Friday, June 22, 2012

चिरस्थायी प्रेम

प्रेम जैसे विराट विषय पर शोध जारी है। कौतूहल इसे समझने का , नित नए विचारों को जन्म देता है। दो प्रेम करने वालों के मध्य परस्पर बात-चीत एवं आपसी व्यवहार के आधार पर एक निष्कर्ष निकलता है की जिसे वो प्रेम की संज्ञा दे रहे हैं उसमें प्रेम का प्रतिशत २० और आकर्षण ८० प्रतिशत होता है।

प्रेम , पूरी तरह से समर्पण है , जिसमें प्रेम करने वाला व्यक्ति स्वयं को भुलाकर उसकी खुशियों के लिए ही जीता है। जबकि इसके विपरीत आकर्षण उस व्यक्ति में घनिष्ठता और निकटता पाने की अभिलाषा पैदा करता है। अधिकार चाहता है और अपेक्षाएं पैदा करता है।

प्रेम में व्यक्ति डूबता जाता है और परमानंद को प्राप्त करता है , जबकि आकर्षण , व्यक्ति को भ्रमित करता है और इसकी परिणति कभी भी 'आनंद' नहीं हो सकती।

मुझे लगता है हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करता है। लेकिन उस तथाकथित प्रेम में शुद्ध-प्रेम का प्रतिशत सिर्फ उतना ही है जिसमें उसका समर्पण प्रधान होता है। शेष सिर्फ आकर्षण है जो चिरस्थायी नहीं है।

आकर्षण से प्रेरित हुयी बातें मस्तिष्क में टिकती नहीं है, एक अवधी के बाद याद भी नहीं रहतीं। जबकि प्रेम में, आत्माओं के एकाकार हुए क्षणों में ह्रदय से निकले शब्द मन-मस्तिष्क में अपना घर बना लेते हैं।

मानव और माहि के बीच हुए अनेक संवाद आज भी उनकी स्मृतियों में जीवित हैं। यथा---

"माहि मैं इस जीवन में कुछ अधूरा छोड़ जाऊँगा ताकि अगले जीवन में तुम्हें फिर से पा सकूं..."

"माहि, तुम सायादार वृक्ष हो....तुम जीवन देने वाला फल-फूल से लदा हुआ वृक्ष हो.... तुम मेरे लिए जीवनदायिनी प्राणवायु हो.....

"माहि तुम्हारी ज़रुरत सिर्फ मुझे ही नहीं , पूरे समाज को है। मैं तुम्हारे लिए जियूँगा , तुम्हारी रक्षा करूंगा , ताकि तुम अपनी ममता से हम सभी को सींच सको...."

19 comments:

Rajesh Kumari said...

बहुत सच्ची और बहुत अच्छी बात कही है प्रेम सभी करते हैं प्रेम के रूप अलग हैं अक्सर आकर्षण को लोग प्रेम की संज्ञा दे डालते हैं जो चार दिन में धूमिल हो जाता है असली प्रेम समर्पण और त्याग में है डिमांड में नहीं अपेक्षा में नहीं

प्रतिभा सक्सेना said...

मानव-स्वभाव बड़ा विचित्र है - जिसे समझना मुश्किल !

Arshad Ali said...

प्रेम , पूरी तरह से समर्पण है , जिसमें प्रेम करने वाला व्यक्ति स्वयं को भुलाकर उसकी खुशियों के लिए ही जीता है।
AAPSE PURI TARAH SE SAHMAT HUN.

ANULATA RAJ NAIR said...

जो चिरस्थाई है वही प्रेम है.........
जो घटता बढ़ता या गुम होता जाए वो भ्रम है....

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

puri tarah se sahmat hoon

प्रवीण पाण्डेय said...

चिर स्थायी प्रेम जितना कठिन होता है, उतना ही आनन्दमयी।

Dr.NISHA MAHARANA said...

sahi bat hai ..prem ko samjhna bahut kathin hai log aakarshan ko prem ka naam de dete hain...

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

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ब्लॉ.ललित शर्मा
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Maheshwari kaneri said...

प्रेम समर्पण है,
भावों का अर्पण है
प्रेम कोई अभिलाषा नहीं ,
सिर्फ न्योछावर है ।........

amit kumar srivastava said...

न किसी ने किया , न किसी को किया | इसलिए पूर्णतः अनभिज्ञ हूँ |

vandana gupta said...

प्रेमी के प्रति पूर्ण समर्पण ही तो वास्तविकता मे प्रेम होता है।

vineet kumar singh said...

क्या मैं बोलूं और क्या ना बोलूं कुछ समझ नहीं आ रहा है

मेरी जिंदगी में भी कुछ प्यार आये हैं जो अभी तक बने हुए हैं और आगे भी बने रहेंगे, ये प्यार हैं मेरे दादा-दादी का प्यार, माता-पिता, भाई-बहनों, दोस्तों और कुछ सच्चे लोग इस रस्ते पर मिले जिनसे सच्चे दिल से जुड़ मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता हूँ और ये लोग मुझे अपना छोटा भाई मानते हैं और मैं भी दिल से उन्हें आदर और प्यार देते हुए अपना भाई और बहन मानता हूँ| (इसके अलावा अभी दुसरे तरह का प्यार नहीं है मेरे साथ) पर ये प्यार जो अभी मेरे साथ हैं ये कैसे जीवनपर्यंत चलेगा? ये एक बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है| इसके लिए जो सच्चाई मैं आज दिखा रहा हूँ या मेरे पास है उनके लिए वो हमेसा बनी रहनी चाहिए| मुझे तैयार रहना चाहिए की अगर मैं कहीं गलत हूँ तो जो मेरे से बड़े हैं या छोटे भी हैं वो मुझे समझा सकें| पर अगर मेरा अहम् कहीं आड़े आएगा तो ये सारे रिश्ते जो किसी भी इन्सान के जीवन की कमाई होते हैं एक ही झटके में रेत के सामान हाथ से फिसल जायेंगे और बचेगा कुछ भी नहीं| इन सभी रिश्तों के लिए एक एहसास, एक लगाव, एक जुडाव, एक झुकाव, एक मान्य स्थान और सबसे अहम् बात एक आदर होना चाहिए|

ऐसा मेरा मानना है कृपया इसे अन्यथा ना लीजियेगा

महेन्‍द्र वर्मा said...

वास्तविक और चिरस्थायी प्रेम में निरंतरता होती है, आकर्षण घटता-बढ़ता है।

छिनहिं चढ़ै छिन उतरै, सो तो प्रेम न होय,
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय।
-कबीर

लोकेन्द्र सिंह said...

आज सड़कों पर, पार्कों में और यहाँ वहां जो दिख रहा है वह प्रेम नहीं प्रेम के नाम कलंक है...

स्वाति said...

बहुत हीं उत्तम बात कही है आपने....जो प्रेम समझे उसका जीवन सफल है....

nayee dunia said...

bahut badhiya........

Ramakant Singh said...

बहुत कठिन हो जाता है प्रेम को परिभाषित कर पाना .न जाने कब वह बदल जाती है आसक्ति में ,और कब बदल जाती है श्रद्धा में ,प्रेम का स्वरुप भी आकारहीन
है . आपकी विवेचना मन को भा गई .बस आप यूँ ही लिखा करिए ..आनंद आनंद अति आनंद ......

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

प्रेम समर्पण चाहता, आकर्षण अधिकार |
प्रेम मधुर झंकार है,आकर्षण बस तार ||

प्रतुल वशिष्ठ said...

सुन्दर विचार....
टिप्पणियाँ भी बहुत बढ़िया लगीं.