कर्म के बंधनों से बंधा मनुष्य , दुःख सुख को भोगकर मृत्यु के पश्चात एक अनंत यात्रा पर निकल पड़ता है। प्रश्न यह है कि क्या वह आपसी मोह-बंधनों से मुक्त हो जाता है। किसी के परलोक गमन से पृथ्वी पर पीछे छूट गए परिजन और स्नेही जन उसके वियोग में छटपटाते हैं तो क्या जाने वाली आत्मा भी वियोग का अनुभव करती है? अवश्य ही उस अनंत यात्रा पर निकली आत्मा में स्मृतियाँ तो शेष होती ही होंगी ।
सुना है जो हमारे पूर्व जन्म के परिचित होते हैं , वे ही इस जन्म में हमसे किसी न किसी रूप में आकर मिलते हैं और जुड़ते हैं। इसे ही शायद जन्म-जन्मान्तर का नाता कहते हैं।
जाने वाला अपना कुछ अंश हर दिल में छोड़ जाता है और लाखों दिलों से कुछ अंश अपने साथ भी ले जाता है। आत्माएं इसी अंश को अपनी स्मृति में रखती हैं , और अनेकानेक जन्मों में विभिन्न रूपों में मिलन होता है उनका।
जाने चले जाते हैं कहाँ , दुनिया से जाने वाले.....
कैसे ढूंढें कोई उनको , नहीं क़दमों के भी निशाँ.......
Zeal
सुना है जो हमारे पूर्व जन्म के परिचित होते हैं , वे ही इस जन्म में हमसे किसी न किसी रूप में आकर मिलते हैं और जुड़ते हैं। इसे ही शायद जन्म-जन्मान्तर का नाता कहते हैं।
जाने वाला अपना कुछ अंश हर दिल में छोड़ जाता है और लाखों दिलों से कुछ अंश अपने साथ भी ले जाता है। आत्माएं इसी अंश को अपनी स्मृति में रखती हैं , और अनेकानेक जन्मों में विभिन्न रूपों में मिलन होता है उनका।
जाने चले जाते हैं कहाँ , दुनिया से जाने वाले.....
कैसे ढूंढें कोई उनको , नहीं क़दमों के भी निशाँ.......
Zeal
68 comments:
कवि नीरज के शब्दों में-
कफन बढ़ा तो क्यों,नजर क्यों डबडबा गई
श्रृंगार क्यों सहम गया,बहार क्यों लजा गई
जीवन-मरण तो बस इतनी सी बात है
किसी की आँख खुल गई,किसी को नींद आ गई.
भावुकता भरी पोस्ट.
मुकेश की पुण्यतिथि पर पढ़ें -जाने चले जाते हैं कहाँ के दोनो भाग.
http://mitanigoth2.blogspot.com
यह दुनिया सागर है ! हम जैसे भी तैरेंगे , वह कुछ रेखाए , दुनिया के पानी पर अंकित हो जयेने और जो उन्हें पियेंगे या जिन के संपर्क में वह पानी जायेगा , उन्हें ही उस स्वाद की महत्ता मालूम होगी ! इसी लिए कर्म एक ऐसा साधन है जो दूर तक मनुष्य के कर्मो की खुशबू ले जाता है ! उसे हम याद कर संजोये रहते है ! रही बात जाने वाली की तो कल्पना ही कर सकते है - क्योकि अनुभव नहीं है ! लघु पर सुन्दर दृष्टिकोण ! दिव्या जी आप के लेख की गति और पोस्ट तेज है , मई इस गति से आप को पकडे नहीं रह सकता ! अतः कुछ पोस्ट छुट भी जाती है न पढ़ सकता न ही टिपण्णी कर सकता हूँ ! बधाई !
काश आत्माओं से संवाद हो पाता.
जब तक मस्तिष्क में neural activity है, कदमों के निशाँ रहेंगे. बाद में क्या होगा पता नहीं. ऐसे प्रश्नों से अब उदासी आ गई है.
मुझे भी ऐसा ही लगता है| कई बार किसी परिवार के व्यक्ति के लिए कहते भी सुना है कि यह तो हमारे दादा, दादी, नाना, नानी (कोई भी) का पुनर्जन्म है|
यहाँ तक कि मेरे दादाजी मुझे कई बार कहते थे कि "आप तो मेरे पिताजी ही हो, फिर से लौट आए"
घर के कई बड़े भी उनकी इस बात पर हाँ में हाँ मिलाते हैं| मतलब वो कहना चाहते हैं कि मेरे पड़दादा "पंडित श्री गुरु दयाल" अब "दिवस" हैं|
शायद ऐसा हो, और यदि है तो इसे ही जन्म जन्मान्तर का नाता कहा जाएगा|
यदि दिवंगत आत्मा की स्मृति में अपने स्वजनों से बिछड़ने का वियोग न होता तो वे उसी घर में जन्म क्यों लेते?
दिव्याजी,
मरने पर hardware रुपी यह स्थूल शरीर ही नष्ट होता है.
software रुपी सूक्ष्म शरीर( मन व बुद्धि) व कारण शरीर(संचित कर्मो व सांसारिक चाहतों के फलस्वरूप वासनाओं से निर्मित)नवीन स्थूल शरीर ग्रहण करने की यात्रा पर निकल पड़ते हैं.
यदि मृत व्यक्ति की अपने प्रिय जनों में बहुत आसक्ति हो तो आगे की यात्रा में बाधा हो सकती है. सम्पूर्ण प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म व गूढ़ है.हम मृत व्यक्ति की मुक्ति की कामना इसीलिए करते हैं ताकि वह अपनी यात्रा पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो सके.
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १५ श्लोक १० में वर्णित है
'उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुन्जानं वा गुणान्वितम्
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः'
शरीर को छोड़कर जाते हुए को,अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा
भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन
नहीं जानते ,केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्व से जानते हैं.
भावमय शब्दों के साथ ...बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ।
जिन्दगी का सफर है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर, कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं..
दिव्या जी, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित परमात्मा और उनके अनंत विभिन्न अंश / रूपों को विष्णु के अष्टम अवतार, 'बहुरुपिया कृष्ण की लीला' द्वारा दर्शाया गया है 'महाभारत' की कथा, गोपियों के साथ 'रास लीला' आदि द्वारा...
सभी साकार रूपों को वास्तव में अमृत आत्मा माना गया, हरेक एक अंश योगेश्वर विष का उल्टा शिव,,,, अथवा अमृत नादबिन्दू विष्णु यानि निराकार शक्ति रुपी परमब्रह्मा के सभी अमृत अंश...
इसी कारण आप 'वर्तमान भारत' में भी देख पाते हैं कि कैसे परम ब्रह्म तक पहुँचने हेतु किसी भी साकार रूप को 'हिन्दू' पूज रहे होते हैं,,, जैसे कर्णी माता के मंदिर में मूषकों को पूजा जाता है, और उसे गणेश का वाहन मान गणपति बप्पा की पूजा भी की जाती है, जहां मूषक के कान में अपनी मांग भी फुसफुसाई जाती है ;
पति की लम्बी उम्र की इच्छा से बट-सावित्री त्यौहार के दिन बट-वृक्ष की पूजा, अथवा करवा चौथ के दिन चाँद की पूजा ;
सूर्य को शक्ति का स्रोत जान सुबह सवेरे सूर्य-पूजन पूर्व दिशा में जल चढ़ा के ;
निराकार ब्रह्म का प्रतिमूर्ति मान शिवलिंग की पूजा, और वैसे भी भी उनकी मूर्ती एवं उनके वाहन नंदी बैल की भी पूजा,,, और शिव को विषधर मान नागपंचमी के दिन साँपों की पूजा,,,,, आदि आदि...
एक अंग्रेजी का नोट भी दे रहा हूँ.
As the basic knowledge, about the existence of one and only one Nirakar, ie, Paramatma or the formless creator of the infinite, unborn and eternal material world has been conveyed through 'India' giving '0' to the world, and '1' (Brahma, ie Sun the source of energy!) to '9' (four-handed sudarshan-chakr dhari Vishnu, ie, ring-planet Shani the Suryputr! All acting for sustenance of Shiva& Parvati, ie, earth-moon)
Supreme knowledge is reportedly recorded in each and every human being's 'asht chakras', or eight wheels, that is, essence of eight disc shaped galaxies that determine the apparent hierarchy in Nature, but needs 'kundalini jagaran' to realise it, said the Yogis who indicated that only as one's purpose in life through surrender in 'Yogiraj Krishna', the soul or atma within each ... easier said than done though!
हम इस प्रश्न के उत्तरों को पढने के लिए आते रहेंगे , मनीषी लोग जबाब देंगे .
very emotional post.
सार्थक एवं सटीक लेखन हमेशा की तरह ... ।
IT IS THE STORY OF THE WORLD.
VERY EMOTIONAL POST STILL ITS CONTAINS ARE COMPLICATED
सार्थक एवं सटीक लेखन हमेशा की तरह ...
चिर निद्रा, जीवन के व्यवधानों से।
दिव्या जी, वैसे तो दिव्य ज्ञान से सम्बंधित गीता में अध्याय ४ है, उस में से मैं यहाँ केवल श्लोक १८, १९, और २० का हिंदी रूपांतर दे रहा हूँ... (मानव के निर्गुण निराकार और सगुन साकार के योग से बने होने के कारण)
"जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है और सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है"... "जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास (उद्यम) इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है...उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात कर दिया है"... "अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतंत्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता"...
आतमा तो कमल का वह पत्ता है जिस पर आसक्ति और मोह-माया की एक बूंद भी नहीं टिकती॥
यदि शरीर रूपी वस्त्र ही बदलता है,तो जीवात्मा में इस जन्म के कुछ सूक्ष्म अंश अवश्य विद्यमान रहते होंगे , और संस्कार बन कर प्रभावित करते होंगे.
बहुत सुन्दर , सशक्त और खूबसूरत प्रस्तुति .
टीवी और उसके रिमोट के माध्यम से हम कुछ कुछ साकार शरीर की कार्य प्रणाली के विषय में अनुमान लगा सकते हैं...
दोनों विभिन्न प्रणालियाँ है... टीवी ठीक हो और रिमोट भी सही हो, फिर भी रिमोट अधूरा है जब तक उस में आप सही बैटरी नहीं डालोगे...
बिना शक्ति के स्रोत बैटरी को डाले आप, टीवी को चला, अनेकों चैनलों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम अपनी इच्छानुसार - केवल दूर से बैठ रिमोट के बटन दबा - नहीं देख पायेंगे,,, और अपने मनचाहे कार्यक्रम का आनंद नहीं उठा पायेंगे...
किन्तु साकार होने के कारण बैटरी की शक्ति समाप्त होने पर उस में नयी बैटरी डालनी पड़ेगी,,, अथवा रिचार्जेबल बैटरी हो तो उसे समय समय पर (मानव में प्रत्येक दिन निद्रावस्था में जैसे) रीचार्ज कर उसे चलाये रख सकते हैं जब तक टीवी (मानव शरीर) की आयु ही समाप्त न हो जाए, जो बढ़ाया जा सकता है सही रख-रखाव से, और बीमार पड़ने पर त्रुटी सुधार कर समय समय पर ... टीवी को वैसे ही बदलना होगा जैसे आत्मा शरीर रुपी वस्त्र बदलती है...
निरंतर बदलती प्रकृति के साथ चलते कालांतर में संभव है आप पुराने वाले की तुलना में और बढ़िया टीवी खरीदें और संभव है पुरानी, किन्तु अभी भी सही बैटरी, उसमें भी काम आ जाए...
भारतीय चिंतन परम्परा के अनुसार-
मृत्यु के उपरांत अपने भीतर जीवनधारक नैतिक प्रवृत्तियों को एकत्र कर आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ विदा होती है, और उन सबको दूसरे भौतिक शरीर में साथ ले जाती है।
नैतिक प्रवृत्तियों में अब तक संचित संस्कार, ज्ञान, बुद्धि, स्मृति, लोभ, मोह आदि सम्मिलित है।
इसीलिए इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि जो हमारे पूर्व जन्म के परिचित होते हैं , वे ही इस जन्म में हमसे किसी न किसी रूप में आकर मिलते हैं और जुड़ते हैं। इसे ही शायद जन्म-जन्मान्तर का नाता कहते हैं।
जीवन एक यात्रा है...आत्मा जो कभी मरती नहीं,वह सतत है,एक सातत्य...शरीर से आत्मा का विदा होना उसका शरीर से प्रयाण है...अस्तित्व से नहीं...वह एक महायात्रा पर पुन: यात्रा शुरु कर देती है...
दिव्या -जील जी सुविचार आप के हम लोग जन्म जन्म के रिश्ते नातों को सुनते तो रहते हैं शायद हो भी ऐसा ...तब तो हम फिर मिलेंगे और हमारा ब्लॉग भी ..
काश हम रिश्ते नातों की अहमियत इस जन्म में भी दें ...
भ्रमर ५
इसे प्रकृति का अद्भुत डिजाइन कह सकते हैं कि पृथ्वी से मानव को प्रत्येक वर्ष सूर्य, आकाश में, बारह (१२) तारा मंडल में से हरेक में एक एक माह दीखता प्रतीत होता है... इसके आधार पर १२ राशि मानी गयीं हैं... हिन्दुओं ने किन्तु इंदु अर्थात चन्द्रमा को उच्चतम स्थान प्रदान कर राशीयाँ चन्द्रमा के चक्र के आधार पर निश्चित कीं... और १२ घर में चन्द्रमा जिस घर में बैठा है, उसके आधार पर राशि का निर्णय कर जातक के नाम का प्रथम अक्षरों को सुझाया है अनादी काल से... और हर राशि के जातक की मूल प्रकृति का भी अनुमान लगाया... संक्षिप्त में कह सकते हैं की यदि संसार की जन संख्या १२ अरब भी होजाए तो औसतन १ अरब व्यक्ति १२ में से किसी एक राशि का होगा... और इस प्रकार १ अरब (या आज आधा अरब) व्यक्तियों का स्वभाव एक समान होना संभव है... और कहावत है की समान पंखों वाले पंछी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं...
बडा गंभीर विषय उठाया है आपने।
कोई योग्य टिप्पणी करना कठिन हो रहा है हमारे लिए।
इस प्रश्न को मैं eternal mystery मानता हूँ।
मेरा विचार है कि इस प्रश्न का उत्तर हम जैसे साधारण व्यक्ति नहीं दे सकेंगे।
अन्य मित्रों की टिप्पणियों को ध्यान से पढ रहा हूँ।
जी विश्वनाथ
क्या जाने वाली आत्मा भी वियोग का अनुभव करती है?
यह तो जाने वाली आत्मा ही जान सकती है । लेकिन अफ़सोस आजतक जाने वाला कोई वापस नहीं आया यह बताने के लिए ।
फिलहाल जन लोकपाल के पहले चरण की सफलता पर बधाई.
समझ से परे
ग़ालिब साहिब ने एक शेर फ़रमाया था - हमको मालूम है ज़न्नत की हकीकत , दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है .
आत्मा की अवधारणा कुछ वैसे ही है . आत्मा की अवधारणा - गीता के बाद इतने गहरे पैठ गयी है कि इस अवधारणा के विपरीत कम से कम भारत में कम ही लोगों के गले उतरेगी . फिर भी . आत्मा की धारणा है अबधारना भी है कई किस्से हैं कई कहानियाँ हैं , बिकाऊ खबर को अलादीन जैसे खोजी चैनल के बदौलत कई महा सच कहे जाने वाले ऐसे किस्सों को सच साबित करते समाचार भी टीवी पर धरल्ले से आते हैं . फिर भी .
पुनर्जन्म के सबूत के बतौर आत्मा का वही पुराना चेतन वही यादें का जीता जागता नज़ारा हम ने तो कहीं नहीं देखा है . कम से कम एक लाख लोगों से तो जरूर मिल चुके होंगे अब तक. और मिलने वाले हर व्यक्ति ने कम से १०० unique को देखा जाना हो तो यह संख्या १ करोड़ हो जाती है .
और अगर ऐसा पुनर जन्म ना हो तो ,
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है । २२
अगर आत्मा वही हो , पर चोला अलग , काया अलग यानि बोध भी अलग , तो फिर पुरानी यादों की संभावना उसी आत्मा में कैसे ?
नए रूप में वही आत्मा हो भी तो पुराने संपर्कों का क्या ? पुराने चेहरों को क्या ? पुरने यादों का क्या ? पानी तो मूल रूप से वही है पर एक बोतल में दवा हो जाती है एक में मदिरा . फिर भी .
पुराने संपर्क आत्मा को उसी रूप में याद करते रहते हैं क्यों की उनकी आत्मा में उस आत्मा की वही जगह रहती है ,चाहे वो आत्मा इस जगत में में कहीं हो , ब्रहामंड में कहीं भी हो. हमारे ही ख्याल , हमारी ही यादें बन बन वही आत्मा आती है .
तांत्रिकों के अनुसार आत्मा बात करती है! किन्तु उसको सुनने के लिए आपको वैसे ही कठोर अभ्यास की आवश्यकता है जैसे इंजीनियर और डॉक्टर को होती है :)
'मैंने' भी किसी को '८३ में बाज़ार में मेरे कान में कहते सुना, किन्तु केवल एक असमी शब्द "कोनी", अर्थात 'अंडा', उस समय जब मैं सोच रहा था, और १५ मिनट से मस्तिष्क पर जोर दे रहा था कि मेरी पत्नी ने कार्यालय से लौटते समय क्या लाने को बोला था...
उसे सुन मुझे जिस प्रसन्नता का अनुभव हुआ 'मैं' बयान नहीं कर सकता!
कई वर्ष पश्चात मुझे आभास हुआ कि 'अंडा' प्रतिरूप है, ब्रह्माण्ड का! उसके बाद दिल्ली लौटने के बाद ही मैंने गीता पढ़ी और केवल एक दिन बुरी तरह से भरी बस में, किनारे की सीट पर आँख बंद कर बैठे अपने एक दम निकट खड़े व्यक्ति के, साधारणतया स्त्रीयों के प्रिय रंग, रानी कलर शाल में से प्रतीत होते किसी आम स्त्री के गाने की आवाज़ सुन चौंक गया! किन्तु हिम्मत न कर सका उससे पूछने की यदि वो शाल उसकी स्व. पत्नी का था?,,, और उसका गंतव्य शीग्र आ जाने से वो प्रश्न अधर में ही लटका रह गया :(
स्थान और काल के प्रभाव से - 'भारत' के पूर्वोत्तर दिशा में स्थित गुवाहाटी में अस्सी के दशक में स्थानातरण के कारण - मुझे शारीरिक और मानसिक कष्ट पहुंचा, किन्तु पत्नी बीमार, आर्थ्राइटिस से '७६ से पीड़ित, होते हुए भी खुश हुई कि उसे कामाख्या माँ के मंदिर जाने का सौभाग्य प्राप्त होगा!,,, जबकि मैं निराकार ब्रह्म को मानते हुए मंदिर जाने में रूचि नहीं रखता था! जिस कारण पांच माह तक मैं उसे मंदिर नहीं ले गया!
किन्तु एक दिन मन में अचानक विचार आया कि मैं क्यूँ उसे दुःख दे रहा था, जबकि भगवान् तो सद्चिदानंद है! एक रविवार सुबह ८ बजे निकलने का निश्चय किया... सुबह सवेरे मूसलाधार वर्षा हो रही थी और वो डॉक्टर के कहने से वर्षों से गरम पानी से स्नान करती आ रही थी, जिस कारण मुझे थोड़ी चिंता थी, वैसे तो बंद गाडी से जाने वाले थे... किन्तु उसका दृढ निश्चय देख पहुँच गए मंदिर,,, और इसे चमत्कार कहें कि संयोग कि मंदिर पहुँच बारिश बंद हो गयी और जिसके कारण 'मैं' डरता था, यानि लम्बी कतार नहीं थी... थोड़े समय में ही दर्शन कर हम घर लौट आये...
bahut maarmik prastuti.duniya se jaane vaale jaane chale jaate hain kanhaa,iska uttar aaj tak koi nahi khoj paya.bahut bhaavuk kar diya is post ne.
जीवन तो अनंत यात्रा है,बस कुछ रास्ते व चेहरे बदलते रहते हैं।शायद मोहयात्रा यदि निर्वाण यात्रा में परिणित हो जाय, इसे ही सच्चा महाप्रयाण कह सकते हैं.
a very hear touching read !!!
इस भावपूर्ण अभिव्यक्ति में असहमति की गुंजाइश नहीं है।
bahut aacha laga
प्रश्न यह है कि क्या वह आपसी मोह-बंधनों से मुक्त हो जाता है
प्रश्न बडा कीमती है. और जॊ चीज कीमती होती है उसका मूल्य निर्धारण करने का कोई उपाय नही है. इसी तरह कीमती प्रश्न का जवाब भी निर्धारित नही किया जा सकता. इसे मानसिक तल से परे ध्यान की गहन अनुभुतियों में महसूस किया जा सकता है. हां इसके कुछ इशारे हमारे उपनिषदों में किये गये हैं पर वो पढकर बुद्धि के तल पर नही समझे जा सकते. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति....
जाने चले जाते हैं कहाँ , दुनिया से जाने वाले.....
कैसे ढूंढें कोई उनको , नहीं क़दमों के भी निशाँ.......
इन पंक्तियों ने महान गायक मुकेश जी की भी याद दिला दी...
नमन...
सादर बधाई उम्दा पोस्ट के लिए...
यदि जाने वाले अपनों के वियोग का अनुभव नहीं कर सकते तो वह अक्सर स्वप्न में दर्शन क्यूँ देते हैं , सांत्वना भी देते हैं और फिर पुनः उसी घर में जन्म लेने का वादा कर के जाते हैं और उसे पूरा भी करते हैं । ऐसे बहुत से प्रकरण जानकारी में है।
जाने चले जाते हैं कहाँ , दुनिया से जाने वाले.....
कैसे ढूंढें कोई उनको , नहीं क़दमों के भी निशाँ....... बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति....
जो बिछुड़े हैं जरूर मिलेंगे। जन्मजन्मांतर का नाता...आशावाद का महान दर्शन, सनातन सिद्धांत। आपने इसे सबके सामने रखा, धन्यवाद। बधाई।
दिव्या जी, मेरे दादाजी का नाम मुरलीधर था और मेरे पिताजी (बाबूजी) का हरी कृष्ण... बुढ़ापे में दादाजी की आँखों से दिखना बंद हो गया था, जिस कारण उनके तीन बेटों में से सबसे छोटे बेटे, हमारे पिताजी, उनकी आँखें बन गए थे...
हमारी दादी द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण दुनिया भर में फैले फ्लू से दिसंबर '१८ में चल बसीं थीं, जब पिताजी केवल १३ वर्ष के ही थे (हमारी माँ का ८ दिसंबर '७८ में और मेरी पत्नी का स्वर्गवास ४ दिसंबर '९९ को हुआ, जबकि हमारा विवाह २ दिसंबर '६५ में हुवा था) ...
यद्यपि यह तब हमें मालूम नहीं था, जब उनके अपने जीवन का अंतिम समय था, मैं दिल्ली आ चुका था, तो पिताजी हमारे पास रहने जनवरी '८५ में आ गए, और ४ अप्रैल '८६ तक रहे (और उनका विवाह 24 अप्रैल '२४ में हुआ था),,, (हमने अपने दादा-दादी को नहीं देखा)...
उस बीच एक दिन उन्होंने बताया था कि कैसे जब जनवरी सन '२२ में दादाजी ने उनसे तुरंत आर्ट मास्टर से कृष्ण की गाय के साथ खड़े बांसुरी बजाते पेंटिंग ले कर आने को कहा तो पिताजी कहने लगे मुझे तब पता नहीं था मास्टरजी ने क्यूँ कहा, "ओह! इसका मतलब समय आ गया"! और तुरंत तस्वीर बना के दे दी... दादाजी खुश हो गए (वो तस्वीर तब से फ्रेम कर पैत्रिक घर में रखी है) ... फिर दादाजी ने अचानक पिताजी को कहा "कृष्ण आ गए (अर्थात यह जागृत अवस्था का स्वप्न था)! जल्दी से शंख और घंटी बजा दो!" पिताजी ऊपर घर के मंदिर, पूजा गृह, में जा उनकी इच्छानुसार कार्य कर जब नीचे आये, और उनको बताया, उसके थोड़ी देर बाद ही उन्होंने प्राण त्याग दिए!
क्या यह संभव है कि मैं ही अपना दादा हूँ :) यानि उनकी आत्मा मेरे जन्म पर पिताजी के माध्यम से मेरे शरीर में आ गयी? (दिवस जी की पड़ दादा जी की आत्मा उनके शरीर में आने समान... किन्तु मुझे अभी तक किसी ने ऐसा नहीं कहा है)?
इतनी गहनता से कभी नहीं सोचा ...
aadeniya divya ji jahan tak bidwano se suna hai ki atma aaur suksham sharir dono alag hain..atam ka punerjanam se koi sarokar nahin hai..suksham sharir hi ya to kisi naye shari me prabesh kar leta hai ya bhatakta rahta hai..kyonki pret yoni ke bishay me kaha jaata hai ki usme prithvi tatav aaur jal tatav ka abhav rahta hai shes tatav vidyaman rahte hain..bahut jyada jaankari nahi hai..lekin bidwatjano ke comment padhne se mujhe nayi dishayein jarur milengi..aapk blog hamesha hi chintan ka mauka deta hai..hardik shubhkamnaon ke sath..
जाने वाले कभी नहीं आते, जाने वालों की याद आती है.
BAHUT HI ACCHI POST THANKS
संगीता स्वरूप जी, 'मैं' भी शायद गहराई में कभी न जा पाता, यदि ८ दिसंबर '८१ को गुवाहाटी, असम से इम्फाल, मणिपुर न जाना होता... और जब 'मैं' तैयार हो कर एयरपोर्ट जाने के लिए १० बजे के लगभग बैठा था, लगभग उसी समय जब हवाई जहाज दिल्ली से उड़ने वाला था, मेरी पत्नी मुझे अल्पाहार में देरी से पूरी आलू खिलाने वाली थी जिससे मुझे लंच लेने की आवश्यकता न पड़े वहाँ जा... मेरे एक सहकर्मी अफसर उसी दिशा में और आगे जाने वाले थे उन्होंने मुझे कहा था वो मुझे वहां छोड़ते जायेंगे... अचानक तभी मेरी तब १० + वर्षीय बिटिया आई और पूछी, "पापा आप की फ्लाईट कैंसल हो गयी"?
मैंने चौंक कर कहा, "नहीं, अंकल आयेंगे और फिर हम चाय पी निकल जायेंगे"!
और जब एयरपोर्ट पर उतर भीतर गया तो बोर्ड में चौक से लिखा पाया कि फ्लाईट तकनिकी कारणों से देरी से आएगी!
और जब प्लेन आया भी तो पायलट ने मना कर दिया इम्फाल जाने के लिए!.. क्यूंकि इन्स्त्रुमैंट लैंडिंग की व्यवस्था उपलब्ध न थी, वो सीधे दिल्ली चला जाएगा!
मुझे बाद में गहन चिंतन पश्चात ही याद आया कि ठीक ३ वर्ष पूर्व दिल्ली में हमारी माँ, हरिप्रिया, का स्वर्गवास हुआ था!
'मैं' भूल चुका था क्यूंकि दिल्ली में मेरे बड़े भाई सब कर्म-काण्ड आदि करते हिन्दू परंपरा निभाते आ रहे थे... किन्तु हम अब कामाख्या माँ के प्रदेश में थे! १९५९ दशहरे / दुर्गा पूजा के अवकाश के दौरान टूर में कोलकाता में सवेरे सवेरे एक बूढ़े हलवाई को दूध लेने आई ३-४ वर्षीय बालिका को माँ पुकारते सुन हम उत्तर भारतीय तब मुस्कुरा उठे थे...न जानते हुए कि 'हिन्दू' मान्यतानुसार अनादी काल से कुंवारी कन्या में माँ कि झलक देखने कि प्रथा थी :)
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JC जी ,
जैसा की आपने और दिवस जी ने प्रकरण बताया , उसी प्रकार मेरे मामा जी की मृत्यु बनारस में २ नवम्बर १९९९ में हुयी मृत्यु के ठीक दो दिन बाद उन्होंने अपनी पत्नी (मामी जी ) को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- "रो मत , मैं शीघ्र ही इसी घर में वापस आऊंगा। ठीक एक वर्ष बाद उसी तारीख को यानी २ नवम्बर २००० को उन्होंने अपने बेटे के पुत्र के रूप में जन्म लिया।
एक प्रकरण अखबार में पढ़ा था , एक तीन वर्षीय बच्चे की मृत्यु के बाद माँ को अति दुखित देखकर उस बच्चे ने स्वप्न में माँ से कहा - " आप दुखी न हों , मैं पुनः आऊंगा" । ठीक एक वर्ष बाद , हूबहू उसी शक्ल एवं स्वभाव वाला बच्चा उन्हें पैदा हुआ। यह पूरा प्रकरण दोनों बच्चों की तस्वीरों सहित अखबार में पढ़ा था।
सन २००७ में माँ की मृत्यु के बाद , उन्होंने मेरे स्वप्न में आकर मेरे दुखों और दुविधाओं का समाधान किया। स्वप्न में आकर मुझे गीता का पाठ पढाया । और जब जब मैंने उन्हें विशेष तौर पर याद किया , हमेशा स्वप्न में दर्शन दिया।
मृत्यु से पूर्व उन्होंने हलवा खाने की इच्छा जाहिर की थी जो मैं पूरी न कर सकी थी। जिसका मुझे बहुत पछतावा था। एक रात स्वप्न में आकर उन्होंने मेरे हाथ से हलवा खाया और एक गिलास दूध पिया। तबसे मेरे मन का पछतावा मिट गया। एक बार उनके जन्म दिन पर उन्हें बहुत याद कर रही थी तो उस दिन दोपहर में ही मुझे अचानक नींद आ गयी और माँ ने स्वप्न में आकर मुझसे खूब सारी बातें की और मस्ती की , फिर एक घंटे के बाद मेरी नींद खुल गयी । मैं बहुत प्रसन्न थी। माँ दूर जाकर भी साथ हैं मेरे।
http://zealzen.blogspot.com/2010/12/blog-post_19.html
.
जीवन के अनुभव से जाना है ऐसे भावनात्मक प्रश्नों का संबंध हमारे स्वास्थ्य से भी होता है. (केयर).
दिव्या जी आपकी इस गंभीर पोस्ट के लिए शब्द नहीं थे व्यक्त करने के लिए दो दिन बाद फिर पढ़ रहा हूँ और बिना कहे रह नहीं पाया . जाने वाले जाते नहीं है कही, हमारे आपके आसपास ही रहते है इसका अनुभव सोते जागते आपको अवस्य होता है. मुझे आज भी .. खुशी हो या कोई संकट .. साथ में खड़े अपने दिखाई देते है जो शारीरिक रूप से साथ नहीं है .. और मै बड़ी सरलता से .. कष्टों से निजात पा जाता हूँ उन कष्टों से भी जिनका हल सूझ ही न रहा हो .सच है आत्मा अज़र-अमर है .
कुश्वंश जी ,
आप सही कह रहे हैं। हमसे दूर जाने वाले हमारे पास ही होते हैं और हमारे दुःख सुख से प्रभावित रहते हैं । समय समय पर वे हमारी समस्याओं का समाधान भी देते हैं । ऐसा अनुभव किया है।
दिव्या जी, कुश्वंश जी,,, हिन्दू मान्यता है कि 'हम' ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप हैं... जो बाहर दिख रहा है वो ही हमारे भीतर भी सूक्ष्म रूप में उपस्थित है...
यह संक्षिप्त में कहा जाता है कि हमारा प्रथम पूर्वज, परमात्मा, कृष्ण, आदि, आदि निराकार ब्रह्म हमारे शरीर के भीतर ही है,,, जो लीलाधर, 'बहुरूपिया' है... इसी लिए ज्ञानी कह गए "शिवोहम"! 'मैं भूतनाथ हूँ! (और अपस्मरा पुरुष होने के कारण स्वयं को अज्ञानता वश भूतनाथ के ही निम्न स्तर के भूत मान रहे हैं!)...
व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात, उसका शरीर राख बना, बारह दिन तक उनके निकट रिश्तेदार दुःख मना, तेरहवें दिन ब्राह्मणों और अन्य व्यक्ति, रिश्तेदार, मित्र, आदि को भोजन कराते हैं... (पंजाब में क्षत्रियादी रणक्षेत्र में होने के कारण तेरहवीं के स्थान पर चौथा मनाते हैं, करवा चौथ के दिन व्रत रख चाँद की पूजा करते हैं)...
अन्ना जी ने भी बारह दिन व्रत किया, और तेरहवें दिन व्रत तोडा और सब जनता ने जश्न मनाया!...
क्या यह तथाकथित 'गणतंत्र' की मृत्यु का संकेत हो सकता है????
इस परंपरा के पीछे धारणा है कि इतने वर्षों के जुड़ाव के कारण जब आत्मा शरीर से अलग हो जाती है तो, जब तक शरीर राख में न बदल जाए, और 'कपल क्रिया' न हो जाए, आत्मा शरीर के चारों और मंडराती रहती है...
इस के बाद वो निकट संबंधही, पत्नी पुत्रादि की ओर आकर्षित होती है... किन्तु क्यूंकि मानव जीवन में आत्मा का गंतव्य निराकार ब्रह्म है, निकट सम्बन्धियों का यह कर्तव्य बन जाता है कि आत्मा का मार्ग दर्शन करें, जिससे आत्मा माया-जाल को तोड़ अपने निर्धारित गंतव्य की ओर शीघ्र प्रस्थान करे...(अन्यथा नदी जल समान, किसी भंवर में पड़, अथवा किसी तालाब आदि में, सागर की ओर बढ़ ही न पाए...वैदिक काल में इस कारण आर्यों द्ववारा सारे बाँध तुडवा दिए गए... और उस के स्थान पर वे मन्त्रादि द्वारा वर्षा, जब और जहां चाहें, वहाँ करा लेते थे)...
उपरोक्त की आवश्यकता कम हो जाए यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन-काल में ही मन को शून्य से जोड़ ले, कर्मयोगी बन...
Dear Divya!
Swami Sudarshanacharya Ji of Siddhdata Ashram once told me publicly that I am reborn on this earth I did not believe.Then he asked me to put of my Kurta & Baniyan in front of a huge rush & showed the Visnu Pad on my back. He said this is the only proof of rebirth on this earth.
Since you are a Doctor I am telling you this fact although I have not shared it to any body else.
#9811851477
आत्मा का अमर होना और पुनर्जन्म ऐसी धारणाएं हैं जिन्हें तर्क दे कर भी झुठलाया नहीं जा सकता . भटकती आत्माओं के बारे में भी बहुत सुना और पढ़ा है कि वे अधूरे रह गए कार्य अथवा अपूर्ण इच्छाओं के कारण इस लोक में विचरती रहती हैं व कुछ लोगों को दिख भी जाती हैं. महाप्रयाण के बाद व्यक्ति की आत्मा कहाँ जाती है अथवा उसका क्या होता है एक अनबूझ पहेली है .हिन्दू धर्म में तो मरणोपरांत किये जाने वाले कर्मकाण्ड परलोक यात्रा को निर्विघ्न बनाने व आत्मा की वापसी न होने देने को सुनिश्चित करने के लिए होते हैं. यह भी सत्य है आत्मा के साथ वह सम्बन्ध तो नहीं रह सकता जो जीवित व्यक्ति के साथ संभव है.
इस लिए परस्पर प्रेम और सदभाव की शिक्षा दी जाती है .
सार्थक आलेख के लिए बधाई, दिव्या जी !
@-Krant M L Verma ji --- I believe you.
दिव्या जी, गीता में अध्याय ८ योगियों के भगवत्प्राप्ति पर है... उस में से २३ से २६ श्लोकों को नीचे दे रहा हूँ...
""हे भरतश्रेष्ठ! अब में तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता"...
"जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं"...
"जो योगी धुवें, रात्री, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किन्तु वहां से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है"...
"वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं - एक प्रकाश का तथा दूसरा अन्धकार का... जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तप वो वापस नहीं आता, किन्तु अन्धकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है..."
जाने चले जाते हैं कहाँ , दुनिया से जाने वाले.....
कैसे ढूंढें कोई उनको , नहीं क़दमों के भी निशाँ......
"जहां न पहुंचे रवि / वहाँ पहुंचे कवि"...
मुहम्मद रफ़ी ने किसी शायर के शब्दों को सुर दे दोहराया, "बैठे बैठे दिले नादाँ को ख़याल आया है // मैं यहाँ खुद नहीं आया / कोई मुझे लाया है"!
और अनादि काल से 'हिन्दू' इस प्रश्न का उत्तर ढूंढते आ रहे हैं - मैं कौन हूँ? क्या कोई मुझे यहाँ लाया है? आदि...
पैरों के निशान तो राम के मिलते हैं, "जहँ जहँ राम चरण चली जाईं...",,,, कृष्ण के नहीं, उनको तो मन में ही खोजना होता है...
जिस विषय में विद्वान अच्छी चर्चा कर रहे हों, जहाँ उस विषय में अपना ज्ञान कम हो, वहाँ अच्छे श्रोता की तरह उनकी बातों को सुनना चाहिए।
मेरी तो यही कामना है ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना ये राह ये बाट कहीं भूल न जाना !!!!!!!
@ मदन शर्मा जी, 'बंदिनी'!
यह 'बंदिनी' कौन है, अर्थात किस तरफ संकेत है?
यह वो ही आत्मा है जो बहुरूपिया शरीरों, प्रत्येक मानव में बंदिनी है! जो बेचैन है इस 'माया जाल' से छूटने के लिए और परमात्मा से मिलन के लिए!...
याद कीजिए 'गज और ग्रह' की कथा को!
ग्रह, अर्थात सौर-मंडल के सदस्य, वैसे ही ज्ञान के आठ अंशों को वैसे ही पकडे हुए हैं जैसे ग्रह, अर्थात मगरमच्छ हाथी को! और हमारे सौर-मंडल के नौ सदस्यों, अर्थात नवग्रह, अर्थात नौ ग्रहों की सहायता से आत्मा खंडित पड़ी है मानव शरीर में, आठ चक्रों में - योगियों के शब्दों में 'मूलाधार' से 'सहस्रार' तक,,, जिनको जोड़ना ही प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य माना गया है, जब तक उसको मानव रूप में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है... एक परीक्षा समान जिसमें सीमित काल में प्रश्न / प्रश्नों के उत्तर मांगे जाते हैं... फेल हो गए तो उसी कक्षा में रह गए :(
स्नेहिल दिव्या जी ! आपकी तीन जिज्ञासाएं हैं, आपके ही दिए समाधान किंचित विस्तार दे रहा हूँ.
१- "कर्म के बंधनों से बंधा मनुष्य क्या आपसी मोह-बंधनों से मुक्त हो जाता है ?"
लौकिक संबंधों में आसक्ति ही हमारे बंधनों का कारण है. आपसी मोह बंधनों से मुक्ति के लिए पहले संतुष्टि का पुरुषार्थ करणीय है तभी विरक्ति की स्वाभाविक उपलब्धि होती है. यह विरक्ति ही मोक्ष है. "इच्छा द्वेषात्मिका तृष्णा सुख-दुखात् प्रवर्तते, तृष्णा च सुखदुखानां कारणं पुनवर्तते." यह क्रम चलता रहता है .....जब तक लौकिक ऐषणाओं की पूर्ण संतुष्टि न हो जाय. आत्मा ने शरीर धारण किया ही है काम की संतुष्टि के लिए. खजुराहो के मंदिरों की बाह्य भित्ति पर मिथुन मूर्तियों में भी यही सन्देश है. कामनाओं का दमन नहीं सम्मानपूर्वक संतुष्टि करो.....और इसके लिए पुरुषार्थ की साधना करो. मनीषियों ने जहाँ इन्द्रिय निग्रह की बात की है उसका उद्देश्य केवल इन्द्रिय उच्छ्रंखलता को रोकना है ...उसका दमन करना नहीं. दमन का परिणाम मोक्ष नहीं पुनरावृत्ति है. मिथुन मूर्तियाँ मंदिर के बाहर हैं जब हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तो उन मूर्तियों के अस्तित्व को स्वीकारते हुए जाते हैं. उन्हें नकारते हुए नहीं. पर जब अन्दर प्रवेश करते हैं तब सब कुछ बाहर ही छूट जाता है. माया बाहर रह जाती है ....अन्दर तो केवल वह है जो माया नहीं है ...परब्रह्म है ...निर्विकार है अन्दर वही शेष है .....जो बाहर है उसे लेकर अन्दर नहीं जा सकते .......उसकी उपेक्षा भी नहीं कर सकते ......स्वीकार कर सकते हैं ...वह भी हिकारत से नहीं ...पूर्ण सम्मान के साथ. यह सम्मान स्वीकार्यता है ......पूर्णता की स्वीकार्यता. सृष्टि के सभी घटकों के अस्तित्व की स्वीकार्यता. यही है संतुष्टि से विरक्ति की यात्रा. .....मोक्ष की यात्रा.
हम जिससे संतुष्ट नहीं हो पाते उसकी लालसा बनी रहती है ...उसका आकर्षण बना रहता है...यह आकर्षण हमें वापस खींच कर लाता है ....हम पुनर्जन्म लेते हैं उन्हीं अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए. जैसे हमारी इस दिव्या का पुनर्जन्म होगा एक सामाजिक क्रान्ति के लिए .....वह क्रान्ति भी करेगी और अपना निश्छल प्रेम भी बरसायेगी. ..क्योंकि वह संतुष्ट नहीं है व्यवस्था से ...उसके अन्दर आक्रोश भरा है व्यवस्था के प्रति...पाखण्ड के प्रति .....वह जिस शांत सुखमय और व्यवस्थित समाज की कल्पना में खोयी हुयी है उसी को बनाने-सजाने-संवारने फिर आयेगी वह....और तबतक आती रहेगी जब तक वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जायेगी .
२- ....तो क्या जाने वाली आत्मा भी वियोग का अनुभव करती है?
आत्मा तो अंश है परमात्मा का. परमात्मा निर्विकार है तो उसका अंश भी निर्विकार है. संयोग या वियोग की वेदना (experiences of pleasure and pain caused by association or dissociation of worldly things ) का माध्यम है मन ......और उसकी अनुभूति होती है शरीर को जो कि नश्वर है ...परिवर्तनशील है.
३-.....अनंत यात्रा पर निकली आत्मा में स्मृतियाँ तो शेष होती ही होंगी !
स्मृतियाँ ऊर्जा के बण्डल के रूप में आगे संचरण करती हैं . पर सदा नहीं. ये रूपांतरित भी होती हैं. मृत्यु के दो उद्देश्य है -१ स्मृति का लोप . यदि ऐसा न होता तो हम जन्म-जन्मान्तर तक अदावतें निभाते रहते ...दोस्ती-दुश्मनी निभाते रहते ...अपनी अनेक कटु-स्मृतियों के बोझ से जीवन को दुखमय बनाए रखते २- और जीर्ण हुए शरीर को बदलने की सुविधा. मृत्यु प्रकृति की अनुपम देन है .....अद्भुत वरदान है .....बिना तप का वरदान
जो हर किसी के लिए सहज सुलभ है. इसलिए जो मृत्यु का स्वागत करते हैं वे अगले जीवन का भी स्वागत करते हैं.
प्रत्येक व्यक्ति की समझने की क्षमता अलग अलग है, इसी कारण प्राचीन हिन्दुओं ने ने सत्य को समझ खजुराहो समान भूमि के ही अंश, पत्थरों आदि, से मन की शान्ति हेतु मंदिर बनाए...
'मंदिर' को समझने के लिए हमें मिस्र की मन में ही यात्रा करनी होगी,,, वहाँ के प्राचीन श्मशान घाट की, नेक्रोपोलिस की, जहां - हिन्दू मान्यतानुसार - अंग-भस्म धारी अमृत शिव, अर्थात परमात्मा रहते हैं... आकाश को छूते पत्थर से बनी विराट संरचना, तथाकथित ब्रह्मा समान चतुर्मुखी, 'पिरामिड',,, अर्थात 'पायर' यानि 'अग्नि' + एमिड यानि 'मध्य में'!
वापिस आ 'भारत' में देखें तो हम भाग्यशाली हैं जो हिमालय के कारण हमारा काम छोटे छोटे मंदिरों से ही चल जाता है...
शांत मन (शक्ति पीठ, सहस्रार) अर्थात सद्चिदानंद को दर्शाती 'नंदा देवी'... देवी के नेत्र को दर्शाती 'नैना देवी', मुख को दर्शाती 'ज्वालामुखी' मंदिर,,, देवी की जननेंद्रिय, मूलाधार को दर्शाती 'कामख्या' मंदिर, आदि, आदि के 'गर्भ गृह' जहां अजन्मा विराजमान है... और मंदिर में भक्तों की आत्मा को आकाश अर्थात ऊँचाई पर ले जाने हेतु 'विमान'...
पश्चिम में, मिस्र में किन्तु इस का लाभ केवल मृत राजाओं की आत्मा को मिला, जबकि पूर्व में, 'भारत' में, यह लाभ सभी भक्तों को मिल सकता है यदि लक्ष्मण समान गंतव्य का ध्यान है...
शायद कह सकते हैं 'हम' केवल खाना पूर्ती करते चले आते हैं, केवल परंपरा निभा रहे हैं... गीता में ज्ञानियों, योगियों ने तो कहा ही है कि "कोई भी 'मुझे' पा सकता है", किन्तु उसके लिए आत्म-समर्पण आवश्यक है 'कृष्ण' में...
मेरे मन की आसक्ति , मोह और संशय के द्वंद का समाधान प्रस्तुत करने के लिए सभी विद्वान् पाठक, ब्लॉगर और टिप्पणीकारों का ह्रदय से आभार एवं अभिनन्दन।
दिव्या जी, गीता का अध्याय १३ प्रकृति, पुरुष, और चेतना पर है... उस में से मैंने श्लोक २० से २४ श्लोक के हिंदी रूपांतर नीचे उद्घृत किये हैं...
"प्रकृति तथा जीवों को अनादी समझना चाहिए... उनके विकार तथा गुण प्रकृति जानी हैं"...
"प्रकृति समस्त भौतिक कारणों तथा कार्यों (परिणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस संसार में विविध सुख-दुःख के भोग का कारण कहा जाता है"...
"इस प्रकार जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता है... यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगती के कारण है... इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाँ मिलती रहती हैं"...
"तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है"...
""जो व्यक्ति प्रकृति, जीव, तथा प्रकृति के गुणों की अन्तःक्रिया से सम्बंधित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है... उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा"...
आदरणीय JC जी , आपकी प्रतिक्रियाओं से आपके ज्ञान का लाभ हमें मिल रहा है । बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर भी मिल रहा है। आपका ह्रदय से आभार।
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