Monday, October 4, 2010

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ ...

रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिए आ --
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ--

अकेले ही आये हैं, और अकेले ही जाना है हम सभी को एक दिन। फिर भी जीवन के इस सफ़र में न जाने कितने ही अनगिनत लोग हमसे मिलते हैं बिछड़ने के लिए । कितने ही रिश्ते बनते और टूटते हैं प्रतिपल। बहुत बार सोचा इन रिश्तों का सच क्या है ? सिर्फ एक ही उत्तर मिला --

सब मिथ्या है इस जगत में। सत्य तो सिर्फ क्षणिक है। और हर क्षण इतना सूक्ष्म है , की सत्य को पकड़ कर नहीं रखा जा सकता । काल के घूमते चक्र के साथ सत्य भी तो प्रतिपल बदल रहा है । क्या है जो शाश्वत सत्य है ? क्या प्रेम सत्य है ? क्या हमारी भावनाएं सत्य हैं ? मन में चलने वाले विचारों के मंथन से उपजी असंख्य भावनाओं का सत्य क्या है ? इस पल प्रेम और अगले ही पल द्वेष में बदलती हमारी भावनाओं का सत्य कितना सूक्ष्म-कालिक है ।

जो शास्वत है- वो है बदलाव !.... " Change is the only thing which is constant "

कुछ भी अजर-अमर नहीं, सभी कुछ नष्ट ही होगा एक दिन। चाहे वो व्यक्ति हो या फिर व्यक्ति की भावनाएं। चाहे आस्था हो या फिर मान्यताएं। चूँकि हम समय को रोक नहीं सकते इसलिए समय के सूक्ष्मतम लम्हों से जुडा हुआ सत्य भी हमारे साथ नहीं रहता । लेकिन क्या हम कुछ नहीं कर सकते ? क्या चले जाने दें उन सुन्दर क्षणों को जो भुलाए नहीं भूलते ?

कर सकते हैं हम बहुत कुछ ! संजो लीजिये उन सुखद पलों को अपनी यादों में और लगा दीजिये ताला उन चंद लम्हों पर -- ११ दिन , १८ महीने, वो बारिश की रात ...

जब भी कोई हमे छोड़ के जाता है तो कोई वजह होती हैउसके पास , जिसका हमे सम्मान करना चाहिए । लेकिन कोई दूर रह सकता है क्या भला ? यादों के घेरे में कैद कोई बिछुड़ नहीं सकता।

वो पास रहे, या दूर रहे, नज़रों में समाये रहते हैं,
इतना तो बता दे कोई हमे , क्या प्यार इसी को कहते हैं ?

76 comments:

सुधीर राघव said...

जो शास्वत है- वो है बदलाव !....
सही कहा आपने, जड़ तो क्षरण के साथ खत्म ही होगा। बदलाव यानी अनुकूलन, जो बदलता रहेगा वही बचेगा।

वाणी गीत said...

प्रेम यदि द्वेष में बदल सकता है तो प्रेम था ही नहीं ...
प्रेम यदि होता है तो हर परिस्थिति में प्रेम ही होता है , द्वेष या ईर्ष्या में नहीं बदल सकता ...!

वाणी गीत said...

प्रेम यदि द्वेष में बदल सकता है तो प्रेम था ही नहीं ...
प्रेम यदि होता है तो हर परिस्थिति में प्रेम ही होता है , द्वेष या ईर्ष्या में नहीं बदल सकता ...!

Bharat Bhushan said...

बहुत दार्शनिक पोस्ट है. शाश्वत् सत्यों से भरी हुई. सुखद यादों को याद रखना ही सकारात्मक सोच कहलाती है. बाकी रह गया- 'जब भी कोई हमें छोड़ के जाता है तो कोई वजह होती है उसके पास, जिसका हमें सम्मान करना चाहिए'- सब से कठिन यही मानसिक श्रम होता है, कुछ परिसथितियों में.

Anonymous said...

इतनी भरी भरकम और विवादस्पद पोस्ट के बाद एक बहुत ही प्यारी और मन को शांत करती एक पोस्ट..
पढ़कर मन को सुकून मिला ...
वो पास रहे, या दूर रहे, नज़रों में समाये रहते हैं,
इतना तो बता दे कोई हमे , क्या प्यार इसी को कहते हैं ?
बहुत खूब...
लेकिन यह ११ दिन , १८ महीने, वो बारिश की रात ...क्या है..कृपया शंका का समाधान करें....
---------------------------------
मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html

कुमार राधारमण said...

क्षमा कीजिएगा,सत्य क्षणिक नहीं है और न ही वह काल के घूमते चक्र के साथ प्रतिपल बदल रहा है। जो क्षणिक और प्रतिपल परिवर्तनशील हो,वह सत्य हो ही नहीं सकता। सत्य अटल और अपरिवर्तनशील है। यह अच्छी बात होगी कि हम बुराई की अनदेखी करें और सुखद पलों को संजोने की प्रवृत्ति डालें। लेकिन जब हम सुखद शब्द का इस्तेमाल करते हैं,तो यह भाव भी गुप्त रहता ही है कि कुछ दुखद यादें भी हैं। इसलिए,ज्ञानीजन हमेशा वर्तमान में जीने की सलाह देते हैं।

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर क्षण होते हैं संजोने के लिये, समय के दरिया में।

अजित गुप्ता का कोना said...

इस पल प्रेम और अगले ही पल द्वेष में बदलती हमारी भावनाओं का सत्य कितना सूक्ष्म-कालिक है ।
मैंने आपकी एक पुरानी पोस्‍ट पर प्रेम के लिए यही लिखा था कि प्‍यार ना जाने किस पल में द्वेष में बदल जाए? तब आपने नहीं माना था और आज आप स्‍वयं ही लिख रही हैं।

ZEAL said...

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अक्सर एक ही व्यक्ति को प्रेम और द्वेष दोनों करते देखा है। प्रेम उस वक़्त का सत्य है, और द्वेष अपने समय का। जिस समय ह्रदय में जो भावना प्रबल होती है , वोही उस क्षण का सत्य होती है। परिस्थितियाँ हमें और हमारे विचारों को त्वरित गति से बदलती रहती हैं। और इसके साथ हमारा और आपका सच भी बदलता रहता है।

कल को जिसे हम गलत समझते थे वो अचानक अच्छा भी लग सकता है। और जो ह्रदय के बहुत करीब होता है , वो दूर भी जा सकता है।

एक भाई जो अपनी दुलारी बहिन के साथ २०-२५ वर्ष हंस-खेल कर गुजारता है , वो आनर-किलिंग के नाम पर बहिन का खून कर देता है। उसका बहिन से द्वेष तो दिख रहा है , लेकिन २५ वर्षों तक दोनों के बीच रहे प्रेम को नकारा नहीं जा सकता।

इसलिए कोई भी सत्य एक निश्चित समय के बाद अपना स्वरुप बदल देता है। और हम लग जाते हैं सत्य की खोज में। वो सत्य जो बदल चुका है । अतीत का सच वतमान में ढूंढें नहीं मिलता।

मेरी विभिन्न पोस्ट्स पाठक के दिमाग में भिन्न-भिन्न छवि बनाएगी, लेकिन कौन सी छवि मेरा सच है ? हर छवि मेरा ही एक सच है। मनुष्य मन को अनुकूल लगने वाले विचारों से प्रेरित होकर प्रेम करता है और प्रतिकूल कुछ होने पर द्वेष रखने लगता है।

इसीलिए विद्वान् कहते हैं - Live in present लेकिन दिव्या कहती है----

Live in moments !

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Yashwant R. B. Mathur said...

आप की इस पोस्ट को पढ़ के किशोर कुमार का एक गाना याद आ गया

जीवन के सफ़र में राही, मिलते हैं बिछुड़ जाने को
और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़पाने को

'क्या चले जाने दें उन सुन्दर क्षणों को जो भुलाए नहीं भूलते ?
-'नहीं जाने दीजिये ऐसे क्षणों को और न ही भूलिए क्योंकि अकेले में यही आप के साथ होंगे.

ZEAL said...

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अजित जी,

जो उस दिन ह्रदय में विचार आया वो उस क्षण का सत्य था, जो आज इस लेख में है, वो आज का सच है। वैसे भी जो उस दिन लिखा था और जो आज लिखा है, उसमें कोई विरोधाभास नहीं है।

अपनी पिछली पोस्ट पर आपका बहुत इंतज़ार किया , लेकिन किन परिस्थितियों के चलते आप नहीं आ सकीं, उन परिस्थियों का सच भी नहीं ज्ञात है।

कभी प्रेम और कभी द्वेष ही तो जीवन में विविधता लाते हैं और हमें बहुत कुछ सिखा जाते हैं।

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पूनम श्रीवास्तव said...

isi liye kaha gagya hai ki jeevan xhn-bhangur hai .is liye jitni bhi khushiyaan mile unhe samet kar rakh leana chahiye.yahi samy ki maang hai.
bahut kuchhprerna deti ek prabhavshali post.
poonam

कडुवासच said...

... bhaavpoorn post !!!

सञ्जय झा said...

रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिए आ --
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ--

HAMRE PADHNE KI BHOOK KE LIYE TOO LIKHNE KO AA--
JO MILTA HAI JAWAB TUJHE, OOSPAR PHIR SE SAWAL KARNE KO AA--(WITH EXCUSE)

PRANAM

Rajeysha said...

अहंकार का इस सब में क्‍या स्‍थान है, सोचि‍ये.... इसे बचकर मत जाने दीजि‍ये।

Aruna Kapoor said...

...यह सच है कि प्रेम अमर होता है!....लेकिन जब यह दर्द देता है तो दिल से 'आह' का उठना स्वाभाविक है!....व्यथा समझ में आ रही है!

ZEAL said...

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राजेय जी,

अहंकार को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हम सभी साधारण मनुष्य अहंकार के पाश में बुरी तरह जकड़े हुए हैं । इसमें कोई दो राय नहीं की ज्यादातर ऐसा होता है जब लोग झूठे अहम् के चलते अपनों से दूर हो जाते हैं।

लेकिन फिर भी बुद्धिमत्ता इसी में के जाने वाले के अहम् का भी सम्मान किया जाए और उसके सम्मान को किसी प्रकार की ठेस न पहुंचे।

बहुधा ऐसा होता है की इंसान अपनी गलतियों को रियेलाइज करने के बाद दूने विश्वास के साथ आपके जीवन में वापस आता है। इस बार उसकी आस्था आपने द्विगुणित हो जाती है। और वो कभी वापस न जाने के लिए आपके पास आ जाता है।

कभी-कभी एक दुसरे को समझने के लिए धैर्य , उचित दुरी और पर्याप्त समय की भी आवश्यकता होती है।

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अंकित कुमार पाण्डेय said...

:)

मुकेश कुमार सिन्हा said...

satya kshanik hai, lekin fir bhi isko prapt karna hi dubhar hai...:)

सदा said...

बहुत ही सही कहा आपने, सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

ashish said...

इस संसार में प्रेम का शाश्वत होना या चिर युवा होना एक स्वप्न मात्र ही लगता है . परिस्थितिया बदलने के साथ प्रेम का बदलना , केवल एक छलावा मात्र है . अच्छी विचारोत्तेजक पोस्ट .

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

प्रिय बहन,सीधी सच्ची सरल सी पोस्ट जो कि ईमानदारी से आपके मूल व्यक्तित्व को बता देती है। शेखर सुमन जी को आपकी निजता में झांकने में ही सुख है बड़ा गहरा कौतूहल रखते हैं आपके निजी पलों के प्रति..... जिन्हें आपने बिन्दुकित करके छोड़ दिया है वे उसके आगे जाना चाहते हैं पत्राकारिता से भी आगे के हैं ये महानुभाव।
परिवर्तन ही तो एकमात्र अपरिवर्तनशील नियम है, चित्तवृत्तियां बदलती हैं सत्य को देखने समझने के कोण बदलने से रूप भिन्न लगने लगता है। मैं सदैव आपके साथ हूं ये सत्य है और काल के किसी भी आयाम में नहीं बदलेगा। जो अमर हैं वो नहीं पधारे अब तक??? अमरता खत्म हो गयी या निठल्लापन??? कुछ काम में उलझ गये होंगे शायद क्या ऐसा भी हो सकता है????
हृदय से प्रेम सहित

सम्वेदना के स्वर said...

प्रेम का वह रूप जो अगले पल घृणा बन जाये उसे प्रेम कहेंगीं आप?

In first place one should know "that was not प्रेम" वह घृणा का शीर्षासन करता रूप था जिसे हमनें प्रेम समझ लिया था। जरा टटोलें उसे, उसमें हमारा "मैं" जुड़ा हुआ था जिसे हम प्रेम कह रहे थे। प्रेम के लिये UNCONDITIONAL होना अपरिहार्य है।
love is not some thing to get or some thing to give some one.

It is a state of being. आप प्रेममय हो सकते हैं, उस गुलाब की तरह जिसकी खुशबू सब ओर बहती है, चाहें पास ही गन्दा नाला हो या मैथलीशरण गुप्त वहां खड़े हों....क्योकिं मस्ती प्रेम की प्रकृति है it is overwhelmness... अब समाये नहीं समायी जाती... क्या करें झरती जाती है....ऐसा प्रेम हो तो ही प्रेम....वरना शीर्षाषन करती घृणा है..

अपना पैमाना तो अब यही है,हाँ शीर्षाषन भी सुबह शाम चलता ही रहता है॥

S.M.Masoom said...

अकेले ही आये हैं, और अकेले ही जाना है हम सभी को एक दिन। फिर भी जीवन के इस सफ़र में न जाने कितने ही अनगिनत लोग हमसे मिलते हैं बिछड़ने के लिए । कितने ही रिश्ते बनते और टूटते हैं प्रतिपल। बहुत बार सोचा इन रिश्तों का सच क्या है ?

ZEAL said...

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Kindly think out of the box !!

निवेदन है की एक सीमित दायरे से बाहर जाकर भी सोचें ।

जो द्वेष में बदल जाए वो प्रेम नहीं है , ये तो मैं भी कह सकती हूँ....लेकिन मैंने इस पोस्ट में ये कहने की कोशिश की है की भावना बदलती रहती है, समय के साथ .... जब प्रेम है तो वो एक निश्चित काल से जुड़ा हुआ है। समय और परिस्थिति बदलने के साथ वो बदल गया तो कोई अचरज नहीं। वो क्षणिक प्रेम अथवा द्वेष , दोनों ही अमर हो गया उन गुजरे हुए पलों के साथ।

आज मेरी माँ नहीं हैं । तो जो मुझे प्यार करती थीं वो कहाँ हैं , और उनका प्यार कहाँ गया ? दोनों तो सत्य थे , फिर भी उस सत्य का स्वरुप बदल गया। न तो वो माँ हैं अब जो मेरे अतीत का सत्य थीं , न ही उस प्रेम को वर्तमान में महसूस कर सकती हूँ। जो शेष है वो संजोयी हुई स्मृतियाँ हैं। समय के साथ सत्य का स्वरुप भी बदल गया।

सत्य का प्रमाण इन्द्रियों को चाहिए । इन्द्रियां जिसे देखेंगी और महसूस करेंगी , वही सत्य है।

भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है , वजह चाहे कुछ भी हो। [ जर , जोरू , जमीन ] । आजका द्वेष , कल के प्यार के अस्तित्व को नकार नहीं सकता।

अनिल और मुकेश अम्बानी दो भाई प्रेम से पले बढे। व्यावसायिक कारणों से द्वेष आ गया एक दुसरे के प्रति। लेकिन उनके जीवन में प्रेम और द्वेष दोनों का अस्तित्व है जो अपने-अपने समय का सत्य है। सिर्फ समय बदलने के साथ उसका स्वरुप भी बदल गया।
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Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर लेख है ...
आपने सही लिखा है .. बदलाव ही एकमात्र शास्वत सत्य है
पर यादों का क्या करें ?

vijai Rajbali Mathur said...

Vastutah kumar Radharaman ji ka kathan ki SATYA ATAL HAI hi satya hai .Satya kabhi nahi badalta hai,badalta hai usey dekhne walon ka nazaria hi .25 varsh yadi bahan se pyar rakhta to uska saath deta ,honour-killing nahi karta.
PREM dekhna hai to SUGREEV aur RAM,SUDAMA aur KRISHAN me deekhega.
Lagbhag 20 varsh hue Hariyana me ek bhai ne apne MAA-BAAP se bagawat karkey apni bahan ka saath usey love -marriage me sahyog dekar kiya thaa.Shadi C.P.M.office me Marx/Angel ki photo ke samney 5 phal aur 5 phool dekar hui thi .Jab M.R. Scindia ke betey ki shadi hui usi waqt ki baat hai yah ,isey kahengey BHAI-BAHAN ka pyar.

Ganesh said...

Hello Zeal, Pranaam ! Not sure whether my hindi can be understood..so, will not take a risk :)..
Aapne teek se kaha..hum sab akhele hi aaya aur akele hi jaana he ek n ek din..then what is our relationship with others? Spiritually speaking, there is no relationship except the relationship with Godhead. but there is this duality principle too..
however, being born a human is not by accident. there surely is a reason. we all strive to think who we are for a few days and then the thought fades away in the din of the world around us...with fights, scenes, hearsays, gossips, politics taking the toll....not that we should be saints and renounce the world..but, the avatar of human form is such that it has a chance to knowing the self better and thus improving everythng else around us...Love, which is the most fragile aspect to grace us all is present in every one's nature.When we cant know this true nature, how can we understand other's? In my view if we cant understand our own self everythng else is not true either...itz only for sake of society and selfishness.So, the question...what is our true role in the context of existance around us?

ZEAL said...

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@-पर यादों का क्या करें ?

Indranil ji,

Cherish the beautiful moments !

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Ganesh said...

I posted my comment..but it vanished...

समयचक्र said...

रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिए आ --
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ--

क्या बात है ... बढ़िया पोस्ट... बधाई.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जीवन के सफर में राही,
मिलते हैं बिछुड़ जाने को!
और दे जाते हैं यादें,
तनहाई में तड़पाने को.......!

निर्मला कपिला said...

सही बात है सब कुछ क्षणिक है--- मगर कुछ ऐसा मन पर उकर जाता है जो जीने के लिये काफी होता है। जीवन दर्शन और चिन्तन मे दिव्या का जवाब नही। आशीर्वाद।

Anonymous said...
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सम्वेदना के स्वर said...

दिव्या जी!
"मेरा भाई,मेरा ये या मेरा वो" में ही शायद वो शीर्षासन वाला तत्व छिपा हुआ है।
सवाल शायद यही है कि उस प्रेम को क्षुद्र से विराट कैसे बनाया जाये!
भारतीय मनीषा कहती है कि बून्द सागर में गिर जाये तो सागर हो जाती है, यह हुआ समर्पण! और यदि बून्द इतनी विराट होने की सतत कोशिश करें कि सागर उसमे समा जाये, तो यह हुई कर्मयोगी की यात्रा!
आपने चर्चा छेड़ी तो प्रेम के सम्बन्ध में कुछ विचार भर रख दिये। बाकी इन ढाई अक्षरों पर कहने की बहुत हैसियत नहीं अपनी!
-चैतन्य

Anonymous said...
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Anonymous said...

दिव्या जी आपने मेरी शंका का समाधान नहीं किया.... लगता है कुछ खफा हैं आप मुझसे....अगर ऐसा कुछ है तो हाथ जोड़कर आपसे तहे दिल से माफ़ी माँगना चाहूँगा....

आज पता नहीं क्यूँ मैं पिछले ६ घंटों से आपके ब्लॉग पर हूँ.. शायद जानना चाहता था आपके बारे में, आपकी सोच के बारे में...

मैंने आपके मई और जून कि सारी पोस्ट्स पढ़ी हैं सारी टिप्पणियों के साथ....(कुछ टिप्पणियों को छोड़कर).. आपकी सबसे अच्छी पोस्ट ११ days लगी, और जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं ? आपकी इंग्लिश बहुत अच्छी है...लेकिन थोडा बुरा यह लगा कि इंग्लिश ना जान्ने वालो के साथ आपने थोडा बुरा बर्ताव किया है.... खैर यूँ ही किहते रहे आगे भी पढना चाहूँगा..

और हाँ माफ़ ज़रूर कर दीजियेगा....

Anonymous said...

Dr.Rupesh Shrivastava जी आप मेरे बारे में कुछ ज्यादा ही सोच बैठे हैं....ऐसा कुछ नहीं है, मैं इस ब्लॉग पर नया हूँ इसलिए मुझे जानकारी नहीं थी.... मैंने सरल शब्दों में पोस्ट की तारीफ़ की और एक जगह समझ में नहीं आया तो लेखिका से पूछ लिया.. पर ना जाने क्यूँ उनके आपत्ति जताने से पहले आपको परेशानी हुई....

Kailash Sharma said...

what a discussion in philosophical mood! You are absolutely correct that the change is the only thing which is constant. Though it is not easy to follow,but cherish and enjoy the present and try to forget what has happened or will happen. An excellent post. Regards..

शरद कोकास said...

विचार तो आने ही चाहिये ।

ZEAL said...

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चैतन्य जी,

@--भारतीय मनीषा कहती है कि बून्द सागर में गिर जाये तो सागर हो जाती है, यह हुआ समर्पण!

निसंदेह प्रेम का ये समर्पित रूप स्तुत्य है। आपने एक नए आस्पेक्ट से परिचय कराया...बहुत अच्छा लगा।

आपका आभार।

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ZEAL said...

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शेखर जी,

बिलकुल खफा नहीं हूँ आपसे। आपके प्रश्न का उत्तर तो मेरी पोस्ट - Eleven days पढने के बाद आपको मिल ही गया होगा।

ये ब्लॉग तो Discussion के लिए ओपन फोरम है। यहाँ सभी के विचारों का स्वागत है। विभिन्न विचारों से हमारा विकास होता है। मैं तो यहाँ आने वाले हर पाठक की ऋणी हूँ। आपके विचारों से मेरी सोच को एक नयी दिशा मिलती है। मैं खुद को और बेहतर बनाने का प्रयास करती हूँ।

जब तक कोई व्यक्तिगत आक्षेप न करे , कुछ भी बुरा नहीं लगता।

मेरे ब्लॉग पर विषय ही ऐसे होते हैं जो लोगों को बेबाक राय देने को बाध्य करते हैं, और मुझे लोगों की बेबाक , बिंदास और इमानदार विचार बहुत अच्छे लगते हैं। इसलिए बुरा मानने की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है।

हाँ मैं अपने पाठकों से करबद्ध क्षमा चाहती हूँ , किसी भी प्रकार की अनजाने में हुई भूल के लिए।

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महेन्‍द्र वर्मा said...

दार्शनिकता से परिपूर्ण आप का आज का चिंतन सौ प्रतिशत सही है। सब कुछ नश्वर है। यदि कुछ सत्य प्रतीत होता है तो वह भी ,वेदांत के अनुसार, ‘माया‘ के कारण प्रतीत होता है। इसीलिए परिवर्ततन ही शाश्वत सत्य है। एक गीत का उल्लेख कर रहा हूं जो मनुष्य को वैराग्य की ओर प्रेरित करता है। लेकिन हम साधारण मानव वैराग्य का वरण तो नहीं कर सकते। इसलिये आपने जो लिखा है कि ‘‘संजो लीजिये उन सुखद पलों को अपनी यादों में और लगा दीजिये ताला।‘‘- यह पूर्णतया सही है। मनुष्य की सांसें सुखद यादों के सहारे ही तो चलती रहती हैं।
अब उस गीत का उल्लेख -
मन रे तू काहे न धीर धरे,
ओ निर्मोही, मोह न जाने
जिनका मोह करे।
इस जीवन की चढ़ती ढलती, धूप को किसने बांधा,
रंग पे किसने पहरे डाले, रूप को किसने बांधा,
काहे को जतन करे...
इतना ही उपकार समझ ले जितना साथ निभा दे,
जनम मरण का मेल है सपना ये सपना बिसरा दे,
कोई न संग मरे...
अंत में, आपकी चिंतनशीलता को नमन ।

मनोज कुमार said...

अनंत की स्पष्टता को स्पषट करने का प्रयत्न स्पष्ट है।

ABHISHEK MISHRA said...

आप ने सत्य की अच्छी , दार्शनिक और वैवाहरिक परिभाषा दी .
''
सत्य का प्रमाण इन्द्रियों को चाहिए । इन्द्रियां जिसे देखेंगी और महसूस करेंगी , वही सत्य है।''

तात्कालिक सत्य तो यही है .और कोई सत्य कितना भी बड़ा क्यों न हो पर वह उस व्यक्ति के लिए तब तक सत्य नही है जब तक इन्द्रियों को प्रमाण न मिल जाये .
बहुत ही सुन्दर विचार

डा० अमर कुमार said...
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Rohit Singh said...

दिव्या जी
देखिए पहले ही साफ कर दूं कि मैं रंजिश की वजह से नहीं आता। न ही दिल दुखाने के लिए आता हूं। हां दुख हो जाए तो ये समझ लीजिएगा कि जालिम मारता भी है औऱ रोने भी नहीं देता। हाहाहाहा.. (मज़ाक कर रहा हूं जी)

वैसे आपकी पोस्ट पर पर तरह के रंग कि टिप्पणियां पढ़कर मन खुश हो जाता है। पोस्ट के जिनते रंग महसूस करता हूं आपके पाठक उस पर इतनी चर्चा करते हैं और उसपर आपके प्रत्युत्तर पोस्ट को चार चांद लगा देते हैं। पोस्ट पढ़ते वक्त एक साथ मन जाने कितने बीते पलों को याद करता है, कई घटनाओं का जो विश्लेषण किया होता है उसे दोबारा याद दिला देता है कहना मुहाल है मेरे लिए। जाने क्यों बचपन से दुनिया के कई रंग अनजाने में देखता रहा, सो हर चीज ऐसे लगती है जैसे, ऐसा हो चुका है, या ऐसा हो सकता है, या ऐसा होगा। इसलिए कई बार पोस्ट और टिप्पणियां पढ़कर कुछ कहने को बाकी ही नहीं रह जाता। पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी से याद आया कि मीरा वंदावन में एक महात्मा के यहां गई। उन्होंने मिलने से मना कर दिया। उनके शिष्यों ने कहा कि महात्मा जी किसी स्त्री से नहीं मिलते। मीरा हंस कर पड़ी। कह उठीं-यहां दूसरा पुरुष कौन है। महात्मा जी ने जैसे ही ये बात जानी, तत्कार आकर मीरा से मिले और क्षमा मांगी। सही भी है कि पुरुष या स्त्री का भेद कहां। कान्हा ही एक पुरुष है। वहीं सुफी संत अल्लाह को अपनी प्रेमिका मानकर उसमें रम जाना चाहते हैं। रसखान कहते हैं कि प्रेम हमेशा प्रेम ही रहता है। प्रेमिका कि खुशी ही अपनी खुशी होती है। रसखान कहते हैं कि जहां कांटे होंगे वहां कांटे और उनकी प्रेमिका के पैर के बीच उनकी हथेली होगी। हम कभी प्रेम करते हैं, फिर न मिलने पर उसकी निंदा करते हैं। कभी क्रोध में आकर उसे चोट पहुंचाने की सोचते हैं। फिर अंत में पाते हैं कि उसे चोट पहुंचा कर खुद को चोट पहुंचाया है। फिर पाते हैं कि उसकी खुशी में ही हमारी खुशी है। प्रेम कभी प्रतिदान नहीं मांगता। प्रेम हर मन में रहता है चाहे वो भयंकर जानवर भी हो। बस उस प्रेम को जागना होता है कि फिर परमानंद की प्राप्ति होते देर नहीं होती। खैर सत्य औऱ प्रेम के इस अनेक रंग की व्याख्या मैं अज्ञानी क्या कर सकता हूं।

ethereal_infinia said...

Dearest ZEAL:

A rejoinder to the title of your post can be aptly thus –

Tumne pukaaraa aur hum chale aaye
Jaan hatheli par le aaye re

That was on a lighter note. On a more somber footing I begin with:

Ab tak dil-e-khsush+fahm ko tujh se hain ummide
Yeh aakhri shamme bhi bujaane ke liye aa

This is the power of hope and faith in love! A lamp lit besides the tomb is the symbolism of the life-long wish coming true. The paradox of the invitation here is that even to extinguish that flickering flame of hope, the beloved has to come to meet which is what the lover waited all his life for.

Love is an ethereal element which lasts eternally and the ephemeral span of life of a feeling that passed away with the moment can be something worldly, but not love. Togetherness of love is constant and is never changing.

As it is with faith, so is with love – if it is lost, it was never there.

In such a case, what was perceived as ‘love’ can only be thus –

Hasti apni hubaab ki si hain
Yeh numaaish saraab ki si hain

[Hasti = Existence, Hubaab = Bubble,
Numaaish = Display, Saraab = Illusion]

Our faith in religion is neither momentary nor wavering. It is not subject to the whims and fancies attributable to the dictum of ‘change’.

As you have rightly said at the end of your post, the limitations of geographies cannot undermine the power of love. It travels over time and space [Shakespeare’s Sonnet # XLIV] and reaches the farthest place in a flash to be with the beloved.

Maanaa ke mohabbat kaa chhupaanaa hain mohabbat
Chupke se kisi roz jataane ke liye aa

The affirmation of love is one of the tender-most moments of life. It is a not merely a line of agreement, of concurrence, of conformance. It is a vow of lasting commitment for the Walk Of Life.

Jaise tujhe aate hain naa aane ke bahaane
Aise hi kisi roz naa jaane ke liye aa

Love arrives permanently. It comes never to go away. At the invocation of the beloved, there are many a things to ponder on before stepping on, but when convinced of love, no barriers exist.

[While the ghazal ‘Ranjish Hi Sahi is by Ahmed Faraz, the above couplets often sung are actually written by Talib Baghpati]

On your mention of living in moments or cherishing the moments that were, I present a short sonnet to you:

Moments of Time

From the moment upon us to eternity
Let us travel from turmoil to serenity
The moment in its existence ephemeral
Casting impressions of the shade surreal

Slipping by into timeless vault so fast
To be stowed away to realms of past
Lo! we see the grain of sand in hand
The moment of ‘is’, thus in next end

Ensuing ebb and swell, Destiny bides
Taking life to spring and neap tides
Surface of time, a liquid, has ripples
Ride together as we build our steeples

Live in love! Zeal’s journey has just begun
Bless her, Gods! Merry be her Communion!!

All said and done, Love is the exception to the ‘shaashwat’ rule of change. It either lasts forever or it just wasn’t there. There are no ‘moments of love’. Every moment is love when it is true. Often in life, before we discover the love of our life, we happen to come across mirages that looked like love but mirages are mirages. They do not exist. Having said that, mirages lead the forlorn traveler in the blazing desert of loneliness to the oasis of love because it instills faith in the traveler that water – the elixir of life – is nigh and not far.

I began with a lighter note and so do I sign off with one –

While I know not of 11 days and 18 months [zmiles], but for the third mention, I can merrily sing –

Zindagi-bhar nahi bhulegi woh barsaat ki raat
Ek anjaan haseenaa se mulaaqaat ki raat


Arth Desai

ZEAL said...

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महेंद्र जी,

'माया' शब्द का बहुत सही उपयोग किया आपने। मझे भी अपनी बात कहने में अब आसानी होगी। इस माया के चलते ही मनुष्य प्रेम अथवा द्वेष रखता है। अता-उल्ला -खान ने जिस स्त्री के मोह में पड़कर उसे प्रेम किया, उसी का जीवन समाप्त कर दिया , सिर्फ इसलिए क्यूंकि उसे वो अप्राप्य हो गयी ।

उसका प्रेम , परिस्थितियों के चलते द्वेष में बदल गया।

यदि प्रेम अमर है, तो द्वेष भी अमर ही है।

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ZEAL said...

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जैसे सूरज की रौशनी एक सत्य है , लेकिन दिन ढलने के बाद उसी सत्य का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता , और अन्धकार उसकी जगह ले लेता है।

फिर सत्य क्या है ? प्रकाश या फिर अन्धकार ?

बदलते समय के साथ सत्य का बदलता स्वरुप जिसने दिन और रात जैसे दो सन्दर्भों को प्रस्तुत किया। दोनों ही तो सत्य है।

जिस समय इन्द्रियों को जो ग्राह्य होगा , वही उस काल का सत्य होगा।

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ZEAL said...

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@-प्रेम कभी प्रतिदान नहीं मांगता। प्रेम हर मन में रहता है...

रोहित जी,

सही कहा आपने, प्रेम कभी प्रतिदान नहीं मांगता। इसलिए मैंने ऊपर स्पष्ट किया है की यदि कोई हमसे रूठ कर हमसे दूर जाता है तो वो हमसे निराश होकर जाता है। हमे उसके अहंकार और स्वाभिमान दोनों का मान रखना होगा। क्यूंकि वो गया तो निराश होकर ही है , लेकिन ह्रदय में उसके प्रेम ही है। अब बढ़ने वाली दूरी प्रेम के अस्तित्व को धीरे-धीरे धुंधला कर देती कर देती हैं। और जो शेष रहता है वो सिर्फ स्मृतियाँ ही हैं। यदि जाने वाला व्यक्ति वापस आता है उसका प्रायश्चित उस समय का सत्य होगा। यदि वो आक्रोश में आकर हमें निराश करता है तो उसका द्वेष उस काल का सत्य होगा।

व्यक्ति एक ही है, लेकिन बदल समय और परिवेश में उसी व्यक्ति का सत्य बदल गया...कभी प्रेम, कभी न कम होने वाली निराशा और पीड़ा, कभी उदासीनता, कभी द्वेष तो कभी पश्चाताप।

ये सभी उस काल का सच हैं , लेकिन शाश्वत नहीं हैं।

समय के साथ उसका स्वरुप भी बदलता है और कभी कभी अपना अस्तित्व भी खो देता है। इसलिए सत्य तो है लेकिन शास्वत नहीं है।

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ZEAL said...

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जब मनुष्य ही नाशवान है तो फिर उसमें उपजने वाले भाव कैसे अमर हो सकते हैं? जब बुढ़ापा आता है तो बचपन का अस्तित्व समाप्त होकर स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं।

एक स्त्री जब माँ , बनती है तो उसके अन्दर की छोटी बच्ची का उन्मुक्त , उचशृंखल मन एक संजीदा और जिम्मेदार माँ में बदल जाता है।

सत्य तो है लेकिन स्वरुप निरंतर बदलता रहता है , बीते हुए लम्हों को संजोया जा सकता है, बाँधा नहीं जा सकता।

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ZEAL said...

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प्रिया जी,

आपको अपनी पिछली कुछ पोस्टों पर न पाकर मन बहुत अवसादित था। लेकिन आज सुबह अपनी पिछली पोस्ट्स पर आपकी सार्थक टिप्पणियों से मन बेहद हर्षित है। आपके गहन चिंतन और नया सोचने को मजबूर करती आपकी टिप्पणियों का बेहद इंतज़ार रहता है। इस पोस्ट पर भी आपकी प्रतीक्षा रहेगी।

आपकी विचारशीलता की कायल हो गयी हूँ। और आपके प्रति मन में अथाह स्नेह रखती हूँ।

आपके इंतज़ार में,
आपकी दिव्या

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ZEAL said...

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@--Ab tak dil-e-khsush+fahm ko tujh se hain ummide
Yeh aakhri shamme bhi bujaane ke liye आ

अर्थ देसाई जी,

बहुत ही सुन्दर पंक्तियों का ज़िक्र किया आपने। आखिरी शम्मा बुझने के बाद तो उस मनोहारी पीड़ा का भी अंत हो जाएगा। एक नया सत्य आकार लेगा, शायद कोई और शमा जलेगी कहीं। फिर बुझेगी और फिर जलेगी कहीं।

हर शमा अपने-अपने समय का सत्य होगी। प्रेमी ह्रदय तो प्रेम की अलख जगाता ही रहेगा, यहाँ नहीं तो वहाँ ।

बाँध कर रखना तो स्वार्थ हुआ। इसलिए जो जाता है उसे जाने दो , कहीं तो बहार आएगी ।

किस चमन में बहार आई है ये बड़ा नहीं। बड़ी बात तो ये है बहारें आती रहे...

गुलों में रंग भरे, बादलों-बहार चले...

नोट-- आपने जो कविता लिखी है , बहुत पसंद आई, इसके लिए आभार।

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संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सत्य यही है कि इंसान हर सखन बदलता है ..उसके मन की भावनाएं परिवर्तित होती रहती हैं ...द्वेष का जन्म भी प्रेम से ही होता है ..जिसको आप जानते नहीं पहचानते नहीं ..जिससे कोई सरोकार नहीं उससे आप क्या द्वेष करेंगे ...कहीं न कहीं आप उस व्यक्ति से जुड़े हैं जिससे द्वेष कर रहे हैं ...

कुछ भी अजर-अमर नहीं, सभी कुछ नष्ट ही होगा एक दिन। चाहे वो व्यक्ति हो या फिर व्यक्ति की भावनाएं। चाहे आस्था हो या फिर मान्यताएं। चूँकि हम समय को रोक नहीं सकते इसलिए समय के सूक्ष्मतम लम्हों से जुडा हुआ सत्य भी हमारे साथ नहीं रहता

यही शाश्वत सत्य है ...

वीना श्रीवास्तव said...

सब मिथ्या जरूर है लेकिन इंसान के एहसास उसके जीने के सबसे बड़े सहारे हैं...मिलना-बिछड़ना जीवन की रीत है...कब कौन मिले, कौन बिछड़े..क्या पता लेकिन जो पल अपने हैं उनमें जीना भी चाहिए और उन्हें संजोकर भी रखना चाहिए...एहसासों को जब तक जीवित रख सकें जीवित रखना चाहिए क्योंकि वही हमारा सहारा हैं...यहां तक कि खामोशियों में भी...

arvind said...

bahut badhiya philosphy...acchaa lagaa padhkar.

शोभना चौरे said...

दिव्याजी
इतना सब कुछ लोगो ने इतने सुन्दर ढंग से कह दिया है प्रेम, सत्य ,द्वेष के बारे में |
और उस पर आपका विश्लेष्ण भी सशक्त रहा है अब तक |
मेरा तो स्वयम का अनुभव है प्रेम में कोई द्वेष ,इर्ष्या नहीं होती |
और यः क्षणिक भी नहीं ही होता प्रेम तो शाश्वत है ईश्वर से क्या क्षणिक है प्रेम ?अपने बच्चो से माया मोह तो है ही पर साथ में उनसे प्रेम क्या क्षणिक है ?भाई बहनों का आपने जिक्र किया है आनर किलिंग के संदर्भ में वो प्रेम नहीं है लगाव है ६० -७० साल एक साथ गुजारने के बाद पति पत्नी के लगाव को भी हम प्रेम नहीं कह सकते वहन भी लेन देन ,मान सम्मान ,यश अपयश समाज कि बाध्यता कई बार आधार होते है |किन्तु प्रेम कुछ मांगता नहीं केवल अनुभूति होती है और इसीलिए प्रेम शाश्वत है |
मै नहीं जानती ये किसने लिखा है ?
किन्तु महसूस किया है इन शब्दों को
हर दुआ कुबूल नहीं होती
हर आरजू पूरी नहीं होती
जिनके दिल में
आपके जैसा दोस्त रहता हो
उनके लिए धड़कन भी
जरुरी नहीं होती .............

Ejaz Ul Haq said...

India has Changed - आ गया है बदलने का वक्त पढ़ने के लिए आप सभी सादर Invite हैं मेरे चिट्ठे पर

G Vishwanath said...

Quote:
रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिए आ --
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ--
Unquote:

लो, हम वापस आ गए!
पर आपका या किसी का दिल दुखाने के लिए नहीं!
एक अवधी के लिए चुप था, किसी कारण।
बस अब छोडकर कहीं नहीं जाऊंगा।

अब इस पोस्ट पर इतने सारे लोग टिप्प्णी कर चुके हैं।
मैं और क्या कहूँ?
अगली पोस्ट से टिप्पणी का दौरा कायम रखेंगे।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ

पी.एस .भाकुनी said...

एक नए अंदाज़ में आपकी यह पोस्ट भी कम विवादास्पद नहीं है ............यह तूफ़ान आने की चेतावनी है या फिर
तूफ़ान के चले जाने का सन्देश देती है ? कुल मिलाकर एक अच्छी प्रस्तुति हेतु आभार .

ZEAL said...

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Vishwanath ji,

Welcome back Sir !

Regards.

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ZEAL said...

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@ P S Bhakuni--

Discussions are of two types--

1- Friendly discussions. [ vaad ]
2- Hostile discussions. [ vivaad ]

In my humble opinion , It is vaad --A friendly discussion indeed.

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Regards,

योगेन्द्र मौदगिल said...

wah.......sunder bhavabhivyakti.......sadhuwad swikaren...

वीरेंद्र सिंह said...

आपका ये दार्शनिक अंदाज़ अच्छा लगा ..
कई बाते दिल को छू गई ...
प्यार के संबध में लिखी गयी बातें अच्छी लगी ...
शानदार पोस्ट के लिए बधाई ............

प्रतुल वशिष्ठ said...

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"प्यार" शब्द को
कबीर जी ने इस ढाई आखर का कहा है.
और इसी को वैयाकरणों ने एक अक्षरी कहा.
जो सुख एक अक्षरी शब्दों के उच्चारण में है वह बहु अक्षरी में नहीं.

राम, ओउम, कृष्ण, प्रेम प्यार आदि ...

एक अक्षरी शब्दों के पहचानने का सरल तरीका है :
उन्हें यदि अंग्रेजी में लिखें तो उनमें एक वोविल होता है.
और यदि उनका उच्चारण करें तो उनको टुकड़ों में बोलना सहज नहीं होता. वे एक स्फोट में बुला करते हैं.

सूबेदार said...

नमस्ते
आखिर राम जन्मभूमि पर फैसला आ ही गया आन्दोलन की सार्थकता पर न्यायालय ने मुहर लगा ही दी.
आज आपकी पोस्ट बहुत अध्यात्मिक है कुछ उचाई से निकल रही है --ढाई अक्षर प्रेम क़ा पढ़े सो पंडित होय .--

फ़रहीन नाज़ said...

@Shekhar suman
जनाब आप शायद जो प्रतिक्रिया कर रहे हैं कि डॉ.रूपेश श्रीवास्तव जी को दिव्या दी’के आपत्ति जताने से पहले ही क्यों आपकी उनकी निजता में ताकाझाँकी करने पर परेशानी हुई तो बस इतना जान लीजिये कि वो बड़े भाई हैं। रही बात डॉ.रूपेश जी के बारे में बताना तो ये भी लगे हाथ जान लीजिये कि डॉ.दिव्या श्रीवास्तव और डॉ.रूपेश श्रीवास्तव एक दूसरे के प्रतिरूप ही हैं वैसे आप तो प्रोफ़ाइल पर जाकर असल और बनावटी के भी दावे करते हैं तो लगे हाथ इन्हें भी जाँच लीजियेगा।
दिव्या दी’आपने जो लिखा वह मुझ शत-प्रतिशत लड़की की ओर से लिखा है जिसपर शब्दों का आवरण मात्र आपका है, ये ही तो है दिलों का मिलना।
Thanks Di

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

जो शास्वत है वो बदलाव है... और बदलाव को हमें सहजता से स्वीकारना होगा .. वर्तमान पीड़ी,पिछली पीड़ी और आने वाली पीड़ी से समंजस्या बनाये रखना है .. और वो प्यारे लम्हे समय के साथ बीत नहीं जाते ..वो हमारे साथ हमारी यादो में सदा सदा के लिए बहुमूल्य निधि बन कर संचय हो जाती है... ये मज़बूरी भी है की हम समय को रोक नहीं सकते, बदलाव को रोक नहीं सकते जाने वाले को रोक नहीं सकते , लेकिन हम यादो को सहज सकते है ..शुभ और मंगल कामनाये कर सकते है.. ..लेख बात सुन्दर ...

उपेन्द्र नाथ said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.......

प्रतुल वशिष्ठ said...

मेरी पिछली टिप्पणी में दो त्रुटियाँ हैं :
१] दूसरी पंक्ति में 'इस' अतिरिक्त लग गया है.
२] पाँचवीं पंक्ति में प्रेम शब्द के बाद अर्धविराम लगना छूट गया है.

Satish Saxena said...

अपनों से दूर होने की तकलीफ अवर्णनीय होती है और इसका अहसास केवल भुक्त भोगी को ही होता है ! तमाशबीन ( हम लोग ) इस पर क्या प्रतिक्रिया देंगे सिर्फ अटकलें लगायेंगे ....
-अगर यह संसार से विदा हो गए अपनों के बारे में हैं तो उस दिन जी भर के रोयें जब तक आंसू सूख न जाएँ ....और सो जाएँ ! दिल हल्का हो जायेगा ...
-अगर बात पारिवारिक है तो मधुर भावनाओं गंभीर चोटिल होने पर जिद्दी हो जाती हैं और अक्सर अभिमान ( जिसे ऐसी स्थिति में लोग स्वाभिमान कहते हैं ) आगे आ जाता है फिर फायदा उठाते हैं दुनिया वाले ऐसी स्थिति में सावधान रहें !
मगर यह सच है कि यादें भुलानी आसान नहीं होतीं

भूलता हूँ किसी की याद को लेकिन मेरे दिल में
कुछ ऐसे ज़ख्म भी हैं जो मिटाने से उभरते हैं !
शुभकामनायें !

Anonymous said...

@ फरहीन जी

इतना तो मैं जान गया हूँ दिव्या जी के शुभचिंतको कि संख्या कुछ ज्यादा ही है यहाँ, लेकिन आप सब मुझे कुछ ज्यादा ही गलत समझ रहे हैं... मैंने कभी भी उनकी निजी ज़िन्दगी में झाँकने की कोशिश नहीं की और करूं भी क्यूँ भला...
" अपने ही घर में क्या कम है गम, जो दूसरे का दरवाजा खटखटाया जाए " | मुझे इस बात का कतई इल्म नहीं था कि यह उनके कुछ निजी पल हैं... इससे पहले उनका कोई और शुभचिंतक मुझसे सवाल पूछे मैं सब से माफ़ी माँगना चाहूँगा..

दिगम्बर नासवा said...

आने वाले का जाना तो निश्चित है ... और वो जाना उसी दिन तय हो जाता है जब वो आता है ... ये ईश्वर का रचा ही है ... की जब इंसान को किसी की ज़रूरत होती है तो वह ज़रूर उसके पास आ जाता है और जैसे ही उसका कार्य ख़त्म हुवा ... वो हवा के झोंके सा चला जाता है ... अक्सर कभी कभी हम सोच भी नही पाते और साथ छूट जाता है .... और फिर कभी दुबारा मिलना भी नही हो पता ...
ये तो पता नही प्यार क्या है .... पर जो भी है कमाल की चीज़ है .... जिसको होता है वही महसूस कर सकता है ...

Anonymous said...

दिव्या जी,

जज़्बात पर आपकी टिप्पणी का मैं तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ........आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ.........आप एक डॉक्टर हैं (पीएचडी या मेडिकल) ?

खैर वो आपका पेशा है......मुझे जो पता लगा है वो ये की आप एक संवेदनशील इंसान हैं ........आपके विचार बहुत सुन्दर हैं ..........अध्यात्म की ओर झुकाव आपके विचारों से झलकता है ...........एक बात पूछना चाहता हूँ अगर आप जवाब दें .............क्या आप ओशो जी को पड़ती हैं?

ZEAL said...

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इमरान जी,

ओशो को तो नहीं पढ़ा , लेकिन इंसानी दिमाग , उसकी सोच, हर पर बदलते भाव , एक निमेश में बदल जाने वाली ख़ुशी और गम , ये सब पढना अच्छा लगता है। लोगों का व्यवहार और उसमें छुपी अपेक्षाएं , प्यार और उससे जन्मे द्वेष, मुस्कुराहटों के पीछे छुपते हुए आँसूं , बढती हुई दूरियों में दम तोड़ता अपनापन....ये सभी कुछ पढना और समझना अच्छा लगता है।

भावुक हूँ न !..शायद इसीलिए।

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