Wednesday, June 22, 2011

सभी ब्लॉगर्स के लिए खुशखबरी .

आजकल समाचार में दस वर्षीय 'अवतार' नामक बच्चे को देखकर , जिसका पुनर्जन्म हुआ है , पर मंथन किया। पुनर्जन्म होता है आत्माएं नया शरीर धारण करती हैं। लेकिन अधिकांशतः पूर्वजन्म की स्मृतियाँ शेष नहीं रह जातीं , इसलिए पता नहीं चल पाता की किस व्यक्ति का कहाँ जन्म हुआ है।

जैसे पंजाब के 'सुभाष' का जन्म 'अवतार' नामक राजस्थानी बालक के रूप में हुआ है , जिसे अपने माता-पिता , भाई-बहन , पत्नी आदि सभी याद हैं यहाँ तक की उसे पंजाबी भाषा भी अच्छी तरह आती है। लेकिन उसका पूर्व जन्म में क़त्ल हुआ था , इसलिए शायद आत्मा पर एक बोझ के तहत पुनर्जन्म हुआ। यदि कुछ पेंडिंग नहीं रहता तो शायद मोक्ष मिल जाता

इसी समाचार पर मनन करते हुए स्वतः ही ब्लॉगर मित्रों का ध्यान गया क्या ब्लॉगर्स का पुनर्जन्म होगा ? क्या ब्लॉगर्स मोक्ष के अधिकारी हैं ?

हमारे यहाँ सभी दर्शनों में पुनर्जन्म को माना गया है , सिवाय 'चार्वाक' दर्शन के , जो कहता है की व्यक्ति अपने कर्मों का फल इसी जीवन में भुगत लेता है और उसको मोक्ष मिल जाता है।

यावद जीवेद सुखं जीवेद ,
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।

यदि चार्वाक दर्शन को मानें तो एक ब्लॉगर को अपने पाप-कर्मों का फल 'भडासी-टिप्पणियों' के माध्यम से बखूबी मिल जाता है और वह ब्लॉगर जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

इस आलेख के माध्यम से भडासी-टिप्पणीकारों का आभार अभिव्यक करती हूँ , क्यूंकि उन्हीं के द्वारा दी गयी यातना से मेरे पाप-कर्म कट रहे हैं और मोक्ष प्राप्ति के फलस्वरूप , स्वर्ग में मेरा स्थान सुनिश्चित हो रहा है।

कहते हैं ना की जो होता है , अच्छे के लिए होता है अब देखिये मित्र ब्लॉगर की टिप्पणियां ही उऋण कर रही हैं और मोक्ष दिला रही हैं। सभी भडासी-टिप्पणीकारों से निवदन है की मुझे मेरे पाप कर्मों के लिए यातना देने अवश्य आयें ताकि मेरे रहे-सहे पाप कर्म भी नष्ट होवें और मन निश्चिन्त होकर परलोक गमन करे।

यकीन जानिये ऐसा करके आप भी पुण्य के भागीदार होंगे हम सभी मोक्ष प्राप्त करके स्वर्गलोक में पुनः मिलेंगे।

Zeal

509 comments:

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sajjan singh said...

भैंस के आगे बीन बजाने वाला उदाहरण तो आप लोग देते हैं । कई स्वयंसेवी संस्थाएं है जो लोगों को अंधविश्वासों के बाहर निकालकर वैज्ञानिक चेतना का प्रचार करने के लिए दिन-रात प्रयत्नशील रहती हैं । वे एक चमत्कार की पोल खोलती हैं आप वैसे दस चमत्कार और पैदा कर लेते हैं । इतनी सी बात आप लोगों के समझ में नहीं आती चमत्कार नहीं होते हैं जो भी कुछ है वह प्राकृति के अधीन है । और इन चमत्कारों से देश और समाज का कुछ भला भी होता है जरा ये तो बताते जाइये ।

sajjan singh said...
This comment has been removed by the author.
महेन्द्र श्रीवास्तव said...

मुझे लगता है कि आपने जहां चोट करने की कोशिश की, वहां लगी भी है। बहुत सुंदर।
पहली बार देख रहा हूं कि किसी विषय पर विमर्श सही दिशा में चल रही है।

एक बेहद साधारण पाठक said...

पुनर्जन्म वैज्ञानिक पड़ताल ...... भाग 1



पुनर्जन्म वैज्ञानिक पड़ताल .........भाग 2

अनामिका की सदायें ...... said...

chaliye ji aapki moksh ke maarg me ek tippani de kar ham bhi aapki is yatra me bhagidari kar dete hain. :)

प्रमोद ताम्बट said...

इस युग में जब लार्ज कोलाइड्रल हेड्रॉन के महान प्रयोग के जरिए ब्रम्हांड की उत्तपत्ति की परिस्थितियों को समझने का प्रयास हो रहा है हम भारतीय पुनर्जन्म जैसे अंधविश्वास पर को मानते हैं और उस पस विश्वास करते हैं....चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है। डाक्टर अनवर जमाल भी जब पुनर्जन्म को नकारते हैं तो बड़े समझदार लगते है परन्तु तुरन्त जब वे अशरीरी आत्माओं के अंधविश्वास पर आ जाते हैं तो मुझे इनकी डाक्टरेट की डिग्री की चिन्ता सताने लगती है।

प्रमोद ताम्बट
भोपाल
http://vyangya.blog.co.in/
http://www.vyangyalok.blogspot.com/
http://www.facebook.com/profile.php?id=1102162444

Shalini kaushik said...

bahut se comment dekhe aur bahut se bahi dekhe kyonki jiske man me jo aaya hai vah likh kar gaya hai.meri agar bat kee jaye to main punarjanm me yakeen karti hoon kyonki maine apne ek uncle ke bare me suna tha ki ve aise hi janme the aur ve apne purane janm ke ghar par is janm ke parijano ko le bhi gaye the aur ye bat ki karmo ka fal isi janm me milta hai to main mahi manti kyonki maine kai aise log dekhe jo sari zindgi bure karm karte rahe aur sari zindgi shan se v khushi se kat gaye .aur yadi aisa hai bhi to aap hi bataiye ki ek bachcha jo viklang paida hota hai vah paida hote hi kya pap karta hai jo use aisee zindgi milti hai .
divya ji ek bloggar jo nishpaksh roop se sahi bat kahta hai aur uska samarthan karta hai vah bhi ek maya moh se rahit vyakti kee shreni me aata hai aur moksh ka adhikari hai.

Bharat Bhushan said...

बधाई हो डॉ. दिव्या. इतनी टिप्पणियाँ देख कर कई ब्लॉगर हैरान हैं. सुना है कि यह एक रिकार्ड है. मेरी यह टिप्पणी 210वीं होगी. एक ही दिन में इतनी टिप्पणियाँ पढ़ीं, इतनी बार पढ़ीं कि थक गया. मेरा भी सैभाग्य रहा कि चंदन कुमार मिश्र, सज्जन सिंह और सुज्ञ जैसे प्रखर तर्क करने वालों से भेंट हुई. इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएँ.

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

kisi blog per itni tipadiyan pahli baar dekhi.. aur kahani abhi khatam bhi nahi hui hai.. ek se ek prakhar tark karne walon se parichay hua.. zeal ji hardik shubhkamnayein

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

kisi blog per itni tipadiyan pahli baar dekhi.. aur kahani abhi khatam bhi nahi hui hai.. ek se ek prakhar tark karne walon se parichay hua.. zeal ji hardik shubhkamnayein

sajjan singh said...
This comment has been removed by the author.
Amrit said...

Looks like my comment is lost in 200+ comments. I could not even find it :)))) Great discussion

वाणी गीत said...

रोचक पोस्ट और बहस ....

Mansoor ali Hashmi said...

फिर जनम होगा - न होगा बात जब ये चल पड़ी,*
सौ ब्लॉगर कूद आये, मच गयी है हड़बड़ी .

'आस्तिक' की बात को लेकर पारीशां 'नास्तिक,
एक को दूजे में दिखने लग गयी है गड़बड़ी.

continued...at..
http://aatm-manthan.com

सुज्ञ said...

@ "इस युग में जब लार्ज कोलाइड्रल हेड्रॉन के महान प्रयोग के जरिए ब्रम्हांड की उत्तपत्ति की परिस्थितियों को समझने का प्रयास हो रहा है हम भारतीय पुनर्जन्म जैसे अंधविश्वास पर को मानते हैं और उस पस विश्वास करते हैं....चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।

प्रमोद ताम्बट साहब,

कामाल का चिंतन है आपका? विज्ञान बहुत ही इमानदार है पर हम फैसले बहुत जल्दी दे देते है। विज्ञान जब रहस्यों को सुलझाने के प्रयास स्तर पर है तो पुनर्जन्म को अंधविश्वास घोषित हमने किस आधार पर कर दिया। अनसुलझी बातें हम विज्ञान के फतवो की तरह इस्तेमाल कर विज्ञान को संदिग्ध बनानें का दुष्कृत्य करते है। विज्ञान एक ज्ञान है जिसका सम्मान होना चाहिए। हमनें अपने मंतव्य उस पर आरोपित कर उसे दुर्बोध बना दिया है। विज्ञान को गलत संदर्भित करने वालो को…

सुज्ञ said...

सज्जन सिंह साहब,
आपकी इस टिप्पणी- "प्रमोद ताम्बट……………………और आदिमानवों में शायद ही कोई फर्क नजर आये" को

बार बार पढें, और निश्चित करें भाषा और वैचारिक आधार पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समकक्ष विकसित हो पाए है? या फिर आधुनिक आदिमानव बन गए है। अथवा विज्ञान का दुरपयोग (मिसकोट) करने वालो के अंधभक्त!! सभ्यता और विकास पर पुनः चिंतन करें, उसके उद्देश्य समझे और सोचें कि यह सब मानव के लिए क्यों जरूरी है?

JC said...

जब 'विज्ञान' की बात निकलती है तो अधिकतर व्यक्तियों के मन में विचार मानव जाति द्वारा पिछली २-३ सदी में तकनिकी में उन्नति का ही विचार आता है... यह सभी शायद जानते होंगे कि लगभग एक सदी ही पहले श्वेत-श्याम साइलेंट फिल्म से आरम्भ कर, आज मानव रंगीन फिल्में बना जनता का मनोरंजन कर रहा है... इन फिल्मों में मानव कलाकारों के अतिरिक्त कुछेक पशु कलाकार भी कभी कभी नाटक में भाग लेते हैं... और अब तो कंप्यूटर के क्षेत्र में विशेषकर इतनी उन्नति हो गयी है कि अब एनिमेशन के माध्यम से मानव अथवा पशु कलाकारों की आवश्यकता ही नहीं रह गयी है!
और यदि मशीनें (रोबो) ही सब काम करने लगें तो आदमी की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी ...आदि, आदि...

अपनी इस प्रगति पर 'हम' को इतना गर्व हो गया है कि 'हम' तथाकथित 'ईश्वर' अथवा 'परम शक्ति' को ही वैसे अनदेखा करने लगे हैं जैसे तथाकथित शुतुरमुर्ग गढ़े में सर डाल करता है, और इस तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि निद्रावस्था में फिल्म तो शैशवकाल से ही मानव ही नहीं अपितु - जैसा वैज्ञानिक हाल में ही जान पाए हैं - 'निम्न श्रेणी के कुछेक पशु भी अनादि काल से करते ही आ रहे हैं, भले ही वो आस्तिक हो अथवा नास्तिक...और जागृतावस्था में भी 'हम' भली प्रकार जानते हैं कि विचार 'हमारे' नियंत्रण में हैं ही नहीं क्यूंकि विशेषकर जब 'हम' कुछ सोचना ही नहीं चाहते, कितना भी प्रयत्न करलें, विचार आते ही रहते हैं वैसे ही जैसे फव्वारे से जल, दबाव पर निर्भर कर, ऊँचाई तक उठ जाता है और फिर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण अनेक धाराओं में नीचे आ जाता है ... प्राचीन योगियों ने मानव शरीर में आठ चक्रों में भंडारित सूचना को मस्तिष्क रुपी ऐनालोजिकल कंप्यूटर तक ऐसे ही उठते और गिरते पाया है,,, और आधुनिक वैज्ञानिक भी जान पाए हैं कि मानव मस्तिष्क में अरबों सेल हैं जिनमें से वर्तमान में 'सबसे बुद्धिमान व्यक्ति' भी केवल नगण्य सेलों का ही उपयोग कर पाता है... आदि आदि...

दिव्या जी, 'मेरी' एक टिप्पणी निम्नलिखित लिंक में भी देख लीजियेगा'

http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/06/23-2011-244-23-1757-35000-15000-45000.html#comments

Kunwar Kusumesh said...

Wow,219 comments.You have created a history,Divya ji.

दिगम्बर नासवा said...

आपका व्यंग ... और सभी टिप्पणियों का आनंद ले रहा हूँ ...

एक बेहद साधारण पाठक said...

मैं तो आश्चर्य चकित हूँ की कोई भी दावे के साथ ये कैसे कह सकता है की पुनर्जन्म / आत्मा इश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं होती ??????

बड़े बड़े साइंटिस्ट , डॉक्टर , साइकोलोजिस्ट , न्यूरोलोजिस्ट की सालों के मेहनत को इतना जल्दी और इस तरह जज करने वाले हम कौन होते हैं ?????????

दिवस said...

सज्जन भाई मैं भी कुछ कुछ वही कह रहा हूँ जो आपने लिखा कि जो कुछ भी है वह प्रकृति के अधीन है| फर्क केवल इतना है कि हम कहते हैं कि प्रकृति ही इश्वर है| सनातन के अनुसार प्रत्येक वह चीज़ जिससे आपकी उत्पत्ति हुई है वह माँ है और माँ इश्वर| आप विज्ञान विज्ञान चिल्ला रहे हैं और हम उसे भगवान् कह रहे हैं| इस प्रकार यदि हम सृष्टि के सबसे बड़े विज्ञानी की पूजा करते हैं तो आपको क्या आपत्ति है? आप कहते हैं कि हर चीज़ विज्ञान है| क्या यह विज्ञान आसमान से उतर कर आया है? और यदि आया भी है तो वह आसमान कहाँ से उतर कर आया है| कोई तो है जो यह सब चला रहा है| प्रकृति की अंतिम सूक्ष्म वस्तु भी कहाँ से अवतरित हुई है? इन सबका मूल क्या है? विज्ञान कह कर आप इससे पीछा नहीं छुड़ा सकते| प्रकृति का नियम इश्वर है और इस नियम को बनाने वाला भी ईश्वर है| इस विषय पर मैं कोई शब्दों के जाल नहीं बुनना चाहूँगा, आप चाहें तो एक लिंक देख सकते हैं|
http://www.diwasgaur.com/2011/04/blog-post_7196.html
सज्जन भाई थोडा दिमाग खोल कर सोचिये, बुद्धिजीवी मत बनिए|

दिवस said...

प्रमोद ताम्बट जी आपको भाई सुज्ञ जी ने सही उत्तर दे दिया है| और कुछ कहने की फिलहाल मुझे भी आवश्यकता महसूस नहीं हो रही| मुझे लगता है यह उत्तर अपने आप में पूर्ण है|

sajjan singh said...

@ देवस
इस विषय पर कहने को तो बहुत कुछ है । ये तर्क तो दस साल का बच्चा भी दे सकता है कि इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया ईश्वर नहीं होता तो यह सब कौन बनाता । संक्षेप में मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि हम हर चीज़ का कोई कारण ढूंढते हैं । इसीलिए ईश्वर की कल्पना करते हैं । इसी बात को आधार बना कर सभी धर्मों-संप्रदायों में ईश्वर की कल्पना की गई । पर यदि हर चीज़ का कोई कारण माना जाय तो ईश्वर के अस्तित्व का क्या कारण है । उसे किसने बनाया । दुनिया अपने आप नहीं बन सकती यह कहना भौतिक ज्ञान की कमी के कारण है । हमें यह नहीं पता की प्रकृति के नियम किस प्रकार कार्य करते हैं । इसीलिए आपके अज्ञान का दूसरा नाम ही ईश्वर है । और फिर बचकाना सवाल इन नियमों को किसने बनाया । इन नियमों को बनाने वाला भी कोई नहीं है ये नियम तो प्रकृति के आचरण का विवरण मात्र हैं । यदि ईश्वर कोई एक सत्ता होती तो उसकी कल्पनाएं इतनी भिन्न-भिन्न न हुई होती । सभी धर्मों के संस्थापकों ने अपने सीमित ज्ञान और समझ के आधार पर इस सृष्टि की व्याख्या कर दी और इसे बनाने वाले को ईश्वर, अल्लाह, गॉड कहा गया । आप धर्मों के इतिहास का अध्ययन किजिए कि किस तरह मनुष्य हर काल में अपनी समझ के अनुसार ईश्वर की कल्पना करता आया है । हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों के भगवानों में भेद है। अफ्रीका के जंगलियों और कोल-भीलों के भगवान कुछ और ही ढंग के हैं। दूर क्या, यहीं देखिये, कोई भगवान कहते हैं, भैंस या बकरे की बलि दो तो हम प्रसन्न होंगे । कोई भगवान कहते हैं, मच्छर, खटमल और पिस्सू मारोगे तो हम नाराज हो जायेंगे ।कोई भगवान सातवें आकाश में दरबार लगाते हैं तो कोई घट-घट में व्यापक रहते हैं। कोई भगवान अपने भक्तों को प्यार करते हैं और अपने सामने सर न झुकाने वालों को दण्ड देते हैं। एक भगवान हैं जो मनुष्य की तरह नाक-कान रखते हैं, दूसरे अग्नि,वायु की तरह हैं और एक बिल्कुल निराकार हैं। कोई भगवान हैं जो बिल्कुल न्यायप्रिय हैं, खुशामद और भक्ति की बिल्कुल परवाह नहीं करते। सख्त और बेमुरव्वत हाकिम की तरह काम का इनाम और सजा दिये जाते हैं। पहले जब मनुष्य को जानकारी बहुत कम थी, अपने गिरोह का मुखिया ही उसके लिये सब कुछ था । तब वह उसी की पूजा करता था । उसके मर जाने पर सुरक्षित स्थान में उसकी समाधि बनाकर उसके फिर से जाग उठने की आशा में उसकी पूजा करता रहता था। हर एक गिरोह का देवता या भगवान अलग होता था। उसकी पूजा में शत्रुओं का रक्त भेंट किया जाता था और यह देवता शत्रु के रक्त से तृप्त होकर अपने कबीले, कुनबे या गांव को आशीर्वाद देता था और कहता था शत्रुओं के रक्त की नदी बहा दो। लोग अपने-अपने भगवान के लिये लड़ते थे। भगवान की रक्षा मनुष्य करता था, मनुष्य की रक्षा भगवान नहीं। यह भगवान बात-बात पर रिश्वत लेता था। फसल बोने से पहले उसकी पूजा होती थी, फसल काटने पर उसकी पूजा होती थी। स्त्री के युवती हो जाने पर उसे प्रथम भगवान के भोग के लिये अर्पित किया जाता था। सब वस्तुओं में वह भगवान अपना भाग बंटा लेते थे। पूजा ठीक से न होने पर रूठकर अपने उपासकों को दण्ड भी देते थे। आज के दिन भी आप को इस प्रकार के भगवान और उसके उपासक मिल जायेंगे। देखिये, आदिम जातियों में...”।
आपको अभी और अध्ययन की ज़रूरत है ।

सुज्ञ said...

सज्जन सिंह जी,

मात्र एक छोटे से प्रश्न का जवाब देना………

ईश्वर इतना ही निर्दय, खुशामत पसंद, अन्यायी और भक्तिखोर है तो उसका साहित्य (धर्म-शास्त्र) सज्जनता और सदाचार की सीख क्यों देता है? जीवन-मूल्यों को उँचा उठाने के उपदेश क्यों देता है? सुख और शान्ति के मार्ग क्यों सुझाता है?

Asha Joglekar said...

Milate hain fir swarg men. Moksh to kya mile.

G.N.SHAW said...

दिव्या जी !आम के पेड़ में मोजर बहुत लगते है , आम किसी किसी में ही आता है ! वैसे ही मोक्ष की चाहत सभी की है , पर मिलेगी किसी - किसी को ! चुलबुली खाना और खाने वाले के टेस्ट तो अलग - अलग होंगे ही !

JC said...

दिव्या जी, हमारे सत्यान्वेषी पूर्वजों ने कहा 'सत्य' वो है जो निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति में काल द्वारा प्रभावित होता प्रतीत नहीं होता है (जैसे सूर्य पृथ्वी पर पूर्व दिशा में उदय होता है), और शेष सभी साकार 'असत्य', पृथ्वी भी 'मिथ्या'...
उनके अनुसार 'सृष्टि कर्ता' शून्य स्थान और काल से जुड़ा है, वो इस कारण अजन्मा और अनंत माना जाता है,,, और 'परम सत्य' कहलाया गया...

मानव शरीर को परम सत्य के अंश, आत्मा, यानि हमारी 'मिल्की वे गैलेक्सी' के केंद्र में ब्लैक होल (निराकार अथवा लगभग शून्य आकार में संचित अपार शक्ति), और सुदर्शन-चक्र सामान घूमती अपनी तस्तरिनुमा गैलेक्सी के भीतर ही, किन्तु किनारे की ओर स्थित हमारे सौर-मंडल के नौ सदस्यों के सार (कुल शक्ति, सूर्य से शनि तक की हरेक की 'मिटटी' और उनके केंद्र में स्थित शक्ति जो मेरु दंड में आठ केन्द्रों में संचित है, जबकि शनि का सार केवल स्नायु तंत्र के रूप में आठों चक्रों को जोड़ता है और शक्ति को ऊपर अथवा नीचे ले जाने का काम करता है) के योग से बना प्रतिरूप, अथवा प्रतिबिम्ब, समान जाना गया (बाहरी शरीर अस्थायी, अथवा 'मिथ्या')... जिसे हम दर्पण में किसी भी क्षण, अपने सीमित और ग्रहों की तुलना में नगण्य जीवन काल के दौरान, अपने किसी भी काल विशेष से सम्बंधित रूप केवल तब तक देख सकते हैं जब तक हम उसके सामने हों, और वो भी उल्टा यानि दाहिना अंग बांया प्रतीत होता है और बांया अंग दाहिना...

फिर यह संभव है कि जब तक परम सत्य 'मेरे' सामने है, या 'मैं' उसके सामने हूँ, 'मेरे' रूप में उसका अपना अस्तित्व प्रतीत होगा!... यानि वो ही वास्तविक दृष्टा है जो 'मुझ' में और अन्य सभी अनंत रूपों में किसी भी क्षण अपने किसी काल विशेष का अपने ही प्रतिबिम्ब देख रहा है... जैसे हम 'जादुई शीशों' में किसी क्षण विशेष में अपने ही विभिन्न रूप, अथवा अपनी एल्बम में अपने जन्म से वर्तमान तक के विभिन्न चेहरे विभिन्न स्थान अथवा वस्त्रादि में देख आनंदित होते हैं (और वो तो परमानन्द कहलाया जाता है) ?!

क्यूंकि वास्तविक दृष्टा वो है जो अनंत काल से अपने विभिन्न रूपों द्वारा रचित नाटक देख रहा है अपनी ही सृष्टि का, शायद वो ही कह पाता वो क्या ढून्ढ रहा है अपने भूत में, यदि वो स्वयं गूंगा न होता... संभवतः अपना मूल स्रोत, यानि अपने माँ-बाप, जैसे कृष्ण ने अपनी माँ यशोदा में देखी और पिता '(आ)नन्द' में,,, और देवकी से जन्म ले उन के पास पहुंच गए :)

DR. ANWER JAMAL said...

स्वर्ग में ब्लॉगिंग के लिए आवागमन की कल्पना से मुक्ति आवश्यक है
तभी आप स्वर्ग में प्रवेश कर पाएँगे और इसके बाद ही आप वहाँ ब्लॉगिंग कर पाएँगे ।
ईश्वर , परलोक और आवागमन के विषय में यह ब्लॉग भी अच्छी जानकारी देता है ।
स्वर्ग प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता अर्जन पथ का ज्ञान भी देता है यह ब्लॉग ।
अब हरेक कर सकता है स्वर्ग में ब्लॉगिंग ।
http://quranse.blogspot.com

DR. ANWER JAMAL said...

स्वर्ग में ब्लॉगिंग के लिए आवागमन की कल्पना से मुक्ति आवश्यक है
तभी आप स्वर्ग में प्रवेश कर पाएँगे और इसके बाद ही आप वहाँ ब्लॉगिंग कर पाएँगे ।
ईश्वर , परलोक और आवागमन के विषय में यह ब्लॉग भी अच्छी जानकारी देता है ।
स्वर्ग प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता अर्जन पथ का ज्ञान भी देता है यह ब्लॉग ।
अब हरेक कर सकता है स्वर्ग में ब्लॉगिंग ।
http://quranse.blogspot.com

महेन्‍द्र वर्मा said...

बंधुओ,
आप सब विद्वज्जनों के बीच मैं अल्पज्ञ और दुर्जन कुछ निवेदन करना चाहता हूं-

ईश्वर तर्क का विषय नहीं है, आस्था का विषय है। आस्था मन का विषय है। मन का व्यवहार अपरिभाषित है, अज्ञेय है। यद्यपि आधुनिक मनोविज्ञान को मन के व्यवहार का विज्ञान कहा जाता है, किंतु वह सही अर्थों में मन का नहीं बल्कि मस्तिष्क के व्यवहार का अध्ययन करता है।
मन के व्यवहार की वैज्ञानिक व्याख्या संभव नहीं है।(देखें- विभिन्न उपनिषद)
चूंकि मन अव्याख्येय है, इसलिए आस्था अव्याख्येय है और इसलिए ईश्वर अव्याख्येय है।
चूंकि ईश्वर की अवधारणा मन में है, इसलिए उसका अस्तित्व है। ( देखें दकार्त -मैं सोचता हूं , इसलिए मैं हूं। )
ईश्वर की विभिन्न संज्ञाएं हैं। सर्वज्ञात नामों के अतिरिक्त इस चर्चा में ईश्वर को कुछ और नामों से संबोधित किया गया है- प्रकृति, मां, विज्ञान, सबसे बड़ा विज्ञानी ( दिवस दिनेश)।
मैं इसमें उपनिषद का एक और शब्द जोड़ देता हूं-अनंत उर्जा अर्थात ब्रह्म।

अब कुछ बातें विज्ञान की-
विज्ञान पदार्थों के गुणों का अध्ययन करता है। पदार्थ-जिसे बनाया प्रकृति ने या उर्जा ने या ईश्वर ने। अर्थात पदार्थ और उसके गुण प्राकृतिक घटनाएं या प्रकृति की लीला या ईश्वर की लीला सिद्ध हुई।
इससे यह सिद्ध होता है कि विज्ञान के अध्येता ईश्वर की लीला का अध्ययन करते हैं।
अर्थात वे 24 घंटे ईश्वर लीला चिंतन में रत रहते हैं इसलिए विज्ञान का अध्ययन करने वाले सबसे ज्यादा आस्तिक हुए ।

G.N.SHAW said...

दिव्या जी !आम के पेड़ में मोजर बहुत लगते है , आम किसी किसी में ही आता है ! वैसे ही मोक्ष की चाहत सभी की है , पर मिलेगी किसी - किसी को ! चुलबुली खाना और खाने वाले के टेस्ट तो अलग - अलग होंगे ही !

sajjan singh said...

@ सुज्ञ जी

कौनसे धर्म शास्त्रों की बात आप कर रहे हैं । जरा ये तो बताइये । हिन्दू धर्म शास्त्रों की जिनके द्वारा बहुसंख्य वर्ग को अछूत बना कर रख दिया गया । यह वर्ण व्यवस्था धर्मशास्त्रों की ही देन है । मनुस्मृति पढ़ी है । कितने सदाचार की सीख देती है । या मुस्लिम धर्म शास्त्र की जो सारी दुनिया में काफिरों का नामों निशान मिटाने और इस्लाम का परचम फैलाने की सीख़ देते हैं ।
या ईसाई धर्म शास्त्रों की जो अपने लोगों को सारी दुनिया में जा-जाकर असभ्य और जंगली लोगों को ईशु की शरण में लाने का उपदेश देते हैं । ईसाई मिशनरियां यहां पर यही कर रही हैं ।
साम्प्रदायिक दंगों में धार्मिक लोग कितना सदाचार दिखाते हैं । धर्म ग्रन्थ कोई ईश्वर बनाकर नहीं गया था । ये सब इंसानों ने ही बनाये हैं । जो कानून की तरह ही आचरण की नियमावली है । ये बात तो धर्म ग्रन्थों के रचनाकार भी जानते थे की समाज में अव्यवस्था रही तो उनके हित भी सुरक्षित नहीं रहेंगे । धर्म शास्त्र जीवन मूल्यों को ऊंचा उठाने की सीख कम और ले देकर ईश्वर प्राप्ति को ही इंसान का अंतिम लक्ष्य मान लेने की सीख अधिक देते हैं । अब ईश्वर क्या है वो सभी का अपना-अपना बनाया हुआ है ।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी ,

पूरे मस्त मूड में बड़ा मस्त-मस्त लेख लिखा है आपने ...

टिप्पड़ियों के माध्यम से आस्तिक-नास्तिक, संत-असंत ,राग-विराग आदि कई विषयों पर बड़ी व्यापक चर्चा हुई |

अच्छा लगता है ......इस नरम-गरम आपसी विचार विमर्श को पढ़कर |

ईश्वर से नाराजगी नास्तिकता नहीं होती बल्कि इस नाराजगी में उसके प्रति आस्था छुपी होती है | नास्तिकता तो एक दुराग्रह है | मैंने कई कम्युनिस्टों को देखा है जो ईश्वरीय सत्ता को नहीं मानते किन्तु उनके घर में जब विवाहादि मंगल कार्य होते हैं तो जो निमंत्रण पत्र बांटे जाते हैं उसमे कई जगह गणेश जी का चित्र श्लोक सहित छपा होता है |

ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने वाला व्यक्ति उसकी छाँव में पूरी जिंदगी बड़ी तसल्ली से बिता लेता है | हानि-लाभ,सुख-दुःख ,जय-पराजय आदि उसी की देन मानता है .....अपने कर्मों को करते हुए | दूसरी तरफ नास्तिक व्यक्ति चूंकि सब कुछ स्वयं को ही मानता है , अतः जीवन के किसी भी क्षेत्र में असफल होने पर स्वयं को सम्हाल नहीं पाता.........परिणामतः बहुत जल्दी टूट जाता है ,बिखर जाता है |

दिवस said...

@सज्जन जी...
बंधुवर आप कहाँ भटक रहे हैं? जो बातें आप गिना रहे हैं वह धर्म नहीं आडम्बर हैं| आडम्बरों में इश्वर नहीं मिलेगा|मैं समझ गया की आप इश्वर नामक ताकत की Physical Body का सबूत मांग रहे हैं| तो बंधुवर यह आपके लिए भी कठिन है और मेरे लिए भी| ध्यान दीजिये मैंने कठिन कहा है असंभव नहीं| इसका मतलब अभी थोड़ी देर में समझाऊंगा|
पहले बात करते हैं इश्वर की| देखिये आप Physically Demand कर रहे हैं| आप चाहते हैं की हम इश्वर नामक कोई वस्तु लाकर सबूत के तौर पर आपको दिखा दें की ये लो भाई ये है इश्वर| बंधुवर आप गलत सोच रहे हैं| इश्वर कोई वस्तु नहीं है| इश्वर एक सोच है, एक विचार है, एक अच्छाई है, सत्य है, प्रेम है, ख़ुशी है, प्रकाश है, प्राण है, जीवन है| कहने का मतलब हर अच्छाई इश्वर है और वही सर्वोच्च सत्ता है| अंतिम निर्णय उसी का है, अंतिम विजय उसी की है| तभी तो हम कहते हैं की सच की जीत होती है| अरे भाई झूठ भला सच से कभी जीत सकता है? इसीलिए हम हर अच्छाई को इश्वर कहते हैं| वही अच्छाई समय समय पर भिन्न भिन्न रूपों में आपकी हमारी सहायता के लिए आती है| जिसे हम अवतार कहते हैं| यह अच्छाई आप के अन्दर हो सकती है, मेरे अन्दर हो सकती है, किसी के भी अन्दर हो सकती है| भगवान् और शैतान तो हमारे मन के अन्दर जीवित है| राजा रामचन्द्र ने अपने अन्दर के भगवान् को पहचाना और उसे जगा लिया इसलिए वे प्रभु श्री राम कहलाए| रावन ने अपने अन्दर के शैतान को जगाया जिसकी सजा वह अज भी हर वर्ष भुगत रहा है|
तो बंधू आडम्बरों से बाहर आओ, सत्य को पहचानों|

इसके अलावा आपने भिन्न भिन्न धर्मों पर कुछ आरोप लगाए हैं| बाकी सब तो बाद में पहले हिंदुत्व पर आता हूँ| बंधुवर आप किसी हिन्दू वेदों पर गलत होने का आरोप लगा ही नहीं सकते| आप कहते हैं की यहाँ छोट छुआ छोट जैसी समस्याएँ थीं| मेरे भाई यदि ऐसा हुआ होता तो भारत कभी विश्व गुरु नहीं बनता| यहाँ का प्रबंधन, विज्ञान, चिकित्सा, कला, व्यापार, खेती, संस्कृति सदा से ही आकर्षण का केंद्र रही है| हुआ यह था की जब मैकॉले का भारत में आगमन हुआ था तो उसने कुल छ: वर्षों तक पहले भारत की यात्राएं कीं| उसने अपनी डायरी में लिखा था की भारत इतना अमीर देश है की इसे लूटने में सदियों लग जाएंगी| दूसरा इस देश का प्रबंधन बड़ा ही शानदार है| हिन्दू लोग अपने धर्म गुरु ब्राह्मणों के कहे अनुसार अपनी जीवन पद्धति अपनाते हैं, जिससे वे सदा उन्नति की ओर अग्रसर रहते हैं| यदि इन्हें लूटना है तो पहले इन्हें तोडना होगा| इसका एक ही उपाय है की शेष सभी हिन्दुओं के मन में ब्राह्मणों के प्रति घृणा भर दी जाए| जिससे इनकी जीवन पद्धति ही बदल जाएगी और ये स्वत: ही विनाश की ओर अग्रसर हो जाएंगे|
इसके लिए हमारे धर्मोपदेशों को बदनाम किया गया| हर जगह यह फैलाया गया की ब्राह्मण तो क्षुद्रों से नफरत करते हैं| सवर्ण व क्षुद्रों को आपस में लडवाया गया| हमार इतिहास तोड़ मरोड़ दिया गया| भारत का इतिहास भारत का न हो कर राजाओं का इतिहास हो गया| और राजा भी सब विदेशी, वही आजतक हमारे पाठ्यक्रमों में हैं| ताकि आने वाली पीढ़ी मैकॉले मानस पुत्र बन जाए, जो शरीर से भारतीय हैं परन्तु दिमाग से विदेशी| इतिहास में केवल युद्ध ही युद्ध है|

दिवस said...

क्षमा करें लम्बी टिपण्णी पोस्ट नहीं हो रही थी अत: दो भागों में भेज रहा हूँ|

आप ज़रा सोचें की यदि भारत में इतने युद्ध हुए होते तो भारत तो हज़ारों वर्षों पहले ही ख़त्म हो गया होता|
मनु स्मृति की बात आप करते हैं| कैसे हमारे श्लोकों को तोडा गया| अर्थ का अनर्थ किया गया|
एक उदाहरण बताता हूँ| एक बार ऐसे ही एक व्यक्ति से बहस हुई थी| उसने कहा की मनु स्मृति में लिखा है की ब्राह्मण भगवान् के मुख से पैदा हुआ है, क्षत्रिय भुजाओं से पैदा हुआ है, वैश्य जंघाओं से, व क्षुद्र चरणों से| अब आप बताएं की यह कहाँ का इन्साफ है की क्षुद्र को भगवान् के पैरों से पैदा हुआ बता दिया?
मेरा उत्तर था की पहली बात तो मनु स्मृति में भगवान् का कोई शरीर नहीं है| वह एक अनंत, निराकार, अदृश्य शक्ति है| ब्राहमण वह है जो विद्वान् है, जो ज्ञान देता है| अत: यह कह सकते हैं की ब्राह्मण इश्वर के वचनों को समाज तक पहुंचा रहा है, इस लिए वह भगवान् का मुख है, न की मुख से पैदा हुआ| वहीँ क्षत्रिय वह है जो मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ता है| अत: वह इश्वर की भुजा है न की भुजा से पैदा हुआ| वैश्य वह है जो पूँजी का निर्माण करता है| व्यापार, खेती बाड़ी, पशुपालन आदि करता है| कुल milaakar कह सकते हैं की वह कुछ निर्माण कर रहा है| अत: वह जंघा है जिससे निर्माण होता है|जंघा से आप मेरा तात्पर्य समझ रहे होंगे की निर्माण शरीर के किस अंग से होता है| वेदों में व यहाँ ब्लॉग पर ऐसे शब्दों का उपयोग असभ्य है इसलिए इसे जंघा कहा गया| इसीलिए विषयों को भगवान् की जंघाएँ कहा गया न की जंघाओं से पैदा हुआ| अंत में क्षुद्र वह है जो इन सब वर्गों की सेवा कर रहा है| क्षुद्र ही है जिसके बल पर यह समाज चल रहा है, गतिशील है| अत: क्षुद्रों को भगवान् के चरण कहा गया न की चरण से पैदा हुआ|

तो देखिये किस प्रकार अर्थ का अनर्थ मैकॉले द्वारा किया गे| और वही काम अब मैकॉले मानस पुत्र कर रहे हैं|

मैंने अपनी पिछली टिपण्णी में एक लिंक दिया था, शायद आपने नहीं पढ़ा| मेरी इस टिपण्णी से सम्बंधित एक लिंक दे रहा हूँ, चाहें तो पढ़ सकते हैं|
http://www.diwasgaur.com/2010/10/blog-post_29.html
आपसे अनुरोध है की कृपया इसे एक बार अवश्य देखें, शायद आपके कुछ भ्रम मिट सकें| ज्यादा लम्बी पोस्ट नहीं है| आपको पढने में भी आनंद आएगा, यह मेरा दावा है|


दिव्या दीदी, आपसे भी अनुरोध है की आप यह पोस्ट ज़रूर देखें| वैसे तो मुझे पता है की आप इससे पूर्णत; सहमत होंगी, किन्तु इस पर आपके विचार नहीं आए थे, वही चाहता हूँ| अत: एक दृष्टि अवश्य डालें|
आभार|

nilesh mathur said...

इस अखाड़े के सभी पहलवानों को प्रणाम!

प्रतुल वशिष्ठ said...

भडासी-टिप्पणीकारों का आभार अभिव्यक करती हूँ ...
@ दिव्या जी,
यदि आमजन के लिये मंच लग गया हो ...तो कौन नहीं अपनी बात कहना चाहेगा. जिस बात में किसी दूसरे की रुचि न हो वह 'भड़ास' प्रतीत होती है...
यहाँ 'पुनर्जन्म' और 'आत्मा' विषयक चर्चा के लिये अखाड़ा जम गया... जिज्ञासुओं के लिये यह चर्चा सुखद रही. किन्तु वे इसे भड़ास कहेंगे जो इन विषयों पर माथापच्ची नहीं करना चाहते.

Smart Indian said...

@ज़ील,
उसी प्रकार नास्तिक व्यक्ति को ईश्वर से बहुत नाराजगी है, उसे ईश्वर से बहुत से अनुत्तरित सवालों के जवाब चाहिए। जब उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते तो वह "ईश्वरीय-सत्ता" से नाराजगी दिखाने के लिए खुद को नास्तिक घोषित करते ईश्वर के खिलाफ अनशन पर बैठ जाता है।

सहमत हूँ, नाराजगी और गुस्से में भरे ऐसे कई नास्तिकों को देखा है।

sajjan singh said...

जो ईश्वर से नाराजगी व्यक्त करें वो नास्तिक नहीं होता । और कम्यूनिस्ट तो वैसे भी नकली के नास्तिक होते हैं । पार्टी से मिली उधार की नास्तिकता का कोई मूल्य नहीं होता ।

amrendra "amar" said...

waise ab kuch kehne sunne ko bacha nahi hai ...phir bi kara vyangya hai accha laga padhker

प्रतिभा सक्सेना said...

वाह ,फिर तो सबको खुली छूट मिल जायेगी ,और एहसान अलग से कि पाप कर्म काट रहे हैं .
ये सब दुनिया के धंधे हैं.ऐसे ही चलते रहेंगे !

Anonymous said...

दिव्‍या जी, आप बहुत ही अच्‍छा लिखती हैं ...आपके लेखन से मैं बेहद प्रभावित हूं ...।

ROHIT said...

अभी भी बहस चल रही है.
इस पूरी बहस मे नास्तिको के रवैये पर मुझे एक कहानी याद आयी है.
एक बार दो दोस्त समुद्र किनारे गये.
अचानक उनको समुद्र की गहराई नापने की सनक सवार हुयी.
एक के पास पाँच फुट का पैमाना (फुटा) था.
उसने उस पैमाने को समुद्र मे डुबोया. पैमाना पूरा डूब गया.
उसने घोषित कर दिया कि देखो समुद्र पाँच फुट का है.
दुसरे के पास आठ फुट का पैमाना था.
उसने भी अपना पैमाना डुबोया. वो भी पूरा डूब गया.
उसने घोषित कर दिया कि समुद्र पाँच फुट नही आठ फुट गहरा है.

यही हाल इन लोगो का है.
ये लोग इस अनन्त ब्रम्हान्ड को अपनी बुद्धि के छोटे पैमाने से नापने की कोशिश करते है.
और जितना नाप पाते है उतना ही घोषित कर देते है.
कि देखो भाई इतना ही है . इससे ज्यादा नही है.
ये कहते है कोलंबस ने अमेरिका को खोजा.
जैसे कोलंबस के खोजने से पहले वहाँ जमीन थी ही नही.
अरे भाई जमीन तो वहाँ पहले से ही थी.
कोलंबस ने तो केवल वहाँ अपना झंडा गाड़ा.
ऐसे ही अगर ये लोग आत्मा परमात्मा को प्रमाणित नही कर पाते है.
तो कहते है कि आत्मा परमात्मा ही नही है.
अरे भाई अगर छोटी गिलास मे सागर भरने की कोशिश करोगे.
तो भला कैसे भरेगा?
ऐसे ही इस अनन्त परमात्मा को और उसके रहस्यो को समझना इंसान के दिमाग के वश की बात नही है.
उसको केवल मन द्वारा ही समझा जा सकता है.
क्यो कि मन का विस्तार भी अनंत है.

Shekhar Suman said...

ha ha ha....:)
मुझे तो टिप्पणियां देख कर आश्चर्य हो रहा है...

ROHIT said...

कुछ लोग कहते है कि अगर भगवान है तो वो ऐसा क्यो नही करता ? वैसा क्यो नही करता ? वगैरा वगैरा.

इस पर भी एक किस्सा याद आता है.
एक बार एक अंग्रेज गाँव मे घूम रहा था.
गाँव वालो के सामने वो भगवान को खूब गालियाँ दे रहा था. कि तुम्हारा भगवान ऐसा है. वैसा है.

गाँव वाले भी बेचारे सुनते जा रहे थे.
कोई उसको जबाब नही दे पा रहा था.

फिर उस अंग्रेज ने एक तरबूज की बेल देखी.
फिर आगे बढ़ा
और एक जामुन का पेड़ देखा जिस पर जामुन लगे थे.
और उसी पेड़ के नीचे बैठ गया.

और फिर गाँव वालो से कहने लगा.
" कि देखो तुम्हारा भगवान कितना मूर्ख है.
छोटे पौधे मे तरबूज जितना बड़ा फल लगाता है.
और इतने बड़े पेड़ मे जामुन जितने छोटे फल लगाता है.
तुम्हारा भगवान भी तुम लोगो जैसा मूर्ख है.

तभी हवा चली और उस पेड़ से दो तीन जामुन उस अंग्रेज के सर पर गिरे.
तब एक गाँव वाले ने उत्तर दिया
अब पता चला फिरंगी.
कि हमारा भगवान कितना विद्वान है?

अगर इस पेड़ पर तरबूज जितना बड़ा फल लगता तो तुम्हारे सर का क्या हाल होता.

बेचारा अंग्रेज अब अपनी मूर्खता भरी बातो पर पछता रहा था.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

jहाल ही में पुनर्जन्म को नकारता एक ब्लाग देखा और अब....:)

sajjan singh said...

@ रोहित

आपकी टिप्पणी से आपकी समझ का पता चल गया है ।
इसलिए दोबारा जवाब देने की ज़हमत नहीं उठाउंगा ।
दूसरी बात नास्तिक आपसे इस ब्रम्हांड के विषय में कहीं ज्यादा जानते हैं ।

सुज्ञ said...

सज्जन साहब,

अब समझ में आया।

वस्तुतः आपको अच्छाई कहीं भी नज़र नहीं आ रही है।

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुहाय।
सार सार को गेहि रहे थोथा देय उडाय॥


आप की मुश्किल यह है कि आप सूप के सम्मुख थोथों की राह में आ खडे है। आपको सार्थकता कहीं भी नज़र नहीं आएगी।

ROHIT said...

सज्जन जी
पहली बात आपसे जबाब माँगा किसने?

दूसरी बात आप क्या कही के जज है. कि जो आपने फैसला सुना दिया.वो ही अंतिम सत्य हो गया.

तीसरी बात आती है समझ की तो भाई मुझे आपकी समझ पे हँसी आती है और आपको मेरी समझ पे आती होगी .तो इसमे नयी बात क्या है.

चौथी बात सारे विग्यान का ठेका क्या आपने ले रखा है.
आस्तिक का मतलब ये नही होता कि वो विग्यान को नही मानता.
आस्तिक विग्यान को भी मानता है और विग्यान को पैदा करने वाले को भी.
और सारे वैग्यानिक नास्तिक नही होते.

पाँचवी बात आप मुझे नास्तिक नही बना सकते.
और मै आपको आस्तिक बनाना भी नही चाहता.
क्यो कि मै पहले भी कह चुका हूँ आपके कुछ न मानने से इस दुनिया पर रत्ती भर भी फर्क नही पड़ने वाला.

इसलिये आप अपनी ढपली बजाते रहिये. हो सकता है किसी को सुनायी पड़ जाये.

और मेरी ढपली तो मेरे बजाये बिना भी सदियो से बजती आ रही है.
और आगे भी बजती रहेगी.

और हाँ सज्जन साहब अगली बार कही भी किसी भी ब्लाग पर पुर्नजन्म की बहस करना.
तो आपकी तर्कशील संस्था ने इस राजस्थान वाले लड़के की क्या पोल खोली.
उसका पूरा विवरण जरुर रखना.

Smita bhave said...

बड़ी शांति छायी है यहाँ पर ! ना कोई सवाल न जबाब लगता है सारा कमेंट्स ख़त्म हो गया | अच्छा तो भाई मै भी चला | अब मेरा यहाँ क्या काम !

Smita bhave said...

भगवान पर उन लोगों जितना लगातार कोई और बात नहीं कर सकता , जो कहते हैं कि भगवान नहीं है। ’--- हेवुड ब्राउन

sajjan singh said...

@ सुज्ञ जी

रावण में भी बहुत सी अच्छाईयां थी और राम में भी कुछ बुराइंया थी । पर फिर भी लोग रावण का पुतला जलाते हैं । राम की बुराइंयां आपको दिखाई नहीं देगीं। क्योंकि जब दिमाग और आँखों की बीच आस्था का कोहरा जम जाता है तब आदमी को सच्चाई दिखाई नहीं देती है । धर्म ग्रन्थों को आप इतने भक्तिभाव से पढ़ते हैं कि इनमें आये अनेक लोक-विरोधी और बिलकुल अवैज्ञानिक प्रसंगो को भी बड़ी ही श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं और फिर अपने मन से उनका कुछ और ही अर्थ निकालते हैं। धर्म ने आज तक क्या दिया है दुनिया को युद्ध, आतंकवाद, अंधविश्वास, गैरबराबरी । आप कह रहे हैं धर्म सदाचार की सीख देता है धर्म सदाचार नहीं पाखंड सिखाता है कि सारी जिंदगी पाप करो फिर गंगा नहाकर शुद्ध हो लो । कोई अपराध बोध नहीं,प्राश्चित तक करने की ज़रूरत नहीं । आपने कितने धार्मिकों को देखा है ईश्वर के डर से गलत काम नहीं करते । मैं भी इसी दुनिया में रहता हूं। लेकिन आप किस भोली दुनिया में जी रहे हैं।

प्रतुल वशिष्ठ said...

रोहित जी, लाजवाब दृष्टांत.
सुज्ञ जी, संतुलन बरकरार है.
मैं भी कभी अपने दृष्टिकोण वाली रामायण सुनाऊँगा... जिसका घटनाक्रम समस्त द्युलोक में घटित हुआ होगा, मात्र भारत में नहीं.
फिलहाल ..... शांति शांति शांति
प्राथमिकता के आधार पर कार्य.... नहीं तो आगामी 'दर्शन-प्राशन परीक्षा' में विलम्ब बढ़ता जायेगा.

JC said...

हम रामलीला, कृष्ण लीला, आदि कहानियाँ पढ़ते हैं तो आम तौर पर ध्यान दे कर नहीं पढ़ते,,, उदाहरणतया "माँ यशोदा ने बाल-कृष्ण के मुंह में ब्रह्माण्ड देखा" पढ़ते हैं और आगे बढ़ जाते हैं... मुझे भी विचित्र लगा तो था किन्तु तब छोड़ दिया था, किन्तु जब अस्सी के दशक में भागवद गीता में पढ़ा कृष्ण को कहते कि 'माया' से उन्हें हर कोई अफने भीतर देखता है, किन्तु वो किसी के भीतर नहीं हैं! सारी सृष्टि उनके भीतर है! अर्थात ब्रह्माण्ड का अनंत शून्य ही उनका विराट स्वरुप है जिसके भीतर अनंत साकार रूप समाये हुए हैं! और क्यूंकि हमारी गैलेक्सी और मानव रूप भी ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप है, वे शक्ति रूप अथवा आत्मा के रूप में सबके भीतर हैं...
लाइनों के बीच कहानियाँ पढ़े तो कोई भी जान सकता है कि द्वापर युग में 'अर्जुन के सारथी' कृष्ण मानव रूप में गैलेक्सी के केंद्र के प्रतिरूप पुरुषोत्तम (हीरो) दर्शाए गए, जबकि 'धनुर्धर' अर्जुन उनका सर्व प्रिय मित्र, सूर्य का प्रतिरूप समझा जा सकता है (उसी प्रकार त्रेता में 'धनुर्धर' राम भी, और सतयुग में ब्रह्मा जिनकी अर्धांगिनी सरस्वती को सूर्य-किरण समान सफ़ेद साडी में दर्शाया जाता है),,,
और युधिस्थिर पृथ्वी का प्रतिरूप द्वापर में, भरत त्रेता में (राम की 'चरण-पादुकाएं' गद्दी में रख राज्य करने वाला), और (गंगाधर, चंद्रशेखर ) शिव सतयुग में,,,

राक्षश राज रावण त्रेता में प्रतिरूप है विषैले वातावरण वाले शुक्र ग्रह का (द्वापर में 'स्वार्थी' दुर्योधन)... अदि, आदि...
गीता में कृष्ण भी कह गए कि सारी गलतियों का कारण अज्ञान है... इसी लिए प्राचीन ज्ञानियों ने 'सिद्ध पुरूष' बनने पर बल दिया...

Admin said...

बहुत अच्छी जानकारी है हमारे ब्लोग में भी पधारे

Admin said...

बहुत अच्छी जानकारी है हमारे ब्लोग में भी पधारे

sajjan singh said...

@ देवस
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यह भौतिक मस्तिष्क ही है जिसके कारण आपकी आध्यात्मिक कल्पनाओं के महल खड़े हो सकते हैं ।
.
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JC said...

दिव्या जी, क्षमा प्रार्थी हूँ कि मैंने पिछली टिप्पणी में भरत को पृथ्वी का प्रतिरूप लिख दिया, यद्यपि मुझे लिखना था कि सौर-मंडल कि उत्पत्ति के चलते 'भरत' त्रेता में गैलेक्सी के केंद्र के प्रतिरूप हैं (द्वापर के हीरो कृष्ण समान) , जो सूर्य यानि 'धनुर्धर' राजा राम, त्रेता के पुरुषोत्तम (हीरो) से वैसे ही सम्बंधित हैं जैसे पार्थसारथी कृष्ण 'धनुर्धर' अर्जुन से, और जो वास्तविक राजा दर्शाए जाते हैं, और गीता में कहते भी कि सूर्य और चन्द्रमा में चमक उन्ही से है... और लक्षमण पृथ्वी के प्रतिरूप, और (द्वापर में द्रौपदी और सतयुग में पार्वती समान) सीता चन्द्रमा का प्रतिरूप, क्यूंकि चौदह वर्ष के बनवास के समय सीताहरण के पश्चात वो 'सीता का चन्द्रहार' नहीं पहचान पाए, क्यूंकि उन्होंने 'सीता माता' के केवल चरण ही देखे थे!... और आधुनिक वैज्ञानिक भी आज जान गए हैं कि पृथ्वी से चंद्रमा का केवल एक ही चेहरा (यानि चरण) ही सदैव दिखाई देते हैं... और द्वापर में स्वार्थी अथवा राक्षश कौरव राजकुमारों ने 'चीर हरण' द्वारा उनको भरी सभा में (आकाश के अन्य सितारों के प्रतिरूपों की उपस्थिति में) जानना चाहा, किन्तु 'कृष्ण' के कारण असफल रहे... आदि आदि...

दिवस said...

सज्जन भाई यही आपकी समस्या है कि आप बात करना नहीं जानते, केवल आरोप लगाना जानते हैं...
यह क्या बात हुई कि जब आपके पास तर्क ख़त्म हो गए तो सामने वाले पर ही टिप्पणी कर दो?

sajjan singh said...

भाई देवस मेरी बात को अन्यथा ने लें । मेरा कहना सर्फ इतना ही था कि आध्यात्मिक अनुभूति भौतिक मस्तिष्क के द्वारा ही संभव है । इसी के आधार पर अनुभव कल्पना और विश्वास चलता है।

आचार्य परशुराम राय said...

अच्छी व्यंग्यात्मक रचना। साधुवाद।

Bharat Bhushan said...

@ sajjan singh *आध्यात्मिक अनुभूति भौतिक मस्तिष्क के द्वारा ही संभव है. इसी के आधार पर अनुभव कल्पना और विश्वास चलता है।

आपसे शतप्रतिशत सहमत. सभी अनुभूतियों, अनुभवों की संवाहिका हमारी तंत्रिका प्रणाली ही है. मैं इसी विचार को आस्तिकता मानता हूँ.

सञ्जय झा said...

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TEST COMMENTS

GOOD

PRANAM.

Amit said...

बाप रे, इतने कमेंट. पहले कभी नहीं देखे.

डा श्याम गुप्त said...

मूलतः व्यक्तिगत विचार व व्यर्थ की बहस चलरही है ---प्रत्येक धार्मिक व दर्शन में पुनर्जन्म को मान्यता है...
---मनुष्य-- मनुष्य का, जानवर का यहाँ तक वनस्पति का भी जन्म ले सकता है एवं विपरीत भी...
--याद तो इसलिए नहीं रहता कि मनुष्य के अलावा और किसी में भी मस्तिष्क की यह क्षमता नहीं होती ...जिन बच्चों को याद रहता है वह भी कुछ वर्ष में भूल जाते हैं....यह जीवन को सुचारू रूप से चलने देने की प्रकृति की योजना है....

--पूर्ण व्याख्या व वास्तविकता जानने के लिए .कठोपनिषद का अध्ययन करें....

sajjan singh said...

@ डा. श्याम गुप्त

यम ने कठोनिषद् में नचिकेता को बच्चा जानकर बहला दिया । पहले तो बड़े-बड़े नखरे दिखाए कि यह राज मत पूछो और आखिर में क्या बताया वही आत्मा की घिसीपिटी बात । नचिकेता बेवकूफ थे । उनको यह भी नहीं पता चला की यमराज ने उन्हें कैसा चकमा दिया है । प्रश्न तो यों का यों ही रह गया । पर आज के विज्ञानवेत्ता नचिकेता की तरह अल्पचेता नहीं हैं, जो इस तरह घपले में आ जाये । वे चेकितान हैं ।

sajjan singh said...
This comment has been removed by the author.
JC said...

हिन्दू मान्यता विचित्र है, वो पुराणों, उपनिषद, राम लीला, कृष्ण लीला, आदि पढने को तो कहती है किन्तु पढ़ाई का सार कोई ज्ञानी "पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भाया न कोई / ढाई आखर प्रेम का पढ़े, सो पंडित होए" कह सब पढ़ाई पर पानी फेर देता है!

गीता में भी योगियों ने किसी काल में करोड़ों योगियों के हित में श्रवण के माध्यम से अनादिकाल से चले आ रहे ज्ञान पा वो ही लिखा जो डॉक्टर श्याम गुप्त जी ने भी लिखा कि कर्म के आधार पर (मानव शरीर के भीतर कैद आत्मा) उपर (शिव के निकट) अथवा नीचे जा सकती है...

और यह मान्यता तो आम है कि शक्ति रूप से आरम्भ कर हर आत्मा, परमात्मा का ही एक अंश, ८४ लाख विभिन्न रूप धर मानव रूप में (जो निराकार ब्रह्म, नादबिन्दू का ही साकार प्रतिरूप अथवा मायावी प्रतिबिम्ब है क्यूंकि वो शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है) प्रथम बार अवतरित होता है...

किन्तु जैसा 'नटराज शिव' की मूर्ती, (जो शून्य में आधारित होते हुए भी अपनी धुरी पर साढ़े चार अरब वर्षों से घूमती आ रही है, यानि हमारी साकार पृथ्वी, 'मिथ्या जगत' अथवा 'गंगाधर शिव' का प्रतिरूप), द्वारा संकेत किया जाता है कि मानव उनके दाहिने पैर के नीचे की धूल है, और उसे 'अपस्मरा पुरुष' भी कहा गया, अथवा एक मिटटी का पुतला जिसके भीतर आठ चक्रों में सम्पूर्ण ज्ञान भंडारित तो है, किन्तु जो एम्नीसिया के मरीज़ समान अपने भूत का इतिहास नहीं जान पाता... उसके लिए 'कुण्डलिनी जागरण' कर सम्पूर्ण शक्ति को मस्तिष्क तक उठाना आवश्यक है...

आधुनिक योगी भी कह गए कि शब्दों से किसी आध्यात्मिक अनुभूति को बता पाना कठिन है वैसे ही जैसे किसी फल की मिठास खाने वाले को ही चल सकय है... और इस संसार में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, और कुछ न कुछ आवश्यक काम कर रहा है...

शायद हम अनंत प्रकृति की विविधता को देख अनुमान लगा सकते हैं कि निराकार ब्रह्म ने कितने पापड़ बेले होंगे अद्वितीय सृष्टि की रचना में और कृपा कर 'हमें' भी मौका दिया उसको महसूस करने का, भले ही अपना ही अस्थायी क्षण-भंगुर प्रतिबिम्ब बना :)

daanish said...

आलेख मननीय है ...
भडासी टिपण्णीयाँ करना
टिपण्णीकर्ता की हीन-भावना को ही प्रदर्शित करती हैं
हमेशा कटाक्ष करते रहने से
अपनी ही योग्यता के खो जाने का ख़तरा बना रहता है

सब को सन्मति दे भगवान् .

Rakesh Kumar said...

आपका ब्लॉग अब ब्लोगर्स का तीर्थ स्थान बन गया है ,दिव्या जी.
और इस पोस्ट ने तो समुन्द्र मंथन का कार्य किया है.
सुर गणों द्वारा विचार मंथन किया जा रहा है.
देखतें हैं क्या क्या अनमोल रत्न निकलते हैं इस समुन्द्र मंथन से.
आपकी उपरोक्त में की गईं प्रति-टिप्पणियाँ सुस्पष्ट और सार्थक हैं.

Rakesh Kumar said...

@ हम सभी मोक्ष प्राप्त करके स्वर्गलोक में पुनः मिलेंगे।

दिव्या जी, मोक्ष प्राप्ति के बाद स्वर्ग कैसा?

चाहतों की पूर्ति का स्थान स्वर्गलोक कहलाता है.
जब चाहत या स्वर्ग-नर्क सबसे ही मुक्ति मिल जाती है तो मोक्ष
होता है.

JC said...

राकेश कुमार जी, मानव रूप को हमारी गैलेक्सी के सार (शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी चतुर्भुज नादबिन्दू विष्णु, अनंत योगेश्वर परमात्मा के अष्टम अवतार, विष्णु समान अनंत सुदर्शन-चक्र धारी और मुरलीधर कृष्ण यानि उसके केंद्र में संचित शक्ति 'ब्लैक होल') और उसके ही भीतर स्थित दसों दिशाओं पर नियंत्रण हेतु हमारे सौर-मंडल के (आठ दिशाओं पर नियंत्रण हेतु सूर्य से बृहस्पति तक, ८ + दो दिशाओं पर नियंत्रण हेतु शनि, १ = कुल ९) सदस्यों के सार के योग द्वारा अनंत ब्रह्माण्ड का तथाकथित प्रतिरूप जाना गया... और हमारी गैलेक्सी की उत्पत्ति (शुद्ध शक्ति का कलियुग अथवा अन्धकारमय शून्य से आरम्भ कर), क्षीरसागर मंथन की कथा द्वारा सतयुग के अंत तक देवताओं का यानि हमारे सौर-मंडल के सदस्यों का भी चार चरणों में 'अमृत' पाना, उन्ही में से एक सदस्य चन्द्रमा (जो पृथ्वी से ही उत्पन्न हुई और हिमालय पुत्री पार्वती कहलाई, यानि चतुर्भुज अनंत शिव / विष्णु का ही मोहिनी रूप) द्वारा 'सोमरस' प्रदान कर :)

मेरे विचार में वर्तमान में श्री अमिताभ बच्चन के माध्यम से समुद्र मंथन के कुछ चरण तो समझे जा सकते हैं...

पहले चरण में विष उत्पन्न हुआ, वैसे ही 'अ ब' को पहले 'लम्बू' और उस काल के सुपर स्टार की तुलना में बेडौल होने के कारण फिल्म में काम मिलने में बाधाएं आई, जब तक उनके प्रसिद्द लेखक पिता श्री के मित्र ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी एक फिल्म 'सात हिन्दुस्तानी' में '६९ में रोल नहीं मिला... और फिर धीरे धीरे वे सुपर स्टार बन गए, और दूसरे चरण समान मणि-माणिक्य आदि समान पैसा ही पैसा आ गया, और तीसरे चरण में अप्सराओं समान कई मायावी फिल्म जगत की सुंदरियों के साथ चक्कर (?), और अब अमरत्व के प्रतिबिम्ब समान मीडिया के सभी स्रोतों में छाये हुए हैं कई पुरूस्कार आदि पा...

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

आदरणीय डॉ.दिव्या श्रीवास्तव जी, आपकी उपरोक्त पोस्ट पर अब तक २७४ टिप्पणियाँ आ चुकी है.मेरे अधूरे ज्ञान के अनुसार एक पोस्ट पर इससे पहले इतनी टिप्पणियाँ कभी नहीं आई होगी. इतने बड़े-बड़े ज्ञानी व्यक्तियों ने अपना इतना समय नष्ट किया. काश! अपने आस-पास किसी अनपढ़ गरीब का कोई प्रार्थना पत्र,फॉर्म भरा होता या कोई शिकायती पत्र लिख दिया होता तो शायद उस गरीब के घर में एक रोशनी का "दिया" या चूल्हा जल गया होता. आपको उपरोक्त पोस्ट को लिम्का बुक ऑफ रिकोर्ट वालों के पास जरुर भेजनी चाहिए.

JC said...

दिव्या जी, कबीरदास जी के माध्यम से, निराकार ब्रह्म, एकान्तवाद के कारण शून्य काल और स्थान से सम्बंधित 'परम सत्य', ने योगमाया अथवा 'सत्य' (द्वैतवाद) का खुलासा करते कहलवा दिया, "चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोये / दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई (यानि शून्य)"...

दो पाटों में से एक, नीचे वाला, घूमता नहीं है (ब्रह्माण्ड के स्थिर केंद्र समान)... जबकि सौर-मंडल के मायावी राजा सूर्य और उसके सामने हमारी अपने ध्रुवों पर, और सूर्य के चारों ओर भी, अपनी कक्षा में घूमती प्रतीत होती पृथ्वी द्वारा जनित मायावी काल ही 'हमारी' भौतिक इन्द्रियों द्वारा गुजरता प्रतीत होता है (दिन-रात, विभिन्न मौसम आदि), जबकि वास्तविक समय सदैव शून्य ही रहता है...

इसलिए मानव के जन्म, जीवन, और मृत्यु, पुनर्जन्म आदि सब माया द्वारा ही जनित है, और उसी प्रकार किसी भी प्राणी के समय नष्ट करने का प्रश्न उठता ही नहीं है... अमीर-गरीब भी द्वैतवाद के कारण प्रतीत हो रहे 'परम सत्य' के मायावी प्रतिबिम्ब ही हैं! किन्तु यह भी सत्य है कि जानते हुए भी यक्ष प्रश्न समान 'हम' इसे मानने में अपने को असमर्थ पाते हैं (क्यूंकि उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता!)...

JC said...

द्वापर युग से सम्बंधित 'महाभारत' की कथा तो लगभग सभी भारतियों ने पढ़ी ही होगी, और उसमें संदर्भित 'यक्ष प्रश्न' भी... यानि तब तक देवताओं को अमृत पाना शेष था और सतयुग के अंत में ही 'मंथन' से उपलब्ध होना था, यद्यपि कलियुग में सदाशिव ने हलाहल पान तो कर लिया था...

सतयुग वाले शिव यानि साढ़े चार अरब से शून्य में युद्ध में भी स्थिर पृथ्वी का द्वापर में प्रतिरूप युधिस्थिर ही जान सकता था 'सत्य' क्या है (जो ज्ञानियों ने "सत्यम शिवम् सुन्दरम", और "सत्यमेव जयते" द्वारा दर्शाया)...

वो, जिन्होंने 'यक्ष प्रश्न' और युधिस्थिर के उत्तर न पढ़े हों, उनके लिए संभवतः निम्नलिखित लिंक लाभदायक हो.

http://en.wikipedia.org/wiki/Yaksha_Prashna

Mukesh said...

बहस का ये नवीन विषय और नवीन नजरिया अच्छा लगा।

Kailash Sharma said...

वैसे पुनर्जन्म और मोक्ष के बारे में ज्यादा विश्वास नहीं, लेकिन अगर कभी इस बारे में सोचा तो मोक्ष प्राप्ति का आपके द्वारा बताया उपाय ज़रूर ध्यान में रखेंगे.

DR. ANWER JAMAL said...

आपकी इस यादगार पोस्ट का ज़िक्र हो रहा है ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ पर, जो कि हिंदी ब्लॉग जगत का पहला समाचार पत्र है। यह पत्र ब्लॉग से संबंधित ख़बरों को प्रमुखता देता है और किसी को मुबारकबाद तो आज पहली बार दे रहा है।
मुबारक हो दिव्या जी !
मरने के बाद होता क्या है इंसान का ?

Gopal Mishra said...

bahut achcha laga.. comments padhne me aur maja aaya,

Rakesh Kumar said...

आस्तिक नास्तिक दोनों ही आनंद चाहते हैं.क्षणिक आनंद के बजाय दोनों ही 'चिर स्थाई चेतन आनंद' ही ज्यादा पसंद करेंगें.
आस्तिक ऐसे आनंद को 'सत्-चित-आनंद' परमात्मा कहें ,तो नास्तिक को कोई उज्र नहीं होना चाहिये.
चाहतों में 'सत्-चित-आनंद' की चाहत ही सर्वशेष्ठ चाहत हो सकती है.
लगता है आप आनंद में मग्न है.आपकी पोस्ट टिप्पणियों के तिहरे शतक की ओर अग्रसर है.बहुत बहुत बधाई.

आप मेरे ब्लॉग पर भी कुछ 'दिव्य'संगीत छेडिएगा.
आपकी प्रेरणा से ही नई पोस्ट जारी की है.

मदन शर्मा said...

अरे बाप रे बाप इतना सारा कमेंट्स ! ये तो हद कर दी आप भाडासिओं ने !
अब रात में फुर्सत में मै भी शामिल होने की कोशिश करता हूँ
इंतज़ार करें ................

Bharat Bhushan said...

@ राकेश कुमार *'चाहतों की पूर्ति का स्थान स्वर्गलोक कहलाता है.
जब चाहत या स्वर्ग-नर्क सबसे ही मुक्ति मिल जाती है तो मोक्ष
होता है.'
इससे भी अर्थ है कि पुनर्जन्म नहीं है. यदि मोक्ष हो सकता है तो पुनर्जन्म कैसा. दूसरे यदि पुनर्जन्म का विचार या इच्छा ही न रहे तो मोक्ष ही मोक्ष है. सभी ज्ञानी जन कृपया पुनर्जन्म की 'अवधारणा' पर पुनः विचार करें.

मनोज भारती said...

ऊपर विद्वद जनों ने तर्क-वितर्क से आत्मा की मुक्ति,उसके आवागमन पर बहुत बहस की है। पर समाधान कोई नहीं निकला है। शायद निकल भी नहीं सकता। क्योंकि अंश संपूर्ण की व्याख्या करने की कोशिश कर रहा है।
बूंद सागर से विरक्त होकर सागर को कभी नहीं जान सकती और जब वह सागर में डूबती है तो उसका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं रहता।
नमक का पुतला यदि सागर की गहराई नापने निकले तो कभी वापिस न लौटे।

ईशावास्योपनिषद का पहला ही मंत्र कहता है :
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

अर्थात् पूर्ण से पूर्ण को निकाल लिया जाए तो पीछे शेष पूर्ण ही ही रह जाता है।

पूर्ण को रखने के लिए कोई दूसरा पूर्ण नहीं बचता।
आत्मा उस पूर्ण का अंश है जो उस पूर्ण का स्वाद तो ले सकती है, लेकिन कभी उसको व्यक्त नहीं कर सकती । यद्यपि उसको बताने की कोशिशें बहुत हुई । लेकिन परिणाम वही गूंगे केरि शर्करा ...

लेकिन उसकी चाहत भी नहीं रखी जा सकती, जहां तक चाहत है, वहां तक सीमा है पर वह असीम-निराकार है। मोक्ष की इच्छा भी मनुष्य मन की लालच की वृत्ति का एक रूप है। जहां सब इच्छाएँ विलीन होती हैं,वहीं तो हरि-दर्शन होते हैं।

कर्म कटने का मतलब भी यही है कि अब कोई इच्छा शेष न रही...सब देख लिया...समझ लिया। कोई किसी के कर्म नहीं काट सकता। यह यात्रा तो स्वयं ही तय करनी पड़ती और यह यात्रा जब पूर्ण होती है तो कहने को कुछ शेष नहीं रह जाता। क्योंकि कुछ भी कहना संपूर्ण से संपूर्ण निकालने की कोशिश है...जो कोई भी ज्ञानी पुरुष नहीं कर सकता; लेकिन वह इसे जीता है...अनुभव करता है।

मनोज भारती said...

पुनश्च: जब तक आत्मा संपूर्ण का रहस्य जान नहीं लेती वह आवागमन के चक्र में पड़ी रहती है। अपने स्वरूप का जान लेने पर आवागमन का चक्र रुक जाता है और वह परम स्वरूप में स्थित हो जाती है।

मदन शर्मा said...

यह शरीर कोशिकाओं का समूह है | चूँकि हर कोशिका जीव युक्त होती है इस तरह हम कह सकते हैं की यह शरीर जीवों का समूह है तथा आत्मा इन सभी जीवों का नियंत्रक है | इन जीवों का अस्तित्व तभी तक है जब तक की शरीर में आत्मा है | आत्मा के शरीर से निकलते ही ये कोशिकाए अपना अस्तित्व खोने लगती हैं | जब हम खुद अपने शरीर के बारे में आत्मा के बारे में नहीं जानते हैं जो की खुद हमारे भीतर है तो परमात्मा के बारे में क्या जानेंगे | बड़ी हास्य स्पद बात लगती है जब इस आत्मा परमात्मा की तुलना निर्जीव वस्तुओं से की जाती है और कहा जाता है की जिस तरह ये प्रकृति ये निर्जीव पदार्थ अपने आप बन गए उसी तरह ये जीव तथा जीवात्मा अपने आप बन गए कोई भी इश्वर नहीं है |
हमारा यह कहना की आत्मा कुछ भी नहीं होता परमात्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं यह दर्शाता है की हम उसे जानना ही नहीं चाहते | खोजना ही नहीं चाहते या हमारा दिमाग ही उस काबिल नहीं है की हम उसे खोज सकें | यह तो एक तरह से पलायन वाद ही है | संसार में अभी तक जितने भी रहस्यों का खुलासा हुवा है वह उन रहस्यों की तह तक जाने की वजह से हुवा है पलायन वाद की वजह से नहीं |
आज जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हुवे है इस पुरुषार्थ की वजह से ही हुवे हैं पलायन वाद की वजह से नहीं| पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर निर्णय लेना उचित निर्णय नहीं होता | वैज्ञानिक प्रक्रिया भी यही है | देखिये , समझिये, प्रयोग कीजिये , सत्य की कसौटी पर कसीये उसके बाद जो परिणाम आये उसके अनुसार निर्णय लीजिये |

मदन शर्मा said...

यह बहस ऐसा है की कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता की इश्वर है या नहीं है | मै भी नहीं |
मै तो सिर्फ मान सकता हूँ की इश्वर है जैसे की आप मानते हैं की इश्वर नहीं है | इसमें झगड़े या विवाद की कोई बात नहीं है |
आप अपनी मान्यता के लिए स्वतंत्र हैं मै अपनी मान्यता के लिए स्वतंत्र हूँ |

मदन शर्मा said...

यदि आप मानते है की पुनर्जन्म नहीं है | कोई भी इश्वर नहींहै | तो इतने महल अटारी धन संपत्ति क्यों जमा करते हैं ?
संतान को पैदा कर के फ़ालतू का सरदर्द क्यों सर मोल लेते हैं ? विवाह भी क्यों करते हैं ?
जब तक जिओ सुख चैन से जिओ | भले ही इसके लिए कर्ज क्यों ना लेना पड़े |
कल किसने देखा है ? अपने सुख के लिए खूब लोगों को लूटो -खासोटो , बेईमानी करो ,विशवासघात करो |
वाह भाई आप की मान्यता ! यदि ऐसी मान्यता सही है तो आगे खतरे की घंटी ही समझिये !
इससे तो आगे मानवता का हनन ही होगा | इससे तो बेहतर मै उस धर्म को मानता हूँ जिसके अनुसार
क़यामत के वक्त सबका हिसाब किताब होता है |

मदन शर्मा said...

अब आप कहेंगे की मानवता नाम की कोई चीज है की नहीं ?
जिस तरह आप अदृश्य मानवता को मानते हैं उसी तरह हम भी इश्वर को मानते हैं |
वेदों में भी कहा है न तस्य प्रतिमा अस्ति
अर्थात इश्वार का कोई भी आकार नहीं है | वह रंग- रूप से परे है |
वह शक्ति या ऊर्जा जिसके द्वारा समस्त ब्रह्माण्ड एक निश्चित नियमों से संचालित है
उसी को हम परमात्मा या इश्वर कहते हैं |
यही प्रसिद्द समाज सुधारक एवं संत महर्षि दयानंद सरस्वती जी का भी मत है |

मदन शर्मा said...

जहां तक कर्मों के फल की बात है वो तो आपको मिलना ही है | न्यूटन के शब्दों में प्रत्येक क्रिया की वैसी ही प्रतिक्रया होती है | इसी तरह आप अच्छा काम करेंगे तो उसका अच्छा परिणाम भी पायेंगे तथा बुरा काम करेंगे तो बुरा परिणाम पायेंगे | इज्जत देंगे इज्जत मिलेगा गाली देंगे तो गाली ही मिलेगा |

JC said...

'हिन्दू' मान्यता है कि ईश्वर एक ही था, है, और रहेगा,,, यानि वो अजन्मा और अनंत है...

और, क्यूंकि मानव जीवन में 'हम' पाते हैं कि हर वस्तु, अथवा 'निम्न श्रेणी' का प्राणी भी भले ही वो मानव रूप में ही क्यूँ न हो, मानव द्वारा अपने रोज मर्रा के काम में लिया जा रहा है...

'हम' मानें या न मानें, वैसे भी प्राणी जीवन को अस्थायी जान, यह हर व्यक्ति, जो 'द्वैतवाद' के कारण सदैव दुविधा में रहता है कि वो यह करे या न करे, विशेषकर 'बुद्धिजीवी' के लिए आवश्यक हो सकता है जानना कि इस श्रृंखला-बद्ध रूप से प्राणीयों के सीमित काल के लिए जन्म, जीवन पर्यंत दुविधा में जी, और अंततोगत्वा मरण, अर्थात इस आवागमन का उद्देश्य क्या हो सकता है?

इसी मिटटी में प्राचीन योगियों ने मन को चंचल जान तपस्या/ साधना कर पहले मन पर नियंत्रण कर सत्य को एकांत में जानने का प्रयास किया और 'वर्तमान' में उनके विचार भाग्यवश हमारे सम्मुख तो हैं, किन्तु शायद यह प्राकृतिक ही होगा कि दुर्भाग्यवश 'हम' निजी स्तर पर वर्तमान में उनके माध्यम से 'परम सत्य' तक पहुँच पाने में 'द्वैतवाद' के कारण अपने को असमर्थ पाते हैं - जैसे कुछ पहुंचे हुवे योगियों ने कहा कि निराकार ब्रह्म सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सदैव अकेला ही है, क्यूंकि वो शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है, और साकार प्रतीत होता ब्रह्मांड उसके मन के भीतर उसके स्वप्न समान विचार है जिन्हें वो 'योगनिद्रा' में देख रहा है (और 'हमें' भी उसका थोडा सा स्वाद लेने का अवसर भी दे रहा है),,, किन्तु साधारणतया मानव जाति चंचल मन के कारण अपने को असमर्थ पाती है प्रकृति के अनंत संकेतों के माध्यम से सीमित उपलब्ध काल में उनके सार (सत्यम शिवम् सुन्दरम) तक पहुँचने में...

"होई है सो ही जो राम रचि राखा"! सो आनंद लीजिये रामलीला का :)

sajjan singh said...

@ मनोज भारती

दर्शन हर प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता । एक दार्शनिक इस दुनिया और ब्रम्हांण्ड के विषय में क्या बता सकता है । वह सिर्फ अनुमानों पर आधारित कल्पनाएं कर सकता है । यह लेख पढ़ें-
इस सृष्टि का रचयिता कोई ईश्वर नहीं , स्वयं यह सृष्टि है

मनोज भारती said...

@सज्जन सिंह जी !!!
मैंने आपके द्वारा सुझाए गए आलेख को पढ़ा ...

उसमें से विचारणीय बिंदु है :यदि सच कहें तो स्टिफेन हाकिंग की इस वैज्ञानिक स्थापना का सर्वाधिक गहरा प्रहार ईसाई चर्च पर हुआ है। अन्य सेमेटिक धर्म (रिलीजन) यहूदी एवं इस्लाम भी इससे प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन इससे भारतीय दर्शन के ब्रह्म की कल्पना पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उसकी वैज्ञानिक पुष्टि ही होती है।

सज्जन जी !!! भारतीय दर्शन को विज्ञान कभी नकार नहीं सकता। वह फिलॉसफ़ी नहीं है...कोरी-कपोल कल्पना नहीं है। बल्कि हमारे द्रष्टा ऋषियों का स्वयं अनुभूत दर्शन है। (निश्चित ही दर्शन और फिलॉसफ़ी में बहुत अंतर है, दर्शन अनुभूत है,प्रज्ञा है,स्वयं अंतर की आंख है जबकि फिलॉसफ़ी विचार से अंधेरे में छोड़ा गया तीर है...उसमें मन की कल्पना है)

सज्जन जी आपको ब्रह्म शब्द के वास्तविक अर्थ से भी परिचित होना चाहिए। ब्रह्म कोई ईश्वर नहीं है, बल्कि ब्रह्म का अर्थ है परम विस्तार । इसी से ब्रह्मांड शब्द बना है...जिसका अनंत विस्तार है। समझने के लिए यदि हम इसे शून्य स्वीकार करें, तो इसी शून्य से सभी उपजते हैं...विकास पाते हैं...और विलीन होते हैं। लेकिन इस सारी प्रक्रिया के दौरान कुछ मरता नहीं है,बल्कि उसका रुपांतरण होता है। इस सबका जो साक्षी है वह हमारा चेतन तत्व है, जिसे भारतीय दर्शन में आत्मा कहा गया है। और यदि भारतीय दर्शन को ठीक से जाना जाए और उसके अनुसार आचरण किया जाए तो आपको पता चलेगा कि इस ब्रह्मांड में सब एक दूसरे से जुड़ें हैं । किसी एक जाति के लुप्त होने से हम में बहुत कुछ घट जाता है। यह हमारा पिंड (शरीर) स्वयं ब्रह्मांड की ही अनुकृति है । पृथ्वी पर जिस मात्रा में जल है उसी मात्रा में हमारे शरीर में भी है। यदि पृथ्वी पर जल की कमी होती है तो हमारे शरीर में भी उसकी कमी होगी।

सारा अस्तित्व (जिसकी कोई सीमा नहीं) परस्पर जुड़ा हुआ है। इसी लिए भारतीय दर्शन यह कह सका वसुधैव कुटुम्बकम् !!!

विषयांतर में यह कहना चाहूंगा कि हर वैज्ञानिक पहले दार्शनिक ही होता है और बाद में अपनी कल्पना को सिद्ध करने के लिए विज्ञान का सहारा लेता है। दार्शनिकों ने इस दुनिया को समझने में बहुत मदद की है। आप उनके कार्यों को नकार नहीं सकते।

अंतत: संशय भी करो तो पूरा करो...क्या आप अपने संशय पर भी संशय कर सकते हैं???

JC said...

समस्या "घर का जोगी जोगना / आन गाँव का सिद्ध" की है... 'हम' घोर कलियुग के कारण अपने देश के गणित का अनदेखा कर देते है, जैसे तथाकथित शुतुरमुर्ग अपना सर गढ़े में दाल, यह सोचता है कि क्यूंकि मैं किसी को नही देख पा रहा हूँ तो कोई मुझे भी नहीं देख पायेगा :)

अस्सी के दशक में कैम्ब्रिज के प्रसिद्द वैज्ञानिक सर फ्रैड हौयल शायद, समाचार पत्रं में छपी खबर के अनुसार, ऐसे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने मानव शरीर की क्लिष्ट रासायनिक संरचना को ध्यान में रख यह तो मान लिया था कि पृथ्वी पर जीव किसी अत्यंत बुद्धिमान जीव के डिजाइन का नतीजा है, किन्तु उन्होंने इस में किसी एक अकेले परम जीव का ही हाथ होना स्वीकार नहीं किया... 'मैंने' तब उन्हें पत्र लिख पूछा था कि उस जीव को भी बनाने वाला कोई और उस से बुद्धिमान जीव हो सकता है जिसे भगवान् मानने में उन्हें क्या समस्या है? और उन दिनों जैसे मानव मस्तिष्क को एक कंप्यूटर समान जान लिया गया था, और भारत में प्राचीन मान्यता में अष्ट-चक्र को ध्यान में रख ऐसे ही आठ ग्रहों में से हरेक को कम्प्यूटर मान 'मैंने' भी कुछ टाइम शेयरिंग के आधार पर १५/८/४७ जीरो समय, मध्य रात्री से आरम्भ कर ('स्वतंत्र भारत' का जन्म समय) एक टेबल भी उन्हें भेजी थी जो यद्यपि आज भी 'मैं' पूरा नहीं कर पाया हूँ!...
उसके उत्तर में उनकी निजी सचिव से एक लाइन का पत्र 'मुझे' अवश्य मिला कि उन्हें मेरे विचार अच्छे लगे किन्तु व्यस्तता के कारण वो पत्राचार करने में असमर्थ थे :)

और यह बेचारा स्टीफेन हॉकिंग भी जब दिल्ली आया था सन २००१ में तो समाचार पत्रों में छपे समाचार के अनुसार किसी ने उससे पूछ लिया कि वो भगवान् में विश्वास करता है कि नहीं? तो उसका उत्तर था कि वो उसके मन में प्रवेश चाहेगा!

यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन हिन्दू मान्यतानुसार पश्चिम दिशा का नियंत्रक शनि ग्रह को माना गया है और शुक्र ग्रह को शनि (सैटर्न अथवा शैतान) का मित्र... और मानव शरीर नौ ग्रहों के सार के माध्यम से बना, जिसमें शनि का सार मानव शरीर में उपस्थित स्नायु तंत्र को माना गया और शुक्र ग्रह के सार का आवास मानव कंठ में, ध्वनि ऊर्जा यानी ब्रह्मनाद ॐ के स्रोत का प्रतिरूप!...

पूर्व में देवताओं के गुरू बृहस्पति के सार को नाभि में दर्शाया जाता है (विष्णु के नाभि-कमल में बैठे ब्रह्मा, यानी सूर्य के सार को नाभि के ऊपर पेट में माना जाता है) और शुक्राचार्य को राक्षशों का गुरू माना जाता है,,, जबकि पश्चिम में गले में वर्जित फल, 'एडम्स एप्पल', को मानव जीवन के दुखों का कारण माना गया है!...

और भारत में उच्चतम स्थान मानव मस्तिष्क में चन्द्रमा के सार को दिया गया है, जिस तक पहुँचने में शुक्र रक्षा प्रणाली (राक्षशों) का नेतृत्व करते माना गया है... आदि, आदि...

sajjan singh said...

दार्शनिकों ने इस दुनिया को समझने में बहुत मदद की है।
पर वे दार्शनिक भी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे । होने को तो सभी धर्म भी मूलतः दर्शन पर ही आधारित हैं ।

सुज्ञ said...

मनोज भारती जी की व्याख्या से सर्वाधिक प्रभावित!!
एक अंश द्वारा अनंत (पूर्ण) का विश्लेषण असम्भव है और यह पूर्ण ज्ञानी ही जान सकते है।

भूषण जी,

मोक्ष का अर्थ ही है मुक्ति अर्थात् बार बार जन्म-मरण से मुक्ति।

मदन शर्मा said...

सज्जन सिंह किसी भी निष्कर्ष पर पहुचने के लिए पूर्वाग्रह से मुक्त होना अति आवश्यक है |
जी इसी तरह कभी नास्तिक मुंशी राम ने भी महर्षि दयानंद जी के सामने सवाल उठाया था |
वही घोर नास्तिक उनके संपर्क में आकर आगे चल कर स्वामी श्रद्धा नन्द के नाम से प्रसिद्द हुवा |
उसी तरह आपको भी लगता है अभी तक सच्चा गुरु नहीं मिला है जो आप की सवालों का
उचित जबाब दे सके |

दिवस said...

आदरणीय मदन शर्मा जी की सज्जन सिंह को की गयी उक्त टिप्पणी से पूर्णत: सहमती| इसमें और भी कुछ जोड़ना चाहूँगा| जिस प्रकार नास्तिक मुंशी राम, स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में आकर स्वामी श्रद्धानंद बने, उसी प्रकार नास्तिक नरेंद्र, स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आकर स्वामी विवेकानंद बने| स्वामी विवेकानंद पर प्रश्न चिन्ह लगाना तो स्वयं मानव जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगाने के समान है|
सज्जन भाई विचार कीजिये...

JC said...

'एक ओंकार सतनाम श्री वाहे गुरु"!
"गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश, गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा/ तस्मै श्री गुरुवे नमः"

बहस इस लिए चलती प्रतीत हो रही है क्यूँकि 'हम', सभी आत्माएं, यदि समझना चाहे तो ही जान सकते हैं कि परिवर्तनशील प्रतीत होती प्रकृति के विभिन्न काल में 'हम' एक ही व्यक्ति को विभिन्न आयु में दर्शाते एक ही निराकार के प्रतिरूप, अथवा एक ही के अनंत जादुई शीशों में विभिन्न प्रतीत होते प्रतिबिम्ब हैं...

[जो सिविल इंजीनियरिंग में भूमि (गंगाधर शिव के अंश) के सर्वे यानी माप से सम्बंधित विषय पढ़ते हैं तो वो पाएंगे कि 'आधुनिक विज्ञानं' भी प्राचीन प्रतीत होते मूल मन्त्र को ही दोहराता है, जैसा 'मुझे' भी आश्चर्य हुआ था पांच दशक से अधिक वर्ष पूर्व पढ़ कर "Start from the whole to the part, and not from a part to the whole"]

"ॐ नमः शिवाय"
"ॐ त्रेयम्बकम यजामाहे सुगंधम पुष्टिवर्धनम..."

प्रतुल वशिष्ठ said...

सुन्दर सत्संग .... मन में शंकाएँ आ-आकर शृंग-गर्त बना रही हैं.
प्रश्न के साथ समाधान ............... लहरिल प्रवाह होकर मन को प्रवाहित किये जा रहा है.
बहुत सुन्दर ........ आनंद आ रहा है.
सच कहा सुज्ञ जी, मनोज भारती और जे.सी. ने मन मोह लिया है.

JC said...

संस्कृत में लिखे महा मृत्युंजय मन्त्र के लिए कृपया निम्नलिखित लिंक देखें

http://www.swamij.com/mahamrityunjaya.htm

sajjan singh said...

राजेन्द्र यादव हिंदुओं को दुनिया की सबसे लद्धड़ क़ौम कहते हैं। यह निठल्ले बैठों का दर्शन-शास्त्र है, या आध्यात्मिक बाजीगरी. 'मैं कौन हूं ' 'संसार क्या है' के सवालों में हमने जितनी माथा-पच्ची की है उसकी आधी भी समाज को बदलने में की होती तो हम आज दुनिया की सबसे लद्धड़ क़ौम न होते ।

sajjan singh said...

@ मदन शर्मा जी

विवेकानंद जिस तरह के नास्तिक थे, वह नकली नास्तिकता थी। नास्तिकता को जान-बूझकर नीचा दिखाने के लिए लिखा है या अपने बारे में कहा है। कोई साबित कर सकता है कि विवेकानन्द अपने युवावस्था में नास्तिक थे यानि असली नास्तिक। जैसे बालीवुड की फिल्मों में नास्तिक को हमेशा नीचा दिखाकर आस्तिक बनाया जाता है वैसे ही संभव है विवेकानन्द ने खुद के बारे में जानबूझकर ऐसा कहा हो। ताकि उनकी धाक जमे कि नास्तिक से वे आस्तिक बने और रामकृष्ण की धाक जमे कि वे बहुत बड़े गुरु हैं। सब राजनीति है। ओशो को देखिए। सबसे अच्छा और सच्चा आदमी लगता है इन साधुओं में।

sajjan singh said...

@ मदन शर्मा जी,

मानव शरीर में आत्मा होती है फिर रेल के इंजन में क्या होता है ।

प्रतुल वशिष्ठ said...

सज्जन जी,
रेल के इंजन में 'आत्माधारी जीव' होता है, जिसे ड्राइवर कहते हैं.... आप जाकर उसे देख भी सकते हैं. :)

प्रतुल वशिष्ठ said...

क्या राजेन्द्र यादव जी ... 'हिन्दू कौम' से बाहर के व्यक्ति थे?
... या फिर 'मनु भंडारी' से विवाह के बाद उन्होंने हिन्दू कौम से पलायन कर लिया था?
वे एक तीसमारखाँ हैं... अपने से अधिक काबिल और समझदार वे किसी को नहीं समझते.
उम्र में वे बड़े हैं.. मुझसे पहले पैदा हुए हैं. इसलिये शांति से अब तक सब कुछ सुना है. क्यों ......... इस पोस्ट को चौथे शतक की ओर ले जाने की ओर बाध्य करते हो?
शांति शांति शांति

मदन शर्मा said...

@राजेन्द्र यादव हिंदुओं को दुनिया की सबसे लद्धड़ क़ौम कहते हैं।
जी हाँ राजेन्द्र यादव जी ने कुछ अंशो तक सही कहा है |
इस सत्य को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए |
क्यों की प्रत्येक मानव मानव का कर्त्तव्य है की सत्य बातों समर्थन तथा असत्य बातों का विरोध करना चाहिए |
और यही हमारा दुर्भाग्य है की हमें दूसरों की गलतियां तो दिखाई पड़ती हैं
किन्तु अपनी गलतियों की और से हम अपनी आखें मूंद लेते हैं |
जिन समाज सुधारकों ने इसे सुधारने की कोशिस की उन्हें कदम कदम पर
अपमान का सामना करना पडा यहाँ तक की जान भी गंवानी पड़ी | आज भी लगभग ऐसी ही स्थिति है |
साथ ही यह हमारे धर्म की खूबी भी आपको स्वीकार करना पडेगा की यही एक धर्म है
जिसमे आप आज इसकी गलतिओं को खुले रूप से कह सकते हैं |
यदि कोई धर्म ग्रन्थ गलत है तो उसकी मान्यताओं को न मानने की घोषणा कर सकते हैं |
किन्तु फिर भी आप हिन्दू ही कहे जायेंगे | और इसकी वजह है आज हिन्दुओं का शिक्षित
तथा अपने अधिकार के प्रति जागरूक होना |

मदन शर्मा said...

@मानव शरीर में आत्मा होती है फिर रेल के इंजन में क्या होता है ।
ये कैसी बच्चों वाली बात कर दी आपने ! मैंने पहले भी आपको बताया की आत्मा इस शरीर का नियंत्रक होता है
जो विभिन्न अंगों के माध्यम से इस शरीर पर नियंत्रण रखता है
तथा आत्मा के निकलते है इस शरीर का कोई भी अस्तित्व नहीं रह जाता |
उसी तरह रेल के इंजन या अन्य किसी संयंत्र में पेट्रोल डीजल विद्युत ऊर्जा या अन्य कोई भी ऊर्जा उसका इधन है
तथा मनुष्य ही उसका नियंत्रक या आत्मा है | बिना मनुष्य के सहयोग के ये संयंत्र कुछ भी नहीं कर सकते !

Bharat Bhushan said...

@सुज्ञ जी *मोक्ष का अर्थ ही है मुक्ति अर्थात् बार बार जन्म-मरण से मुक्ति।

मैं पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति को मुक्ति मानता हूँ. जो करना है इसी जन्म में करना है. अप्रमाणित पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ना ठीक नहीं.
सत्य गौतम की 23-06-2011 की टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूँ. जिसमें एक अन्य दृष्टिकोण उपलब्ध है जिसे बिना किसी पूर्वाग्रह के देखने की आवश्यकता है. इसमें से दो-एक अंश मैंने हटाए हैं ताकि किसी का दिल न दुखे. शेष टिप्पणी के मुद्दे चर्चा योग्य हैं. चाहें तो इन पर भी चर्चा की जा सकती है. वे भी भारतीय समाज का हिस्सा हैं जिन्हें भूखे रख कर पुनर्जन्म का विचार परोसा गया है -
सत्य गौतम said...
क्या आपने कभी सुना है कि किसी सवर्ण के बालक ने बताया हो कि पिछले जन्म में वह दलित-वंचित था और उसे सवर्णों ने बहुत सताया ?
दलितों में और कमज़ोर वर्गों में जब दबंगों के विरूद्ध आक्रोश पनपा तो उन्हें शांत करने के लिए यह अवधारणा बनाई गई। इससे यह बताया गया कि अपनी हालत के लिए तुम खुद ही जिम्मेदार हो। तुमने पिछले जन्म में पाप किए थे इसलिए शूद्र बनकर पैदा हुए। अब हमारी सेवा करके पुण्य कमा लो तो अगला जन्म सुधर जाएगा।
बाबा साहब ने संघर्ष का मार्ग दिखाया और लोग जब चले उस मार्ग पर तो इसी जन्म में ही दलितों का हाल सुधर गया। यह सब व्यवस्थाजन्य खराबियां थीं। जिनका ठीकरा दुख की मारी जनता के सिर ही फोड़ डाला.....................................
अगर पाप पुण्य का फल संसार में बारंबार पैदा होकर मिलता है तो जाति व्यवस्था को जन्मना मानने वाला और अपने से इतर अन्य जातियों को घटिया मानने वाला कोई भी नर-नारी स्वर्ग में नहीं जा पाएगा। ...........................यह एक भ्रम है जिसे सुनियोजित ढंग से फैलाया गया है। यही कारण है कि यह सिद्धांत भारत के दर्शनों में ही पाया जाता है।

मनोज भारती said...

@भूषण जी, मैं आपसे सहमत नहीं हूँ...धर्म में वर्ण,वर्ग,जाति मत ढ़ूँढ़िए ...व्यवस्था कभी भी व्यक्ति की अंतर्निहित भावनाओं को नियोजित ,नियंत्रित नहीं कर सकती। जिस दिन व्यवस्था ने कोई ऐसा वैज्ञानिक तरीका खोज लिया...उस दिन मनुष्य जाति मुर्दा हो जाएगी। क्योंकि किसी की भावनाओं पर नियंत्रण कर उसे आत्मिक रूप से गुलाम बना लेना है।

धर्म व्यक्ति का बहुत बड़ा संबल है। धर्म के शाब्दिक अर्थ को ही लें - जो भी धारण करने योग्य है,वह धर्म है। क्या आप बिना कुछ धारण किए( मनसा,वाचा,कर्मणा) रह सकते हैं? नहीं न, नास्तिक और आस्तिक दोनों ने कुछ धारण किया हुआ है और इस तरह मूलत: वे दोनों ही धर्म की परिभाषा के अंतर्गत हैं। लेकिन दोनों में अंतर यह है कि दोनों अलग-अलग दिशाओं में देख रहें है। अलग दिशा के अलग दृश्य हैं। लेकिन फिर भी वे संपूर्ण का हिस्सा हैं। कल्पना कीजिए कि किसी जीव के जीवन काल की अवधि सिर्फ छ: घंटे है और वह दिन में पैदा होता है और शाम होते -होते मर जाता है...इसी जीव का एक दूसरा साथी रात में पैदा होता है और सुबह होते-होते मर जाता है। अब दोनों का मिलन नियंत्रक (जीव-अजीव का नियंत्रक तत्त्व) के घर होता है और दोनों से अपने जीवन अनुभव को बताने के लिए पूछे जाने पर दोनों के जवाब भिन्न होंगे। निश्चित ही दिन-दिन है और रात-रात है...लेकिन दोनों ही इसी पृथ्वी पर घटते हैं ...एक के अभाव में हम दूसरे को नहीं पहचान सकते। जीवन की व्याख्या के लिए मृत्यु का और दिन की व्याख्या के लिए रात का सहारा लेते हैं। विपरीत्त से हम परिभाएँ बनाते हैं । विपरीत्त के बिना हमारा विज्ञान बिल्कुल नहीं चलता। जब हम शून्य या ब्रह्म की बात करते हैं तो हमारा आशय उस संपूर्ण से है जिसमें सब समाया है...लेकिन वह स्वयं किसी में नहीं समाया। मनुष्य जीवन की दुविधा यही है कि वह किसी भी दिशा में यात्रा की शुरुआत तो कर सकता है लेकिन कभी उसका अंत नहीं कर सकता। और कभी दो दिशाएँ एक जगह नहीं मिलती।

धर्म की व्याख्याएँ गलत हो सकती हैं,लेकिन धर्म से हम में से कोई भी च्युत नहीं हो सकता। धार्मिक होना हमारा स्वभाव है।

sajjan singh said...

बड़े ही अफसोस की बात है हम शरीर विज्ञान की इतनी खोजों के बाद भी आदिम कालीन अंधविश्वासों को ही सत्य माने बैठे हैं । न्यूरो साइंस कहता है मस्तिष्क का तंत्रिका तंत्र ही दिमागी चेतना के लिए जिम्मेदार होता है । शरीर कोई माटी का पुतला नहीं है जिसमें जीव कहीं बाहर से आता है वह रेल के इंजन की तरह ही एक बॉयोलॉजिकल मशीन है । जिस तरह रेल के इंजन के पुर्जे खराब हो जाने पर वह काम करना बंद कर देता है उसकी आत्मा कहीं निकल कर नहीं जाती उसी तरह शरीर तंत्र के बंद पड़ जाने पर उसकी भी आत्मा कहीं स्वर्ग या नरक में नहीं जाती ना ही कोई पुनर्जन्म होता है। आपके आगे के सवालों का जवाब मैं पहले ही दे देता हूं। हर मशीन को बनाने वाला कोई होता है इसी तरह इस बॉयोलॉजिकल मशीन को बनाने वाला भी ईश्वर है । फिर ईश्वर को बनाने वाला भी कोई होगा । फिर जिसने ईश्वर को बनाया उसे बनाने वाला भी कोई तो होगा । पता नहीं ये रेल कहां जाकर रुकेगी ।

प्रतुल वशिष्ठ said...

वाह.... मनोज जी ..... कमाल के वचन निकल गये मुख से.. आत्मा गदगद हो गयी.

विपरीत्त से हम परिभाएँ बनाते हैं ।
विपरीत्त के बिना हमारा विज्ञान बिल्कुल नहीं चलता।
जब हम शून्य या ब्रह्म की बात करते हैं तो हमारा आशय उस संपूर्ण से है जिसमें सब समाया है...लेकिन वह स्वयं किसी में नहीं समाया।
मनुष्य जीवन की दुविधा यही है कि वह किसी भी दिशा में यात्रा की शुरुआत तो कर सकता है लेकिन कभी उसका अंत नहीं कर सकता। और कभी दो दिशाएँ एक जगह नहीं मिलती।
@ खूबसूरत सूत्र वाक्य गढ़ दिये..........

"बोल साचे दरबार की ....जय..."

मदन शर्मा said...

मनोज जी से पूरी तरह सहमत !

जीने को तो जीते हैं सभी
प्यार बिना क्या जिन्दगी
आओ मिलकर हम सुख दुःख बाटें
क्यों रहें हम अजनबी

मदन शर्मा said...

बुद्धिमान्‌ और मूर्ख में यही भेद है कि बुद्धिमान्‌ रद्दी से रद्दी पदार्थ को अपने बुद्धि-कौशल से उपयोगी बना लेता है, दूसरी ओर मूर्ख मनुष्य अच्छे से अच्छे पदार्थ को अपने विपरीत बुद्धि-कौशल से पीड़ोत्पादक बना लेता है। बुद्धिमान ने डेगची का ढकना उछलते देखा तो आग-पानी को उचित ढंग से मिलाकर रेल ईंजन बना लिया, मूर्खों ने इकट्ठा किया तो हुक्का बना लिया और गुड़गुड़ाकर रह गये

मदन शर्मा said...

@ न्यूरो साइंस कहता है मस्तिष्क का तंत्रिका तंत्र ही दिमागी चेतना के लिए जिम्मेदार होता है ।
जी हाँ ये बात बिलकुल सही है किन्तु मस्तिष्क भी शरीर का अंग ही है जो शरीर के संचालन में सहायक है किन्तु आत्मा के बिना ये भी बेकार है मुख्य नियंत्रक यह आत्मा ही है !

मदन शर्मा said...

@ हर मशीन को बनाने वाला कोई होता है इसी तरह इस बॉयोलॉजिकल मशीन को बनाने वाला भी ईश्वर है ।
फिर ईश्वर को बनाने वाला भी कोई होगा !
इसका जबाब अनुत्तरित है |
यदि कोई बात हमारे समझ के बाहर हो तो इसका यह मतलब नहीं होता की उसका अस्तित्व ही नहीं है
या उसे सिरे से ही हम नकार दें | इन्ही प्रश्नों का उत्तर महर्षि दयानंद जी ने दिया है की इश्वर , जीव तथा प्रकृति
तीनो अनादि हैं अर्थात ना तो इनका आदि है ना अंत !

Bharat Bhushan said...

@मनोज जी
मेरे विचारों से असहमति इतनी महत्वपूर्ण नहीं है. मुझे खुशी होती यदि आप सत्य गौतम जी के उठाए मुद्दों पर दो शब्द कहते. सज्जन सिंह जी की उपर दी टिप्पणी को मैं महत्व देता हूँ.

मदन शर्मा said...

छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी
नए दौर में मिल कर हम लिखेंगे नयी कहानी
हम हिन्दुस्तानी .... .हम हिन्दुस्तानी......|
आज पुरानी जंजीरों को हम तोड़ चुके हैं
क्या देखें उस मंजिल को जो छोड़ चुके हैं
नया जोश है नयी उमंग है मिल के नयी जवानी
हम हिन्दुस्तानी .... .हम हिन्दुस्तानी......|

मनोज भारती said...

@भूषण जी!!!
गौतम जी की टिप्पणी में जो बाते आई हैं, वे व्यवस्थाजन्य हैं ...जो स्वयं मनुष्य ने बनाई हैं और कोई भी व्यवस्था कभी पूर्ण नहीं होती...व्यवस्था बदलने के लिए इतिहास में अनेक तरह की क्रांतियाँ हुई हैं...लेकिन हर व्यवस्था में दोष रहें हैं,लोग नई व्यवस्था को स्वीकार करते हैं,क्योंकि नई व्यवस्था के दोषों से लोग परिचित नहीं होते। समय के साथ व्यवस्था के दोष उभरते हैं और फिर एक नई क्रांति जन्म लेती है,नई व्यवस्था आती है...लेकिन कुछ है जो हर परिवर्तन को देखता है,लेकिन जो स्वयं नहीं बदलता। धर्म इसी चेतन विवेक की समझ है।
महात्मा बुद्ध शायद इसी लिए आत्मा-परमात्मा के प्रश्न पर मौन रहे और हमने उनके दर्शन को नास्तिक श्रेणी में रख दिया। लेकिन उन से बड़ा धार्मिक व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है।
हमारे आने से पहले अनंत जीवन और जीवन प्रणालियाँ रही...हमारे जाने के बाद भी अनंत जीवन और जीवन प्रणालियाँ रहेंगी। न हमें जीवन के आरंभ का पता है और न जीवन के अंत का। जन्म और मरण के बीच की अवधि को हम जीवन मानते हैं। इस दौरान हम इंद्रियों से जो ग्रहण करते हैं,उस पर जीवन के संबंध में कोई सिद्धांत या राय या वाद बना लेते हैं। पर क्या आपने गौर किया कि यह विश्व कितने आश्चर्यों से भरा है...हो सकता है कि विज्ञान इतनी तरक्की कर ले कि मानव शरीर भी प्रयोगशालओं में तैयार होने लगें...लेकिन कभी भी उस शरीर में भावनाएँ नहीं डाली जा सकती । मानव-जीवन में जो चेतन विवेक शक्ति है उसे विज्ञान नहीं पैदा कर सकता। जिस दिन ऐसा संभव होगा उस दिन परमात्मा की धारणा खतम हो जाएगी।

मदन शर्मा said...

बढती महंगाई आज से 25 साल बाद चावल - 2Rs/ दाना ,
गेहू - 1Rs/ दाना ,
तेल - 6Rs/ बूँद,
बम्फर आफर :"कोई 3 आइटम लेने पर देशी घी मुफ्त में सुंघाया जायेगा !"

Bharat Bhushan said...

@मनोज जी,
*“मैं आपसे सहमत नहीं हूँ...धर्म में वर्ण,वर्ग,जाति मत ढ़ूँढ़िए ...व्यवस्था कभी भी व्यक्ति की अंतर्निहित भावनाओं को नियोजित ,नियंत्रित नहीं कर सकती। जिस दिन व्यवस्था ने कोई ऐसा वैज्ञानिक तरीका खोज लिया...उस दिन मनुष्य जाति मुर्दा हो जाएगी। क्योंकि किसी की भावनाओं पर नियंत्रण कर उसे आत्मिक रूप से गुलाम बना लेना है।“
जिसे प्रतिदिन रोटी के लिए संघर्ष करना है उसका नियोक्ता अगर वेतन के साथ ईश्वर और पुनर्जन्म का विचार देता रहे तो यह मन पर बैठ जाता है. इधर नौकरी जाने का भय दिखाए उधर फैक्टरी में बनवाए मंदिर में उसकी आस्था जगाता रहे तो मज़दूर 'आस्तिक' बन सकते हैं. किसी को भूखा रख कर उसकी इच्छाओं और भावनाओं को नियंत्रित किया जा सकता है. यह आस्तिकता की फैक्टरी में भी होता है. वैज्ञानिक तरीका है.

मदन शर्मा said...

जी हाँ | महात्मा बुद्ध ने कभी नहीं कहा की वो इश्वर हैं | आप महात्मा बुद्ध की मूर्ति को भी देखेंगे तो वो इश्वर के ध्यान में बैठी ही नजर आएगी .....

sajjan singh said...

हमारा पाखंड प्रेम इतना प्रबल है कि जिन्होंने ईश्वर का विरोध किया हमने उन्हीं को ही ईश्वर बना दिया। महात्मा बुद्ध को भी अब भगवान बुद्ध कहा जाने लगा है।

poonamsingh said...

zeal जी नमस्ते ! देर से आने के लिए माफ़ी चाहती हूँ
आपने बहुत सुन्दर विषय उठाया है पुनर्जन्म
आपकी पोस्ट पर इतने कम समय में रिकार्ड कमेंट्स हो रहे हैं
इतना तो मैंने कहीं भी नहीं देखा
बधाई हो आपको !
सुज्ञ जी | दिवस दिनेश गौर जी जैसे नए सुलझे हुवे विद्वानों के विचारों से परिचय हुआ
मदन शर्मा जी के विचारों से मै पहले से ही प्रभावित हूँ
उनमे तो मुझे दयानंद जी की ही तरह विद्रोह की झलक मिलती है
मुझे अभी उतना धर्म कर्म के बारे में जानकारी नहीं है किन्तु फिर भी
मै मदन जी के विचारों से पुर्णतः सहमत हूँ

मनोज भारती said...

@भूषण जी !!!
आपने जो बात कही वह भावनाओं के शोषण से संबंधित है। हम किसी की भी भावनाओं के शोषण का विरोध करते हैं। लेकिन इस बात से चेतन तत्व का निरोध नहीं होता। वह है,था और रहेगा । यह शास्वत सत्य है। धर्म को जो व्यापार बनाता है वह धर्म के मार्ग पर नहीं है। विवेक के जागरण पर सब निर्भर करता है । मनुष्य के जीवन में जो द्वंद्व है वह माया है। यहां विद्या को भी मनुष्य के शोषण का साधन बनाया गया है। वाल्मिकी ने कहा है कि माया के दो भेद हैं- एक अविद्या और दूसरा विद्या। अर्जित विद्या यदि दूसरों का शोषण सीखाती है तो वह सत्य नहीं है। विद्या का अर्जन यदि दूसरों के शोषण के लिए होता है तो वह भी माया का ही एक रूप है। सम्यक शिक्षा...जो विवेक का ज्ञान कराए, वही माया से मुक्त हो सकती है...क्या शोषक को मालूम नहीं होता कि वह क्या कर रहा है? उसे मालूम होने के बाद भी वह चीजों को करता है...आधुनिक शिक्षा इस मनेजमेन्ट का नाम देती है। लेकिन स्व-विवेकी पुरुष वही करता है जो उसका विवेक कहता है और विवेक जीवन विरोधी नहीं है...वह शोषण कर नहीं सकता । वह करुणा की प्रतिमूर्ति है। शायद काफी है...

Bharat Bhushan said...

@मनोज जी
अब आपने तत्त्व ज्ञान की बात की है. यह हम हिंदुओं के ईश्वर संबंधी दर्शन से भिन्न है. तत्त्व दृष्टि से मृत्यु के बाद सभी तत्त्व, प्रकाश और चेतन तत्त्व भी, अपने-अपने स्रोत में चले जाते हैं. पुनर्जन्म का वहाँ कोई प्रश्न नहीं.
आप करुणा जैसे मानवीय गुणों को धर्म कहते हैं, स्वागत है. इसी दृष्टि से सत्य गौतम की टिप्पणी को पुनः देखने की आवश्यकता है.

sajjan singh said...

@ मनोज भारती

आप धर्म की जो परिभाषा बता रहे हैं उसे कितने लोग समझते हैं ज्यादातर लोगों के लिए धर्म सिर्फ कर्मकांड और आडम्बर ही रह गया है।

दिवस said...

मनोज जी व मदन जी आधुवाद....
आपकी टिप्पणियों से बड़ा आनंद आया|

सज्जन भाई आपने कहा कि न्यूरो साइंस मस्तिष्क का तंत्रिका तंत्र ही दिमागी चेतना के लिए जिम्मेदार है| आपकी बात से सहमत हूँ| किन्तु आप भी जानते हैं कि मस्तिष्क व उसका तंत्रिका तंत्र शरीर के ही हिस्से हैं| आप बताएं कि शरीर के सभी पूजे होने के बाद भी मृत्यु क्यों हो जाती है?
वैसे मैं आपका आने वाला उत्तर जानता हूँ किन्तु फिर भी पुष्टि के लिए पूछ रहा हूँ|

दिवस said...
This comment has been removed by the author.
सुधीर राघव said...

हमारे मस्तिष्क के सारे संदेश, सारी यादें न्यूरान्स का एक विशेषक्रम ही तो है। करोड़ों में एक कोई ऐसी घटना हो सकती है, जब किसी अन्य मस्तिष्क में भी न्यूरान का कोई समूह उसी क्रम में व्यवस्थित हो गया हो, जैसा पहले किसी में रहा हो। इतना तो तय है कि स्थिति सामान्य नहीं आसमान्य है। शायद एरर भी कह सकते हैं, लेकिन आपने इस पोस्ट में सवाल बहुत रोचक तरह से उठाया है और सभी ब्लागर साथियों के कमेंट्स भी काफी विचारोत्तेजक हैं। इस अच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद।

दिवस said...

सज्जन भाई आपको शायद ज्ञान नहीं है| आपने कहाँ सुन लिया कि तथागत बुद्ध इश्वर का विरोध करते थे?
अरे भाई थोड़ी तो बुद्धि लगाइए| तथागत को सदैव तपस्या में लीन दिखाया गया है| आप क्या सोचते हैं उस वख्त वे तपस्या नहीं कर रहे थे अपितु सो रहे थे? तथागत ने भगवान् का विरोध नहीं किया अपितु मुक्ति का मार्ग दिखाया| प्राचीन वैदिक परम्परा के द्वारा मुक्ति की संभावना को उन्होंने स्वीकार किया किन्तु यह भी कहा कि यह कठोर साधना हर व्यक्ति नहीं कर सकता| उन्होंने उस परम्परा से हटकर अपना एक अलग मार्ग बनाया, जिसे अष्टांग योग कहा गया| इसका अर्थ यह नहीं है कि वे नास्तिक थे| नास्तिक थे तो मुक्ति का मार्ग क्यों ढूंढते रहे?

सुधीर राघव said...

हमारे मस्तिष्क के सारे संदेश, सारी यादें न्यूरान्स का एक विशेषक्रम ही तो है। करोड़ों में एक कोई ऐसी घटना हो सकती है, जब किसी अन्य मस्तिष्क में भी न्यूरान का कोई समूह उसी क्रम में व्यवस्थित हो गया हो, जैसा पहले किसी में रहा हो। इतना तो तय है कि स्थिति सामान्य नहीं आसमान्य है। शायद एरर भी कह सकते हैं, लेकिन आपने इस पोस्ट में सवाल बहुत रोचक तरह से उठाया है और सभी ब्लागर साथियों के कमेंट्स भी काफी विचारोत्तेजक हैं। इस अच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद।

JC said...

ज्ञानी -ध्यानी कह गए, "हरी अनंत / हरी कथा अनंता...", और संख्या तीन सौ ('३००') अनंत नहीं मानी जा सकती... बाल की खाल भी अभी निकाली जानी शेष है!...

लाइन के बीच पढ़ कहा जा सकता है कि 'पहुंचे हुए' योगियों ने, जिन्होंने मानव को निराकार ब्रह्म का प्रतिरूप अथवा 'माया' यानि दृष्टि-भ्रम को ध्यान में रख प्रतिबिम्ब जाना... कई एक अनंत नाटक, अथवा उसके प्रतिबिम्ब समान कई एपिसोड वाले सीरियल के पात्र समान उनके द्वारा संकेत किया गया कि निराकार ब्रह्म (योगेश्वर, सृष्टि-कर्ता) अनादि/ अनंत यानि अमृत है क्यूंकि वो शून्य काल और स्थान से सम्बंधित सर्वगुण संपन्न जीव है... किन्तु इस कारण शून्य काल में उसकी रचना शून्य काल ही में ध्वंस भी हो गयी होगी! उसका प्रतिबिम्ब 'हम' कलियुगी आत्माएं पश्चिम में ऊंची-ऊंची इमारतों को विस्फोटक द्वारा कुछ ही क्षणों में धराशायी किये जाने द्वारा देख पाते हैं, और ९/११ में न्यू योर्क में हुए हादसे द्वारा भी सरल होगा समझना!...

यदि कोई घटना शून्य काल अथवा पलक झपकते ही संपन्न होती है तो अपने निवास-स्थान में बैठ 'हम' मानव द्वारा रचित व्यवस्था में, इसे 'घोर कलियुग' होते हुए भी, कुछ ही सदियों में हुई तकनीक में हुई प्रगति के कारण 'एक्शन रीप्ले' द्वारा टीवी आदि पर सभव करते दिखाई देते हैं... तो क्या सतयुग के अंत में सर्वगुण-संपन्न अमृत शिव के लिए अपने द्वारा शून्य काल में रचित अनंत ब्रह्माण्ड को अनंत काल तक अपनी 'तीसरी आँख' में देख पाना कठिन रहा होगा? और हमें भी उसकी झलक हमारी दो आँखों से संभव करने की कृपा? और वैसे भी निद्रावस्था में 'हम' सभी अपनी तीसरी आँख में स्वप्न तो फिल्म समान देख पाते ही हैं :)

sajjan singh said...

भाई देवस, आप तो अंतरयामी हैं जो मेरा उत्तर पहले से ही जानते हैं।
लेकिन अब मैं कोई स्पष्टीकरण नहीं दूंगा। क्योंकि एक तरह की वैचारिक कट्टरता यहां देखने को मिल रही है। दूसरा पक्ष क्या सोचता है उसकी विचारधारा क्यों इतनी अलग है यह कोई समझना ही नहीं चाहता । जिस ईश्वर विश्वास को हमने इतने वर्षों से पाला पोसा है उसे इतनी जल्दी छोड़ पाना आसान नहीं है। आपकी पिछली टिप्पणीयां भी मैंने पढ़ी हैं । आप नास्तिक को आस्तिक बनाने की बात कहते हैं । मैं एक बात बता दूं । बचपन से ना कोई आस्तिक होता है ना नास्तिक । ये तो पारिवारिक संस्कारों होते हैं जिन्हें ग्रहण करके इंसान ईश्वर या अपने धर्म की मान्यताओं में विश्वास करने लगता है। कोई बच्चा हिंदू घर में जन्म लेगा तो वह हिन्दू धर्म की मान्यताओं में विश्वास करेगा, कोई मुस्लिम परिवार में जन्म लेगा तो वह अलग मान्यताओं को ग्रहण करेगा, ईसाई परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे की मान्यताएं कुछ अलग होगी । तो ईश्वर का पूर्वाग्रह पहले से ही बाल मन में रोपित किया जाता है । इस तरह बहुत कम संभव है कि कोई इंसान इस समाज में रहकर ईश्वर या धर्म के पूर्वाग्रहों से मुक्त रह सके । हर नास्तिक पहले धार्मिक ही होता है इसलिए यदि कोई सही मायनों में नास्तिक है तो उसे धर्म का ज्ञान देने की आवश्यकता नहीं है उन तर्कों को वह बचपन से सुनता आ रहा होता है जिनसे आप ईश्वर की महिमा का गुणगान करते हैं। वह सभी धर्मों का परम ज्ञाता न हो लेकिन धर्मों की आधारभूत जानकारी वह रखता ही है। इस तरह वो आस्तिकता को भली-भांति समझता है क्योंकि वह खुद पहले आस्तिक ही होता है। लेकिन आस्तिक लोग नास्तिकता को नहीं समझते हैं इसलिए नास्तिकों को अहमी, कुंठित, ईश्वर से नाराज और भी न जाने क्या-क्या कहते हैं।

sajjan singh said...

आत्मा-चेतना आदि के विषय में तर्क देने का अब कोई मतलब नहीं है क्योंकि इन मान्यताओं में आपकी आस्था है और आस्था तर्क की दुश्मन होती है । इन सब धारणाओं का उदगम ईश्वर ही है इसलिए उसे समझना जरूरी है। ईश्वर को समझने से पहले आपको यह समझना पड़ेगा की धर्मों की उत्पत्ति कैसे हुई। धर्मों की सर्वश्रेष्ठ और संक्षिप्त व्याख्या भगत सिंह ने दी है जो इस प्रकार है. भगत सिंह कहते हैं-

जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को -इसके भूत , वर्तमान एवं भविष्य को , इसके क्यों और कहाँ से को -समझने का प्रयास किया तो सीधे प्रमाणों के भारी अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने-अपने ढंग से हल किया । यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों के मूलतत्व में ही हमें इतना अंतर मिलता है जो कभी -कभी तो वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है । न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है ,बल्कि प्रत्येक गोलार्द्ध के विभिन्न मतों में आपस में अंतर है । एशियाई धर्मों में, इस्लाम तथा हिंदू धर्मों में जरा भी एकरूपता नहीं हैं । भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राहम्णवाद से बहुत अलग है , जिसमें स्वयं आर्य समाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाए जाते हैं । पुराने समय का एक अन्य स्वतंत्र विचारक चार्वाक है । उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौति दी थी । यह सभी मत एक-दूसरे के मूलभूत प्रश्नों पर मतभेद रखते हैं और हर व्यक्ति अपने को सही समझता है । यही तो दुर्भाग्य की बात है । बजाय इसके कि हम पुराने विद्धानों एवं विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरूद्ध लड़ाई का आधार बनाएँ और इस रहस्यमय प्रश्न को हल करने की कोशिश करें , हम आलसियों की तरह, जो कि हम सिद्ध हो चुके हैं , विश्वास की -उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की-चीख पुकार मचाते रहते हैं । इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के अपराधी हैं ।

sajjan singh said...

नास्तिकता के विषय में और अधिक जानकारी चाहिए तो विकीपिडिया के इस लिंक पर जाइये-
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE

किसी विषय को जाने बिना उसके संबंध में अपनी राय देना अतिआत्मविश्वास दर्शाता है और अतिआत्मविश्वास आता ही तब है जब आपको ज्यादा कुछ सोचने समझने पढ़ने-लिखने का समय नहीं मिलता हो।
बौद्ध दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन है । यह बात सर्वविदित है और कोई मानसिक शांति के लिए ध्यान लगाता है तो इसका मतलब ये ना निकाले की वह ईश्वर को ही याद कर रहा है। शुरूआत में बौद्ध और जैन धर्म अनीश्वरवादी रहे थे जिन्हें बाद में ईश्वरवाद से जोड़ दिया गया।
एक बात और कहना चाहूंगा। नास्तिकता किसी के लिए भी नुकसानदेय नहीं है जो लोग कहते हैं नास्तिक सदाचार के पैर नहीं होते उनसे मैं कहना चाहूंगा की नास्तिक सदाचार को समाज व्यवस्था के लिए आवश्यक मानकर उसे अपनाते हैं किसी ईश्वरीय भय या नरक के डर से नहीं डर कर अपनायी गई नैतिकता नैतिकता नहीं होती । ओशो इसे पाखंड कहते हैं।
यदि कोई नास्तिक है तो उसे दूसके संप्रदायों से क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन सभी कट्टरपंथी घोर आस्तिक होते हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश, और कश्मीर में हिन्दूओं को खदेड़-खदेड़ के भगाना उनका धर्म परिवर्तन करवाना नहीं माने तो उन पर अत्याचार करना ये सारे काम तथाकथित धार्मिक जन ही करते हैं । नास्तिकों पर निराधार आरोप लगाना छोड़िये कोई आस्तिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़ा नहीं हुआ जिस तरह एक नास्तिक स्त्री तसलीमा नसरीन ने उनके शोषण के विरूद्ध आवाज उठाई थी । भारत से ही बौद्ध धर्म का कैसा बहिष्कार हुआ कि बाद में उन्हें नेपाल,चीन,जापान, श्रीलंका आदि देशों में शरण लेनी पड़ी।
कई दिनों से इस ब्लॉग पर चर्चा कर रहा हूं । इसलिए अब मुझे भी आराम चाहिए और आप भी आराम फरमाइये। क्या रखा है इन बातों में।

Bharat Bhushan said...

@ Sajjan ji *"कोई बच्चा हिंदू घर में जन्म लेगा तो वह हिन्दू धर्म की मान्यताओं में विश्वास करेगा, कोई मुस्लिम परिवार में जन्म लेगा तो वह अलग मान्यताओं को ग्रहण करेगा, ईसाई परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे की मान्यताएं कुछ अलग होगी."
इस बात को अगर सामान्य प्रकार से भी समझ लिया जाए तो धार्मिक झगड़े समाप्त हो जाएँ.

JC said...

'सत्व' अर्थात सार जानने का कोई प्रयास करे तो शायद उसे अंहस हो कथन "सत्यमेव जयते" और "सत्यम शिवम सुन्दरम" का, जैसे 'मेरी' समझ में आया...

'हिन्दू ' मान्यतानुसार, भले ही उसे सनातन धर्म कह लें, सर्व प्रथम आवश्यक है इस प्रश्न का उत्तर - मैं कौन हूँ, इत्यादि?
और 'हम', 'हिन्दू', भाग्यवान हैं कि 'गीता' के माध्यम से बताया गया है कि 'हम' वास्तव में अमृत आत्माएं हैं, जो विभिन्न शरीर उसी प्रकार (अनंत काल-चक्र में) एक के पश्चात एक धारण करते आते हैं जैसे 'हम' ('माया' के प्रभाव से) जीर्ण-शीर्ण वस्त्र फेंक नूतन वस्त्र धारण करते (प्रतीत होते) हैं! और हमारा 'हिन्दू' कहलाया जाना चंद्रमा अथवा 'इन्दू' के कारण है, जिसे अमृत शिव के मस्तक पर सांकेतिक चित्रों द्वारा दर्शाया जाता आ रहा है, और अनादि काल से अमृत शक्ति रुपी आत्मा को विभिन्न साकार (प्रतीत होते) रूपों के माध्यम से पूजा जाता आ रहा है पृथ्वी (साकार रूप में गंगाधर शिव) यानि 'मिथ्या जगत' में, जो काल के साथ (शून्य, विष्णु, नादबिन्दू की ओर बढ़ते) सिकुड़ते 'भारत' में वर्तमान में भी (घोर कलियुग में) देखा जा सकता है जहां वट-वृक्ष/ मूषक से लेकर कैलाश-मानसरोवर तक अनंत साकार रूप में अमृत शिव और उनकी अमृत दायिनी पार्वती (इन्दू) की पूजा होती चली आती प्रतीत होती है... क्यूंकि 'परम सत्य' शून्य काल और स्थान से सम्बंधित माना गया, और पहुंचे हुए योगियों को इस कारण कहते दर्शाया गया है कि सभी परमेश्वर हैं और माया का कारण अमृत शक्ति के अस्थायी मिटटी का योग है :)

इस अनंत नाटक में आधुनिक प्रतीत होते वैज्ञानिकों की कृपा से 'हम' भी इस घोर कलियुग में भी (भूत में, जब विष चारों ओर व्याप्त था और शिव ने हलाहल पान कर लिया था) जान पाए हैं ब्रह्माण्ड के बारे में, और 'हिन्दू' मान्यतानुसार हमारी अपनी सुदर्शन-चक्र समान अपने केंद्र (महा गुरुत्वाकर्षण, ब्लैक होल अथवा 'कृष्ण की अंगुली') के चारों ओर घूमती अनंत तारों और ग्रह आदि से बनी तश्तरीनुमा प्रतीत होती गैलेक्सी और उसके भीतर ही, किन्तु बाहरी ओर ('क्षीर सागर मंथन', यानि मथनी से दूध मथने के कारण बाहर की ओर गए मक्खन समान) उपस्थित सौर-मंडल को (और मानव रूप को भी नौ 'ग्रहों' यानि सौर-मंडल के ९ सदस्यों का) सार माना गया ब्रह्माण्ड के बैलून समान निरंतर फूलते ब्रह्माण्ड के अनंत शून्य का...

मानव के ब्रह्माण्ड के प्रतिबिम्ब होने के कारण सौर-मंडल के गुणों को प्रतिबिंबित करती मानव व्यवस्था में (सतयुग से कलियुग तक, १००% से ०% तक कार्य-क्षमता) 'सूर्यवंशी' राजाओं के दो गुरु दर्शाए जाते हैं, जैसे त्रेतायुग में वशिष्ट और विश्वामित्र, और द्वापर में विदुर और द्रोणाचार्य,,, और उसी प्रकार बृहस्पति (अत्यधिक दबाव पर तरल हाईड्रोजन से बने जुपिटर ग्रह) देवताओं के और शुक्राचार्य (शुक्र ग्रह) राक्षशों के यानि, प्रकृति की विविधता को दर्शाने हेतु अनंत आत्माओं को विभिन्न स्तर पर, उत्पत्ति को शक्ति अर्थात शून्य से, साकार अनंत ब्रह्माण्ड तक दर्शाने हेतु अस्थायी शरीर को नौ ग्रहों के विभिन्न मात्रा में उपयोग कर दोनों के योग से जाना दर्शाया गया...

"हरी अनंत / हरी कथा अनंता..."

दिवस said...

सज्जन भाई, मई कोई अन्तर्यामी नहीं हूँ, केवल आकलन के आधार पर कहा था| जो कि सही निकला|
आप स्पष्टीकरण दें या न दें, यह आपकी इच्छा है, इसके लिए आप स्वतंत्र हैं...कोई आपको बाध्य नहीं कर रहा है| किन्तु जब उत्तर देना ही नहीं था तो यहाँ बहस क्यों छेड़े बैठे हैं? व्यर्थ ही अपना व हमारा समय बरबाद कर रहे हैं| यदि आपने पहले से निर्णय कर रखा था तो यहाँ क्या लेने आए थे? क्या यह सोच रहे थे कि हमें भी नास्तिक बना देंगे?
खैर वह तो संभव नहीं है|
"दुसरे पक्ष की विचारधारा कोई समझना ही नहीं चाहता", बिलकुल यही बात मैं आपके लिए भी कह सकता हूँ|
आपकी विचारधारा इतनी अलग क्यों है, इस पर मैं ध्यान कैसे दे सकता हूँ? ये तो आपकी समस्या है| इस पर तो आप ही ध्यान दें|
या तो आप ही सर्व शक्तिमान है और बाकी हम सब तो मुर्ख ही हैं| हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, संत सन्यासी, आचार्य, वेद, शास्त्र, हमारा इतिहास, ज्ञान सब मिथ्या ही होगा| निरे मुर्ख थे ये सब जो जीवन भर राम राम, कृष्ण कृष्ण जपते रहे| अरे भाई सज्जन जी जैसे विद्वान् उस समय नहीं मिले न| किसी अन्य जन्म में तो मिलने का सवाल ही नहीं, क्यों कि सज्जन जी तो अगला जन्म लेने ही नहीं वाले|
जब इन सब से दिल भर गया तो भगवान् महावीर व तथागत बुद्ध को भी अपने लपेटे में ले लिया| बौद्ध व जैन मत को अनीश्वरवादी कह दिया| अब यह साहस आपने कैसे किया मैं नहीं जानता| पता नहीं आपके पास ऐसी कौनसी जादू की छड़ी है जिससे आप महावीर व तथागत के विचार भी जान आए| क्वास्ल आप सच्चे हैं, बाकी इनके समस्त अनुयायी तो मुर्ख ही हैं|
अब बताइये अन्तर्यामी कौन है, मैं या आप?
हर नास्तिक पहले आस्तिक ही होता है, किन्तु बाद में नास्तिक बन जाता है तो इसमें समस्या उसकी है, हमारी नहीं| वह असंतुष है अपने जीवन से तो भगवान् को भी गाली दे सकता है?
अव्वल तो कोई भी मनुष्य आस्तिक या नास्तिक पैदा नहीं होता, वह तो मनुष्य ही पैदा होता है| हमारे संस्कार, ज्ञान, प्रेम उसे आस्तिक बनाते हैं| आप जैसे कुछ विरले ही ब्रह्म ज्ञानी होते हैं प्रभु| संस्कार, ज्ञान व प्रेम तो आपको भी मिला, न भी मिले तो भी मनुष्य सत्य का साथ न छोड़े उससे ऐसी ही अपेक्षा की जाती है| यदि आपके पास कोई इससे भी बड़ा ब्रह्म ज्ञान है तो हमे में लाभान्वित करने की कृपा करें, न कि स्पष्टीकरण करने से ही मना कर दें|

आप आराम कर सकते हैं, किन्तु हमें तो अभी कार्य करना है|
आशा है फिर भेंट हो|
नमस्कार...

प्रतुल वशिष्ठ said...

दिवस जी,
आपका प्रतिवाद व्यंग्य का उत्कर्ष पार कर रहा है....
बहुत ही पैने बाण चलाते हो...
दिनेश की चौंध इतनी तपिश वाली होगी ... मालुम न था.

मदन शर्मा said...

दिवस जी धन्यवाद , वाह प्रतुल जी आप अच्छा विचरण कर रहे हैं किन्तु
श्रीमान जे सी आपकी व्याख्या और कन्फ्यूज ही कर रही हैं कृपया और उचित तरीकेसे बताएं

JC said...

@ मदन शर्मा जी, क्षमा प्रार्थी हूँ...शब्दों द्वारा किसी आध्यात्मिक अनुभूति का वर्णन कठिन माना गया है...थोड़े सरल शब्दों में कहें तो, जहां तक 'हिन्दू मान्यता' का प्रश्न है वो तो यह संकेत करती है कि 'माया' से 'हम' वर्तमान में घोर कलियुग के ("जब आदमी छोटा हो जाता है" यानि जब छोटे बच्चे भी वो काम करते दीखते हैं जो पहले बड़ी आयु वाले किया करते थे - जो स्तिथि आज है?!) फिल्म समान नज़ारे देख रहे हैं... शायद यह देखने के लिए कि 'हम' भूत में, उत्पत्ति के आरम्भ में, कितने अज्ञानी थे (जैसे 'हम' अपनी भूत काल की तसवीरें एल्बम में देखते हैं और आनंद लेते हैं)... जिससे 'हम', अमरत्व को प्राप्त आत्माएं, अपने भूत काल के सीमित ज्ञान के कारण किये गयी मूर्खता का आनंद दृष्टा भाव से उठा सकें :)...

यद्यपि हम भुलक्कड़ यानि 'अपस्मरा पुरुष' माने जाते हैं, फिर भी जितना हमको बाहरी संसार को देख याद आता है उसके अनुसार हम कुछ अटकलें लगाते प्रतीत होते हैं... 'मेरी' इस कारण दिलचस्पी, अर्थात मानसिक रुझान, नगों के द्वारा तत्कालीन शरीरों की कार्य-क्षमता बढाने में है...

sajjan singh said...

भाई देवस , बौद्ध दर्शन अनीश्वरवादी दर्शन है आपको प्रमाण चाहिए तो इन लिंक्स पर जाइये -

http://hindi.webdunia.com/religion/religion/buddhism/0902/06/1090206028_1.htm

http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%8C%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE

http://omprakashkashyap.wordpress.com/2009/07/06/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8-%E0%A4%A4%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D/

sajjan singh said...

@ देवस

आप फिक्र मत कोई आपको नास्तिक बनने के लिए नहीं कह रहा है क्योंकि कोई भी विचारधारा किसी पर लादी नहीं जा सकती।

Ankur Jain said...

सुन्दर पोस्ट...लाजवाब व्यंग

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

Aaderniya divya ji

Aapne accha likha aur logon se likhwaya
Sabko hansaya, fasaya aur uljhaya
Samay ke sath ye raj aur gahraya
dharm ke dhong ki utpati ki gutthi;
ko anayas hi suljhaya
lekin udho ke gyan ko
gopion ki bhakti ne hi jhuthlaya
do shabd jaan kar kuch logon ka man bharmaya
ishwar ko hi jhutha tharaya
koi kechue ko kat raha hai
koi atma ko do hisson mein baat raha hai
koi punarjanam ko shaitani ruh bata raha hai
koi ek dusre se bibadon ko gehra raha hai
ek matric ka baccha
high school ke bacche ko dhamka raha hai
apne shabdon mein uljha raha hai
main aapke blog per roj aa raha hoon
ek pyari si nayi kriti ki ummid laga raha hoon
lekin bhid mein fasta jar aha hoon
ab to apna purana comment bhi nahi dhundh pa raha hoon
ek beta kisi ko pita kehta hai
ek pita kisi ko beta kehta hai
unke darmiyan sirf bishwas jagah pata hai
barna bigyan to khel dikhyega
jab tak DNA report nahi aa jati
baap bete ko gale nahi lagayega
aur laga bhi liya to dusra comment kar jayega
clone ke bacche ko gale laga raha hai
dekho kaise muskura raha hai
nastik kahkar khud ko jo khuda se uncha dikha raha hai
bahi apni beemar bitia ke liye ;
mandir ki chaukhaton per sir jhuka raha hai
doctor I treat he cures ka board laga raha hai
setelite chodene se pahle koi nariyal chatka raha hai
koi brihaspati ko dadhi nahi banata
ko mangal ko meet nahi khata
meri samajh mein ek karan aata hai
nai aur kasai ko rest mil jaata hai
koi balat huth na dikhye ise dharm se joda jata hai
aadmi dharm banata hai
dharm iswar ke naam per khud ko bachata hai
aur jeewan ka safar pyar se aage badh jata hai
ishwar gehu banata hai tum roti banakar ithlate ho
ishwar pani banata hai tum ice ka maja udate ho
uske diye khilone se khelkar usko ungli dikhate ho
uske shabd mantra ban jaate hai
baadlon ko cheerkar barish laate hai
tumhare shabd kolahal machete hai
mansoon aate aate tham jaate hain
kuch log tatathast hoke maja le rahe hain
kuch bhism ki tarah maun sab sah rahe hain
meri tarah kuch log sakte mein aa rahe hain
itne comment dekhkar daanto tale ungli daba rahe hain
jinhe lagta hai dharm jhutha, karm jhutha, marm jhutha
ved upnishad har granth jhutha
wo jeewan ka ullas mana lein
lekin bigyan ke mahapanditon
chiteron, deewano,
tum bigyan ke kitne bhi gun ga lo
ho himmat to maut ko jhuthala lo

dil ki ek baat main bhi utha raha hoon
gaur farmaiye
dharm air bigyan ko jodkar
baigyanik dharm banaiye
logon mein samta layiye
pyar aur sadbhav badhayiye
andhvishwashon ko hatayiye
iswar ke bibidh roopon mein ek roop payiye
mandir masjid gurudware
kisi bhi raste se jayiye
per ishwar ko mat jhuthlayiye
shabdon se ishwar ki taswir na banayiye
tumhari chetna hi ishwar hai
mahsoos kariye aur karayiye

maano to main ganga maa hoon
na maano to bahta paani

divya ji ke blog pe aaye mahan dharmacharyon
ham to bas yahi gungunate hain
duhrate hain, sunate hain, sikhate hain

www.ashutoshmishrasagar.blogspot.com
drashumishra1970@gmail.com

JC said...

पुनश्च - यद्यपि 'हमें' नहीं मालूम 'हम' कौन हैं, किन्तु 'सत्य' ऐसा प्रतीत होता है कि 'हम' लगभग साढ़े चार अरब वर्ष से एक अंतरिक्ष यान के - धरती पर उसके रेलगाड़ी के प्रतिरूप इंजन समान - परम शक्तिशाली सूर्य द्वारा खींचे जाने वाली गाड़ी के कई डब्बों में से एक डब्बे में, यानि सौर-मंडल के एक सदस्य पृथ्वी ग्रह पर, अंतरिक्ष अर्थात शून्य में कुछेक वर्षों से वर्तमान शरीर के रूप में सफ़र करते अनंत यात्रियों समान हैं... जो अपने अपने पूर्व निर्धारित गंतव्य पर, जिसका आज हमें ज्ञान नहीं है क्यूँ और किस लिए, शक्ति-रूप (आत्मा) में ही शून्य में ही उतर जाते हैं ('मृत्यु' के कारण, अर्थात अमृत आत्मा के अस्थायी, क्षण-भंगुर, शरीर के अलग हो जाने से - किसी भी अनंत कारणों में से एक बहाने समान)... और किसी स्थान विशेष से शायद फिर से चढ़ भी जाते हैं, किसी अनंत में से अन्य रूप में 'पुनर्जन्म' ले!?... शायद मुक्ति का अर्थ है इस अंतरिक्ष यान के सफ़र से उतर आत्मा का 'मुरलीधर कृष्ण' यानि गैलेक्सी के केंद्र में पहुँच जाना, अथवा शंख आदि धारी नादबिन्दू 'विष्णु' यानि उनके मोहिनी रूप और रहस्यमय चन्द्रमा के केंद्र में संचित शक्ति का एक भाग हो जाना?!...

Rakesh Kumar said...

Dr.Ashutosh Mishra ji,
आपकी खूबसूरत काव्यमय टिपण्णी के लिए सादर नमन.
जहाँ तक आपका यह कहना है कि 'Aapne accha likha aur logon se likhwaya
Sabko hansaya, fasaya aur uljhaya'
मैं तो यही कहूँगा कि हमारी दिव्याजी तो चुपचाप बैठ कर आनंद लिए जा रहीं है.उलझने वाले उलझते रहें.
एक पुरानी कहावत है कि 'भुस में आग लगाय,जमालो खूब तमाशा देख रही है'.
लेकिन,यहाँ तो आग खुद ब खुद अपने आप ही भडकती जा रही है.दिव्या जी ने तो मेरे ख्याल से 'मौन व्रत' लिया हुआ है.देखतें हैं कब टूटता है उनका यह 'मौन व्रत'.आपकी टिपण्णी इतनी शानदार और जानदार है कि इसपर दिव्या जी का मौन व्रत टूट ही जाना चाहिये.आगे ईश्वर मालिक है.

JC said...

जब 'हम' स्कूल जाते बच्चे थे, तो 'हम' सन '४५ से '५५ तक अपने 'इन्द्रप्रस्थ' के सरकारी निवास स्थान से स्कूल तक का रास्ता कोई ५-७ मिनट में पैदल चल पूरा कर लेते थे - और चिंता अधिक नहीं थी क्यूंकि ट्रेफिक अधिक नहीं होता था ... फिर भी माँ-बाप को हमारी चिंता तो होती ही होगी इस लिए माँ बीच - बीच में सावधान करती थी कि घर सीधे आना... चूँकि उन दिनों न तो रेडिओ होता था न टीवी, मनोरंजन के कार्यक्रम सब 'नुक्कड़ नाटक' समान ही हुआ करते थे... कहीं कोई बन्दर वाला होता था कहीं भालू वाला उनको नाच कराते, कहीं सपेरे बीन बजाते साँपों को नचाते, तो कहीं नट रस्सी पर चढ़ स्वयं नाच रहे होते थे, अथवा कठपुतली को नचा रहे होते, इत्यादि, इत्यादि आम दिख जाते थे... भीड़ आम तौर पर बच्चों की ही होती थी जो तभी खिसकते थे जब उन में से कोई कटोरा ले पैसा एकत्र करने आ नहीं जाते थे... और, माँ की चेतावनी अक्सर भूल जाती थी...

उपरोक्त द्वारा 'हिन्दू मान्यता' का 'हम' शायद सही दृष्टिकोण की झलक समझ सकते हैं कि जानते हुए भी कि हमारे लिए निर्धारित लक्ष्य क्या है, फिर भी हम मार्ग में उपस्थित विभिन्न प्रलोभनों के कारण 'हम' भटका दिए, फंसा दिए, अथवा उलझा दिए जाते हैं...
दिव्या जी समान जन्म-जीवन-मृत्यु-पुनर्जन्म चक्र से 'मुक्ति' की बात तो सभी करते हैं किन्तु हर कोई अलग अलग राय देता है,,,

हरी वंश राय बच्चन के शब्दों में,

"मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।"

मदन शर्मा said...

मंदिर मस्जिद लड़वाते राह दिखाती मधुशाला !!

मदन शर्मा said...
This comment has been removed by the author.
JC said...

"...मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!..."

"...धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला!!!..."

Bharat Bhushan said...

@ JC जी, बढ़िया तीर मारा है जो सही जगह लगा है.

मदन शर्मा said...

श्रीमान जे सी जी धन्यवाद अपने विचारों को इतना स्पष्ट रूप से कहने के लिए !
हम मंदिर मस्जिद जाते तो हैं किन्तु अपना सोच नहीं बदलते
अपनी दुर्भावनाओं को नहीं ख़त्म करते अपने अन्दर मानवता वादी दृष्टि कोण नहीं लाते |
जिस दिन भी ऐसा होगा हमें मंदिर मस्जिद की कोई भी आवश्यकता नहीं रहेगी |
हम जहां भी जायेंगे वहीँ मंदिर मस्जिद बन जाएगा | मस्जिद का तो अर्थ तो नहीं पता
किन्तु मंदिर सिर्फ ईंट की दीवारों से घीरे स्थान का नाम नहीं है मंदिर का तो अर्थ है
वह स्थान जहां अच्छे लोगों का समागम हो |

मदन शर्मा said...

आज के हालात के सन्दर्भ में महर्षि दयानंद जी के विचार बहुत प्रासंगिक हैं ---
मैंने कहा है इसलिए किसी बात को स्वीकार मत करो . इस पर विचार करो ,
समझो तथा इसपर मनन करो . यदि इसे सही समझते हो तो स्वीकार करो
अन्यथा इसे मत मानो .
--महर्षि दयानंद सरस्वती

virendra sharma said...

व्यंग्य मार्मिक है .हर आत्मा अलग है टिपियाने का अंदाज़ भी अपना अपना निजिक होता है .नैजिक होता है .तुलसी बुरा न मानिए जो गंवार कह जाए .

मदन शर्मा said...

वीरू भाई नमस्ते अहो भाग्य हमारे जो आपका भी यहाँ पदार्पण हुवा !

मदन शर्मा said...

बारिश के मौसम में आपका दिल मचलता तो होगा पानी में भीगने के साथ उछालने कूदने को दिल करता तो होगा इसमें आपकी गलती नही इस मौसम में हर मेंढक का यही हाल होता है !

मदन शर्मा said...

आदिवासी क्षेत्र में 1 टीचर की पोस्टिंग होती है .
टीचर : पहले वाला टीचर कैसे थे ?
स्टुडेंट्स :
(जीभ निकल के )
स्वादिष्ट थे !!!

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

आदरणीया दिव्या जी

आपने अच्छा लिखा और लोगों से लिखवाया
सबको हंसाया, फंसाया और उलझाया
समय के साथ ये मसला गहराया
धार्मिक ढोंग की गुत्थी को अनायास सुलझाया
लेकिन उधो के ज्ञान को गोपिओं की भक्ति ने ही झुठलाया

दो शब्द जान कर कुछ लोगों का मन भरमाया
ईश्वर को हो झूठा ठहराया
कोई केचुए को काट रहा है
कोई आत्मा को दो हिस्सों में बात रहा है
कोई पुनर्जन्म को शैतानी रूह बता रहा है
एक दूसरे से बिबादों को गहरा रहा है
एक मेट्रिक का बच्चा आठवीं के बच्चे को धमका रहा है
अपने शब्दों में उलझा रहा है

मैं आपके ब्लॉग पैर रोज आ रहा हूँ
एक प्यारी सी नयी कृति की उम्मीद लगा रहा हूँ
लेकिन भीड़ में फंसता जा रहा हूँ
अब तो अपना पुराना कमेन्ट भी नहीं ढूंढ पा रहा हूँ

एक बेटा किसी को पिता कहता है
एक पिता किसी को बेटा कहता है
उनके दरमियाँ सिर्फ एक बिश्वास रहता है
बरना बिज्ञान तो खेल दिखायेगा
जब तक DNA रिपोर्ट नहीं आ जाती
बाप बेटे को गले नहीं लगाएगा
और लगा भी लिया तो दूसरा कमेन्ट कर जायेगा
क्लोन के बच्चे को गले लगा रहा है
देखो कैसे मुस्कुरा रहा है
नास्तिक कहकर खुद को जो खुदा से ऊँचा दिखा रहा है
बही अपनी बीमार बिटिया के लिए
मंदिर की चौखटों पे सर झुका रहा है
डॉक्टर - I TREAT HE CURES KA बोर्ड लगा रहा है
सेटे लाइट छोड़ने से पहले कोई नारियल चटका रहा है

कोई बृहस्पति को दाढ़ी नहीं बनाता
कोई मंगल को मीट नहीं खाता
मेरी समझ में एक कारण आता है
नाइ और कसाई को रेस्ट मिल जाता है
कोई बलात हठ न दिखाए इसे धर्म से जोड़ा जाता है
आदमी धर्म बनाता है
धर्म ईश्वर के नाम पे खुद को बचाता है
और जीवन का सफ़र प्यार से आगे बढ़ जाता है
ईश्वर गेहू बनाता है; हम रोटी बनाकर इतराते हैं
ईश्वर पानी बनाता है हम आइस का मजा उड़ाते हैं
उसके दिए खिलोने से खेलकर उसी को उंगली दिखाते हैं

उसके शब्द मंत्र बन जाते हैं
बादलों को चीरकर बारिश लाते हैं
तुम्हारे शब्द कोलाहल मचाते हैं
मानसून आते आते थम जाते हैं
कुछ लोग तटस्थ होके मजा ले रहे हैं
कुछ भीष्म की तरह मौन सब सब रहे हैं
मेरी तरह कुछ लोग सकते में आ रहे हैं
इतने कमेन्ट देखकर दांतों तले उंगली दबा रहे हैं
जिनहे लगता है धर्म झूठा, कर्म झूठा, मरम झूठा
वेद झूठा, ग्र न्थ झूठा, हर उपनिशद हर मंत्र झूठा

ऐसे बिज्ञान के महापंडितों, चितेरों और दीवानों
तुम बिज्ञान के कितने भी गुण गा लो
हो हिम्मत तो मौत को झुठला लो

दिल की एक बात मैं भी उठा रहा हूँ
गौर फरमाइए
धर्म और बिज्ञान को जोड़कर
बैज्ञानिक धर्म बनाइये
लोगों में समता लाईये
प्यार और सदभाव बढाईये
ईश्वर के बिबिध रूपों में एक रूप पाईये
मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे कही भी जाईये
पर ईश्वर को मत झुठलाईये
शब्दों से ईश्वर की तस्वीर न बनाईये
तुम्हारी चेतना ही ईश्वर है
महसूस करिए और कराईये

मानो तो मैं गंगा माँ हूँ
न मानो तो बहता पानी
दिव्या जी के ब्लॉग पे आये महान धर्माचार्यों
हम तो बस यही गुनगुनाते हैं दुहराते हैं, सुनाते हैंसमझाते है

Bharat Bhushan said...

आदरणीय डॉ दिव्या,
हम काफी बोल चुके. अब आपकी बारी है आकर कुछ कहने की. हमें आपकी प्रतीक्षा है. आपका स्वास्थ्य कैसा है.

JC said...

दिव्या जी के आदेशानुसार लिखते जाना है और जिसे जो पसंद है वो पढ़ लेगा... 'हम' भी लिखते हुए आनंद ही ले रहे हैं...

'परम सत्य' यानि परमेश्वर को प्राचीन 'हिन्दुओं' ने शून्य काल और आकार से सम्बंधित निराकार नादबिन्दू (ध्वनि ऊर्जा ॐ के स्रोत) कहा और निराकार को चित्रों आदि में - सांकेतिक भाषा में - क्षीर-सागर के मध्य में शेष-शैय्या पर साकार मानव रूप में लेटे चतुर्भुज पद्मनाभ विष्णु, जिनकी नाभि से उत्पन्न कमल के फूल पर ब्रह्मा को बैठे, (दिन में पृथ्वी का केंद्र और सूर्य/ रात्रि में साकार पृथ्वी और चन्द्रमा को प्रतिबिंबित करते), अनादि काल से दर्शाया जाता आ रहा है, और मूल शक्ति (विष्णु) को अधिक पूजा जाता है...

'योगियों' ने जाना परमात्मा की 'माया' अथवा 'योग-माया' द्वारा रचित पशुओं में सर्वश्रेष्ट साकार रचना मानव की होने की, स्वयं परमात्मा के ही प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब,,, और विभिन्न युगों के पुरुषोत्तम (हीरो) और उनसे निम्न स्तर पर प्रतीत होते, अन्य मानव और अन्य अनंत, साकार प्राणीयों का उपयोग स्वयं को समझने के लिए, यानि 'सत्य' को जानने, मनोरंजक कथाओं, पुराणों, 'रामलीला', कृष्ण लीला आदि द्वारा...

वर्तमान पश्चिमी खगोलशास्त्री भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि 'काशी के ब्राह्मणों ' ने प्राचीन काल में (जब कंप्यूटर भी नहीं थे!) 'पंचांग', यानि मुख्यतः इंदु ('हिन्दू' का मूल?) अथवा चन्द्रमा के चक्र पर आधारित कैलेण्डर कैसे बनाया? जो अनादि काल से उपयोग में आ रहा है!...

वर्तमान 'हिन्दुओं' को शायद यह तो पता है कि 'हिन्दू मान्यता' के अनुसार काल-चक्र में चार युग आते हैं - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग, किन्तु शायद उनके विभिन्न गुणों और विभिन्न युग में घटती मानव कार्य क्षमता आदि के बारे में न पता हो, और उनके योग से बने (४३,२०,००० वर्ष के) 'महायुग' के ब्रह्मा के चार अरब वर्ष से अधिक एक दिन में १००० अथवा, शायद, अन्य संकेतों के आधार पर १०८० बार, बार बार आने के बारे में,,, और उसके पश्चात ब्रह्मा की उतनी ही लम्बी रात के आ जाने के बारे में जब सब आत्माएं जम जाती हैं, और फिर नए दिन के आरंभ में उसी स्तर से काल-चक्र में नयी लीला में पात्र बनने की...

'वैज्ञानिकों' ने सौर-मंडल की अनुमानित आयु आज साढ़े चार अरब वर्ष आंकी है...

यद्यपि आज सब शायद जानते हैं कि 'हिन्दुओं' द्वारा कथित 'पञ्च-तत्वों' अथवा 'पञ्च भूतों' के भिन्न - भिन्न प्राकृतिक स्वभाव के कारण भारत भूमि पर प्रति वर्ष दक्षिण-पश्चिम मॉनसून और बादलों की राह में बाँध समान हिमालय द्वारा जनित अनंत जल-चक्र संभव हो पाया हजारों मील लम्बी और ऊंची पश्चिम से पूर्व तक फैली 'शक्ति-पीठों' वाली हिमालयी श्रृंखला का जम्बूद्वीप के उत्तर में स्थित समुद्र के जल को दक्षिण की ओर धकेल कर धरती के कोख से ही उत्पन्न हो कर... नेपाल में एवरेस्ट की चोटी को 'सागर माथा' कहे जाने से भी अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन ज्ञानी 'हिन्दुओं' को भी इस तथ्य का पता था,,, और सांकेतिक भाषा में इस घटना को अर्धनारीश्वर शिव (पृथ्वी) की अर्धांगिनी 'सती' (शक्ति?) की 'हवन-कुण्ड में कूद आत्म-हत्या' के पश्चात उसके ही कालान्तर में एक अन्य स्वरुप पार्वती (पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा) के साथ 'विवाह' की कथा द्वारा भी दर्शाया गया है,,, और 'हिन्दू मान्यतानुसार ' गंगा नदी के स्रोत चन्द्रमा की उत्पत्ति भी पृथ्वी के कोख से ही हुई थी...

JC said...

क्रमश:

जो आत्माएं लीला में आज २५% से ०% वाले कलियुग, अपितु ०% क्षमता की और बढ़ते 'घोर कलियुग' को दर्शाने का काम कर रही हैं उन्हें साधारणतया कैसे मालूम हो सकता है कि प्राचीन योगी/ ऋषि/ मुनि/ सिद्ध पुरुष/ आदि 'हिन्दुओं' ने महाकाल, अमृत शिव, जिनके मस्तक पर 'इंदु' यानि चन्द्रमा संकेत करता है 'गंगाधर शिव' यानि पृथ्वी से ही उत्पन्न हो उसे (दुर्ग समान, 'हिमालय पुत्री दुर्गा' अथवा 'पार्वती' को) सांकेतिक चित्रों द्ववारा 'शिव' के मस्तक पर दर्शाया जाता आ रहा है, और उनके प्रतिरूप मानव शरीर में भी सर्वोच्च स्थान दिया हुआ है... और योगियों ने यह जाना है कि उनका कर्तव्य शरीर के आठ चक्रों में उपलब्ध सारी शक्ति को मस्तक तक उठा केन्द्रित करना है... और योगिराज कृष्ण भी कहते हैं कि यदि 'हम' उनकी ऊँगली पकड़ लें तो वो स्वयम 'हमको' अपने विराट स्वरुप तक ले जायेंगे :) किन्तु कृष्ण में आत्म-समर्पण करने में एक प्राकृतिक झिझक आ जाती है विविध प्रलोभनों (डिजाईन) के कारण :(

क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि शायद वर्तमान में यह 'शुद्ध इतिहासकारों' आदि के बस का नहीं है समझ पाना... क्योंकि अनादि काल से 'हिन्दुओं' द्वारा, अनंत शक्ति रुपी निराकार नादबिंदू विष्णु, यानि शून्य की विष से आरम्भ कर चार चरणों में 'देवताओं' को 'अमृत' प्राप्ति कराने, (यानि हमारे सौर-मंडल के साकार रूपों की अनंत तक उत्पत्ति), को दर्शाने हेतु 'क्षीर-सागर मंथन' की कथा सांकेतिक भाषा में कही गयी है...

और 'अमृत शिव', परमात्मा, के सर्वगुण संपन्नता प्राप्ति के पश्चात काल-चक्र को विपरीत दिशा में, यानि भूत काल का भूतनाथ शिव द्वारा नजारा लेने हेतु, सतयुग से घोर कलियुग तक चलता माना गया है... और चूँकि 'हम आत्माएं' उसके ही विभिन्न काल के प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब हैं, 'हम' भी थोड़े से काल के लिए ही सही हमारे से सम्बंधित काल की झलक ले पा रहे हैं जब ब्रह्मा की रात निकट ही है शायद...

सञ्जय झा said...

dekhiye boss mejban ki anupasthiti me mehman ko achha nahi lagta.........aap sayad......khair,
blog-balak kya kah sakta hai........

pranam.

JC said...

@ सञ्जय झा जी, आपकी बात भी सही हो सकती है!
भले ही आप आयु में मुझसे इस जन्म में छोटे प्रतीत होते हों, किन्तु आत्माएं तो ब्रह्मा के एक ही दिन से आरंभ हुई होंगी, इस लिए सबकी आयु और भंडारित ज्ञान तो बराबर होना चाहिए...

समस्या तो केवल हरेक व्यक्ति की अपनी अपनी क्षमता की है... धन्यवाद!

मदन शर्मा said...

धर्म और बिज्ञान को जोड़कर
बैज्ञानिक धर्म बनाइये
लोगों में समता लाईये
प्यार और सदभाव बढाईये
आशुतोष मिश्र "जी बहुत सही लिखा है आपने !
जब तक धर्म को हम विज्ञान सम्मत नहीं बनायेंगे
तथा फ़ालतू के अंधविश्वासों तथा सामाजिक रुढियों से अपना पीछा नहीं छुडायेंगे
तब तक किसी का भी भला नहीं होगा
और हम व्यर्थ में इसी तरह लड़ते रहेंगे |

मदन शर्मा said...

हम पग पग पर देखते हैं की ये सारी सृष्टि एक निश्चित वैज्ञानिक नियमों
पर चल रही है इसके बाद भी हम अवैज्ञानिक तथा बच्चों वाली हरकत
करते रहते हैं | एक अशिक्षित व्यक्ति ऐसी हरकत करे तो समझ में आता है
किन्तु पढ़ लिख कर डाक्टर इंजिनीअर हो कर भी जब उन्हें ऐसे कृत्यों में
लगा देखते है तो मन बड़ा ही अफ़सोस में पड़ जाता है |
हे इश्वार इस भारत देश का क्या होगा ?

मदन शर्मा said...

वेदों के उपदेशों को अपने जीवन में ढालकर हमें मिल जुलकर रहते हुए राष्ट्र एवं समाज की उन्नति का प्रयास करते रहना चाहिए। वेदों के सन्देश के अनुसार चलने से ही भारत का प्राचीन गौरवशाली वैभव पुनः स्थापित हो सकता है तथा भारत फिर से विश्व का सिरमौर बन सकता है।

मदन शर्मा said...

" ये इश्क नहीं आसां , बस इतना समझ लीजे ,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है "

JC said...

@ मदन शर्मा और आशुतोष मिश्र जी, "धर्म और बिज्ञान को जोड़कर
बैज्ञानिक धर्म बनाइये, आदि..." संभवतः तथाकथित 'सतयुग' में ही संभव है...

वर्तमान में तो मानव व्यवस्था की स्थिति एक जर्जर ईमारत समान है, जिसके प्रतिबिम्ब, 'पुरानी जीर्ण-शीर्ण वस्त्र के स्थान पर नूतन वस्त्र धारण' करने समान, अथवा 'गेहूं में पिसते घुन' समान, नयी हो या पुरानी, सब 'इमारतों' को गिरा, उनके स्थान पर फिर से सृष्टि की रचना हो - जैसा गीता में कृष्ण ने (विष्णु के अष्टम अवतार, जिसके आधीन यह कार्य आता है) भी वादा किया हुआ है :)... "इंतज़ार और अभी, और अभी..."

मदन शर्मा said...

श्रीमान जे. सी . जी आपने तो कुछ मुद्दे से अलग हट के बहस छेड़ दी है |
आपके बातों के साथ मै भी अपने अल्प ज्ञान की बातें शामिल करता हूँ |
हो सकता है कुछ लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचे तो इसके लिए क्षमा कीजिएगा !

मदन शर्मा said...

एक साफ़ सुथरी जिन्दगी को को पटरी से उतार कर भरमाना हर पंथ में शामिल है |
हिन्दू धर्म में जीवन को समझने के पहले पाठ के तौर पर ब्रह्मा विष्णु महेश है |
जिसका की बहुत ही गलत अर्थ लगाया गया है | कहा गया की ब्रह्मा ने सब को
बनाया | किन्तु क्यों बनाया कैसे बनाया एक एक कर के बनाया की सुस्ता सुस्ता
कर बनाया इसका संतोषजनक उत्तर नहीं है | इसी तरह विष्णु जी को सब को
खिलाने पिलाने पालन पोषण की जिम्मेद्वारी दे दी गयी है | जब देखिये तब
कमल के फुल पर लेटे हुवे मंद मंद मुस्काते रहते हैं |
आज इन्ही के मंदिर के आगे लाखो अपाहिज दीन- दुखी भीख मांग कर गुजारा
कर रहे हैं | किन्तु विष्णु जी को देखिये टुकुर टूकुर देखते हुवे लक्ष्मी जी के बगल
में बैठ के मुस्करा रहे हैं |

मदन शर्मा said...

अब इसके बाद नंबर आता है शंकर जी का |
जब सारा काम काज ठीक चल रहा है तो आ गए तांडव कर के प्रलय मचाने |
वो भी अपने गणों भूत प्रेत के साथ |
अरे भाई ब्रह्मा विष्णु महेश किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है
ये तो उस ईश्वर का उसके कार्यों के अनुसार नाम है |

मदन शर्मा said...

एक और धर्म कहता है पहले दिन ईश्वर ने जमीन ,समुद्र, नदी, तालाब बनाए |
फिर पेड़- पौधे ,जंगल | फिर जानवर, पशु- पक्षी | फिर आया पुरुष का नंबर |
मिटटी के लोंदे से बनाया फिर उसमे रूह फूंक दी अर्थात काफी सोच समझ कर
सबसे अंत में पुरुष बनाया |फिर उसकी एक हड्डी निकाली और उससे स्त्री बनाया |
क्या आप भी ऐसा ही अवैज्ञानिक बातें सोचते हैं |

मदन शर्मा said...

स्त्री ही तो सारे जग का आधार है और उसी को आपने उसके बहुत से हकों से वंचित कर दिया
ये कहाँ का न्याय है ? होना तो ये चाहिए था की आप स्त्री पुरुष दोनों को समानता का अधिकार देते |
किन्तु नहीं ! तथाकथित ईश्वर के आदेश के नाम पे शायद सबसे अधिक जुल्म आपने स्त्री पर ही किये हैं |
आपको तो ये चाहिए था की जो आपके धर्म में गलत बातें हैं उन्हें सुधारने की कोशिस करें |
धर्मों की पुस्तक बनाने वाले भी हम ही हैं तो क्या हम उसमे गलत बातों का सुधार नहीं कर सकते ?
क्या आज का शिक्षित इंसान ऐसा धर्म मान सकता है | और नास्तिकता का मुख्य कारण भी यही है |

JC said...

मदन शर्मा जी, आपके सामने मैंने 'वैज्ञानिक' पक्ष रख दिया था और धर्म के आधार में उनके विभिन्न 'हिन्दू' मान्यता के अनुसार शक्ति के साकार रूपों में काल के साथ प्रतीत होते विभिन्न नाम, जैसे पृथ्वी के प्रतिरूप युधिस्ठिर/ लक्षमण/ शिव... जो 'मैं' जान पाया हूँ वो एक 'मेरा' निजी प्रयास था सार निकालने का अनेक प्राचीन विचारों के आधार पर जो 'हरी ॐ तत सत' द्वारा दर्शाया गया है प्राचीनतम सभ्यता द्वारा जो संकेत करता है केवल एक शक्ति रुपी जीव का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अकेले ही विद्यमान होने का...

और क्यूंकि वो न तो नारी हैं न पुरुष, 'द्वैतवाद' द्वारा उसे 'विष्णु' अथवा 'देवी' कहा गया, जिनके प्रतिरूप भौतिक रूप से अधिक शक्तिशाली 'पुरुष' रूप - राम/ कृष्ण आदि, अथवा आध्यात्मिक रूप से अधिक शक्तिशाली 'स्त्री' रूप - दुर्गा/ पार्वती आदि माना गया...

Rohit Singh said...

इतने कमेंट्स .....!!!!!!!!!!!!!!!!!!!चलिए छोड़िए खाइए पीजिए मस्त रहिए...

a.k.srisvatava said...

इतने सारे कमेंट्स यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा !
लगे रहो मदन भाई आप सही दिशा में जा रहे हैं . आप के विचारों से शायद ही कोई विरला होगा जो सहमत ना हो सके .

कविता रावत said...

बहुत दिलचस्प पोस्ट और करारा व्यंग लेखन के लिए बधाई!

S.M.Masoom said...

३२० टिप्पणियां और शायद २५-३० ब्लोगेर्स की शिरकत लेकिन नतीजा क्या निकला? कुछ ब्लोग्गेर्स के विचार अच्छे हैं. ज्ञान मैं वृधि हुई.

JC said...

@ श्री मदन शर्मा जी, 'मैं ' आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ वर्तमान की 'आम आदमी' की, हर क्षेत्र में, दयनीय अवस्था देख कर, विशेषकर स्त्रियों की सेहत, सुरक्षा आदि की... और 'मेरे' विचार से, जैसे हम अपनी अधिकतर पुरानी स्कूल / कॉलेज की किताबों को रोज सुबह उठ कर रटते नहीं, वैसे ही 'धर्म ग्रन्थों' को पढ़ते भी हैं तो लकीर के फ़कीर बन अपने दिमाग को ताला लगा उस पर मनन नहीं करना मूर्खता ही होगी (जैसा हरी वंश राय बच्चन ने भी मधुशाला में लिखा)...

इसी लिए एक सन '५८ का 'विज्ञान' का स्नातक, और इंजीनियरिंग का सन '६२ का होने के नाते 'सत्य' जानने का विचार आया, विशेषकर अपने साथ घटी कुछ विचित्र घटनाओं के कारण जब 'मैं' उत्तर-पूर्व क्षेत्र में ९ वर्ष से अधिक काल के लिए कार्यरत था - सत्तर के दशक के मध्य से अस्सी के दशक के मध्य तक... जबकि बचपन से ही 'मैं' केवल इतना मानता था कि कोई 'ऊपर वाला', निराकार शक्ति है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को चला रही है और 'मुझे' अपने ज़मीनी, अर्थात 'नीचे वाले', मानव व्यवस्था द्वारा रचित संरचना के भीतर अपने निर्धारित कार्य करने से मतलब हैं...

angel said...

कहते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध के बाद राजसूर्य यज्ञ सम्पन्न करके पांचों पांडव भाई महानिर्वाण प्राप्त करने को अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हुए मोक्ष के लिये हरिद्वार तीर्थ आये। गंगा जी के तट पर ‘हर की पैड़ी‘ के ब्रह्राकुण्ड मे स्नान के पश्चात् वे पर्वतराज हिमालय की सुरम्य कन्दराओं में चढ़ गये ताकि मानव जीवन की एकमात्र चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो और उन्हे किसी प्रकार मोक्ष मिल जाये।
हरिद्वार तीर्थ के ब्रह्राकुण्ड पर मोक्ष-प्राप्ती का स्नान वीर पांडवों का अनन्त जीवन के कैवल्य मार्ग तक पहुंचा पाया अथवा नहीं इसके भेद तो मुक्तीदाता परमेश्वर ही जानता है-तो भी श्रीमद् भागवत का यह कथन चेतावनी सहित कितना सत्य कहता है; ‘‘मानुषं लोकं मुक्तीद्वारम्‘‘ अर्थात यही मनुष्य योनी हमारे मोक्ष का द्वार है।
मोक्षः कितना आवष्यक, कैसा दुर्लभ !
मोक्ष की वास्तविक प्राप्ती, मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या तथा एकमात्र आवश्यकता है। विवके चूड़ामणि में इस विषय पर प्रकाष डालते हुए कहा गया है कि,‘‘सर्वजीवों में मानव जन्म दुर्लभ है, उस पर भी पुरुष का जन्म। ब्राम्हाण योनी का जन्म तो दुश्प्राय है तथा इसमें दुर्लभ उसका जो वैदिक धर्म में संलग्न हो। इन सबसे भी दुर्लभ वह जन्म है जिसको ब्रम्हा परमंेश्वर तथा पाप तथा तमोगुण के भेद पहिचान कर मोक्ष-प्राप्ती का मार्ग मिल गया हो।’’ मोक्ष-प्राप्ती की दुर्लभता के विषय मे एक बड़ी रोचक कथा है। कोई एक जन मुक्ती का सहज मार्ग खोजते हुए आदि शंकराचार्य के पास गया। गुरु ने कहा ‘‘जिसे मोक्ष के लिये परमेश्वर मे एकत्व प्राप्त करना है; वह निश्चय ही एक ऐसे मनुष्य के समान धीरजवन्त हो जो महासमुद्र तट पर बैठकर भूमी में एक गड्ढ़ा खोदे। फिर कुशा के एक तिनके द्वारा समुद्र के जल की बंूदों को उठा कर अपने खोदे हुए गड्ढे मे टपकाता रहे। शनैः शनैः जब वह मनुष्य सागर की सम्पूर्ण जलराषी इस भांति उस गड्ढे में भर लेगा, तभी उसे मोक्ष मिल जायेगा।’’

angel said...

हमारे भारत देश आर्यावृत का जन-जन और कण-कण अपने सृजनहार जीवित परमेश्वर का भूखा -प्यासा है। वैदिक प्रार्थनायें तथा उपनिषदों की ऋचाएं उसी पुरषोत्तम पतित-पावन को पुकारती रही है। पृथ्वी पर छाये संकटो को मिटाने हेतु बहुतेरे महापुरुष, भविष्यद्वक्ता, सन्त-महन्त या राजा-महाराजा जन्मे लेकिन पाप के अमिट मृत्यूदंश से छुटकारा दिलाकर पूरा पूरा उद्धार देने वाले निष्कलंक पूर्णावतार प्रेमी परमेश्वर की इस धरती के हर कोने में प्रतीक्षा थी।
तब अन्धकार मे डूबी एक रात के आंचल से भोर का सितारा उदय हुआ। स्वयं अनादि और अनन्त परमेश्वर ने प्रथम और अन्तिम बार पाप मे जकड़ी असहाय मानवता के प्रति प्रेम में विवश होकर पूर्णावतार लिया, जिसकी प्रतीक्षा प्रकृति एंव प्राणीमात्र को थी। वैदिक ग्रन्थों का उपास्य ‘वाग् वै ब्रम्हा’ अर्थात् वचन ही परमेश्वर है (बृहदोरण्यक उपनिषद् 1:3,29, 4:1,2 ), ‘शब्दाक्षरं परमब्रम्हा’ अर्थात् शब्द ही अविनाशी परमब्रम्हा है (ब्रम्हाबिन्दु उपनिषद 16), समस्त ब्रम्हांड की रचना करने तथा संचालित करने वाला परमप्रधान नायक (ऋगवेद 10:125)पापग्रस्त मानव मात्र को त्राण देने निष्पाप देह मे धरा पर आ गया।

angel said...

प्रमुख हिन्दू पुराणों में से एक संस्कृत-लिखित भविष्यपुराण (सम्भावित रचनाकाल 7वीं शाताब्दी ईस्वी)के प्रतिसर्ग पर्व, भरत खंड में इस निश्कलंक देहधारी का स्पष्ट दर्शन वर्णित है, जिसका संक्षिप्तिकरण इस प्रकार है:-

ईशमूर्तिह्न ‘दि प्राप्ता नित्यषुद्धा शिवकारी।
ईशा मसीह इतिच मम नाम प्रतिष्ठतम्।। 31 पद

अर्थात ‘जिस परमेश्वर का दर्शन सनातन,पवित्र, कल्याणकारी एवं मोक्षदायी है, जो ह्रदय मे निवास करता है, उसी का नाम ईसामसीह अर्थात् अभिषिक्त मुक्तीदाता प्रतिष्ठित किया गया।’
पुराण ने इस उद्धारकर्ता पूर्णावतार का वर्णन करते हुए उसे ‘पुरुश शुभम्’ (निश्पाप एवं परम पवित्र पुरुष )बलवान राजा गौरांग श्वेतवस्त्रम’(प्रभुता से युक्त राजा, निर्मल देहवाला, श्वेत परिधान धारण किये हुए )
ईश पुत्र (परमेश्वर का पुत्र ), ‘कुमारी गर्भ सम्भवम्’ (कुमारी के गर्भ से जन्मा )और ‘सत्यव्रत परायणम्’ (सत्य-मार्ग का प्रतिपालक ) बताया है।
मुक्तीदाता प्रभु यीशू ख््राीष्ट के देहधारी परमेश्वरत्व की उद्घोषणा केवल भारत के आर्यग्रन्थ ही नही करते ! अतिप्राचीन यहूदी ग्रन्थ ‘पुराना नियम’ प्रभु ख््राीष्ट के देहधारण से 700 वर्ष पूर्व साक्षी देता है-‘जिसमे कोई पाप नहीं था’ (यशायाह 53:9),‘जो कुमारी से जन्मेगा तथा उसका नाम इम्मानुएल अर्थात् ‘परमेश्वर हमारे साथ में रखा जायेगा (यषायाह 7:14)।

मदन शर्मा said...

श्रीमान एंजेल जी ये कहाँ की फ़ालतू अवैज्ञानिक बातों को ले कर आ गए आप !
इशु को आप महापुरुष कह सकते हैं | जिसने उस समय समाज में व्याप्त बुराइयों
के खिलाफ संघर्ष किया तथा अंत में इसी कारण उसे सूली पर चढ़ना पडा |
किन्तु उसे एक मात्र विशेष इश्वर पुत्र कहना उचित नहीं है .| एक नजर से देखा जाय
तो हम सब भी चाहे बुरे हों या भले , इश्वर पुत्र ही है | क्यों की वह परम पिता परमात्मा
ही हम सब का पिता है | जहां तक कुवारी के गर्भ से जन्म लेने की बात है
मै उसका विश्लेषण करना नहीं चाहूँगा | हो सकता है इससे आपको या एक
सम्प्रदाय विशेष को दुःख पंहुचे | मेरा यहाँ व्यर्थ के विवाद की कोई भी मनसा नहीं है |
मै पहले भी कह आया हूँ की ईश्वर निराकार है और आप भी मानते होंगे की
वह सर्व शक्तिमान है | तो उसे अवतार लेने की क्या आवश्यकता ?
क्या उसमे इतना भी सामर्थ्य नहीं की वह बिना देह धारण करे संसार को सुधार सके ?

JC said...

एंजेल जी और मदन शर्मा जी, जो 'मैंने' जाना, उसके अनुसार मान्यता है कि सृष्टि की रचना आरम्भ हुई ब्रह्मनाद (ॐ)/ 'बिग बैंग' से... और सृष्टि के पहले क्या था ? प्रभु यानी निराकार मौनी बाबा !!!

और, 'हिन्दू मान्यतानुसार' काल-चक्र उल्टा चल रहा है, अर्थात जैसे सागर-मंथन की कथा दर्शाती है, उत्पत्ति तो धरा से शिखर तक, 'सतयुग' की चरम सीमा तक, उसके प्रतिबिम्ब समान 'सागर-माथा' यानि ऐवेरेस्ट शिखर पर झंडा गाढ़ने समान थी,,, किन्तु हम पृथ्वी पर आधारित प्राणियों को जो 'प्रभु की माया' के कारण दीखता प्रतीत होता है वो शिखर से धरातल पर उतरने समान है, यानि उच्चतम से निम्नतम स्तर पर पहुँचने तक - 'स्वतंत्र भारत' में जवाहर लाल से 'मौनमोहन' तक... प्रकृति का संकेत देख पा रहे हैं न ?! :)

मदन शर्मा said...

दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनाई।
काहे बनाए तूने माटी के पुतले
दिल है काला मुखड़े हैं उजले।

काहे बनाया तूने दुनिया का खेला,
जिसमे लगाया जिंदगानी का मेला।
गुपचुप तमाशा देखे, वाह रे तेरी खुदाई,
काहे को दुनिया बनाई।

तू भी तो तड़पा होगा इसको बनाकर,
तूफां ये प्यार का मन में जगाकर
कोई कमी तो होगी आंखो में तेरी,
आंसू भी छलके होंगे पलकों से तेरी।
बोल क्या सूझी तुझको, काहे को प्रीत जगाई,
तूने काहे को दुनिया बनाई।

प्रीत बना के तूने जीना सिखाया,
हंसना सिखाया, रोना सिखाया।
जीवन के पथ पर मीत मिलाये,
मीत मिलाके तूने सपने जगाये,
सपने जगा के तूने, काहे को दे दी जुदाई
काहे को दुनिया बनाई।
तूने काहे को दुनिया बनाई।

prerana raman said...

हे राम ये मै क्या देख रही हु इतने ढेर सारे कमेंट्स !
हे भगवान् इन लोगो का भला करो ये नहीं जानते ये क्या कर रहे है
ये तो एक रिकार्ड ही बन जाएगा !
चलो ऐसा करो सब मदन जी की बात मान कर चुप चाप बैठ जाओ
अब अधिक बहस करने की जरुरत नहीं है
उनका पक्ष सही लगता है
जरा इस्लामिक वेब दुनिया पे भी तो नजर डाल लो की वहा पर क्या हो रहा है
आचार्य संजय द्विवेदी बन गए अहमद पंडित
कमला सुरेया ने आखिर इसलाम क्यों कबूला | इस्लामिक वेबदुनिया
मुस्लिम औरतों की जीवन-शैली पसन्द है | इस्लामिक वेबदुनिया

JC said...

प्रेरणा जी और मदन शर्मा जी, जरा सोचिये कि यदि कोई सर्वगुण संपन्न जीव अपने को इस अनंत ब्रह्माण्ड में अकेला ही विद्यमान जाने (जैसे उसके प्रतिबिम्ब समान भीड़ में भी हर व्यक्ति अपने को अकेला ही पाता है), तो उस बेचारे का क्या हाल होगा?

क्या वो अपने स्रोत को, यानि अपनी 'माँ' को, जानना नहीं चाहेगा? और अपने को निरंतर असफल नहीं पायेगा?

और, सर्वगुण संपन्न तो वो है ही, उसके लिए कुछ भी संभव है,,, फिर जैसे उनके प्रतिबिम्ब मनोरंजन अथवा ज्ञान वर्धन हेतु फिल्म देखते प्रतीत होते हैं अथवा टीवी / कंप्यूटर आदि, और तो और निद्रा में स्वप्न भी! तो क्या वो भी फिल्म समान अपने विचारों को अपनी ही आँख में, उसके अंदर ही, मन के भीतर कह लो, अनंत साकार प्रतीत होते प्रतिबिम्ब के माध्यम से वो खोज रहा नहीं हो सकता है अपनी माँ को?!!! जिसका प्रतिबिम्ब पार्वती द्वारा अमृत शिव के संहारकर्ता होने के कारण 'गणेश' को 'अपने शरीर के मैल ही से' पुतला बनाये जाने द्वारा दर्शाया जाता है, और उसी प्रकार जीसस के पवित्र मैरी के पुत्र होने को उन्हें 'भगवन का पुत्र' माना जाना :)

ramashish arya said...

haan ji ! sarthak post...

ramashish arya said...

@ समाचार में दस वर्षीय 'अवतार' नामक बच्चे को देखकर , जिसका पुनर्जन्म हुआ है , पर मंथन किया। पुनर्जन्म होता है । आत्माएं नया शरीर धारण करती हैं। लेकिन अधिकांशतः पूर्वजन्म की स्मृतियाँ शेष नहीं रह जातीं , इसलिए पता नहीं चल पाता की किस व्यक्ति का कहाँ जन्म हुआ है।
sahamat...

अंकित कुमार पाण्डेय said...

आपका आदेश स्वीकार है आदर्श व्यवस्था के आकांक्षियों द्वारा सुव्यवस्था पर विचार विमर्श के लिए प्रारंभ किया गया पहला विषय आधारित मंच , हम आप के सहयोग और मार्गदर्शन के आकांक्षी हैं |
सुव्यवस्था सूत्रधार मंच
http://www.adarsh-vyavastha-shodh.com/"

ZEAL said...

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भारत प्रवास के दौरान अस्वस्थता के चलते अंतरजाल से संपर्क टूट गया था. कोशिश रहेगी पुनः ब्लॉग्स पर सक्रीय हो सकूं . इस आलेख पर विद्वानों द्वारा इतनी विषद चर्चा से अत्यंत ज्ञान लाभ हुआ है , जिसके लिए आप सभी के लिए ह्रदय में आभार है.

ईश्वर charcha में जब आस्तिक और नास्तिक के मध्य बहस चलती है तो नास्तिकों के पास प्रश्न रहते हैं जिनके उत्तर आस्तिक व्यक्ति यथाशक्ति देते हैं . जैसे बच्चे नाराज़ होकर जिद्द पकड़ लेते हैं की स्कूल नहीं जाना , फिर माता पिता समझाते रह जाते हैं स्कूल और शिक्षा की महिमा , लेकिन जिद्द पर अड़ा हुआ बालक , कुछ सुनना ही नहीं चाहता . theek उसी प्रकार से नास्तिकों को उनके प्रश्नों का वैज्ञानिक उत्तर दिए जाने पर भी वे उसे नकार देते हैं , क्यूंकि उनका उद्देश्य उत्तर पाना नहीं , बल्कि ईश्वर की सत्ता को किसी भी हालत में नकार देना है.


उपरोक्त टिप्पणियों में दिवस जी , सुज्ञ जी , रोहित जी ने , मनोज भारती जी , JC जी ने तथा मदन शर्मा जी ने अकाट्य तर्क और उत्तर दिए हैं . जिसके बाद दुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता.

मिश्रा जी की कविता अत्यंत सार्थक एवं विचारणीय है.

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ZEAL said...

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बच्चे कहाँ से आये , इस बात पर तो माता-पिता की सत्ता स्वतः स्वीकार कर ली जाती है , लेकिन समस्त सृष्टि की रचना एवं संचालन करने वाले की सत्ता को नकार देना कुछ समझ नहीं आता.

प्रमोद ताम्बट जी कहते हैं की पढ़े लिखे लोग भी गंवारों की तरह ईश्वर को मानते हैं . मेरा प्रश्न है की क्या शिक्षा हमें इतना अहंकारी बना देती है की हम सर्वशक्तिमान को ही नकार दें ? क्या ईश्वर में आस्था रखना अनपढ़ और गंवार होने की निशानी है ? जो आस्तिक है वो अन्धविश्वासी और गंवार है ? जो नास्तिक है वो ही शिक्षित एवं समझदार है?

जैसे पढ़- लिखकर लोग आज अपने माता-पिता तो अनुपयोगी समझ उन्हें तिरस्कृत karte हैं , क्या उसी तरह हमारी शिक्षा हमें वेदों में लिखे अथाह ज्ञान से दूर कर रही है ?

जो सोचता है और चिंतन करता है , वही वैज्ञानिक है . आखिर वैज्ञानिक भी तो पूर्व में हुयी सृष्टि की रचना पर ही तो शोध कर रहे हैं , क्या वे दूसरी parallel सृष्टि की रचना कर पायेंगे ? क्या वे सृष्टिकर्ता बन पायेंगे? विज्ञान का अर्थ है किसी भी तथ्य को प्रमाणिक साबित करना , न की तथ्योँ को नकार देना

आज के जो शिक्षित हैं , क्या उनका dharm है , पूर्व के ज्ञानियों , मनीषियों , आप्तजनों एवं विद्वानों की बातों को काटना ? वेदों और upnishandon में उपलब्ध ज्ञान भण्डार , जो पूर्णतया वैज्ञानिक है , वो व्यर्थ है ?

.

Bharat Bhushan said...

आपके लौटने से अच्छा लग रहा है. अब मज़ा आएगा टिप्पणीकारों को.

Bharat Bhushan said...

तथापि यदि आराम आवश्यक हो तो पहली वरीयता उसे दें.

Rakesh Kumar said...

दिव्या जी,
बहुत बहुत धन्यवाद आपका.आखिर 'दिव्य' वाणी इतने दिनों बाद सुनने को मिली.आपका नास्तिकों को 'जिद्दी बच्चा' कहना कितना सही लगा नास्तिकों को यह तो समय ही बताएगा,अभी तो परमाणु विष्फोट के समान "Chain reaction' चल रहा है टिप्पणियों का.
चौथा शतक भी लगा ही समझो.
अग्रिम बधाई चौथे शतक के लिए.
काश!अब पाँचवा भी जल्दी पूर्ण हो.
मेरे ब्लॉग का भी ध्यान रखें.

Rakesh Kumar said...

विज्ञान यदि 'जीरो' और 'अनन्त' को न माने तो उसके सारे पैमाने ही निराधार हो जायेंगें. जबकि न तो 'जीरो' का और न ही 'अनन्त' का पूर्ण आकलन या इन तक पहुँच पाने में असमर्थ है विज्ञान.बिंदु की परिभाषा से (जीरो लम्बाई,जीरो चौड़ाई,जीरो ऊंचाई) से क्या बिंदु तक कभी पहुँच सकते है.फिर भी बिना बिंदु के सारा गणित(ज्यामिति) ही
निष्फल हो जायेगी.विज्ञान में 'Assumption' का कितना महत्व है यह एक वैज्ञानिक ही जान सकता है.

Rakesh Kumar said...

दैवी गुणों (दया,प्रेम,अहिंसा,अभय,आदि) का विकास 'ईश्वर' की
उचित परिकल्पना से आसान हो जाता है.वैसे नास्तिकों के लिए भी
'सत्-चित -आनंद'या 'अहं ब्रह्मास्मि ' की परिकल्पना आराम देनेवाली हो सकती है.

Rakesh Kumar said...

४०१ वीं टिपण्णी शुभ और मंगलकारी हो.
मेरा ईनाम न भूलिएगा दिव्या जी.

JC said...

कोई न कोई तो कारण बनता है किसी के भी जीवन में किसी बिंदु विशेष तक अपनाए गए विचारों में अचानक परिवर्तन लाने अथवा होने का, जैसे गाँधी जी को अफ्रीका में प्रथम श्रेणी के रेल के डब्बे से उतारा जाना कहा जाता है उनके अपने जीवन में तब तक अपनाए जाते आ रहे विचारों से पलटने का कारण बना... और वर्तमान में भले ही कुछ युवक उनकों दोषी मानें 'आम आदमी' के जीवन में वर्तमान दुःख भोगने का, जैसे कुछ 'एडम्स एप्पल' को मानते हैं ईव के माध्यम से एडम का 'शैतान द्वारा दिए गए 'वर्जित फल' खाने को (भले ही वो सांकेतिक भाषा में कहा गया, क्यूंकि हिन्दू मान्यतानुसार, गले को राक्षश राज शुक्राचार्य, यानी शुक्र ग्रह के सार का स्थान माना गया)...

अपने अनुभव के आधार पर, ऐसे ही 'मैं' भी, ("कहाँ राजा भोज, और कहाँ गंगवा तेली" :) कह सकता हूँ कि अस्सी के दशक में परेशानियों के बाद 'गीता' पढ़ 'कृष्ण पर आत्म-समर्पण' के बारे में पढ़ 'सत्य' खोजने का सुझाव मिला... फिर लगा कि आप यदि एक बार यह मानलें कि केवल एक ही शक्तिरूप (ॐ) है जिसके आधीन तीन ('३') तरह के काम आते हैं - साकार प्रतीत होती अनंत रचना, उनमें से हरेक का विभिन्न काल तक पालन, और फिर उन्हें नष्ट कर दूसरे किसी साकार रूप में काल-चक्र में ले आना - तब संभव है कि आपके दृष्टिकोण में परिवर्तन आजाये...

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