Wednesday, March 30, 2011

आलोचना एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन !

दिन के बाद रात आती ही है और सुख के साथ दुःखइसलिए प्रशंसा की चर्चा के बाद 'आलोचना' पर विमर्श हो तो कुछ अपूर्ण सा लग रहा था

आलोचना क्या है -

किसी भी संस्था , समूह अथवा व्यक्ति के कार्यों में पाये जाने वाले दोषों की विवेचना ही आलोचना हैआलोचना द्वारा सुधार की गुंजाइश रहती है यदि आलोचना की दिशा सकारात्मक हो तोव्यक्ति के दोषों को इंगित करने के साथ-साथ , सुधार के लिए प्रयुक्त विकल्प अवश्य बताये जाने चाहिएयदि कोई संस्था अथवा व्यक्ति गलत उद्देश्य से किसी कार्य को कर रहा है तो वहाँ एक स्वस्थ्य आलोचना की दरकार है

लेकिन अतार्किक अथवा पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर , किसी की छवि बिगाड़ने के उद्देश्य से अथवा किसी को नीचा दिखाने के उद्देश्य से की गयी आलोचना , नकारात्मक आलोचना हैइस प्रकार की आलोचना अकसर नामचीन हस्तियों के विरोध में की जाती हैं , जिसका उद्देश्य उस व्यक्ति को अपने लोकप्रिय समुदाय की आँखों में छोटा बनाकर खुद सत्ता को हासिल करना होता है

कभी कभी किसी के अस्तित्व को ही नकार देने के उद्देश्य से की गयी आलोचना भी नकारात्मक हैउदाहरण स्वरुप - - "स्त्रियों को अधिक तर्क वितर्क नहीं करना चाहिए "। ऐसा कहकर स्त्रियों की आवाज़ को ही दबा देना-"आज की युवा पीढ़ी में संस्कार ही नहीं है " । इस प्रकार के एक बड़े समुदाय की आलोचना करके सिरे से खारिज कर देना भी नकारात्मक हैऐसी आलोचना विकास में बाधक हैआलोचना में सामान्यीकरण (sweeping generalization), अनुचित है

Discrediting tactic - यह भी एक प्रकार की आलोचना है , जिससे किसी के व्यक्तित्व को जबरदस्त क्षति पहुचाई जा सकती है , जिसकी आपूर्ति असंभव हैइसका उद्देश्य एक लोकप्रिय व्यक्ति को मैदान से समूल उखाड़ फेंकनाऐसा अक्सर लोकप्रिय public figures के खिलाफ होता हैउदाहरण - हिटलर के पास एक ही 'वृषण' (testicle) हैइस प्रकार के दुष्प्रचार से हस्तियों को एक नकारात्मक छवि देकर उनकी लोकप्रियता को क्षति पहुँचाना

अक्सर खुद को बेहतर साबित करके , जीत हासिल करने के उद्देश्य से व्यक्ति पर व्यक्तिगत आक्षेप कर आक्रमण करना भी नकारात्मक आलोचना का ही स्वरुप हैयह आलोचक के छुद्र मंतव्यों को परिलक्षित करता है

एक आलोचक यदि नैतिक मूल्यों का भी स्मरण रखे तभी सार्थक आलोचना कर सकता हैआलोचना के दौरान किसी भी प्रकार से व्यक्ति की छवि और स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, और उसके कार्यों के सार्थक उद्देश्य की अवहेलना नहीं होनी चाहिएकभी भी आलोचना द्वारा विवाद खड़ा करके किसी स्वस्थ्य बहस में बाधा नहीं उपस्थित करनी चाहिए

कबीर दास जी का दोहा है -

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाए ,
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात है की दोहा लिखने वाला एक संत है , वैरागी हैउसमें अहंकार नहीं हैवो तो आराम से आलोचना कर देगा - " काकर पाथर जोरि के मस्जिद दियो बनाये , ता चढ़ी मुल्ला बांग दे , का बहरा हुआ खुदाय" ।

एक संत अपने पास निंदक रख भी सकता है और निंदा भी अति सहजता से कर सकता हैऐसा करने में वो विचलित नहीं होगालेकिन एक साधारण मनुष्य को इस बात का बहुत ध्यान रखना है की वह संत नहीं है , अतः आलोचना करते समय उसके पूर्वाग्रह हों उसके साथ , तथा जिसकी आलोचना कर रहे हैं , उसकी भी वय , अनुभव , अवस्था , परिस्थिति का पूर्ण आंकलन कर लें आलोचक का दंभ बीच में आये , व्यक्ति के स्वाभिमान को ठेस पहुंचे , तभी एक स्वस्थ आलोचना संभव है

आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए था जिसकी आलोचना हो रही है , उसमें पर्याप्त दृढ़ता होनी चाहिएयदि दोनों का ही अहंकार बीच में आये तभी आलोचना की सार्थकता है

आभार

55 comments:

सदा said...

एक आलोचक यदि नैतिक मूल्यों का भी स्मरण रखे तभी सार्थक आलोचना कर सकता है ...बिल्‍कुल सही कहा है आपने ..बेहतरीन एवं सार्थक प्रस्‍तुति ।

सञ्जय झा said...

bahut badhiya.......pichle post par prasansa ke vanaspati alochna ki kuch bani bhoomika par....
ane wali sundar samalochna ke prati ikshuk
......

pranam.

Dr Varsha Singh said...

आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए था जिसकी आलोचना हो रही है , उसमें पर्याप्त दृढ़ता होनी चाहिए । यदि दोनों का ही अहंकार बीच में न आये तभी आलोचना की सार्थकता है ।


आपने सही विवेचना की है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

लेख में विहित तथ्य शत प्रतिशत ग्राह्य हैं ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आलोचना पर सार्थक लेख ... केवल खराब है कह देना काफी नहीं ...उसमे क्या सुधार किया जाना चाहिए यह भी बताना आवश्यक है ..आलोचना करने का हक उसी को है जो निस्पृह रह कर अपनी बात कहे ...किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं ...

"एक आलोचक यदि नैतिक मूल्यों का भी स्मरण रखे तभी सार्थक आलोचना कर सकता है । आलोचना के दौरान किसी भी प्रकार से व्यक्ति की छवि और स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, और उसके कार्यों के सार्थक उद्देश्य की अवहेलना नहीं होनी चाहिए "
सटीक विचार ...अच्छा लगा लेख ...कोशिश रहेगी की इन बातों को ध्यान में रखूं .

सुज्ञ said...

आलोचक के वचनो के आधार पर यह बखुबी जाना जा सकता है कि आलोचक की मंशा क्या है।

हित-चिन्तक वाकई उस कमजोरी की और दिशानिर्देश करेगा जो हम में है और हमारे व्यक्तित्व में बाधक बने हुए है।

हमारी सफलता से चिडने वाला आलोचक अनावश्यक बुराई निकालेगा जिसका विषय से कुछ लेना देना न होगा। वह आलोचक हमारी सफलता का इंडिकेटर है कि हमने कोई पोजिशन बना ली है। अतः इस आलोचना का उपयोग भी हम फ़ेवर में कर सकते है।

अतः आलोचक की मंशा भांप कर साकारात्मक निर्णय लो। और अपने किले को सुदृढ रखो। अपने अच्छे कार्यों पर पूर्ण विश्वास रखो।
हमारा तो यही सूत्र है।

मीनाक्षी said...

आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए था जिसकी आलोचना हो रही है उसमें पर्याप्त दृढ़ता होनी चाहिए । यदि दोनों का ही अहंकार बीच में न आये तभी आलोचना की सार्थकता है । -- प्रभावशाली और सार्थक लेख है...

Kunwar Kusumesh said...

प्रशंसा के बाद आलोचना पर पोस्ट.वाह क्या बात है. बहुत सँभालते हुए पठनीय पोस्ट लिखी और लगाई है आपने.

नीलांश said...

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाए ,
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।

आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए था जिसकी आलोचना हो रही है , उसमें पर्याप्त दृढ़ता होनी चाहिए । यदि दोनों का ही अहंकार बीच में न आये तभी आलोचना की सार्थकता है ।
.....ye sunder hai...

Unknown said...

alochana se kabhi ghabdana nahi ......

ek sahi post bina vivad ke .....

jai baba banaras.......

Dr (Miss) Sharad Singh said...

आलोचना के दौरान किसी भी प्रकार से व्यक्ति की छवि और स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, और उसके कार्यों के सार्थक उद्देश्य की अवहेलना नहीं होनी चाहिए । कभी भी आलोचना द्वारा विवाद खड़ा करके किसी स्वस्थ्य बहस में बाधा नहीं उपस्थित करनी चाहिए।....

आपका कथन अक्षरशः सत्य हैं...इन बातों का ध्यान रखा ही जाना चाहिए।
सार्थक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

रश्मि प्रभा... said...

prabuddh adhyayan ....यदि दोनों का ही अहंकार बीच में न आये तभी आलोचना की सार्थकता है ।

दिगम्बर नासवा said...

निंदा या आलोचना केवल निंदा के लिए नही होनी चाहिए ... जैसे की भारतीय राजनीति ... विरोधी हमेशा ही ग़लत है ...

ashish said...

आलोचना अगर बीमार ना हो तो सुलोचना होती है . निर्मल और पारदर्शी . सुन्दर आलेख .

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

सुन्दर सम्यक पाठ!
सबके लिए पठनीय है इs पोस्ट की प्रशंशा में आपके लिए ह्रदय से ये दो शब्द निकले. धन्यवाद!!

sanjay said...

प्रोत्साहन और आलोचना के बाद "कन्नी काटने" और "पल्ला झाड़ने" के विषय पर भी लिखियेगा क्योंकि आपने अब तक निशाप्रिया भाटिया को ऐसे सुझाव नहीं दिये कि उनके विरोधी पागल होकर बाल नोचने लगें और कपड़े फाड़ लें। यदि समाज में सुधार की अपेक्षा हो तो जरूरी है कि जो कहें उसे अमल में लाएं वरना पर उपदेश कुशल बहुतेरे....
लिखना पढ़ना तो चलता ही रहेगा।

प्रतुल वशिष्ठ said...

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आलोचना मतलब देखने का एक ख़ास नज़रिया. उसके कुछ गुण हैं :
विशेष दृष्टिकोण, जिसमें विषय-वस्तु का चौतरफा अवलोकन किया जाता है.
समग्र मूल्यांकन, जिसमें छिपी और अनकही बातों का भी उदघाटन होता है.
दूरदर्शिता, विषय-वस्तु का भावी प्रभाव देख लेने की आँख ....... आलोचना है.


जैसे बीच समुद्र में प्रकाश स्तम्भ [लाइट हाउस] भटके जहाज़ों का मार्गदर्शन करता है.
ठीक उसी प्रकार एक अच्छी आलोचना सामान्य या अपरिपक्व पाठकों को विषय-वस्तु में छिपे अच्छे और बुरे पहलुओं को प्रकाशित कर देती है.

आपने 'आलोचना' को मनोवैज्ञानिक नज़रिए से देखा.... और उसे हम सभी को बाखूबी दिखा भी पाये.
आपकी विश्लेषक दृष्टि को साधुवाद.

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ZEAL said...

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sanjay said...

प्रोत्साहन और आलोचना के बाद "कन्नी काटने" और "पल्ला झाड़ने" के विषय पर भी लिखियेगा क्योंकि आपने अब तक निशाप्रिया भाटिया को ऐसे सुझाव नहीं दिये कि उनके विरोधी पागल होकर बाल नोचने लगें और कपड़े फाड़ लें। यदि समाज में सुधार की अपेक्षा हो तो जरूरी है कि जो कहें उसे अमल में लाएं वरना पर उपदेश कुशल बहुतेरे....
लिखना पढ़ना तो चलता ही रहेगा।
March 30, 2011 2:51 PM

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प्रिय संजय ,

आप कितने भोले हैं । पिछले दो माह से आपको ट्रेनिंग पर रखा है और आप सीख भी गए हैं 'बाल नोचना' , फिर भी पूछते हैं की बाल नोचने के सुझाव दीजिये ? मेरे प्यारे मासूम से भाई , आपने भड़ास ब्लॉग पर मेरे खिलाफ ढेरों पोस्ट लगा रही है , मुझे शुतुरमुर्ग और जंग लगा लोहा कहते हो आप । मुझे ललकारते हो आप , कि आकर आपसे संवाद करूँ । लेकिन प्रिय संजय , मैं सुझाव देने के बजाये आपको प्रक्टिकल ट्रेनिंग दे रही हूँ बाल नोचने की । आप मुझसे खफा होकर जितना ज्यादा मेरे खिलाफ भड़ास निकालोगे , समझ लेना उतने ही ज्यादा बाल नोचे आपने अपने। आशा है अब आप समझ गए होंगे की विरोधियों से बाल कैसे नुचवाये जाते हैं।

अधिक क्या कहूँ , मुस्कुरा रही हूँ , आपके भोलेपन पर ।

ये भोलापन तुम्हारा , ये शरारत और ये शोखी , ज़रुरत क्या तुम्हें तलवार की , तीरों की , खंजर की ....

सस्नेह,
आपकी शुभचिंतक ,
दिव्या.

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aarkay said...

आलोचना का अर्थ ही है भली भांति देख भाल कर किया गया विवेचन . साथ ही इसका मंतव्य है सुधार न कि हतोत्साहित करना या अस्तित्व को ही चुनौती देना. . बाकी आपने सब कुछ तो लिख ही दिया है.
सटीक सोदाहरण अत्युत्तम आलेख.
बधाई , दिव्या जी !

प्रवीण पाण्डेय said...

आलोचना तथ्यों पर हो व्यक्तित्वों पर नहीं। सुन्दर विवेचना।

आपका अख्तर खान अकेला said...

nindak niyre raakhiye hi aalochna he lekin shayd alaochnaa or smalochna donon alg alg he bhtrin jankari vishleshn he shurkiya. akhtar khan akela kota rajsthan

महेन्‍द्र वर्मा said...

आलोचना की विस्तृत और अच्छी समीक्षा की है आपने।

आलोचना के संदर्भ में यह आवश्यक है कि आलोचक और आलोच्य दोनों विवेकी हों। यदि एक या दोनों में विवेक नहीं है तो आलोचना का परिणाम नकारात्मक ही होगा। आलोचना का उद्देश्य भले ही सकारात्मक हो किंतु यदि आलोच्य में विवेक नहीं है तो ऐसी आलोचना का विपरीत प्रभाव हो सकता है।
आलोचना करने की सामर्थ्य सभी रखते हैं लेकिन आलोचना सुनने का साहस सभी के पास नहीं होता।

एक विडंबना यह भी है कि जो प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके होते हैं या प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होते हैं, उनकी आलोचना होने लगती है।

आशुतोष की कलम said...

निंदक नियरे रखिये आँगन कुटी छवाये,
बिन साबुन बिन तेल के निर्मल करे सुहाय

दिनेशराय द्विवेदी said...

आलोचना का अर्थ केवल कमियाँ तलाशना मात्र नहीं है। किसी के उजले पक्षों पर प्रकाश डालना भी है। वस्तुतः यह आलोच्य के विकास के लिए होना चाहिए।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

प्रशंसा और आलोचना के बीच समीक्षा भी तो है :)

मदन शर्मा said...

आलोचना पर सार्थक लेख ...
केवल खराब है कह देना काफी नहीं ...
उसमे क्या सुधार किया जाना चाहिए यह भी बताना आवश्यक है.
आलोचना करने का हक उसी को है जो निस्पृह रह कर अपनी बात कहे किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं ...

SANDEEP PANWAR said...

जाट देवता की राम राम।
बहुत खूब । एकदम सच ।

Rahul Singh said...

आत्‍मावलोकन का दौर चल रहा है शायद.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

समालोचना कहीं अच्छी चीज है...

mridula pradhan said...

alochna men koun,kahan,kiski,kaise ka dhyan rakhna zaroori hai.....ye sab theek hai to sab kuch theek hai....varna pareshani ka karan nikal jata hai.

Rakesh Kumar said...

आलोचना में आलोचना करनेवाले का मकसद और वाणी का बहुत महत्व है. यदि मकसद सकारात्मक न होकर किसी को नीचा दिखाना हो तो ऐसी आलोचना द्वेष और नफरत को ही जन्म देती है.सकारात्मक आलोचना में भी वाणी प्रिय,हितकारी और सच्चाई पर आधारित होनी चाहिये.कड़वी वाणी यदि सच भी हो तो भी हर किसी को पसंद नहीं आती.आपने ठीक ही कहा है कि
"आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए जिसकी आलोचना हो रही है , उसमें पर्याप्त दृढ़ता होनी चाहिए । यदि दोनों का ही अहंकार बीच में न आये तभी आलोचना की सार्थकता है ।"

डा० अमर कुमार said...


भले ही यहाँ कोई मुझे लतखोरी लाल समझे, पर मुझे मेरे आलोचक मित्र जान से भी प्यारे हैं, उन्होंने मुझे उपर्युक्त दिशा दिखायी है, और मुझे इस मुकाम पर पहुँचाया है । करना बस इतना होता है कि अपने अहँ की टोपी उतार कर जेब में रख लीजिये, आप स्वतः ही उनकी आलोचना से सहमत होते जायेंगे ।
मैं व्यक्तित्व विकास के लिये आलोचना को अनिवार्य तत्व मानता हूँ, वरना तो यहाँ विमर्श चल ही रहा है ।

Unknown said...

आलोचना केवल कमियाँ तलाशना मात्र नहीं है। किसी के उजले पक्षों पर प्रकाश डालना भी है। आलोचना कI अनिवार्य तत्व है सुधार न कि हतोत्साहित करना या अस्तित्व को ही चुनौती देना
प्रभावशाली और सार्थक विवेचना

Patali-The-Village said...

बिल्‍कुल सही कहा है आपने| बेहतरीन एवं सार्थक प्रस्‍तुति ।

ZEAL said...

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डॉ अमर ,

आपने सही कहा की यदि लोग अपने अहंकार की टोपी उतारकर जेब में रख लें तो स्वतः ही सहमत हो जायेंगे आलोचना से , लेकिन विडंबना तो यही है की आलोचकों का स्वयं का अहंकार बहुत ज्यादा होता है , जिसे वो आड़े वक़्त पर उत्तर कर जेब में नहीं रख पाते । एक बार मेरे एक आलोचक मित्र ( जिनसे मेरा विशेष स्नेह है ) , का अहम् चोट खा गया , और फलस्वरूप उन्होंने मुझसे नाराज़ उन्होंने मेरे १०० लेखों पर से अपनी टिपण्णी डिलीट कर दी ।

टिपण्णी किसी व्यक्ति को खुश अथवा दुखी करने के लिए नहीं लिखी जाती । टिप्पणियां विषय के साथ न्याय करती है और लिखने वाले की पहचान छोड़ जाती हैं । जिसे लेख लिखने वाले के साथ साथ अन्य हज़ारों लोग भी पढ़ते हैं।

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ZEAL said...

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कहा गया है , अपनी बात कहने से पहले दो बार सोचना चाहिए । और मेरे विचार से आलोचना करने से पूर्व , कम से कम तीन बार अवश्य सोच लेना चाहिए।

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बाल भवन जबलपुर said...

एकदम आवश्यक आलेख
शुक्रिया, वैसे लोग वैयक्तिक और पूर्वाग्रही होते हैं.

अजित गुप्ता का कोना said...

इस विषय पर तो क्‍या लिखा जाए? हमने तो आलोचना के ऐसे ऐसे दंश झेले हैं कि इस शब्‍द से ही कोफ्‍त होने लगी है। वर्तमान में आलोचना नहीं होती है अपितु व्‍यक्ति की हस्‍ती को मिटाने की तिकड़में होती हैं। अच्‍छा लिखा है, सारी बाते चलचित्र के समान आँखों के सामने घूम गयी।

अशोक सलूजा said...

दिव्या ! अभी-अभी मैंने अपनी पोस्ट लगाई है |और तुम्हारी ये पोस्ट उसके फ़ौरन बाद मेरी नजर मैं आई | जिसको मैंने अब पड़ा |अब इसके लिए क्या कहूँ ...ये पड़ कर बताना |कल क्रिकेट के खेल के कारण अपना लेपटॉप खोला ही नही था |..
आशीर्वाद!

गिरधारी खंकरियाल said...

आलोचना आवेग भरती है, समालोचना स्नेह, और निंदा व्यक्तित्वा का ह्रास करती है .

प्रतिभा सक्सेना said...

आलोचना में गुण और दोष दोनों का संतुलित विवेचन होता है -पूर्वाग्रहों से रहित और पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखते हुए .
आपने जो उदाहरण दिए हैं
१- "स्त्रियों को अधिक तर्क वितर्क नहीं करना चाहिए "२-"आज की युवा पीढ़ी में संस्कार ही नहीं है "
यह आलोचना नहीं ,अपना मत लाद देने वाली बात है .आलोचना में प्रमाण सहित और सहृदयतापूर्वक सतर्क मूल्यांकन होना चाहिये तभी वह आलोचना या समीक्षा कहलाने की अधिकारी है .

डा० अमर कुमार said...

@ DIVYA
तुम ठीक कह रही हो, दिव्या ! टिप्पणी डिलीट करने वाला वह महानुभाव मैं ही हूँ । किन्तु दूसरी जगह तुम गलत भी हो.. उसका कारण मेरा अहम नहीं बल्कि घायल मन था, एक क्षोभ.. उन टिप्पणियों में समय बरबाद करने का कचोट, चीजों को गलत परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की शर्मिन्दगी.. मुझे बाध्य कर रही थी कि, मैं यहाँ पर अपने होने का हर सबूत हटा दूँ । इससे पहले कि मेरी टोपी कुछ और उछाली जाये, मैं उसे सँभाल कर विदा ले लूँ ।
खैर.. मेरे एक मित्र हैं दीप जोशी ( आजकल लखनऊ SBI ज़ोनल ऑफ़िस में हैं ).. वह मेरी प्रैक्टिस के शुरुआती दिनों में छिप कर स्टॉपवाच से यह आँकते थे कि मैंनें किस मरीज को कितना समय दिया और जिसके वजह से कितने लोगों को अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़ी । वह बाकायदा इसकी ज़वाबदेही लेते थे, और झगड़ते भी थे । मैं उनसे पूछ सकता था कि ,साले मैं डॉक्टर और तुम बैंक क्लॅर्क.. तु पूछने वाले कौन ? तथाकथित टोपी और ज़ेब तो तब भी मेरे पास हुआ करती थी, मोहरतरम ? कुछ छोटे तबके के लोग मुझ तक पब्लिक फीडबैक पहुँचाते थे । मेरे लिखे की धज्जियाँ इन्दु, सँध्या सिंह, सँध्या दीक्षित उड़ा दिया करती थी, मैं रूँआसा हो उन्हें वापस लाकर ठीक किया करता था.. मुझे खुशी है कि दर्ज़न दो दर्ज़न रचनाओं के बल पर मेरी पहचान प्रगतिशील साहित्य में बन गयी । इसका श्रेय मैं अपने मित्रों और आलोचको को न दूँ तो यह बेईमानी होगी ।
एक बात और.. तुम्हें अभी ठीक से कटाक्ष करना भी नहीं आता ।

डॉ. दलसिंगार यादव said...

आलोचना का मंतव्य ठेस पहुंचाना और नीचा दिखाना बिलकुल नहीं होना चाहिए। साहित्य में आलोचना का विषय पढ़ाया जाता है और ऐसा ही सिखाया जाता है। उजले और धुंधले दोनों पहलुओं के सामने लाकर एक पूर्ण रचना का आयाम देने का प्रयास ही आलोचना है। अच्छा विषय चुनती हैं और लोगों को भी आपकी पोस्ट की प्रतीक्षा रहती है। बधाई।

ZEAL said...

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प्रिय डॉ अमर ,

आज तक कभी कटाक्ष का सहारा नहीं लिया अपनी बात कहने के लिए । अभिधा में ही सरल भाषा में अपनी बात कह देती हूँ । जो सच था वो लिख दिया था , केवल आपका नाम नहीं लिखा था , क्यूंकि नाम लिखने की आवश्यकता नहीं थी। यदि आप स्वयं नहीं लिखते तो किसी को मालूम भी नहीं होता की इतना श्रम-साध्य कार्य आपने किया है।


टिपण्णी डिलीट करते समय आपको जो उचित लगा वो आपने किया । आपके मन में क्षोभ था और आपका मन घायल था इसलिए आपने क्षोभवश ढेरों लेखों पर टिपण्णी मिटा दी , जो हर तरह से अनुचित है। कभी-कभी मेरा भी मन घायल होता कुछ लोगों की टिप्पणियों से , लेकिन असंयत होकर कभी भी अपने द्वारा लिखी टिपण्णी नहीं मिटाती हूँ जाकर । क्यूँ पूर्व में लिखी गयी टिपण्णी विषय पर होती है , लेखक के प्रति अनुराग के कारण नहीं । इसलिए मन घायल होने पर लेखक को सजा देने के उद्देश्य से टिप्पणियों को डिलीट करना बचपना है ।

आप अपनी टिप्पणियां डिलीट करके एक प्रकार से बदला लेना चाहते थे , मुझे दुःख देना चाहते थे , अपना मन हल्का करना चाहते थे और अपने घायल मन को शांत करना चाहते थे ।

टिप्पणियां डिलीट करके आप मुझे दुःख देने के उद्देश्य में सफल भी हुए , आपका मन भी हल्का हुआ होगा ।
लेकिन एक साथ अनेक लेखों पर जाकर पिछले छः माह में लिखी गयी टिप्पणियों को मिटाना अनुचित ही कहा जाएगा । लेकिन आपके दुखी मन की विवशता समझी थी मैंने , इसलिए कोई बात नहीं।

आपने जो किया उचित ही किया । हर व्यक्ति को सर्वप्रथम वही करना चाहिए जिससे उसके मन को शान्ति मिले ।

रही बात मन के घायल होने की जो सबसे अहम् है । एक आलोचक को ध्यान रखना चाहिए की उसकी आलोचना किसी को जाने-अनजाने में दुःख तो नहीं दे रही ।

हो सकता है आपके जीवन में आलोचकों का बहुत योगदान रहा हो । लेकिन मुझे लगता है , प्यार , स्नेह और मृदु भाषा से जो सिखाया जा सकता है वो आलोचना द्वारा कतई नहीं सिखाया जा सकता ।

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राज शिवम said...

आपकी हर रचना अर्थपूर्ण होती है।आलोचना पर आपने बड़ी सुन्दर व्याख्या की इसके लिए बहुत बधाई।
आपके अन्दर विशेष अध्यात्मिक गुण है......

दिलबागसिंह विर्क said...

आलोचक का मंतव्य पावन होना चाहिए
बिलकुल सही कहा आपने
सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना नहीं होनी चाहिए . प्रशंसा में मैं 'बहुत अच्छा ' कहना काफी समझता हूँ लेकिन आलोचना में 'बुरा' कहने से काम नहीं चल सकता .आलोचना करो तो फिर तर्क सहित बताओ भी

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

सार्थक विषय का चयन और साथ ही और अधिक सार्थकतापूर्ण विमर्श। कभी कभी शब्दों की व्यत्पत्ति के बारे में विचारता हूं तो लगता है कि मुंबइया बोली का अक्सर प्रयोग करा जाने वाला शब्द "लोचा" भी आलोचना से ही उपजा होगा :)
भइया

वीरेंद्र सिंह said...

Really very meaningful post. Your take on this issue is 100% acceptable. Nice job. Congrats.

'साहिल' said...

बहुत ही सार्थक लेख है! ये समीक्षा पढ़ कर अच्छा लगा!

जयकृष्ण राय तुषार said...

सार्थक लेख दिव्या जी बहुत बहुत बधाई |

Satish Saxena said...
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Satish Saxena said...
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ZEAL said...

सभी टिप्पणीकारों का , उनके बहुमूल्य विचारों के लिए बहुत-बहुत आभार । ये लेख मेरे पसंदीदा लेखों में से एक है ।

आचार्य परशुराम राय said...

जहाँ तक मुझे मालूम है आलोचना का अर्थ किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा रचना के गुण और दोषों का प्रमाण सहित विवेकपूर्ण विवेचन होता है, केवल दोष-दर्शन नहीं। आभार।

rashmi ravija said...

आलोचना कई बार उन बिन्दुओं की तरफ भी ध्यान दिला जाती है...जिस से हम अनभिग्य होते हैं...पर केवल आलोचना के उद्देश्य से कमियाँ निकालना...मन को दुखी कर जाता है...
एक सार्थक आलेख