Thursday, April 14, 2011

दोषी पीढ़ी

"आजकल के युवा दिशाहीन हैं " ऐसा जुमला लोगों की ज़बान पर चढ़ा रहता है ज़ाहिर सी बात है ये जुमला युवाओं की जबान पर तो नहीं रहता।

किस पीढ़ी को दोष दिया जाए ? क्या वाकई में 'युवा' दोषी हैं ? या फिर इन युवाओं को मिलने वाले दिशा-निर्देशन में दोष है ?

जब युवा वर्ग कुछ अच्छा करता है , माता-पिता और समाज और देश को गौरवान्वित करता है तो तुरंत सुनने को मिलता है -"माँ-बाप ने अच्छे संस्कार दिए हैं " ..इसके विपरीत युवा यदि कुछ गलत करता है तो -"युवाओं से उम्मीद रखना बेकार है" , ऐसा जुमला आम होता है यहाँ कोई दोष नहीं देता घर के बड़ों को , शिक्षकों और समाज को जिसने संस्कार देने में भूल की।

बदलाव प्रकृति का नियम है , देश काल परिस्थिति बदलती जा रही है तो उसमें बड़ा होने वाला युवा भी समय के साथ बदल रहा है। जो समय की मांग है , उसी के अनुसार अपने को ढाल रहा है। बिना संस्कारों को ग्रहण किये कोई भी बच्चा युवा नहीं होता और संस्कार उसे अपने से पहले वाली पीढ़ी से , माता-पिता से , शिक्षकों से तथा समाज और परिवेश से मिलते हैं , इसलिए युवा जैसे भी है , उसके लिए जिम्मेदार ये सभी कारक होंगे।

कुम्भार मिटटी को जैसा आकार देगा , निर्मित वस्तुएं वैसी ही होंगी काबिलियत तो कुम्हार की है की वो कितना संतुलित , सुन्दर और नक्काशीदार सृजन करता है। कच्ची गीली मिटटी तो अपने सृजन के लिए अपने निर्माता की तरफ निश्छल भाव से देख रही है।

हम जो बोयेंगे वही काटेंगे। हम जैसी शिक्षा अपने आने वाली संतति को देंगे , वो उसे ही ग्रहण करेंगे। यदि हम ज्यादा से ज्यादा वक़्त युवाओं को दें तभी सही दिशा-निर्देश कर सकेंगे और एक बेहतर व्यक्तित्व के सृजनकर्ता बन सकेंगे।

  • हम व्यस्त रहेंगे और बच्चों के लिए समय नहीं निकालेंगे तो युवा भी खुद को कहीं और व्यस्त कर लेंगे और हमारे साथ समय नहीं बितायेंगे।
  • यदि हम अपने से छोटों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे तो युवाओं की नज़रों में भी सम्मानित नहीं रह सकेंगे।
  • प्यार और सम्मान देंगे तो प्यार और सम्मान करना सीखेंगे युवा भी।
  • बड़े बुज़ुर्ग यदि बात-बात पर युवाओं को नीचा दिखायेंगे तो धीरे-धीरे वे स्वयं ही युवाओं की नज़रों में छोटे होते चले जायेंगे।
  • आज दादी-दादा , माता-पिता , चाचा-चाची अपने आप में व्यस्त है फिर युवाओं को समय कौन दे ? वो भी अपने उम्र के दोस्तों के साथ , तो कहीं विडिओ-गेम, टीवी आदि देखने में व्यस्त हो जाते हैं , जहाँ उन्हें गलत और सही का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं होता। फिर उनसे कोई भूल होती है यदि तो क्या हमें ये हक है की हम उनके दोष बताएं , जबकि हमने उन्हें समय ही नहीं दिया और मार्ग दर्शन करने की जहमत ही नहीं उठाई।

यदि हम १०, २० , ३० , ४० , ५० , ६० एवं ७० वर्ष की आयु वर्ग को ध्यान में रखकर बात करें तो हर दशक अपने आप में एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ वो अपने से छोटे अथवा कमतर को एक दिशा-निर्देश कर सकता है और उसके व्यक्तित्व को आकार देने में मदद कर सकता है।

जब हम किसी को कुछ सिखाते हैं तो उसमें अहम् नहीं होना चाहिए विनम्रता और दोस्ताना अंदाज़ में कही गयी बातें ही सुनने वाला ग्रहण करता है। यदि समझाने वाले की आवाज़ में दंभ , अपमान और छींटा-कशी होगी तो युवा उसे ग्रहण नहीं करेगा और आपका प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए यदि हम कुछ देना ही चाहते हैं तो लेने वाले के अबोधपन , स्वछंदता, उच्श्रंखलता का मान रखते हुए , बिना उनके बालमन को कोई ठेस पहुंचाए अपनी बात कहनी चाहिए।

सबसे अहम् है धैर्य और चाव के साथ बच्चों की बातें सुनना उनके पास आपसे कहने के लिए बहुत कुछ होता है , उससे भी ज्यादा उनके पास अनुत्तरित प्रश्न होते हैं , जिसे सुनने और उत्तर देने का वक़्त नहीं होता है पढ़े-लिखे संस्कारित वयस्कों के पास। फिर युवा , मन की उलझनें लिए हुए जायेंगे कहाँ और किसके पास इसी भागम-भाग की जिंदगी में बच्चा बड़ा हो जाता बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों और आशंकाओं के साथ और फिर वही बांटता है जो उनसे बड़ों से पाया है

उम्र के इस पड़ाव पर मेरे ऊपर एक बुज़ुर्ग पीढ़ी है , जिससे सीखने को मिलता है लेकिन उससे भी ज्यादा सीखती हूँ मैं अपनी युवा पीढ़ी से। चाहे वो तकनीक का क्षेत्र हो , चिकित्सा का, अथवा सामाजिक सन्दर्भों हों। हर जगह युवा बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं , वो बड़ों का अनुभव भी ले रहे हैं और अपने नव-सृजन से हर क्षेत्र में विस्तार कर रहे हैं और बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं हमें तो गर्व होना चाहिए अपनी युवा पीढ़ी पर

कैसे कह दूँ की युवाओं में संस्कार नहीं है। जब भी आस-पास परिवेश में अनेक बच्चों को देखती हूँ तो उपवन के रंग-बिरंगे फूलों के समान मोहक, मासूम और उमंग से चहकते हुए ही लगते हैं और युवाओं से मिलती हूँ तो उन्हें अद्भुत प्रतिभा से संपन्न पाती हूँ। मुझसे बहुत बेहतर मुझे आज के युवा लगते हैं , जो बुद्धिमान भी हैं , जागरूक भी हैं और संस्कारी भी। उनके अन्दर आक्रोश भी है जो दुनिया बदलने का जज्बा भी रखता है।

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा , ऐसा मेरा विश्वास है।

आभार।

84 comments:

SANDEEP PANWAR said...

जाट देवता की राम राम,
आपने तो छोटे से बच्चे से लेकर जवान और वृद्द इंसान सभी को नसीहत व जरूरी काम की बातें सब कुछ एक ही लेख में कह डाला, बहुत अच्छी जानकारी।

नीलांश said...

dosh na de khud ko sanware aur sikhe .
khush rahen aur khush rakhen...
jeevan deta hai sambhalane ka avsar..
sambhalate rahen...sambhaalate rahen..

good post..
badon se sikhna chahiye ....wo anubhavi hote hain...

अजित गुप्ता का कोना said...

बढिया पोस्‍ट।

रश्मि प्रभा... said...

सबसे अहम् है धैर्य और चाव के साथ बच्चों की बातें सुनना .
संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा , ऐसा मेरा विश्वास है।

bilkul sahi drishtikon

Unknown said...

"संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा।"

एकदम ठीक बात कही है आपने. संस्कारो का रोना वही रोते है जिनके संस्कारों में कोई खोट होती है , वास्तव में आज की युवा पीढ़ी के पास समय कम है. इस रफ़्तार भरी जिन्दगी में संस्कारो का रोना रोने की बजाय उस संस्कारित पीढ़ी को युवाओ की मजबूरी समझनी होगी और संस्कारो की परिभाषा भी बदलनी होगी. तभी समझेंगे हम युवा पीढ़ी को.

M VERMA said...

संस्कार किसी पीढी की अमानत नहीं है. संस्कार और असंस्कार की जद्दोजहद तो हर पीढी की अंतर्कथा है.

प्रवीण पाण्डेय said...

बच्चे हमारा ही अनुकरण करते हैं, कहीं अधिक, कहीं कम।

amit kumar srivastava said...

(बड़े होने पर बच्चे भी शायद मां -पापा से यही अपेक्षा करते होंगे कि वे भी अपने व्यवहार,कार्य संस्कॄति को ऐसा रखे कि they can also be proud of their parents) ।पर ऐसा होता नही ,पता नही क्यों?दुनिया के सारे मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाना और अच्छा इंसान बनाना चाहते है पर खुद ऐसी मिसाल नही पेश कर पाते कि बच्चे भी उन पर फ़ख्र कर सकें ।(समाज को बेहतर बनाने के लिये शायद इससे अच्छा triggering point नही हो सकता।

BK Chowla, said...

We only must understand that world keeps moving and next gen gets greater exposure.Let us accept generation gap reality. There is nothing wrong with it.

मनोज कुमार said...

हर युग की अपनी आवश्यकताएं, प्रकृति और संगठन होते हैं। युवा उनके अनुसार अपने को ढालते हैं, हम शायद पीछे ही रह जाते हैं। कभी हम उन्हें अपनी पीठ पर लाद कर घूमते रहे हों, उंगली पकड़ कर चलना सिखाया हो, आज वो हमें वर्तमान से कदम मिलाकर कर चलने का ज़ज़्बा देते हैं।
मैं तो खुश रहता हूं इस पीढी के साथ कदम ताल करके।

दिवस said...

आदरणीय दिव्या जी...आप की बात से मै सहमत हूँ| बड़ों की दिखाई राह पर ही बच्चे चलते हैं, किन्तु कई बार ऐसा भी घटित हो जाता है जो कोई भी माँ बाप अपने बच्चों को नहीं सिखाते| आखिर आस पास के वातावरण का प्रभाव भी तो उन पर पड़ता है| मैंने ऐसा कई बार देखा है| मै जब अपनी इंजीनियरिंग कीई पढाई करने पहली बार अपने घर से दूर गया तो दुनिया में काफी बदलाव भी देखा| आपने भी अपने कॉलेज में ऐसा अनुभव किया होगा| कुछ लोग बहुत अच्छे भी मिले तो कुछ दिशा से पूरी तरह भटके हुए भी| कॉलेज हॉस्टल में सिगरेट और बीयर आम बात थी| मेरे जैसे व्यक्ति जो इन सबसे अलग रहते थे उन्हें इस गंदगी में उतारने का प्रयास भी बहुत किया गया| ऐसा ही लगता था की आखिर युवा भटक क्यों गया? अपने कर्तव्यों से विमुख हो किसी युवक का ध्यान लड़कियां पटाने में अधिक था तो किसी युवती का ध्यान इस बात में की लड़कों को कैसे अपनी अदाओं से रिझाऊं| और यह सब अभी तक चल रहा है| मेरे साथी मित्र आज देश में यहाँ वहां नौकरी कर रहे हैं| जब भी कभी किसी से बात होती है कभी कोई कहता है आज ये लड़की पटाई आज वो| यहाँ तो माँ बाप को पता भी नहीं है की हमारा नौनिहाल क्या गुल खिला रहा है? ऐसा लगता है की आगे चलकर ये लोग अपने बच्चों को क्या संस्कार देंगे? देश का भविष्य तो खतरे में नज़र आएगा ही, जब आने वाली पीढ़ी को ऐसे चरित्रहीन माँ बाप मिलने वाले हों| हाँ कई बार ऐसा भी होता है की आधुनिकता के नाम पर माँ बाप भी अपने बच्चों की गलतियों पर पर्दा डालते रहते हैं|
जैसा भी हो आवश्यकता चरित्र निर्माण की है|
आपके सुलझे विचारों से आनंद मिलता है| यह तो तय है की आपके बच्चों को आपके स्वच्छ एवं चरित्रवान संस्कार मिलेंगे|
धन्यवाद
सादर
दिवस...

ethereal_infinia said...

Dearest ZEAL:

Nice write-up.


Semper Fidelis
Arth Desai

धीरेन्द्र सिंह said...

दो पीढ़ियों का वैचारिक द्वन्द तो चलते ही रहता है क्योंकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. समाज जैसे-जैसे आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक प्रगति करता जायेगा वैसे-वैसे सामाजिक रहन-सहन में परिवर्तन होते जायेगा. वर्तमान के युवा बेहद सजग,सतर्क और पाने जीवन के प्रति सक्रिय हैं.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

देखिये जिसके ऊपर बड़ी जिम्मेदारी, दोषी वही. इसलिये इसमें तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं... सुन्दर लेख..

आकाश सिंह said...

दुनिया का कोई माँ बाप अपने बच्चे को गलत रास्ता नहीं दिखता फिर बार बार समझाने के बावजूद बच्चे गलत रास्ता और संस्कार अपना लेते हैं शायद इसमें गार्जियनशिप की कहीं न कहीं कमी होती है
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सुन्दर प्रस्तुति धन्यवाद |
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एक अच्छी कविता के लिए मेरे ब्लॉग पे आप आमंत्रित हैं |
www.akahsingh307.blogspot.com

Unknown said...

कैसे कह दूँ की युवाओं में संस्कार नहीं है। जब भी आस-पास परिवेश में अनेक बच्चों को देखती हूँ तो उपवन के रंग-बिरंगे फूलों के समान मोहक, मासूम और उमंग से चहकते हुए ही लगते हैं । और युवाओं से मिलती हूँ तो उन्हें अद्भुत प्रतिभा से संपन्न पाती हूँ। मुझसे बहुत बेहतर मुझे आज के युवा लगते हैं , जो बुद्धिमान भी हैं , जागरूक भी हैं और संस्कारी भी। उनके अन्दर आक्रोश भी है जो दुनिया बदलने का जज्बा भी रखता है।

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा , ऐसा मेरा विश्वास है।
ek sunder katahan.....
jai baba banaras...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दोष पीढ़ी का नहीं नज़रिए का है ...अच्छा और सार्थक लेख ..

सञ्जय झा said...

bhai amit srivastavji se sahmat hone ka dil kar raha hai......

pranam.

जयकृष्ण राय तुषार said...

आज के दौर के बच्चे भी कन्हैया होंगे
आप पालें तो उन्हें नन्द -यशोदा बनकर या
हम अपने घर को ही दफ़्तर बनाये बैठे हैं
परीकथाओं को बच्चों को कब सुनाते हैं
यही सम्वेदना मैंने शेर के माध्यम से अभिव्यक्त किया है |
डॉ० दिव्या जी अपने बहुत ही विवेचनात्मक ढंग से आलेख प्रस्तुत किया है -आभार

संजय कुमार चौरसिया said...

बच्चे हमारा ही अनुकरण करते हैं, कहीं अधिक, कहीं कम।
दोष पीढ़ी का नहीं नज़रिए का है ...अच्छा और सार्थक लेख .

poonamsingh said...

इस ब्लॉग पर आकर एक अलग अनुभूति हुई।
सार्थक और प्रभावी चिंतन .....

vandana gupta said...

वक्त के साथ सब बदलता है और उसी के अनुसार नज़रिया भी…………और वक्त के अनुसार ढलना भी पड्ता है मगर संस्कार नही बदलने चाहियें.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा ,
--
सारगर्भित पोस्ट लेखन के लिए धन्यवाद!

Kunwar Kusumesh said...

भौतिकवादी प्रवृत्ति भई ज़िम्मेदार है .

Kunwar Kusumesh said...

भौतिकवादी प्रवृत्ति भी ज़िम्मेदार है .

mridula pradhan said...

bahut hi samajhdari bhara...labhkari lekh.

shikha varshney said...

और संस्कार उसे अपने से पहले वाली पीढ़ी से , माता-पिता से , शिक्षकों से तथा समाज और परिवेश से मिलते हैं , इसलिए युवा जैसे भी है , उसके लिए जिम्मेदार ये सभी कारक होंगे।
सही बात ..सहमत हूँ.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दिव्या जी ,

आपकी टिप्पणी मुझे अपने ब्लॉग पर मिली ..और आपने बहुत ईमानदारी से एक प्रश्न किया ...मेरे पास आपका मेल आई० दी० नहीं है ..इसलिए उसका जवाब यहाँ दे रही हूँ ...
आपके लेख ऐसा नहीं है कि मुझे पसंद नहीं आए या नहीं आते हैं ...पर मेरे लिए एक बंदिश है ..चर्चा मंच पर मेरा काम है साप्ताहिक काव्य मंच लगाना ...अब लेख को कैसे लूँ ? आशा है मेरी इस बंदिश को समझ कर नयी दृष्टि से सोचेंगी ... और मन से शिकायत दूर करेंगी ...आभार

ZEAL said...

.

संगीता जी ,
आपकी बंदिश समझ सकती हूँ। मुझे इस बारे में मालूम नहीं था। आपके उत्तर से मेरे मन की शिकायत दूर हो गयी है।
आपका आभार ।

.

ashish said...

सुँदर विचारपरक आलेख . पीढ़ी कोई भी हो उसके आचार व्यव्हार से ही उसका मूल्यांकन करना चहिये .

मीनाक्षी said...

"उम्र के इस पड़ाव पर मेरे ऊपर एक बुज़ुर्ग पीढ़ी है , जिससे सीखने को मिलता है लेकिन उससे भी ज्यादा सीखती हूँ मैं अपनी युवा पीढ़ी से।"
इस बात से पूरी तरह से सहमत.....
बेहद खूबसूरती से लिखा सार्थक लेख....

अशोक सलूजा said...

दिव्या ,आज का लेख हर पीढी के मन को दर्शाता है |ऐसे लेखो की जरूरत है | सब लेख पड़ता हूँ ,आपके ! जो समझ नही आते उस पे
चुप्पी साध के सिर्फ समझने की कोशिश रहती है !

खुश रहो!
आशीर्वाद!

G.N.SHAW said...

दोनों में समंजश्य बेहद जरुरी है !

rashmi ravija said...

मैं आज की युवा से नाउम्मीद नहीं हूँ...

सुज्ञ said...

मुझे तो यही बात समझ नहीं आ रही कि संस्कार दिये कैसे जाते है।
कभी देखता हूँ सुसंस्कृत माता पिता की युवा संतान बिगड जाती है तो कभी बिगडेल माता-पिता को युवा संतान सम्हाल लेती है।

जब दाता पात्र दृव्य दे रहा हो तो ग्रहण करनें वाला पात्र उल्टा हो जाता है या स्थिर नहीं रहता। और कभी् ग्रहण करने वाला पात्र तत्पर हो तो दाता पात्र उलटता नहीं या स्थिरता केन्द्रित रहता नहीं। अब सारे संयोग और अनुकूलता सही बैठे तो कैसे?

जब हम स्वय युवा होते है माता-पिता के संस्कार उपदेश नागवार गुजरते है। और जब हमारे बच्चे युवा होते है,हम अपनी अनिच्छा तो भूल ही जाते है और अपने ही बच्चों के आगे अनजाने डींग चलाते है हमारे माता पिता नें तो हमें अच्छे संस्कार दिए थे(यह कहना भूल जाते है कि हमने लिये थे या नहीं) पर अब वे देने आवश्यक लगने लगते है।
संस्कारों से अरूचि जताने वालों का हस्र भी बादमें वही होता है। पर जब यह वात समझ आती है तब ग्राहक तो होता है पर व्यवसाय नहीं होता। :))

rashmi ravija said...
This comment has been removed by the author.
Rakesh Kumar said...

आपका यह विश्वास सही है कि
'संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा'

भगवद्गीता अ.३ श २१ में कहा गया है
"श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है ,अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा आचरण करते हैं. वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य
समुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है."
यदि हमने खुद अच्छे संस्कार अर्जित किये हो तभी वे भावी पीदी को हम आगे संप्रेषित कर पायेंगे.यदि हमीने कुसंस्कार अर्जित किये हो
तो भावी पीदी से सुसंस्कारों की अपेक्षा बेमानी है.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

GENERATION GAP :)

Crazy Codes said...

pahli baar aaya hun aapke blog par... achha laga... aaj se aapka follower ho gaya main... kisi ne to hum yuvaaon ke baare mein itna soncha.. kaash humare seniors v humein samajh pate...

महेन्‍द्र वर्मा said...

पीढ़ियों की सोच में अंतर स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। इस अंतर को हमें सहज भाव से स्वीकार करना चाहिए।
बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व माता-पिता, घर के बड़े-बुजुर्ग और शिक्षकों का है। इन्हें चाहिए कि वे बच्चों के लालन-पालन, स्नेह-दुलार, प्रशंसा-प्रोत्साहन आदि में कोई कमी न होने दें।
जिस बच्चे को बचपन में पर्याप्त प्यार और सम्मान मिलेगा, वह बड़ा होकर दूसरों का भी सम्मान कर सकेगा, इस कथन का विपरीत भी उतना ही सही हे।

SM said...

कुम्भार मिटटी को जैसा आकार देगा , निर्मित वस्तुएं वैसी ही होंगी ।
the line says everything.
no role models.

शूरवीर रावत said...

आपके सभी आलेख संग्रहणीय है. आपके लेखों की विशेषता यह होती है की आप हमेशा अछूते विषय उठाती आयी है ....... इस सुन्दर पोस्ट के लिए भी आभार .... शुभकामनायें.

वीना श्रीवास्तव said...

सार्थक पोस्ट...

smshindi By Sonu said...

बहुत सुंदर पोस्ट

प्रतुल वशिष्ठ said...

.

किस पीढ़ी को दोष दिया जाए ? क्या वाकई में 'युवा' दोषी हैं ? या फिर इन युवाओं को मिलने वालेदिशा-निर्देशन में दोष है ?
@ दोष किसे दिया जाये? मतलब 'दोषी कौन'? और कितनी मात्रा में? यह सवाल मुख्य है.
आयु के अनुसार कोई अपनी समुचित ऊर्जा का उपयोग नहीं करता तो दोषी कहलाता है.
— यदि नवयुवक अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के रहते उसे सही दिशा में नहीं व्यय करता तो दोषी है. केवल मन के रंजन में सारा ईंधन झोंक दे तो वह दोषी है.
— यदि युवक अपनी ऊर्जा को समय रहते अर्थ उपार्जन और सृजन में नहीं व्यय करता तो दोषी है. स्वास्थ्य की उपेक्षा कर केवल जीभ के वश में बँधा रहे तो वह दोषी है.
— कुछ अधेड़ उम्र के लोग दिशा-निर्देशन देने के समय यौवन का नाट्य करने में अपनी ऊर्जा खर्च करते दिखायी दें तो दोषी हैं.
— वृद्ध केवल आलोचनात्मक रवैया रखकर अपनी ऊर्जा को नष्ट करते हैं.
...... मतलब ये कि जो अपनी ऊर्जा को व्यर्थ में नष्ट करे वह दोषी है, मूर्ख है. समाज और राष्ट्र के लिये अनुपयोगी है.

.

दिलबागसिंह विर्क said...

yuvaaon ka mardarshn to bade hi karte hain islie achche-bure ke lie ve bhi uttrdayi hain

Sushil Bakliwal said...

सार्थक चिंतन.

Manish said...

सब कुछ है इस आलेख में ... आपने विस्तार में सारी बाते लिख दी है |
बस इतना कहूँगा की,
संस्कार, विचार, व्यवहार, और बुद्धि ये सभी पूरी तरह किसी को दिए नहीं जा सकते...
यही कारण है की एक ही माँ-पिता की संताने कई बार सर्वथा भिन्न होती है |

इन सभी के बीज पहले से ही आपकी आत्मा में संरक्षित होते है... बस अगर आपको इस संरक्षित तत्त्व के अनुसार माहौल मिल जाए तो वैसा ही आपका व्यक्तित्व-वृक्ष बन जाता है...

थोडा या ज्यादा हो पर ये सच है की संस्कार आपको नहीं चुनते , आप अपने संस्कारों को चुनते है. |
संस्कार और आत्मबल मेरे शब्दकोष में एक ही अर्थ रखते है... इनमे कोई अंतर नहीं |

अच्छे लेख के लिए बधाई...

मदन शर्मा said...

@संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा
मैं आपकी बातों से पुर्णतः सहमत हूँ. किन्तु संस्कार के साथ साथ
ये भी जरुरी है की वह घर के बाहर किस तरह के परिवेश में जीवन
व्यतीत करता है. उसके स्कूल कालेज का वातावरण कैसा हैं. उसके
सहपाठी कैसे हैं.
कुछ पूर्व जन्म के संचित कर्मों का भी बच्चे के जीवन पर असर
पड़ता है. क्यों की अक्सर देखने में आता है की माँ बाप शरीफ हैं,
संस्कारी हैं तथा अपने बच्चे पर पूरा ध्यान भी देते हैं इसके बाद
भी वह उलटी प्रवृत्ति का निकल जाता है.

आशुतोष की कलम said...

हमने व्योस्था ही ऐसी चुनी है..दोष किसी का नहीं है सामजिक व्योस्था का है..

आचार्य परशुराम राय said...

आप द्वारा विषय का चुनाव और किया गया विश्लेषण बड़ा ही रोचक होता है। आप सामान्य विषय को भी अपनी लेखनी से आकर्षक बना देती है। बहुत-बहुत आभार।

Manoj Kumar said...

बहुत ही अच्छा और नए विषय भी लिखा है आपने.

पूरा पढ़कर मन बहुत संतुष्ट और प्रसन्न हुआ. लग की बहुत दिनों बाद इतनी उपयोगी सामग्री पढ़ रहा हूँ. पढ़ कर अमल करने लायक चीज. किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँ!
एक-एक शब्द सच.

बहुत-बहुत धन्यवाद!

Arun sathi said...

सच्च बात तो यह है दिव्या जी कि युवाओं के लिए आज तक किसी ने रास्ता हीं नहीं बनाया जो वे भटकेगें...
आभार

Rahul Singh said...

गुनने योग्‍य.

शोभना चौरे said...

अक्सर हम अपनी असफलताओ का दोष दूसरो पर मढ़ देते है "|युवा दिशाहीन हो गये है "जब हम बच्चे थे तो भी सुनते थे ,युवा हुए तो भी सुना ,और अब जब बूढ़े है तो भी सुनते जा रहे है |
जैसे ६० -७० साल पुराणी फिल्म देखो तो उसमे भी यही डायलाग होता है की" महंगाई कितनी बढ़ गई है "और आज की कई फिल्मो में भी |हमारी नकारात्मक सोच ही व्यक्ति की उपलब्धियों को प्रकाश में ही नहीं आने देती वर्ना हम आसपास द्रष्टि डालेगे तो देखेगे की कितना कुछ सकारात्मक हो रहा है |
bachhe युवा ,बूढ़े सभी इस समाज के महत्वपूर्ण स्तम्भ है |
किसी भी युग की युवा पीढ़ी अपने परिवेश से ही सीखती है और मुझे तो आज की इस पीढ़ी बहुत नाज है ,विश्वास है |
इस सकारातमक पोस्ट के लिए बधाई |

Rakesh Kumar said...

दिव्या जी,
मुझसे कोई भूल हुई है क्या ?
जो आप अभी तक मेरे ब्लॉग पर नहीं आयीं हैं.
राम-जन्म का बुलावा है
आकर कुछ सुन्दर बधाई गा दीजियेगा.

डा० अमर कुमार said...

.
"संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा ,"

सवा सौ प्रतिशत सत्य वचन !

Unknown said...

ताली दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं।

मेरा ब्लॉग भी देखें
भले को भला कहना भी पाप

जीवन और जगत said...

अच्‍छी पोस्‍ट। दोनों पीढियों को प्रयास करना होगा एक सुसंस्‍क़तिक देश का निर्माण करने के लिए। इसी बात को एक पुराना फिल्‍मी गीत का मुखडे के रूप में यूँ कहूँगा-


थोडा सा तुम बढो थोडा सा हम बढ़ें, बढ़ते बढ़ते ही याराना हो जायेगा।

थोडा सा तुम कहो, थोडा सा हम कहें, कहते कहते ही अफसाना हो जायेगा।

Sawai Singh Rajpurohit said...

आदरणीय दिव्या जी
आपने सही लिखा है "हम जो बोयेंगे वही काटेंगे" और
इस प्रकार का लेखन जारी रखे......

बेहतरीन प्रस्तुति.

सदा said...

बिल्‍कुल सही लिखा है आपने ... बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये बधाई ।

Vaanbhatt said...

har pidhi agali pidhi se sahmat nahin hoti. use lagta hai ki nayi pidhi bigad rahi hai. jabki jab hum apane ass-paas nazar dalte hain to dekhate hain ki bachche humse apani us umar mein achcha hi kar rahe hain. aadmi aur aadmi ke dimag donon ne tarakki ki hai jo har taraf dikhai bhi deti hai. har pidhi apani pichali pidhi se aage hi gayee hai. aise mein yuvaon ko sirf is liye galat maan lena ki vo aaj jayda khule dimag se rah rahe hain, ekdam galat hai. aadami baniye, anchaar nahin...adami aur anchaar mein fark hota hai (ek purani film ka dilog citakkne ka lobh samvaran nahin kar paya)

केवल राम said...

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा।

यह बिलकुल सही है आजकल के युवाओं में कुछ ग्रहण करने की क्षमता बहुत अधिक है बेशर्त है कि उनकी उस उर्जा को सही दिशा में इस्तेमाल क्या जाए ...आपका यह कहना सही है कि संस्कार देने वाले अगर अपने कर्तब्य को सही ढंग से निभाते हैं तो आने वाली पीढियां सार्थक कर पाएंगी ....आपका आभार इस सार्थक पोस्ट के लिए ...!

hamarivani said...

अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....

Patali-The-Village said...

बच्चे हमारा ही अनुकरण करते हैं| धन्यवाद|

Atul Shrivastava said...

अच्‍छी और प्रेरक पोस्‍ट।
शुभकामनाएं आपको।

दर्शन कौर धनोय said...

आज की युवा पीढ़ी वही सिख रही है जो हमने उनको सिखाया है --यदि हम उनको संस्कार नही सिखाएगे तो कोंन सिखाएगा--उनकी भूल को क्षमा करना भी एक संस्कार में आता है -उनसे प्यार करना ,उनके विचारो को सुनना यह भी एक संस्कार ही तो है,जिसे संयम कहते है

आप ने ठीक फरमाया युवा पीढ़ी हमसे ज्यादा शिक्षित और समझदार है --उन्हें अपने में ढालने की जरूरत है

Bharat Bhushan said...

इस आलेख पर तो युवा पीढ़ी काफी कुछ कह चुकी है. एक खबर आपके लिए कि डॉ. विनायक सेन को सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिल गई है.

aarkay said...

सब कुछ के बावजूद मामला कुछ पेचीदा है . यह ठीक है कि माँ-बाप द्वारा बच्चों को दिए गए संस्कार भी व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं परन्तु कई बार अच्छे माता पिता की संतान भी बिगडैल होती है और असंस्कारी माता-पिता की संतान भी संस्कारी होती है. फिर भी nature और nurture का सिद्धांत बेमानी नहीं. फिर भी सही लालन पालन और दिशा निर्देश देना ही माँ-बाप का कर्त्तव्य है . माता- पिता का परस्पर व्यवहार भी काफी महत्वपूर्ण है. क्योंकि सही उदाहरण सामने होगा तो बच्चे भी अच्छी बातें ग्रहण करेंगे. बच्चों के अनुचित जेबखर्च पर भी अंकुश लगाया जाना आवश्यक है.
आखिर पीड़ियों की दूरी को पाटना बड़ों की भी ज़िम्मेदारी है
विचारणीय विषय पर एक उत्तम लेख !

Pahal a milestone said...

दिव्या जी दोषी कोन न आज का युवा और न वो जो युवा को दोषी कहतें हे ! दोषी अगर हे तो ये समाज जिसको हम आप मिलकर बनातें हें!

KRATI AARAMBH said...

सार्थक और सत्यता से भरी पोस्ट | बहुत ही उम्दा |

Suman said...

संस्कार के नाम पर रोको नहीं,
टोको नहीं नई उम्रोंको,स्नेह का दो
खाद-पानी, मजिल खुद तय करने दो
उनको !

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अपने गिरेहबान में कोई नहीं झांकता।

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भगवान के अवतारों से बचिए!
क्‍या सचिन को भारत रत्‍न मिलना चाहिए?

Sunil Kumar said...

बिल्‍कुल सही लिखा है ,बेहतरीन सार्थक और सत्यता से भरी पोस्ट प्रस्‍तुति के लिये बधाई .....

समयचक्र said...

संस्कार देना जिस पीढ़ी का दायित्व है , यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो ह्रदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा। अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा

बहुत सुन्दर सारगर्वित विचार अभिव्यक्ति....आभार

हरीश प्रकाश गुप्त said...

यह एक संतुलित वैचारिक आलेख है। आपने इसमें विषयगत लगभग सभी पक्षों को समाहित किया है। नितांत सार्थक। आभार।

बहुत दिनों बाद कमेन्ट लगा है। आपके ब्लाग पर कमेन्ट में अधिकतर error प्रदर्शित कर रहा था।

Pratik Maheshwari said...

कुछ दिनों पहले अपने दोस्त से इसी पर विचार-विमर्श कर रहा था.. आज हम जो हैं वो अपने से बुज़ुर्ग लोगों के संस्कारों की देन हैं.. एक समय पे आ कर हम इतने परिपक्व हो गए कि सही-गलत का फैसला कर सकते थे.. पर उससे पहले अगर हमें अपने बड़ों का साथ नहीं मिलता तो वह परिपक्वता कहाँ से आती? आज माँ-बाप दोनों कार्यरत हैं और इसी कारण बच्चा उनके अनुभव से वंचित हो रहा है.. गलती सामंजस्य बिठाने की है.. किसी के लिए काम अपने परिवार से बढ़कर नहीं होना चाहिए ऐसा मैं मानता हूँ.. परिवार किसी और के मुकाबले सबसे बड़ी संस्था है जिसे संभालना सिर्फ एक गृहणी को ही सबसे बेहतर आता है.. हमारे बुज़ुर्ग यह पहले ही समझ गए थे और इसलिए हमारे समाज को वैसे रूप दिया गया पर अब इस रूप को तोड़-मरोड़ कर पंगु बना दिया गया है और आज वही पंगु लोग युवा को भला-बुरा कहते हैं.. क्या विडम्बना है.. खैर यह विषय ही ऐसा है जिसपर घंटों विचार जा सकता है पर बदलाव अपने अन्दर से, अपने घर से लाने की ज़रूरत ज्यादा समझता हूँ मैं..

तीन साल ब्लॉगिंग के पर आपके विचार का इंतज़ार है..
आभार

हरीश सिंह said...

बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके., हो सके तो फालोवर बनकर हमारा हौसला भी बढ़ाएं.
मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.

hamarivani said...

अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

आपसे सहमत हूँ, वाकई अगर युवा पीढ़ी को उचित मार्गदर्शन प्राप्त न हो तो उनसे संस्कारवान होंरे की कैसे कल्पना की जा सकती है |
सार्थक एवं बेहद प्रभावी पोस्ट के लिए सादर आभार स्वीकार करें |

Bharat Swabhiman Dal said...

संस्कार देना जिस पीढी का दायित्व है यदि वो अपना दायित्व निष्ठा से निभाये तो हृदय को दुखी होने का अवसर ही नहीं आएगा । अच्छे संस्कार देंगे तो अच्छा एवं शुभ सृजन ही होगा ।
बहुत ही सुन्दर सारगर्भित सार्थक और सत्यता से भरी अभिव्यक्ति के लिए ...... आपका आभार ।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

अच्छा और सार्थक विश्लेषण किया है आपने ...

कमोबेश मेरी भी यही राय है |

ZEAL said...

लेख पर आये इन बेहतरीन विचारों के लिए मेरे सम्मानित पाठकों का आभार। ४ दिन अंतरजाल पर अनुपस्थित होने के कारण अपने पसंदीद ब्लॉग्स पर नहीं पहुँच पायी हूँ। धीरे-धीरे सफ़र तय हो रहा है।

JC said...

'मैं कौन हूँ ?' पर सबसे पहले ध्यान देने का उपदेश दे हमारे ज्ञानी पूर्वज 'सागर मंथन' कथा द्वारा मानव जीवन का सार इस कथा के माध्यम से दर्शा गए मानव जीवन का उद्देश्य 'अमृत', अजन्मे और अनंत सृष्टिकर्ता, 'भगवान' को जानना, और योगियों और 'सिद्ध पुरुषों' के माध्यम से संख्या में अनंत साकार रूपों में से हरेक को अमृत शक्ति और उसी शक्ति के एक अंश के योग से बना होना अस्थायी भौतिक शरीरों का, जीव अथवा निर्जीव...

वैज्ञानिकों ने वर्तमान में भी अनुसंधान द्वारा 'सत्य' को जाना है कि कैसे अरबों वर्ष के जीवन के बाद जब तारे अपने अंतिम काल (रेड स्टेज) में पहुँच जाते हैं तो वो परिवर्तित हो जाते हैं तीन (ॐ?) विभिन्न रूपों में जो मूल रूप से अत्याधिक शक्तिशाली रूप धारण कर लेते हैं, जो हमारे सूर्य (एक साधारण तारा) की तुलना में उनके मूल भार पर निर्भर करता है...वर्तमान में ग्रहों आदि के केंद्र में केन्द्रित शक्ति को गुरुत्वाकर्षण शक्ति कहा जाता है और संभवतः उस शक्ति को मानव अथवा हर प्राणी के शरीर में विराजमान 'आत्मा' कहा जा सकता है ...केवल वो तारा जो पांच अथवा उससे अधिक भार वाला होता है वो ही केवल सर्वशक्तिमान, 'ब्लैक होल', बन पाता है, जो हमारी और अन्य सभी अनंत गैलेक्सी के केंद्र में पाया जाता है... वो ही अनंत तारों और और उसके भीतर उपस्थित हमारे सौर-मंडल को सुदर्शन-चक्र धारी 'कृष्ण' समान अपने चारों ओर घुमा रहा है ("कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के दौरान धनुर्धर अर्जुन का रथ चलाया"!)!

अब सोचने की बात है कि यदि मानव शरीर नवग्रहों के सार से बना हुवा भगवान का प्रतिरूप है तो क्या मानव स्वतंत्र हो सकता है ?