्पदा विलुप्त होगई थी । दक्षिण भारत में अतिक्रमण कम होने के कारण , कुछ ग्रन्थ जो बच गए उनसे ये प्रमाडित होता है की हमारे देश में विज्ञान तथा गणित ईसा से ५०० वर्ष पूर्व ही अर्थात आज से करीब २५०० वर्ष पूर्व , उन्नत स्थिति में था।
बाइनरी पद्धति की शुरुआत भारत से हुई थी, लेकिन इसका श्रेय मिला जर्मनी के वैज्ञानिक [Gottfried Leibniz ] को। जबकि सच तो यह है की इस पद्धति की खोज भारत के विद्वान्, पिंगला ने अपने छंदशास्त्र में छंदों के पदों [ लघु एवं दीर्घ ] की लम्बाई मापने के लिए प्रयुक्त की थी । जिसमें दीर्घ पद , लघु का दो-गुना था। पिंगला के इस छंद-शास्त्र से पता चलता है की द्विआधरिय [ Binary ] पद्धति हमारे भारतवर्ष में ईसा से करीब ५०० वर्ष पूर्व से प्रयुक्त की रही है , जबकि जर्मन वैज्ञानिक ने इसे १६९५ में खोजा था।
दशमलव पद्धति में दस संख्या होती है [शून्य से नौ तक ] , जबकि द्विआधारी पद्धति का आधार '२' होता है , जिसमें शून्य तथा एक की संख्या होती है , इन्ही दो संख्याओं के गुणकों का इस्तेमाल बाइनरी सिस्टम में किया जाता है।
द्विआधारिय पद्धति को इस प्रकार समझा जा सकता है....
-होना या न होना।
-लाइट या नो-लाइट
-sound और नो साउंड
-येस और नो
उदाहरण के तौर पर टेलेग्रफिक या इलेक्ट्रिकल सिग्नल भेजना।
इस पद्धति का प्रयोग बहुत सी जगहों पर किया जाता है। जैसे--
१-Computer में-
कंप्यूटर में बाइनरी पद्धति का प्रयोग होता है । जावा , कोबोल , आदि भाषा उपयोगकर्ता के लिए होती हैं जबकि हमारा कंप्यूटर केवल द्विआधरिय गणितीय पद्धति को ही समझता है तथा जावा आदि उन्नत भाषाओँ को येस तथा नो के कमांड में ट्रांसलेट करके ही कार्य करता है।
२- लखनऊ की भूल-भुलैय्या [ The labyrinth ]-
सन १७८४ में असफ-उद-दौला द्वारा बनी भुभुलैय्या में १०२४ सीढियां हैं , जो बाइनरी गणितीय पद्धति पर आधारित हैं। इन्हें '२' को आधार मानकर २ की घात १० गुना अर्थात [ २ x २ x २ x २ x २ x २ x २ x २ x २ x २ ] = १०२४ सीढियां बनायीं गयीं ।
बाइनरी पद्धति के इस्तेमाल से इसमें भूल-भुलैय्या वाला effect बेहतर तरीके से लाना संभव हो पाया।
भुल्भुल्लैया का विशाल भवन बिना किसी खम्बे के २० फीट मोती दीवारों से रुका हुआ है। यह दुनिया की एकमात्र सबसे बड़ी धनुषाकार संरचना है। इसमें बार-बार chadhne वाले तथा उतरने वाली सीढियां हैं। जो डेड-एंड पर समाप्त होती हैं। इसमें जो एक बार घुस जाता है वो आसानी से बाहर नहीं आ सकता । इसका निर्माण लोगों को रोजगार देने के उद्देश्य से कराया गया था। इसे बड़ा-इमामबाडा के नाम से भी जानते हैं।
तो आज वक़्त आ गया है की हम अपने गरिमामय इतिहास पर गर्व करें तथा इसे आगे ले जाने के लिए प्रयासरत रहे।