क्या अकेला चना कभी भाड़ फोड़ सकता है ?
जब भी कहीं किसी देश में , किसी मुद्दे पर क्रांति आती है तो यह बिना जन-चेतना के संभव नहीं है। हर क्रान्ति के पहले वैचारिक-क्रांति का मस्तिष्क में होना सबसे जरूरी है। इसी को जागरूकता कहते हैं । यह जागरूकता कैसे आती है ? संवाद से , मीडिया से , पठन से विमर्श आदि से ।
आज कम्पूटर द्वारा , अनेकों वेब-साईट्स पर , फेस-बुक पर , ट्विट्टर पर , ब्लॉगिंग द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुंचा जा सकता है। अपने विचारों को अनेक लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। लोगों की आवाज़ में आवाज़ मिलाना संभव हुआ है । Information और technology की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
संचार के माध्यम से हिंसा-रहित , बिना खून-खराबे के , विचारों का आदान-प्रदान संभव हो सका है । जन चेतना जगाने में आधुनिक तकनीक की महती भूमिका है।
व्यस्तता के इस दौर में जहाँ रोजी-रोटी के लिए व्यक्ति हड्डी-तोड़ मेहनत कर रहा है , और उसके पास आन्दोलनों में सड़क पर उतरने का वक़्त नहीं है , वहाँ पर संचार माध्यम से अपनी बात को लिखकर अपना योगदान कर पा रहा है बच्चा-बच्चा। और यही लिखित शब्दों की ताकत ही है जो समाज को , क्रांति की नयी ऊर्जा से भर रहा है ।
कितने ही लोग सड़क पर उतरकर आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन पाते , अनशन पर भी नहीं बैठ पाते , लेकिन वे लेखन के माध्यम से अपना योगदान करना चाहते हैं , अपनी आवाज़ क्रांतिकारियों की आवाज़ में मिलाना चाहते हैं और हर क्रान्ति को सफल बनाने के लिए वैचारिक क्रांति लाना चाहते हैं। तो क्या लेखन में समय देना व्यर्थ है??
कोई भी क्रान्ति किसी एक के लाने से नहीं होती , जन-जन का सहयोग जब विभिन्न स्तर पर होता है , और लोग जी-जान से समर्पित होते हैं , वैचारिक क्रांति उन पर पूरी तरह छा जाती है , तभी कोई क्रांति अपना रंग लाती है।
क्या लेखक जो अपने लेखन से विचारों के बीज बोता है और विचारों को पैदा करता है , उसे आयाम देता है , और समय के साथ उसमें से क्रांति के अंकुर फूटते हैं , क्या यह भूमिका नगण्य है ?
Zeal
जब भी कहीं किसी देश में , किसी मुद्दे पर क्रांति आती है तो यह बिना जन-चेतना के संभव नहीं है। हर क्रान्ति के पहले वैचारिक-क्रांति का मस्तिष्क में होना सबसे जरूरी है। इसी को जागरूकता कहते हैं । यह जागरूकता कैसे आती है ? संवाद से , मीडिया से , पठन से विमर्श आदि से ।
आज कम्पूटर द्वारा , अनेकों वेब-साईट्स पर , फेस-बुक पर , ट्विट्टर पर , ब्लॉगिंग द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुंचा जा सकता है। अपने विचारों को अनेक लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। लोगों की आवाज़ में आवाज़ मिलाना संभव हुआ है । Information और technology की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
संचार के माध्यम से हिंसा-रहित , बिना खून-खराबे के , विचारों का आदान-प्रदान संभव हो सका है । जन चेतना जगाने में आधुनिक तकनीक की महती भूमिका है।
व्यस्तता के इस दौर में जहाँ रोजी-रोटी के लिए व्यक्ति हड्डी-तोड़ मेहनत कर रहा है , और उसके पास आन्दोलनों में सड़क पर उतरने का वक़्त नहीं है , वहाँ पर संचार माध्यम से अपनी बात को लिखकर अपना योगदान कर पा रहा है बच्चा-बच्चा। और यही लिखित शब्दों की ताकत ही है जो समाज को , क्रांति की नयी ऊर्जा से भर रहा है ।
कितने ही लोग सड़क पर उतरकर आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन पाते , अनशन पर भी नहीं बैठ पाते , लेकिन वे लेखन के माध्यम से अपना योगदान करना चाहते हैं , अपनी आवाज़ क्रांतिकारियों की आवाज़ में मिलाना चाहते हैं और हर क्रान्ति को सफल बनाने के लिए वैचारिक क्रांति लाना चाहते हैं। तो क्या लेखन में समय देना व्यर्थ है??
कोई भी क्रान्ति किसी एक के लाने से नहीं होती , जन-जन का सहयोग जब विभिन्न स्तर पर होता है , और लोग जी-जान से समर्पित होते हैं , वैचारिक क्रांति उन पर पूरी तरह छा जाती है , तभी कोई क्रांति अपना रंग लाती है।
क्या लेखक जो अपने लेखन से विचारों के बीज बोता है और विचारों को पैदा करता है , उसे आयाम देता है , और समय के साथ उसमें से क्रांति के अंकुर फूटते हैं , क्या यह भूमिका नगण्य है ?
Zeal
73 comments:
लेखक की भूमिका क्रांति में नगण्य नहीं होती।
bahan aapne aavaz di hm aapke or desh ke desh ke sbhi piditon ke sath hain ..akhtar khan akela kota rajsthan
इतिहास गवाह है की जब भी क्रांति का बिगुल बजा उसके पीछे कलम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.वैचारिक क्रांति लाने में लेखक का प्रमुख योगदान होता है, वही बिना सड़क पर उतरे कोई क्रांति आकार नहीं ले सकती. सड़क पर यदि कलम पकड़ कर उतरे तो सोने पर सुहागा. इसे भी कहना सामयिक होगा की कोई भी क्रांति बंद कमरों में बैठ कर नहीं की जा सकती उसके लिए तो सीना खोलकर गोली खाने के लिए भगत सिंह और रामप्रशाद बिस्मिल बनना ही होगा. कलम उद्देलित तो कर सकती है रास्ता भी दिखा सकती है ,हुंकार भी भर सकती है मगर हर क्रांति में संकलित बंद मुट्ठियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है .
लेखक और विचारक की भूमिका , नगण्य नहीं होती बल्कि क्रांति का सूत्रपात लेखक और विचारक ही करते हैं. फ़्रांसिसी क्रांति का उदाहरण हमारे सामने है , जिसमे, रूसो और वोल्टेयेर के लिबर्टी , equality और fraternity के सिद्धांतों ने ही क्रांति का बीज बोया था
सार्थक आलेख ! बधाई !
.
देखा जाये तो लेखक ही क्राँति का असली सूत्रधार होता है.. वह व्यवस्था की बखिया तो उधेड़ता ही है, क्राँति के कारणों की वैचारिकता पर भी नज़र रखता है ।
French revolution is the best example for this one. Thoughts used to arise in mind and blow through pen ,its other matter how countrymen take it . Appreciable .
कभी किसी लेखक ने कहा था :
खींचो न तीर-ओ-कमान, न तलवार निकालो.
जब तोप मुक़ाबिल हो, तो अखबार निकालो.
........... आपके लेख इस दिशा में ही उठाये कदम हैं.
क्या यह भूमिका नगण्य है ?
.
बिलकुल नगण्य नहीं है लेकिन कितने ऐसे लोग हैं जो अपनी लेखनी से क्रांति ला रहे हैं? शायद बहुत कम
अकेला चना भाड़ तो नही फ़ोड़ सकता पर,
भड़भूजे की आंख फ़ोड़ सकता है,
अर्थात बहुत कुछ कर सकता है,
और कर भी रहा है, अर्थपूर्ण लेख ।
जिस युग ने भी साहित्यकार या लेखक को हाशिए पर डाला है, उस युग का पतन ही हुआ है। लेखक हमारी चेतना को जागृत करता है। साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं के द्वारा जन-जन में अपना विचार अंकुरित करता है। कभी वह कहानीकार बनता है, कभी कवि बनता है, कभी उपन्यासकार बनता है और कभी निबंधकार या व्यंग्यकार आदि। बिना लेखन के कोई भी क्रान्ति या आंदोलन सम्भव ही नहीं है।
कभी नहीं...लेखन ने ही कितनी क्रांतियों को रंग दिया.
बेशक क्रांतियों का आरंभ लेखन से ही होता है......
as they say...."PEN IS MIGHTIER THEN SWORD"....
विचार पल्लवित होते हैं तभी क्रान्ति आती है।
लेखन से क्राँति आये य न लेकिन चेतना पर असर तो होता है जो कभी न कभी अपना असर दिखाता है। शुभकामनायें।
विचारों की क्रांति सबसे तेज धधकने वाली क्रांति है . इतिहास गवाह है और भविष्य भी साक्षी बनेगा ऐसे वैचारिक क्रांतियों का .
दुनियां के किसी भी महान क्रांति के पीछे क्रन्तिकारी विचारों (साहित्य ) का महत्वपूर्ण योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है,
क्या लेखक जो अपने लेखन से विचारों के बीज बोता है और विचारों को पैदा करता है , उसे आयाम देता है , और समय के साथ उसमें से क्रांति के अंकुर फूटते हैं , क्या यह भूमिका नगण्य है ?
yun hi nahi kahte kalam badee yaa talwaar .
दिव्या जी, पृष्ठभूमि देखने का प्रयास करें तो हम देख/ जान सकते हैं कि "परिवर्तन प्रकृति का नियम है", कह गए ज्ञानी-ध्यानी... हमारी और अनंत काल से चले आ रहे सभी प्राणीयों का आधार पृथ्वी आरम्भ में एक आग का गोला थी जो प्राकृतिक उत्पत्ति के कारण कई सदियों से (कम से कम) बाहर से सुंदर प्रतीत होती आ रही है - अनेकों प्राकृतिक अथवा मानव द्वारा रचित क्रांतियों, युद्धों, भूमिगत एटम बम/ ज्वालामुखी आदि विस्फोटों, जंगल की आग, बाढ / सूखे आदि के पश्चात भी - यद्यपि वो भीतर सदैव आग का गोला ही रही है, कह गए वैज्ञानिक... और "सत्यम शिवम् सुन्दरम" अथवा सत्यमेव जयते", कहा योगियों ने, और आधुनिक वैज्ञानिकों (जैसे कार्ल सेगान) ने भी माना कि हमारे ब्रह्माण्ड में प्रकृति की विविधता को दर्शाती हमारी पृथ्वी ही ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर है... और वैज्ञानिकों ने अनंत ब्रह्माण्ड को वास्तव में निरंतर गुब्बारे समान फूलते पाया,,, यानि महाशून्य,,, और साकार रूप में उसके भीतर व्याप्त अनंत आकार और संख्या में अस्थायी गैलेक्सियों में स्थित हमारी 'मिल्की वे गैलेक्सी' (गोकुल?) के केंद्र में स्थित शून्य ('अकेले चने' समान विष्णु, नाद बिन्दू, के अष्टम अवतार 'कृष्ण'?) और उसके भीतर, दूर किनारे की ओर मक्खन समान उपस्थित सौर-मंडल (महाशिव?) को मानव शरीर के माध्यम से ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप दर्शाया...
उपरोक्त के अतिरिक्त, 'सुदर्शन-चक्र' समान अपने केंद्र के चारों ओर घूमती गैलेक्सी के समान काल-चक्र को भी समय की प्रकृति को मानव रूप की बदलती क्षमता के द्वारा समझ पाना भी संभव (सतयुग में १००% से कलियुग में ०%, अनंत ब्रह्मा के एक दिन में १०८० बार, और फिर ब्रह्मा की अँधेरी रात :)...
lekhni ki takat ek alag prakar ki hoti hai jo kisi bhi halat men nagany nahin hai.
कलम की ताकत को किसी भी तरह कम नहीं आंका जा सकता..
बेहद सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति ।
DIVYA MAM LEKHAN KE BINA KARANTI SHAYAD ASAMBHAV HAI. . . LEKHAK KI LEKHNI WO SAB KUCH KAR SAKTI HAI JO EK YODDHA KI TALWAR BHI NAHI KAR SAKTI. . . . . . . . .
JAI HIND JAI BHARAT
भुन रहे हैं तो भुनते जाइये -
धुन रहे हैं सिर धुनते जाइए |
एकदिन होकर इकट्ठे ये चने --
उस भाड़ को ही फोड़ डालेंगे, सुने !!
लेखन में विचारों का प्रादुर्भाव, क्रांतियों का भूत, भविष्य और वर्तमान निहित होता है
किसने कह दिया लेखक की भूमिका नगण्य हो्ती है………।
अकेला चना जब दूसरे चनों का आदर्श बन जायेगा तो भाड़ भी फोड सकता है और परिवर्तन भी ला सकता है !
बिना लेखक के कोई क्रांती सफ़ल नही हो सकती विद्रोह के बीज को पल्लवित करना लेखको का ही काम है
विचार पल्लवित होते हैं तभी क्रान्ति आती है। बेहद सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति ।
नगण्यता कहाँ इस वैचारिक क्रांति का वास्तविक सूत्रधार तो यह लेखक ही है ।
बिल्कुल नगण्य नहीं है जी।
इतिहास में सैंकड़ो ऐसे उदाहरण हैं, जब लेखनी ने तख़्तों को हिला दिया।
आपकी लेखनी इसका उदाहरण है दिव्या जी ... बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप ।
jo chadh gaye punya vedi par
liye bina gardan ka mol ,
kalam aaj unki jay bol.
kalam ke yogdan ko to swatantra aandolan bhi nahi nakar sakta fir ham a aap kaun hote hain?
aur rahi akele chane ki bat to ye-
''main akela hi chala tha zanibe manzil magar,
log sath aate gaye aur kafila badhta gaya.
पर परचम तो किसी एक को ही थामना ही पड़ता है।
चिंगारी को हवा देना होता है... सुगवुगाहट तो पहले से होती ही है॥
Sarthak vichar
मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास हैआप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.
दिल्ली पुलिस काकोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें.मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?
मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.
मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो
लेखक नेपथ्य में रहकर हमेशा क्रान्ति का संचालन करता है..क्रान्ति के बीज बोना ..उसे पुष्पित...पल्लवित करने का कार्य लेखक ही करता है.
भले ही क्रान्ति का फल मिलने के बाद उसे हाशिए पर डाल दिया जाए. परन्तु उसके योगदान को कोई नकार नहीं सकता.
आपने सही कहा है
क्रांति में जब लेखक शामिल होता है तो सरकारें थर्रा जाती हैं।
विनायक दामोदर सावरकर रचित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर‘ संभवतः विश्व की पहली पुस्तक है, जिसे प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस पुस्तक के प्रकाशन की संभावना मात्र से ब्रिटिश साम्राज्य इतना थर्रा गया कि उसने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया। फिर भी इसके अनेक गुप्त संस्करण निकले।
यह पुस्तक देशभक्त क्रांतिकारियों की गीता बन गई। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई अनेक अंतःकरणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक लेखकों की महती भूमिका थी।
हर क्रांति में तलवार का प्रयोग नहीं होता. परन्तु, कलम का प्रयोग जरुर होता है.
गाँधी जी ने अकेले ही क्रांति की अलख जगाई थी, परिणति देश की के रूप में हुआ.
अतः ये कहना की अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता उचित नहीं होगा.
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मुझे जूता लेना है !
*परिणति देश की आज़ादी के रूप में हुआ
क्रांति का आगाज़ ही लेखनी होती। वि्लक्षण विचार कलम से ही जनमते है। कलम ने सदैव योद्धाओं में शौर्य का संचरण किया है। कलम ही क्राति के महत्व को रेखांकित और महिमावान बनाती है।
main aap ke vicharon se aur shri patil ji ke vicharon se bhi poorn roop se sehmat hoon kiविचार पल्लवित होते हैं तभी क्रान्ति आती है। very nice post keep writting
नगण्य क्यों...उसकी भूमिका तो अग्रणी है
हंसी के फव्वारे में- हाय ये इम्तहान
क्या यह भूमिका नगण्य है ?
No, no and never.
उसकी भूमिका तो अग्रणी है विचार कलम से ही जनमते है और कलम ही क्राति के महत्व को रेखांकित और महिमावान बनाती है।
लेखक लोग तो आपका साथ देंगे ही...मै भी...विचार एक बीज की तरह होते हैं...जो उर्वर भूमि में ही पनपते हैं...यहाँ पूरी धरा बंजर प्रतीत होती है...क्या गाँधी, क्या अन्ना, क्या बाबा...धूर्त और दुष्ट लोग उनकी भी हंसी उड़ाने से नहीं चूकते...सोते हुए को जगाया जा सकता है...पर जगे लोगों का क्या किया जाए...
Great thought and easy to impress mass by a writer can't be ignored.
किसी भी क्रान्ति के सूत्रपात में तथा उसके परवान चढने की प्रक्रिया में लेखकों के योगदान को कतई नकारा नहीं जा सकता ! सशरीर आंदोलन करने वाले तो चंद ही भाग्यशाली होते हैं लेकिन उनके लक्ष्य और साधना को आम जनता का सहयोग और बल लेखकों की प्रेरणा से ही मिलता है ! इतने सार्थक आलेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई !
सृष्टि का प्रारम्भ भी कभी अकेले से ही हुआ होगा. एक से अनेक होते हुये कहां तक पहुंच गये. एक और एक ग्यारह, एक सौ ग्यारह भी हो जाते हैं. इसलिये एक अकेला भी किसी चिंगारी को शोला बना सकता है. कलम का सिपाही तोपों के मुंह भी खुलवा सकता है.
लेखक की भूमिका कहीं भी नगण्य नहीं होती.
हर क्रांति में लेखन की बड़ी भूमिका होती है, बढ़िया आलेख,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
akela chana bhaand for sakta hai :)
बिलकुल दीदी, लेखक का योगदान अतुलनीय होता है...कलम से भी क्रान्ति आती है...हाँ यह सच है कि हर कोई सड़क पर उतर कर विरोध नहीं कर सकता...दरअसल विरोध का कोई भी संवैधानिक व नैतिक तरीका अपनाना कोई बुरा तो है नहीं...लेखन भी ऐसा ही एक तरीका है...
भगत सिंह भी देशवासियों का पौरुष जगाने के लिए पुराने क्रांतिकारियों पर लेख लिखकर उसके पर्चे बंटवाते फिरते थे...
सबकी अपनी ताकत होती है...कोई लिखने में अच्छा है तो लिखकर अपनी आवाज रख सकता है...कोई बोलने में अच्छा है तो भाषण के द्वारा काम चला सकता है...कोई चित्रकारी में अच्छा है तो चित्रों के माध्यम से अपनी बात रख सकता है...कोई गाने में अच्छा है तो गाकर लोगों को जगा सकता है...
कुछ भी करें कुछ अच्छा होना चाहिए...
लेखन तो एक बेहद कारगर तरीका है...इसके द्वारा बड़ी से बड़ी सत्ताओं को उखाड़ा जा सकता है...
अत; क्रान्ति की राह में लेखक का योगदान बहुत बड़ा होता है...
कुछ लोगों को यह भी लगता है कि इंटरनेट पर लिखने से बहुत कम लोगों तक अपनी बात पहुँचती है...
यह सच है किन्तु फिर भी कारगर है...इंटरनेट का उपयोग पढ़े लिखे लोग ही करते हैं...परिवर्तन के लिए पढ़े लिखे व ताकतवर लोगों को साधना बेहद जरुरी है, जो कि इंटरनेट के द्वारा संभव है...
डॉ० दिव्या जी बहुत ही सुंदर और सार्थक लेखन के लिये आपको बधाई और शुभकामनाएं |
टिप्पणी की लम्बाई के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
वर्तमान में समय के साथ क्षेत्रफल में विभिन्न शक्तियों के मिले जुले प्रयास से निरंतर घटते 'भारत' में, जो कभी 'महाभारत' था, क्या 'हम भारतवासियों' को यह जानने की इच्छा नहीं होती कि कैसे हमारे पुराणों आदि में किसी प्राचीन सभ्यता द्वारा सांकेतिक भाषा में लिखित शब्द आज भी उपलब्ध हैं? जबकि संसार में कई अन्य देशो में भी भूत में कई प्रगतिशील सभ्यताएं पनपीं और फिर युद्ध आदि के कारण वे लुप्त-प्राय हो गयीं और उनके बारे में अधिक ज्ञानवर्धन लिखित शब्दों से कम और खुदाई द्वारा और उसके बाद विभिन्न अनुमानों के प्रसार द्वारा अधिक हो रहा है, और वो सार्थक कर रहा है कथन को कि "इमारत कभी बुलंद थी", यानि उनके निर्माण कर्ता भी कम नहीं थे, भले ही वो प्राचीन मिस्र निवासी रहे हो अथवा यूनानी, या दक्षिण अमेरिका में कुछ सभ्यताएं, माया (जिनके कैलेण्डर ने ही संसार को हिला के रख दिया है!), इन्का, आदि, आदि! प्राचीन हिन्दू इसे "हरी अनंत/ हरी कथा अनंता...आदि" कह गए ...
'भारत' में वर्तमान में देखें तो पता चलता है कि प्राचीन ज्ञानियों के अनुसार 'कलियुग' (युग का नियंत्रक शून्य काल और स्थान से सम्बंधित अजन्मे और अनंत योगेश्वर विष्णु के 'कलिकावतार', यानि पृथ्वी के केंद्र में, विषधर नागों के आवास पाताल में, गुरुत्वाकर्षण शक्ति) चार लाख बत्तीस हज़ार वर्ष का होता है (४,३२,०००); द्वापरयुग इसका दो गुना (नियंत्रक विष्णु के 'कृष्णावतार', 'योगिराज', यानि हमारी गैलेक्सी के केंद्र में अत्याधिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति !); त्रेता तीन गुना (नियंत्रक विष्णु के 'रामावतार', यानि पृथ्वी पर उपलब्ध शक्ति के आकाश में खग (गरुड़!) समान विचरण करते स्रोत, सूर्य!); सतयुग चौगुना (नियंत्रक स्वयं अजन्मे और अनंत नादबिन्दू विष्णु के साकार रूप 'गंगाधर'/ 'चंद्रशेखर', योगेश्वर शिव, यानि पृथ्वी; अथवा महाशिव यानि हमारा सौर-मंडल जिसके केवल नौ सदस्यों के सार से बने 'हम' अस्थायी प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब हैं)...
और इस प्रकार, इन चारों को मिला, महायुग दस गुना यानि तेत्तालीस लाख बीस हज़ार वर्ष (४३,२०,०००, यानि ४.३२ मिलियन )...
ब्रह्माण्ड / पृथ्वी लगभग गोलाकार है, और इस प्रकार इसे और अन्य अंतरिक्ष में विचरण करते पिंडों को भी ३६० डिग्री द्वारा दर्शाया जा सकता हैं... और ॐ द्वारा दर्शित निराकार ब्रह्म (साकार ब्रह्माण्ड, ब्रह्मा-विष्णु-महेश के स्रोत, नाद बिन्दू) को हरेक साकार पिंड के मध्य में गुरुत्वाकर्षण शक्ति को केन्द्रित समझ सकते हैं... और यदि हर डिग्री के सांकेतिक भाषा में प्रदर्शित तीन ('३') गुना करें तो १०८० अंश बनते हैं, जिस कारण मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप मान पूजा में रुद्राक्ष कि माला में १०८ मनकों को संकेत समझा सकता है (इसके अतिरिक्त जब किसी को पत्र लिखा जाता था तो उसे श्री श्री श्री १०८ श्री लिखा जाता था)...इस कारण लगता है कि उन्होनें ब्रह्मा के एक दिन में महायुग के जब १००० चक्र कहा तो ब्रह्मा का एक दिन ४.३२ बिलियन वर्ष बनता है जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे सौर-मंडल की वर्तमान आयु लगभग ४.६ बिलियन वर्ष आंकी गयी है, जो १०८० चक्र मानें तो फिर ब्रह्मा का एक दिन लगभग इतना ही बनेगा!...और मान्यता है की दिन के बाद उतनी ही लम्बी रात आती है!... इत्यादि, इत्यादि...
नगण्य नहीं , बल्कि क्रांति में लेखन की अहम भूमिका है ।
वैचारिक क्रांति की शुरुआत लेखन और अध्ययन से ही होती है अतः किसी भी क्रांति में लेखक की भूमिका को नाकारा नहीं जा सकता.....सार्थक पोस्ट के लिए आभार !!
शब्द क्रांति बीज है सुपिक जमीन में ही
अंकुरित होते है !
किसी भी क्रांति के लिए एक विचार जिम्मेवार होता है। लेखक के पास विचार होते हैं । एक अच्छा विचार युग निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब एक लेखक का विचार लोगों से इतना जुड़ा होता है कि वह उनकी जिंदगी को बदल देगा और उनके हितों की रक्षा होगी...तो वह विचार जन-क्रांति का रूप ले लेता है।
एक दीपक से हजार दीपकों को रोशन किया जा सकता है...यही काम लेखक करता है...वह एक दग्ध विचार को प्रज्ज्वलित करता है फिर अनेक सुप्त लोगों की चेतना को प्रज्ज्वलित करने का काम करता है।
जो शाशक जन-भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते हैं या जन-भावनाओं को नजर अंदाज करते हैं...जन क्रांतियाँ ऐसे शासकों को धूल-धूसरित कर देती हैं ।
Nishchit taur par lekhak ki bhumika ko nakara nahi ja sakta ...
puri jang maidaan me nahi ladee jatee hai dimag ke andar jo jang ladee jatee hai uskee yoddha to ap hi hian
writers can do a lot.. and yeah in a revolt the first step is T OSTART THAT REVOLT.. and that starts with word of mouth , what we read, how we get influenced by what we read ..
and that is done by writers ....
Bikram's
क्रांति तभी होगी जब खाने का प्रबंध कह्तम हो जाये..
जब तक खाना मिलता रहेगा क्रांति सुलग सकती है मगर ज्वाला भुखमरी से ही आएगी
कलम की ताकत को किसी भी तरह कम नहीं आंका जा सकता.
एक अनुमान के अनुसार सर्कार ने 5 दिनों में 1500 करोड़ रुपये बाबा रामदेव के विरुद्ध मीडिया की सहायता से दुष्प्रचार करवाने के लिए खर्च कर दिए तो यह सोचना मुर्खता होगी की वो सर्कार फेसबुक और ब्लॉग पर बाबा के विरुद्ध प्रचार नहीं करवा रही होगी | तो यह एक और मोर्चा हिया और हम इस मोर्चे पर सत्य के सैनिक |
सही कहा आशुतोष मुझे भी लगता है क्रांति भूखे पेट ही करते हैं भरे हुए पेट वालों को तो(साधारणतयः ) नींद आ जाती है ......जिस दिन रामलीला मैदान में रवंलीला हो रही थी दिल्ली सो रही थी और अगले दिन भी अपनी ही गति से चलाती रही थी
lekhani ki takat bahut jyada hoti hain aur hame logo ko ye batana chahiye ke vo apane vote ka sahi istemal kare
candidate na pasand aaye to form 'o' bhare ...kam hi log isake bare m jante hain
सही कहा आपने, विश्व की तमाम क्रान्तियों की पृष्ठभूमि में विभिन्न लेखकों और विचारकों की भूमिका रही है। फ्रांसीसी क्रान्ति में रूसो और वाल्टेयर के विचारों ने प्रमुख भूमिका निभाई। कार्ल मार्क्स के विचारों ने विश्व के अनेक देशों में शासन के स्वरूप को बदल कर रख दिया। कलम की ताकत को ध्यान में रखकर ही किसी शायर ने कहा है - खींचो न कमानों को न तलवार निकालो। जब तोप मोकाबिल हो तो अखबार निकालो।
देखने में आया है कि जब किसी क्रांति का जन्म होना होता है तो कुछ विचार प्राकृतिक रूप से कई दिमागों पर एक साथ तारी हो जाते हैं. उनमें लेखकों (ब्लॉगरों) के दिमाग़ भी होते हैं. इस लिए अपना-अपना कार्य करते जाना चाहिए.
आपकी बात काफी हद तक ठीक है। प्रत्येक आदमी अपने अपने स्तर पर आंदोलन मे सहयोग देता है। परंतु संघर्ष खून मांगता है और उसके लिए लोगो को सड़कों पर उतरना ही पड़ता हिय।
'चंचल' कथा पर हो रही बहस पर मेरी राय :
_________________________________
प्रचलित कहानी विधा में बेशक प्रश्न नहीं किये जातो हों.... लेकिन ब्लॉग-लेखन अपने आप में एक नवीन विधा है. इसमें इस तरह के प्रयोग किये जा सकते हैं.
असल में ब्लॉग-लेखन किसे कहते हैं.. और ब्लॉग लेखन द्वारा टिप्पणीकारों को कैसे जोड़ा जाता है.. यहाँ देखने को मिलता है.
इसलिये मेरा मानना है कि पुरानी परिभाषाओं के खोल से बाहर आना होगा.
कृपया ध्यान दें ये ब्लॉग-लेखन है... किसी अन्य विधा की तरह एकांत में किया लेखन नहीं.... यहाँ लेखन का तुरंत रेस्पोंस मिलता है.
प्रतुल जी ,
आपकी बात से सहमत हूँ , लेकिन अपमानित करके मनोबल तोड़ने वालों से हार जाती हूँ कभी-कभी । मैं भी इंसान हूँ। जब सहनशक्ति जवाब दे जाती है तो खुद में सिमट जाती हूँ। विवादियों की जबान बहुत लम्बी होती है , जबकि मेरी शक्ति सीमित है। यदि कुछ लोग अपनी टिप्पणियों में क्षति पहुंचाने का उद्देश्य रखते हैं तो हार मान लेना ही बेहतर है।
इस दुनिया में हर चीज की भूमिका होती है . लेखन की भी अपनी भूमिका है , अपनी अहमियत . पर लेखन क्रांति का एक भाग मात्र है . समाज , संस्कृति और विचारधारा पर सब से ज्यादा असर धर्म का पड़ता है और इतिहास गवाह है सब से ज्यादा लड़ाईयां धर्म के नाम पर ही लड़ी गयी गयी हैं. और लिपिबद्ध इतिहास में जितनी भी सब से अहम धार्मिक क्रांतियां हुई है सब बिना लेखन के उत्प्रेरक के हुई हैं , चाहे वो ईसा मसीह की ईसाइयत के लिए क्रांति हुई हों या हजरत मोहम्मद की इस्लामिक क्रांति हो या गुरु नानक की सिक्ख क्रांति हो. या फिर आधुनिक काल में रूस की और चीन की लाल क्रांति हो या कास्त्रो की क्रांति हो या फिर संपूर्ण क्रांति हो .लिखित माध्यम की इनमें ज्यादा भूमिका नहीं रही है .
इन सब में सब से ज्यादा अहम विचार की होती है , विचारधारा की.
समाज में उस समय विद्यमान स्थितियां के अनुसार जिस विचारधारा की जरुरत होती है , वह शक्तिशाली हो ही जाती है , अगर सही वक्त पे कोई उसकी निनाद करे , हुंकार भरे , बुलंद आवाज़ में पूरे विश्वास से.
और क्रांति का सूत्रधार और प्रणेता एक ही होता है .
गुरुवर रविंद्रनाथ कह गए हैं न - एकला चलो रे . सो अकेला चना भाड़ भी फोड़ता है कभी कभी . यकीन रखिये .
वैसे भी औरों के बनाये रास्ते पे तो सब चलते हैं . अपना रास्ता खुद बनाने वाले बिड़ले ही होते हैं. और अपना खुद रास्ता बनाइएगा तो कुछ कंकड और कांटे चुभेगें ही. हिम्मत रखिये .
लेखन , संवाद , भाषण , वार्तालाप सब सम्प्रेषण के माध्यम हैं और जो आप ने जन चेतन की बात सब से शुरू में कही है , ये उस जन चेतन को जगाती हैं .
पर - चेतन को आप और जागरूक कर सकती हैं , अवचेतन और सुसुप्त को चेतन कर सकती हैं ; जड़ और मूढ़ का क्या करेंगी ? पूर्वाग्रहों से ग्रसित जनों का क्या करेंगी ?? ये कंकड और कांटे हैं जो एकला अपना राह बनाने वालों को मिलेंगे ही . अवरोधों की तरह .
बस अपनी राह चले चलिए . भाड़ जरूर फूटेगा .
शुभ कामनाएं
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