Friday, November 19, 2010

बलि का बकरा -- Scapegoat !

जब हम स्वयं को किसी परिस्थिति विशेष में " बलि का बकरा " बना हुआ पाते हैं तो अत्यंत मानसिक पीड़ा और भय के दौर से गुज़रते हैं इसी बात पर ध्यान आया बकरीद के पावन अवसर पर हलाल होने वाले निर्दोष बकरों का। आँख बंद कर के देखा तो पाया की करोड़ों की संख्या में पशु हलाल हुए पड़े थे खून की नदियाँ बह रहीं थीं। निर्दोष पशुओं की लाशें बिना शिकायत किये इंसान की ख़ुशी का सामान बन रही थीं। क्या ये त्यौहार हम मिठाई और सिवयीं खाकर नहीं मना सकते ? निर्दोष पशुओं की चीख से खरीदी गयी मुस्कुराहटें कहाँ तक उचित हैं ?

बकरीद एक खुशियों का त्यौहार है एक बार अल्लाह ने पैगम्बर अब्राहम को सपने में उसके पुत्र की बलि देने के लिए कहा। पैगम्बर अब्राहम ने अल्लाह में अपनी आस्था को बताने के लिए उसे कबूल कर लिया लेकिन कुर्बानी के वक़्त अल्लाह के दूत ने उसे रोक दिया यह कहकर कि , अल्लाह उसकी आस्था से प्रसन्न हैं , इसलिए उसे बेटे की कुर्बानी देने की आवश्यकता नहीं है। तब से आज तक बकरीद के पर्व पर पशु बलि की प्रथा चली रही है। मुझे तो लगता है , अल्लाह ने उस कुर्बानी को रोककर अपनी दयालुता का परिचय दिया है तथा हिंसा करने का सन्देश दिया है।


बलि चढ़ाए जाने वाले पशु -

  • बकरा या भेड़ [ आयु एक साल से ज्यादा हो ]
  • गाय , भैंस [आयु २ साल से ज्यादा]
  • ऊंट [आयु ५ साल से अधिक]

प्रति व्यक्ति एक बकरे की बलि तथा cattles का एक सर सात लोगों के लिए बलि किया जाता है। जिसमें सभी का हिस्सा बराबर होता है। इस्लाम को मानने वालों का ये कहना की हलाल का तरीका ऐसा होता है जिससे पशु को बहुत कम पीड़ा हो  यानि की वो इस बात को जानते हैं की हलाल के वक़्त पीड़ा होती है।

आखिर ये हिंसा क्यों ? कहा गया है - "जैसा खाए अन्नवैसा बने मन। " इस हिंसा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए  पूरी-कचौरीमिठाई , खीरसिवंयीं के साथ यदि यह त्यौहार मनाया जाए तो क्या इसकी महिमा कम हो जायेगी ?


क्या पशु-वध और हिंसा से " अमन का पैगाम " दिया जा सकता है ?

167 comments:

vandana gupta said...

क्या पशु-वध और हिंसा से " अमन का पैगाम " दिया जा सकता है ?

कभी नहीं…………विचारणीय आलेख्।

Smart Indian said...

क्या पशु-वध और हिंसा से " अमन का पैगाम " दिया जा सकता है ?

Certainly not.

Yashwant R. B. Mathur said...

बिलकुल सही बात कही आपने.ये तो ठहरे निरीह पशु जिनकी कुर्बानी दी जाती है.और अपनी रोज़ की गतिविधियों में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हम सभी पशु हिंसा के गुनाहगार हैं.सैकड़ों की संख्या में मुर्गों और मछलियों को सारे बाज़ार क़त्ल कर के बेचा जाता है और हम में से कुछ लोग बहुत चाव से उन्हें खाते हैं.
कुछ अन्य जीव जंतुओं का इस्तेमाल सौन्दर्य प्रसाधन आदि बनाने में भी किया जाता है.
लखनऊ के अमौसी एअरपोर्ट के नज़दीक मांस की दुकानों के बारे में कई बार समाचार प्रकाशित होते रहे हैं;यहाँ से उडान भरने वाले विमानों से पक्षियों के टकराने की घटनाओं में इनका बड़ा योगदान रहा है.

सुज्ञ said...

करूण सोच से उपजी पोस्ट!!
आभार दिव्याजी,

आजकल ऐसी इन्सानियत कम ही देखने को मिलती है।

इन्सानियत का तो यही तकाज़ा है कि जो बचने की गुहार नहिं लगा सकते, उनके बारे में भी इन्सान ही सोचे।

और इन्सान इसी लिये नहिं सोच पाता कि "जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन। "

वह इन्सान ही क्या जो इन्सानियत भी अपने स्वार्थ पर लागु करे, और ईश्वर की दूसरी रचना से अन्याय करे। सारी सृष्ठि से प्रेम इन्सानियत है बाकि ऐसा स्वार्थ तो जानवर भी रखते है।

Deepak Saini said...

डा0 साहब आज आपने ऐसा प्रश्न उठाया है जिस से मै हमेशा द्रवित होता हूँ। मुसलमान इस त्योहार का असली मकसद ही भूल गये। पहले जिस जानवर को बकरीद पर हलाल करना होता था उस को कम से कम छः महीने तक पाला जाता था। जिससे उस पशु के साथ उस पुरे परिवार का एक लगाव हो जाता था। बकरीद पर उस पशु की कुबार्नी अल्लाह के प्रति उस परिवार की तरफ से उस लगाव की कुबार्नी होती थी जो पिछले छः महीने मे उन्हे उस पशु से हो गया था।
परन्तु आज का तो नजारा ही अलग है बकरीद से दो दिन पहले इन पशुओ की स्पेशल मण्डी लगती है, लोग खरीदते है और कुबार्नी देते है पर क्या कुबार्नी दी, कुछ भी नही । बकरा अपनी जान से गया खाने वाले को स्वाद तो आया मगर मकसद तो पूरा नही हुआ।
इस तरह सिर्फ हत्या की जा सकती है लेकिन अमन का पैगाम तो कहीं से कही तक भी नही।

ashish said...

वाह बढ़िया सुझाव, क्यू ना सेवई का सेवन करके ईद अजुहा मनाया जाय , इस सुझाव पर विद्वान लोग अपना मत देंगे , हम तो आते रहेंगे मत विभिन्नता देखने के लिए . अमन का पैगाम तो मासूमियत से ही दिया जा सकता है .

PAWAN VIJAY said...

मुझे तो लगता है , अल्लाह ने उस कुर्बानी को रोककर अपनी दयालुता का परिचय दिया है तथा हिंसा न करने का सन्देश दिया है।

100% correct

Sagar said...

pasu hinsa ke prati jan jagrati ka bahut achha karya kiya aapne...

Zeal जी,, आपने कहानी के अंत के लिए २ प्रतिक्रियाये सुझाई पर समाश्या ये है कि कहानी तो एक ही तरह से ख़त्म हो सकती है २ अंत संभव नहीं है..
आपके इस स्नेह ने मेरा प्रोत्साहन दुगना कर दिया .. .आगे भी आपका साथ बना रहेगा .. यही उम्मीद करता हू..
जय माता दी ..

सागर........

"एक अनाथ बच्चे कि नयी माँ" ब्लॉग स्वतन्त्र विचार पर देखने के लिए क्लिक करे : आपकी प्रतिक्रिया "

शोभना चौरे said...

किसी को पीड़ा देकर आप कैसे चैन से रह सकते हो ?अल्हाह का पैगाम था अपने अन्दर की राक्षसी प्रवृतियों की क़ुरबानी देने का |

Unknown said...

कुछ वर्ष पूर्व मेरे कस्बे में बारिश की कामना के लिए माताजी मंदिर पर भैंसे की बलि चढ़ाने के लिए घर-घर उगाही की गई। भैंसे के साथ-साथ बकरा भी चढ़ा। लेकिन फिर भी उस साल बारिश नहीं हुई। हुई तो सिर्फ दो निरिही एवं मूक प्राणियों की हत्या। आज भी परंपरा,आस्था और अंधविष्वास के आधार पर हमारे पशुधन की बलि चढ़ाई जाती हैं। हिंसा करने वाला समाज से सहर्दय होने की कामना कैसें कर सकते हैं। हांलाकि अब कई देवस्थानों पर लिखा होता हैं कि यहां पशुबलि चढ़ाना मना हैं। लेकिन फिर भी बलि चढ़ाने पर उतारू लोग मंदिर के सम्मुख वाले किसी दूरस्थ स्थान पर पशुओं को अपनी तलवार का कोप भाजन बनाने से नहीं चुकते।

RAJWANT RAJ said...

ye htya to dharm ke nam pr hai un htyao ka kya hoga jo rooj jban ke swad ke liye ki jati hai ?htya to htya hai chahe dharm ke nam pr ho chahe swad ke nam pr . aapki is shandar post pr sach puchhiye to vhi comment dene ka hakdar hai jo khud shakahari ho .

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अज्ञानता कहूंगा ! हमारे उत्तराँचल में पहले हर मंदिर में बकरे की बली दी जाती थी ! पिछले करीब ३०-३५ सालों से स्वामी मनमंथन और अन्य लोगो के प्रयास से ९९% मंदिरों में यह बंद कर दिया गया है ! क्या वहां के उन मंदिरों में निवास करने वाले देवी-देवता भूखों मर गए ? नहीं, बस मनुष्य में थोड़ी अक्ल आ गई !

आशीष मिश्रा said...

बिलकुल नहीं......

कडुवासच said...

... saarthak abhivyakti !!!

Apanatva said...

saargarbhit lekh.

वीरेंद्र सिंह said...

100% agree.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Hinsa ki manav samaj me koi jagah nahi hai, fir bhi ham non-vegetrian hain........:)

kya karen!! sabra hi nahi hota.......

lekh vicharniya hai, lekin maan nahi paunga...:(

रंजना said...

आपकी इस भावना और विचार ने मुझे आपके सम्मुख नतमस्तक कर दिया है...

निर्भयता से इस विषय को उठाकर आपने बड़ा पुनीत कर्त्तव्य निबाहा है..

आपके इस आलेख के एक एक शब्द से मैं अपने शब्द मिलाती हूँ...

किसी भी धर्म में किये जाने वाले बलि/पशु हत्या के मैं विरुद्ध हूँ....

निरीह पशुओं का वध कर त्यौहार मानना,कहाँ तक उचित है,सोचना चाहिए...

रंजना said...

इस उम्दा आलेख के लिए आपका साधुवाद !!!!

G Vishwanath said...

Quote:
मुझे तो लगता है , अल्लाह ने उस कुर्बानी को रोककर अपनी दयालुता का परिचय दिया है तथा हिंसा न करने का सन्देश दिया है।
Unquote:

That was a brilliant interpretation. I wish to echo your sentiment.

I also wish all our religious texts, undergo similar enlightened reinterpretation.

However the initiative for this must come from the community's elders themselves.
When outsiders try to bring in reforms, there will be vehement opposition.

I am proud to note that we Hindus have carried out several reforms and these reforms have been initiated within the community. We have wisely accepted that some of our customs, which may have been relevant once upon a time, are no longer relevant and should be dispensed with. We are not fanatic about protecting our old customs and practices once we are convinced about their irrelevance.

Today, a widow is not considered inauspicious. They can remarry. They even become Prime ministers.
Sati has been eliminated (except for very rare stray cases and even in these cases the law tries to prevent it.)
Child marriages have been banned.
Untouchability is banned.The caste system is today not as rigid as it was. In urban areas it has lost its significance but unfortunately due to reservation policies the system is being revived.

I am sure most of our Muslim brothers interpret the Koran intelligently.
It is only an orthodox and extremist fringe that doggedly sticks to a particular interpretation and tries to shove it down the throats of everyone. They are a minority but a very vocal minority and also prone to violence and they hog all the attention. The silent majority is unable to control them and they often suffer for the acts of these fanatics.

---continued

G Vishwanath said...

---Continued from previous comment.

I hope and trust some day, Muslim religious leaders will come togehter and will set a path breaking example and preach doing away with this mass slaughter of goats. I wonder if this custom is specifically enjoined in the Koran. I will be grateful to any knowledgeble person if he throws light on this. Id is a great festival but this one custom repels me.

Of course, some of us Hindus are also guilty of animal sacrfices and every effort must be made to discourage and prevent them by bringing strong social pressure.

I was pleasantly surprised to hear the news that even in Pakistan, there was a very constructive suggestion that this year instead of slaughtering a goat, the goat should be donated to the people in flood affected areas.

However among Muslims, individuals can do nothing. They are conditioned to go by the dictates of their religious leaders.
So the initiative for this must come from the upper echelons of the Muslim clergy.

I support any movement any where, in any religion for humane treatment to animals.

I am shocked at the treatment meted out to animals in our pharmaceutical laboratories.
I am a vegetarian by birth and upbringing and now also by conviction.
However, I do not criticise or attack those who eat meat. This subject is highly controversial and all debates on this have been inconclusive so far. But I strongly condemn killing of animals for pleasure, sport, and for reasons of tradition, by whichever community it is done.

My compliments to you for initiating a good subject.

This subject can inflame passions and I hope all of us will observe restraint while expressing our opinions and take care not attack other readers or their communities.
May this be a healthy debate.

Regards
G Vishwanath

P.N. Subramanian said...

हम समर्थन करते हैं.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

कुछ जाहिल लोग धर्म के नाम पर ऎसे कुकृत्यों को करते हुए भी "इन्सनियत" की दुहाई देने से नहीं चूकते....काम नराधमों जैसे और सीख इन्सानियत की.

S.M.Masoom said...

हज़रत इब्राहीम का वाकेया ग़लत बताया गया है.. इस मैं सूधार कर लें, यदी ग़लती जान भूझ के ना की गयी हो तो.उनका जो फ़र्ज़ है वो अहले सियासत जानें मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे.'जिगर मुरादाबादीतो यह लेख़ पढ़ लें.

सुज्ञ said...

कई बंधु कहते है,कि मानव के साथ तो हिंसा रोक नहिं सकते, अब पशुओ की बात हम बाद में ही करें।

ऐसा तो कोई सफल रास्ता नहिं है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा स्थापित हो तो फ़िर ही जीवों की तरफ अहिंसा बढाई जाय।

मानव के साथ होने वाली हिंसाएं द्वेष और क्रोध के कारण है, और द्वेष और क्रोध पूर्ण जीत संदिग्ध है। अब जीव के साथ हमारे सम्बंध इसप्रकार नहिं बिगडते, अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की वृद्धि के लिये अहिंसा जीवों से प्रारंभ की जा सकती है।

कुमार राधारमण said...

यद्यपि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि जैसा अन्न खाया जाता है,मन वैसा ही होता है,इसमें संदेह नहीं कि किसी भी प्रकार की हिंसा हर हाल में त्याज्य है। बलि देने का दृश्य इतना वीभत्स होता है कि पता नहीं उसके बाद लोग कैसे कुछ भी खाने का साहस जुटा पाते हैं!

amar jeet said...

दिव्या जी बहुत सही कहा आपने मेरे कई परिचित मुस्लिम मित्र है मैंने उनके यहाँ देखा है की बकरीद वाले दिन एक तरफ बकरे की बलि की तयारी की जाती है वही दूसरी तरफ मसाले तैयार किये जाते है बकरा पकाने के लिए अब आप ही सोचिये ये कैसी क़ुरबानी है एक तरफ अल्लाह के बताये मार्ग पर चलने हर बात में इस्लाम की दुहाई देने वाले क़ुरबानी के नाम पर क्या करना चाहते है मेरे हिसाब से उन्हें खुद नहीं पता !

Anonymous said...

सोचिये कभी ऐसा हो की दुसरे ग्रहों से मनुष्यों से भी अधिक विकसित और शक्तिशाली प्राणी आयें और वे आते ही मनुष्यों को शिकार कर के खाना शुरू कर दें. ऐसे प्राणी किसी ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करने वाले और भावुक प्राणी नहीं होंगे. उनके सामने मनुष्यों के हर तर्क बेकार हो जायेंगे. पूरी मानव जाती उनके लिए निरीह पशुओं की तरह होगी जिन्हें मनुष्य प्रतिदिन काटकर खा जाते हैं.
बहुत ही कम लोग होंगे जिन्हें अपने खाने में चींटी या बाल देखकर कोई बुरा न लगे, हैरत की बात है के ऐसे लोग भी मांस, हड्डी, और खून से भरे हुए किसी जीव को खाने से खुद को नहीं रोक पाते.
मैंने पिछले तीन दिनों से जारी बहस को देखा. ऐसी बहस यहाँ पहले भी हुई है और उसका कोई नतीजा नहीं निकला इसलिए मैंने कुछ कहना ठीक नहीं समझा.
जारी...

Anonymous said...

यहाँ ऐसे-ऐसे तर्क दिए जाते हैं के जिनका कोई मिसाल नहीं. कोई कहता है की उन्हें दर्द नहीं होता, कोई कहता है उनमें प्रोटीन भरपूर है, कोई कहता है की हम हरदिन छोटे जीवों और जीवाणुओं को मारते रहते हैं लेकिन कोई यह नहीं सोचता की अपना जीवन हर जीव को प्रिय है. एक मुर्गी काटने से बचने के लिए किस तरह छटपटाती है यह किसी को नहीं दीखता हो तो वह आँखें होते हुए भी अँधा है. कोई कहता है की काटने में दर्द नहीं होता या एक झटके में गर्दन अलग करना अच्छी बात है, ऐसे आदमी से यह उम्मीद करना की वह आपकी किसी बात को समझेगा यह संभव नहीं है. उसे एक पलते-बढ़ते जीव को काटकर खाना है और वह उसे खायेगा, उसे कोई तथ्य या तर्क नहीं रोक सकते.
लोग एक इंजेक्शन लगवाते हैं और एक-दो दिन तक उस जगह पर तीस होती है, लेकिन एक जीव को खाने के लिए दसियों तर्क गढ़ लेते हैं.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

आपने सही सवाल उठाया है !

ZEAL said...

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मासूम जी,

गूगल पर जो पढ़ कर जाना वही लिखा है। जानबूझ कर गलत क्यूँ लिखूँगी ? यदि आपको ये वाकया गलत लग रहा है तो कृपया सच क्या है वोसामने लायें। वैसे जहाँ से मैंने इसे पढ़ा है , उस वाकये को भी कट पेस्ट कर देती हूँ जिससे कोई संशय न रहे।

वैसे इतनी बड़ी संख्या में पशु-वध करना, हिंसा को बढ़ाना , किसी त्यौहार को निरीह पशुओं के खून से रंगना कहाँ तक उचित है ?

यदि हम अपनी औलाद को बेहद प्यार करते हैं, ज़रा सी खरोच भी आ जाए तो परेशान हो उठते हैं , तो फिर जिस चौपाये [ बकरा, भेंड, गाय, भैंस, ऊंट आदि स्तनधारी ] , को हलाल किया गया है , क्या वो किसी कि औलाद नहीं ?

हलाल द्वारा हिंसा कि प्रवित्ति बढती है। क्या इंसानियत यही है कि निरीह पशुओं का वध करो ?

क्या आपको लगता है कि अल्लाह , अपने ही बनाए हुए मासूम जीवों कि इस निर्मम हत्याओं से खुश होता होगा ?

समय आ गया है कि हम ग्रंथों में लिखी बातों पर पुनर्विचार करें और स्वविवेक का इस्तेमाल कर गैरजरूरी रुढीवादिताओं से बाहर निकलें।

अहिंसा ही हमार परम धर्म होना चाहिए और तभी अमन का सन्देश भी पूर्णता लेकर जन-जन तक पहुंचेगा।

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Thakur M.Islam Vinay said...

divya ji puri kachori khane ke liye to jiyada hinsa karni padti hai kya aapko doctar hote huwe bhi is bat ki jankari nahi hai ki lakhon karodon jiw ki hattya karnen ke baad hi wah anaj aapko hasil hota hai jiska aap puri kachori bana kar khate hai our ak janwar ki hattya kar ke saykdon log bhojan karte hai behtar to ak janwar ki hattya karna hai

ZEAL said...

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Id-ul-Zuha, or Id-ul-Azha, as it is called in Arabic, translates as 'the feast of sacrifice'. Popularly, Bakr-Id is marked by the slaughter of animals as sacrificial offerings to God.

Historical Background --

As we look at the historical background of the Id-ul-Zuha, we need to retrace the event that Abraham(the Shri Adi Guru incarnate) had to undergo at the command of God. The story goes thus...

As much as Abraham had wanted a child he believed so strongly that there was only one god, and he was willing to do anything to prove his devotion.

So, one day God spoke to Abraham and told him to go up to the mountain-top of Mount Mina near Mecca and sacrifice his son, Isaac. Although reluctant, Abraham did as God had told him. Abraham had all of the wood and he had the altar, all that he needed to sacrifice his child. When Abraham put his son on the altar, and Isaac was laying there not understanding what was going on, Isaac asked Abraham where the sheep was. He did not know that his father wasn't going to sacrifice a lamb, but his very own son, the poor boy who was lying on the altar about to be killed.

Abraham told Isaac that God was going to provide the lamb, not wanting to tell Isaac that he was going to sacrifice him. As Abraham was just moments away from sacrificing Isaac, God spoke to him, but again, and told him to stop!

Abraham listened and did what God told him to do. God told Abraham that he was not really going to make him kill Isaac. He said that it was only a test, to see how much he trusted God.

Abraham was relieved that he did not have to sacrifice the child that he had been waiting so long for. Luckily, God stopped Abraham just in time, because if God did not tell Abraham to stop at the exact moment that he did, Abraham would have killed his son. Abraham would do that because God told him to, and Abraham believed that everything God said was probably meant to be.

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Amit Sharma said...

विरोध हर उस कृत्य के प्रति है जो कहीं भी मात्र अपने जीभ के स्वाद और उपासना के नाम पर हिंसा करता है, फिर वोह चाहे अल्लाह की राह में कुर्बानी का ढोंग हो या देवी-देवताओं के निमित्त बलि का पाखण्ड.

महेन्‍द्र वर्मा said...

अहिंसा परमो धर्मः
अहिंसा ही वास्तविक धर्म है।
लेकिन विडंबना यह है कि दुनिया की 75 से 80 प्रतिशत आबादी भोजन के लिए प्राणियों पर ही निर्भर है। अजीब बात ये है कि भोजन के रूप में जलचर, थलचर और नभचरों में चींटी से लेकर व्हेल तक का उपयोग किया जा रहा है।
उनके लिए तो यही दाल-चावल है लेकिन हम लोगों के लिए यह दुखद है।

ZEAL said...

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@-Thakur M.Islam Vinay ji,

आपको लगता है कि यदि फसल बचाने के लिए टिड्डे , इल्ली , कीटाणु और विषाणु आदि pests को मारा जा सकता है , तो चौपायों [जो हमारी तरह mammal वर्ग के हैं ] , को भी मारा जा सकता है।

तो फिर इंसान को मारने में भी हर्ज़ ही क्या है ? हम भी शेर और बाघ कि तरह हिंसक बन जाएँ । फिर नरभक्षी ।

न मानवता बचेगी , ना इंसानियत और ना ही सभ्यता।

यदि मानवता , इंसानियत और सभ्यता कि cost पर अल्लाह को प्रसन्न किया तो फिर हमारे पास गर्व करने के लिए बचा क्या ? और फिर अल्लाह ने पशुओं को बनाया ही क्यूँ ? क्या बलि देने के लिए ?

जितना अधिकार हमारा है इस धरती पर, उतना ही अधिकार इन बेजुबान पशुओं का भी है , अल्लाह कि बनायीं हुई इस सुन्दर धरती पर ।

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ZEAL said...

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हिन्दू धर्म में भी इस तरह कि मान्यताओं का अंध विश्वास देखने को मिलता है, लेकिन वो सीमित है हमारी गावों में स्थित मुट्ठी भर अनपढ़ जनता के बीच, जहाँ ज्ञान और शिक्षा का उजाला अभी नहीं पहुंचा है। जैसे-जैसे हमारी आम जनता शिक्षित होती जायेगी, वैसे-वैसे ये खोखले अंधविश्वास टूटते चले जायेंगे।

ऐसा मेरा विश्वास है।

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देवेन्द्र पाण्डेय said...

.....अंध भक्ति में निरीह पशुओं की बलि चढ़ाना गलत है...लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जो शाकाहारी हैं वे ही धर्मात्मा हैं और जो मांसाहारी हैं वे सभी पापी हैं। करोणों मनुष्यों की रोजी-रोटी मांसाहारी लोगों के कारण ही चलती है। सभी शाकाहारी हो गए तो गरीब मछुआरों का क्या होगा ? हाँ, किसी जानवर का शौकिया शिकार या मौज लेने के लिए हत्या करना पाप है।

ZEAL said...

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देवेन्द्र जी ,

शाकाहारी और माँसाहारी कि चर्चा एक पृथक विषय है।

बात यहाँ पशुओं कि निश्रंस हत्या , जो धर्म के नाम पर बड़ी संख्या में हो रही है , ये चिंता का विषय है। थोडा उस पर गौर कीजिये।

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Thakur M.Islam Vinay said...

diya ji agar insan ko insan mar ke kha jayga tab duniya chand dino me hi khatm ho jaygi agar pasu ko mar kar khaya na jaye tab duniya me pasu ki sankhya itni jiyda ho jaygi ke dharti par insan ko rahne ke liye jagah kam pad jayga iswar ne sansar me jitni bhi chij banai hai wah sab insan ki sewak hai our insan iswar ka upasak hai

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यदि पहले ही लिख देती कि यह पोस्ट शाकहारियों के लिए है तो सारी झंझट खतम हो जाती :)

Anonymous said...

मेरा तो बस इतना कहना है कि धर्म के नाम पर हत्याएं न हों......
अरे मांस खाने का मन आपको है और बिना मतलब के अपने इस पाप को भगवान् या खुदा के मत्थे मढ़ देते हैं....

देवेन्द्र पाण्डेय said...

.....अंध भक्ति में निरीह पशुओं की बलि चढ़ाना गलत है.
.....किसी जानवर का शौकिया शिकार या मौज लेने के लिए हत्या करना पाप है।

Unknown said...

zeal ji agar aadmi bas ek saal tak masahar n kare
to ek saal ke baad janwar aadami ka aahar karne lagage.
yeh prakarati ka niyam hai kuch log shakahari to kuch log masahari.
kuch log kayar to kuch log sahasi.
kuch log aasha wadi kuch log nirasawadi.
jaise kuch logo ko namkeen pasand hai
aur kuch logo ko meetha pasand hai.
Prakrati ke niyam ko hum aur aap nahi badal sakte-----

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

विषय गंभीर है ...और संवेदनशील भी .
''धारणात धर्मः'' ........तो धारण क्या करना है ....
वह जो प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी हो ....अन्यथा किया गया कोई कर्म ...धर्म की श्रेणी में नहीं आता.

S.M.Masoom said...

Zeal: मुद्दा अगर जीव हत्या का है तो इसके लिए किसी बकरा इद्द के वाकए की आवश्यकता नहीं थी. और अगर आप ने लिया भी था तो पहले ज्ञान प्राप्त करें पूरे वाकए का फिर लिखें, cut paste , कहीं से भी कर देना सही नहीं.
वैसे मैं जान ना चाहूँगा आप ने यह वाकेया कहाँ से कट पेस्ट किया? मैं भी तो देखूं कौन है इतना बेवकूफ ? मेरे लिए आप का बताया यह वाकेया आज के दिन का सबसे बड़ाjoke है. अभी तक हंसी आ रही है. आप भी कमाल का लिखती हैंजिसने भी यह काम किया उसे ना तो यह ज्ञान है की यह वाकेया कहां है? ज्ञान के साथ बात की जाए तो सुदर लगती है.

सुज्ञ said...

दिव्या जी,

@-क्या पशु-वध और हिंसा से " अमन का पैगाम " दिया जा सकता है ?

>>>हिंसाओं से भय व जगुप्सा जगाई जा सकती है,पर " अमन का पैगाम " कदापि नहिं।

कई लोग ,अमन का पैगाम के चोले में अमन के सौदागर होते है,हिंसा के खिलाफ जरा सा भी बोलो तो उसे 'धर्म के नाम पर झगडे क्यों' का धमकी भरा राग अलापने लगते है। और भोले लोगों के समक्ष अच्छे दिखने दिखने का प्रयास करते है। और कई उत्साही उधार की टिप्पणी भी दे आते है।

ZEAL said...

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मासूम जी,

आपसे पहले भी निवेदन किया था, आप सच को दुनिया के सामने रखें। यदि आपको लगता है कि धर्म [बकरीद ] के नाम पर , लाखों कि संख्या में पशु हलाल करना उचित है, तो फिर कहने को शेष ही क्या है।

हम तो इस कृत्य का समर्थन नहीं कर सकते। मानव ह्रदय में यदि संवेदनाएं न हों तो खेद का विषय है।

हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ और आस्था के साथ उन बातों को जोड़ा है , जिससे समाज का परोक्ष और अपरोक्ष रूप में भला हो सके।

स्वाद के लिए मांस खाना है तो खाइए , लेकिन धर्म के नाम पर पशुओं का वध उचित नहीं है। इससे अल्लाह कि भी बदनामी होती है। क्यूँकि अल्लाह न तो खून पीता है , ना ही मॉस खाता है।

अलाह को तो वही बन्दे प्रिय हैं जो नेकी और प्रेम के रास्ते पर चलते हैं।

पुनः -- " अहिंसा परमो धर्मः "

.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

दिव्या जी
नमस्कार !
बहुत ही अच्छा आलेख है आपका …
और यह ऐसा विषय है जिस परजीभ के चटकारे और स्वाद के लिए नहीं , बल्कि दिमाग के साथ मानवीय दृष्टिकोण रख कर सोचने की आवश्यकता है ।
आपको और लगभग सारे टिप्पणीकर्ताओं को मांसाहार जैसे वीभत्स कृत्य के विरुद्ध और शाकाहार जिसमें सच्ची मानवता की भावना निहित है के समर्थन में बात करने के लिए बधाई और आभार !

काश ! दो-पांच लोग भी अंधी परंपरा को छोड़ कर दिमाग से सोचना शुरू करके पशुत्व और राक्षसत्व छोड़ कर वाकई मानव बनने को प्रेरित हो पाएं ।

अब परंपरा के नाम पर , धार्मिक कृत्य के रूप में की जाने वाली जीवहत्या पर जीभ के स्वाद के दृष्टिकोण से हटकर सोचने की ज़रूरत है ।
कुरबानी के पीछे छिपे संदेश को अपने जीवन में उतारने की कोशिश की आवश्यकता है। कुर्बानी का मतलब है त्याग, उस चीज का त्याग जो आपको प्रिय हो ,आपकी सबसे कीमती चीज हो ।
ईमानदारी से कहें तो बकरा प्रिय हो सकता है, कीमती तो हर हाल में परिवाजन ही होंगे !!
फिर … ?


मैं विशुद्ध शाकाहारी होने के नाते कहता हूं -
पर-जीवों के भक्षण से बढ़कर कृत्य नहीं वीभत्स कोई !
‘हिंसक न बनें, राक्षस न बनें’ – नासमझों को समझाता चल !!
तू करुणा रस बरसाता चल !!!



शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Darshan Lal Baweja said...

करूण सोच से उपजी पोस्ट!!
आभार दिव्याजी,

प्रतुल वशिष्ठ said...

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आप सभी गत वर्ष की निठारी घटना से भली-भाँति परिचित होंगे.
वहाँ सुरेंदर सिंह को मनुष्य मांस खाने की लत थी.
वह कैसे विकसित हुई होगी, कल्पना कीजिये. चलिए मैं करता हूँ.

— उसने अपने शिशु अवस्था में आमलेट से शुरुआत की होगी. मतलब उसे अंडे खिलाये गये होंगे.

— फिर उसे चिकन, मटन आदि का शोक लगा होगा. मतलब उसने कई जानवरों को ईद मुबारक किया होगा.

— उसके बाद उसने मनुष्य मांस का चटखारा लेने की सोची होगी. मतलब कई मासूम बच्चों को ईद मुबारक किया.

— धीरे-धीरे वह जानवर मासूम जी के अनुसार इंसान बन गया होगा.

— इंसान ही तो अपने कार्यों में विकास करता है.

— जानवर तो परिक्षण [test] करने की सोच भी नहीं पाते.

— वाह री ! कुरआन में उल्लिखित इंसानियत.

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विनोद कुमार पांडेय said...

सच को पोस्ट में लिखा है आपने....

कवि श्री योगेंद्र मौदगिल जी का एक दोहा पढ़ना चाहूँगा;;

बकरें ने बकरीद पर छोड़ा एक सवाल|
या अल्ला तू देख ले इंसानों के हाल||

एक सार्थक आलेख के लिए बधाई!!!

DR. ANWER JAMAL said...

@ सुज्ञ जी ! आप ग़लत कह रहे हैं कि आपकी दया सभी जीवों के प्रति है । मृत शरीरों को आप जला देते हैं और तब आप उसमें वास करने वाले जीवों की कतई चिंता नहीं करते बल्कि उन्हें क्रूरतापूर्वक जिंदा जला डालते हैं अपने महान धर्म के अनुसार और दूसरों को जीवों के प्रति बेरहम मान लेते हैं ।
2- क्या कभी आपने जैन मत पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करके उसकी अमानवीय प्रथाओं पर भी कोई पोस्ट बनाई है ?
3- आप अपने विचार के अनुसार अक्सर मेरा 'दुराग्रह' (?) दूर करने की कोशिश करते रहते हैं , लेकिन मैंने हमेशा आपकी बेजा गुस्ताख़ियों को नजरअंदाज ही किया है कभी आपके दुराग्रह को दूर नहीं किया जबकि मैंने आपको भंडाफोड़ू का उत्साहवर्धन करते हुए भी पाया है ।
क्या कभी आपको डर नहीं लगा कि अगर अनवर ने मेरा दुराग्रह दूर कर दिया तो क्या होगा ?
4- आप अपने अमल से साबित कर रहे हैं कि आप मुग़ालते में जी रहे हैं । अगर आपका मुग़ालता दूर कर दिया जाए तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे ?
5- आप मेरे ब्लाग पर खुदा को दोग़ला बर्ताव करने वाला कह चुके हैं । मैंने आपको ध्यान दिलाया तब भी आपने अपनी गलती नहीं मानी । आपने खुदा को दोग़ला क्यों कहा ?
@ Divine sister Divya ji ! आदमी में भावनाओं का संतुलन होना बहुत जरूरी है । असंतुलित भावनाएं व्यक्ति और समाज के घातक हैं । अभी चंद रोज पहले आप मुझे नसीहत कर रहीं थीं कि दूसरों की धार्मिक भावनाओं पर चोट करना ठीक नहीं है और खुद तब भी आप बुरके पर कटाक्ष कर रही थीं और आज आपने कुर्बानी को निशाने पर ले लिया है ।
2, आपने और आपको टिप्पणी देने वालों ने कह डाला कि जानवर की कुर्बानी देना कुकृत्य है । कुर्बानी देने वाले ज़ालिम हैं राक्षस हैं अधर्मी हैं । ये इंसानियत और अमन का पैग़ाम नहीं दे सकते , वगैरह वगैरह ।
3, सिक्ख गुरुओं ने पशुओं की बलि भी दी है और मांसाहार भी किया है । कृप्या बनाएँ कि क्या आप मानती हैं कि वे ग़लत थे और उनमें वे सभी दुर्गुण थे जो आपने और आपके साथियों ने बलि देने वालों में मान लिए हैं ?
और दुख की बात यह है कि सिक्ख से दिखने वाले एक भाई अमरजीत भी बिना विचारे हाँ में हाँ मिलाने पहुँच गए हैं ।
4, क्या आप मांसाहार को वैज्ञानिक रूप से मनुष्य के लिए लाभकारी मानती हैं ?
5, आपने लिखा मैंने पढ़ा । मैंने कोई अशिष्ट व्यवहार नहीं किया । आपकी पोस्ट जैसी पोस्ट पढ़कर ही मुझे ब्लागिस्तान में आना पड़ा और जब मैंने उनके जवाब देने शुरू किए तो कहा गया कि मेरे लेखन से दुर्भावना फैल रही है ।
6, आखिर हिंदू लेखकों में वह कौन सा सुर्ख़ाब का पर लगा है कि उनकी आलोचना और व्यंग्य को सुधार माना जाए और हमारे जवाब को कट्टरता जहालत और बिगाड़ ?
7, आपका जवाब मिल जाने के बाद मैं आपके सामने सच्चाई लाने का थोड़ा बहुत प्रयास करूँगा , इंशा अल्लाह ।
उम्मीद है कि आप और सुज्ञ जैन बुरा नहीं मानेंगे ।
आपने इस्लाम पर अमल करने वालों को ज़ालिम पापी कहा तो न तो आपके ज़मीर ने आपको रोका और न ही शांति के किसी पुजारी ने आपको टोका , ताज्जुब है ?
मैं जवाब लिखूंगा तो आ जाते हैं कानून की धमकी देने भी , क्या अजब बुद्धिजीवी हैं , पक्षपाती ?

सुज्ञ said...

दिव्या जी,

पूर्व में की गई टिप्पणी का यह परिष्कृत रूप है……

बिना जीवों के प्रति करूणा लाये अहिसा की मनोवृति प्रबल नहिं हो सकती।क्योंकि वही विचार हमें मानवों के प्रति भी सहिष्णु बनाते है। यह कुतर्क किया जाता है कि पशुओं से पहले मानव के प्रति हिंसा कम की जाय बादमें इन जानवरों की बात की जाय। लेकिन ऐसा तो कोई सफल रास्ता नहिं है कि मानवता के प्रति पूर्ण अहिंसा स्थापित हो ही जाय। तो फ़िर क्या तब तक जीव दया की बात ही न की जाय?
मानव के साथ होने वाली हिंसाएं उसी के द्वेष और क्रोध के कारण होती है, और मानव के लिये द्वेष और क्रोध पर पूर्ण जीत हासिल करना आज तो सम्भव नहिं है। और निरिह निर्दोष जीव के साथ हमारे क्रोध द्वेष के सम्बंध इसप्रकार नहिं बिगडते,फ़िर इन निरपराधी ईश्वर की संतानों को क्यों दंड दिया जाय। अतः मै समझता हू मानव के कोमल भावों की अभिवृद्धि के लिये भी अहिंसा, जीवों से ही प्रारंभ की जाय। जो हमारे मानव से मानव सम्बंधो में क्रूरता दूर करने का प्रेरणास्रोत बनेगी।

मनोज कुमार said...

दिव्या जी,
१. मैं मांसाहारी हूं।
२. जीवों की हत्या करके (डिसेक्शन) पढाई की।
३. हमारे यहां भी कई अवसर पर पूजा में बलि दी जाती है।
४. यूपीएससी के इंटरव्यू में इसलिए कम अंक इसलिए आए कि प्रश्न पूछा गया था कि कया गौ हत्या सही है या ग़लत और जवाब दिया था उन पूर्वोत्तर भारत की अध्यक्षा को कि ग़लत है तो उनका तर्क था कि यह तो हमारे यहां का एक महत्वपूर्ण डायट है, और प्रोटिनस भी। तुम तो रिलिजियस सेंटीमेंट से गाइडेड हो, प्रशासन क्या खाक करोगे।

दिगम्बर नासवा said...

VICHAAROTEZAK LEKH ... SAARTHAK BAHAS KI SHURUAAT ....

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अल्लाह ने उस कुर्बानी को रोककर अपनी दयालुता का परिचय दिया है तथा हिंसा न करने का सन्देश दिया है।
यह मेरे मन की बात है और सत्य है... क्या कोई व्यक्ति अपने प्रियजन की गर्दन को इस तरह से चाक कर सकता है, नहीं...
इस समय मीडिया भी सोने चली जाती है... इन निरीह हत्याओं को दिखाये तो शायद कोई फर्क पड़े...
कुछ अच्छे-सच्चे मुस्लिम जो मेरे मित्र हैं, इन पाखण्डों में यकीन नहीं रखते, प्रारम्भ में उन्हें बहुत दिक्कतें हुईं, लेकिन अब नहीं होतीं...
हालांकि ऐसे लोग नगण्य हैं... बाकी उन्हें बड़ी नीची निगाहों से देखते हैं...

प्रतिभा सक्सेना said...

लेकिन यह सब आप कह किनसे रही हैं?

Bharat Bhushan said...

दिव्या जी, ऊपर की टिप्पणियाँ पढ़ी हैं. एक और बात है जिस पर विचार आवश्यक है. विश्व में अधिकतर लोग मांसाहारी हैं. यह भी जान लेना चाहिए कि यदि वे सभी शाकाहारी हो जाएँ तो धरती पर शाकाहारी भोजन कितने दिन उपलब्ध हो पाएगा.

ZEAL said...

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भाई अनवर जमाल,

गुस्सा अच्छा नहीं है। गुस्से में हम विवेक शून्य हो जाते हैं। आपने लिखा मैं आपको नसीहत दे रही थी। ऐसा लिखना गलत है। किसी को नसीहत देने जितना ज्ञान अभी मुझमें नहीं है।

मुझे धर्म के नाम पर , इतनी बड़ी संख्या में पशु वध कुछ अजीब लगता है। यदि आप संयम से विचार करेंगे तो अवश्य इस अंधविश्वास को वैज्ञानिकता तथा मानवीयता से जोड़ सकेंगे।

चाहे सिख करें या फिर हिन्दू , ये कृत्य तो अमानवीय ही है ।

हिन्दुओं में जहाँ छुट-पुट ऐसा होता है , वो उनकी अज्ञानता और अंधविश्वास को ही दर्शाती है । अंधविश्वास ही तो तोडना है । चाहे कोई भी धर्म हो।

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ZEAL said...

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मनोज जी ,

मांसाहार करना व्यक्ति का निजी निर्णय है। ये तो उसके स्वाद से related है कोई क्या खाता पिता है ये उसकी पूर्ण स्वतंत्रता है ।

पशुओं में animal प्रोटीन है , यह भी ठीक है। जिसको जो रुचिकर लगे उसे शौक से खाए। इस पर प्रश्न चिन्ह नहीं है।

वैसे तो व्यक्ति जो भी करता है उसको justify कर ही लेता है। शराब पीने वालों का तर्क होगा कि इसमें मेडिसिनल वैल्यू होती है।

लेकी धर्म के नाम पर करोड़ों कि संख्या में पशुओं का हलाल क्या आपको नहीं लगता कि विचारणीय बिंदु है ?

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ZEAL said...

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भूषण जी ,

आपने चिंता व्यक्त की कि यदि मांसाहार न हो तो पृथ्वी पर से शाकाहार समाम्प्त हो जाएगा तथा शाकाहारी भोजन कि समस्या उत्पन्न हो जायेगी ।

लेकिन ये सच नहीं है। कभी ऐसी समस्या नहीं आएगी । यदि हम अपनी जनसँख्या को भी कंट्रोल में रखें और प्राकृतिक संसाधनों का गलत इस्तेमाल ना करें और बर्बादी ना करें तो , अपने किसानों कि मेहनत कि कद्र करें, बंजर धरती को हरी-भरी करें , तो क्या आपको लगता है कि कभी भोजन कि कमी हो सकती है ?

लेकिन भविष्य में होने वाली भोजन कि कमी को excuse मानकर सामूहिक पशु-वध तो कोई विकल्प नहीं।

क्या अल्लाह ने "पशुओं " को मनुष्य के आहार के लिए बनाया है ?

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ZEAL said...

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मासूम जी,

मैं अपने लेखों में समस्याओं को उठाती हूँ , यदि यह इस्लाम से related है तो मुझे कोई हक नहीं है क्या इसपर लिखने का ? मेरी सहानुभूति निरीह पशुओं से है तथा उन मुस्लिम परिवारों से जो वास्तव में इन अंधविश्वासों में यकीन नहीं रखते लेकिन डर के कारण इन नियमों को मानने पर मजबूर हैं।

आप बार-बार एक ही इल्जाम लगा रहे हैं गलत तथ्य लिखा है मैंने। और मैं आपसे निवेदन कर रही हूँ कि आप सही तथ्यों को रखें सबके सामने, जिससे हमारी अज्ञानता दूर हो। नेट पर उपलब्ध जानकारी में तो हजरत इब्राहीम के बेटे का नाम ही अलग-अलग लिखा है दो स्थानों पर। कहीं पर इस्माइल , तो कहीं पर इजाक। यदि आपको कुछ भिन्न जानकारी है तो उसे लिखें। रोका किसने है आपको।

लेकिन बस इतना बता दीजिये कि 'निर्मम पशु हलाल ' क्या अंधविश्वास नहीं है ?

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ZEAL said...

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लखनऊ में पिछले साल बकरा सस्ता था । इस वर्ष inflation के कारण बकरे का दाम ४०० रूपए प्रति किलो से लेकर ८०० रूपए प्रति किलो तक था।

बलि के लिए बकरे का वजन कम से कम १२ किलो होना चाहिए। उस हिसाब से एक बकरे का दाम ४८०० से लेकर ९,६०० रूपए हुआ।

कोई इस अंधविश्वास को तोड़ पाए या ना पाए, लेकिन बढती हुई मंहगाई इस पर अवश्य रोक लगा सकेगी।

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Anonymous said...

Please read बुद्धिमान बालक

Kunwar Kusumesh said...

अल्लाह तआला ने हज़रत इब्राहीम से उनकी सबसे प्यारी चीज़ क़ुर्बान करने की इच्छा ख़्वाब में जताई थी, बेटे को क़ुर्बान करने की इच्छा नहीं जताई थी.
इब्राहीम द्वारा बेटे को क़ुर्बान करने पर उस रहमदिल अल्लाह ने तो बेटे को बचाया था.
अव्वल तो वाक़या के बयान में थोड़ा सुधार करने की ज़रुरत है. मगर हम इन चीज़ों का ज़िक्र करने की बजाय विभिन्न धर्मों के भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए प्यार-मुहब्बत और इंसानियत का सन्देश समाज में पहुचाएं तो ज़ियादा फायदेमंद होगा.
मुझे अपना एक दोहा याद आ रहा है.दोहा है:-
समरसता,सदभावना,सदविचार,सत्संग.
मानवता के प्रमुख हैं , यही चार ही अंग

केवल राम said...

आपने एक सही सवाल उठाया है ..हिंसा न तो हमारी संस्कृति रही है ..न ही श्रधा से इसका कोई लेना देना है , पर यहाँ इतने विरोधाभास हैं कि आम व्यक्ति कुछ समझ ही नहीं पाता...आखिर बलि किस समझदारी कि निशानी है ..क्या कबीर ने सही नहीं कहा था
बकरी पाती खात है , ताके काढी खाल
जो जन बकरी खात है , ताको कोन हवाल ,,
पर हम आज तक समझ ही नहीं पायें हैं ..वास्तविकता में धर्म क्या है ? तभी तो हम न तो खुदा को समझ पाए हैं और न इसकी बनायीं कायनात को ..शुक्रिया

amar jeet said...

अनवर जी आप जो भी कह रहे है उसमे तनिक भी सच्चाई नहीं है क्या बकरे की बलि के समय आप के घर की महिलाये उसके पकाने की तैयारी नहीं करती है !आप तर्क नहीं कुतर्क कर रहे है सिक्ख इतिहास की बात आप कह रहे है हां उन्होंने चोपाया पशुओ ही नहीं दोपाया पशुओ को भी काटा है!मुगलों के आतंक के समय ऐसे हिंसक मुगलों को काटा है !और दिव्या जी या बाकी सब ये नहीं कर रहे है की आपके प्रारम्भिक धर्मावलम्बियों ने गलत किया उस समय की परिस्तिथिया ही कुछ ऐसी थी बात आज के समय की हो रही है !और हम ये कहे की बाकी लोगो में कुछ चंद लोग भी कुछ ऐसा ही करते है ऐसा उदहारण देकर हम बच नहीं सकते !देखिये किसी भी धर्म में वर्तमान में यदि कुछ बुराइया है तो उसको सुधारना भी हमारा ही फर्ज है !
वैसे दिव्या जी मुझे पता था की इस तरह के लेख से कुछ सिरफिरे लोग अवस्य आपके ब्लॉग में आयेंगे मेरा आपसे निवेदन है की कृपया इनकी उलजुल कुतर्को के जवाब देने की कोई आवश्यकता नहीं है अपने अभियान में लगे रहिये कुछ तो सोये लोग जागेंगे !

ZEAL said...

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कुसुमेश जी,

अपने लेखों में हमारे समाज में तथा आस-पास क्या घट रहा है उस पर लिखती हूँ। कोशिश करती हूँ लोगों में जागरूकता आये। सद्भावना तो अच्छी शिक्षा और संस्कारों से आती ही है।

बकरा हलाल करने से सद्भावना नहीं जाती ? लेकिन बेचारे बकरे के नाम समर्पित एक लेख से सद्भावना चली जायेगी ?

केवल इसलिए कि लोग नाराज़ हो जायेंगे , मैं इस विषय पर न लिखूं ?

किसी कि चाटुकारिता करने से लाख गुना बेहतर है समाज कि अव्यवस्था तथा अंधविश्वास पर लिखा जाए। मुझे पूरा यकीन है , मेरे प्रयास व्यर्थ नहीं जायेंगे।

वो सद्भावना और सुहृदयता किस काम कि , जो बात-बात पर लोगों को गुस्सा करे और व्यथित करे ।

यदि बुद्धिजीवी वर्ग ही इस सब मसलों पर आँख मूंद लेगा तो समाज कि चिंता कौन करेगा ? सद्भावना के प्रचार प्रसार के लिए मैंने बहुत से ब्लोगर समर्पित देखे तो सोचा क्यूँ न मैं ही हिम्मत करूँ इन अनछुए विषयों पर लिखने कि ।

मेरे दिल में उन लोगों के लिए बहुत सम्मान है , जो विषय पर अपने विचार रखते हैं । उनकी सहमती , असहमति तथा तर्क से हम सभी लाभान्वित होते हैं।

आभार

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ZEAL said...

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@--बकरी पाती खात है , ताके काढी खाल
जो जन बकरी खात है , ताको कोन हवाल ...

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केवल राम जी,

कबीर दास जी द्वारा कही गयीं उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत उचित समय पर लिखीं आपने। कबीर दास जी के दोहों में एक गहन दर्शन होता है , जो हर देश और काल में अकाट्य होता है।

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सुज्ञ said...

@क्या कभी आपको डर नहीं लगा कि अगर अनवर ने मेरा दुराग्रह दूर कर दिया तो क्या होगा ?

अनवर जमाल साहब,

धमकी तो आप दिजिये मत, मैं जानता हूं, आपका काम है परधर्म निंदा करना और स्वयं के धर्म पर ओरों को निंदा के लिये प्रोत्साहित करना। सो न छूटे तो करते रहिये, प्रबुद्ध पाठक जानते है सच क्या है।

रही बात इस लेख की भावना को समर्थन देने की, तो अहिंसा, करूणा और दया के मानव मन में प्रसार को सदैव समर्थन रहेगा।

और ऐसे अहिंसाप्रधान लेख को किसी धर्मनिंदा में खपाने का प्रयास न करो,आप भारतिय होने के नाते अच्छी तरह जानते हो कि इस भूमि में अहिसा का अर्थ सदैव जीवों तक लिया गया है। और कुरितियों पे प्रहार करनें का साहस भी स्वयं में पैदा यह देश करता रहा है।

लेकिन जब भी दया, करूणा, अहिंसा की बात की जाती है, कुछ लोगों को मांसाहार पर हमला लगता है तो कुछ को मांसाहार के बहाने अपने धर्म पर। विडम्बना है।

अहिंसा, डरना नहिं सिखाती। वह तो जीवों को भी अभयदान देती है, और स्वयं भी निर्भय रहती है।

प्रतुल वशिष्ठ said...

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डाकू अनवर जल्लाद जी,
आपके प्रश्न उत्तरों की चाहना नहीं रखते. केवल अपने कुतर्कों को हैवानियत का अमली जामा पहनाने की कोशिश भर करते हैं.
आप ही बता दीजिये इंसानियत क्या है.
यदि इंसानियत के हाथों जानवरियत मारी ही जाती है तो मैं आज़ से जानवर कहलाना पसंद करूँगा.
लेकिन आप मेरी नज़रों में केवल जल्लाद ही बन कर रहेंगे.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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दिव्या जी,
मुझे अमरजीत जी का अनुरोध ठीक लगता है. कि जल्लादों के कुतर्कों का उत्तर ना ही दिया जाये तो ठीक होगा.

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प्रवीण said...

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कमाल है दिव्या जी,

ब्लॉगवुड में कुछ ही तो ठिकाने थे जहाँ कमेंट एकदम छपता था... आप ने भी मॉडरेशन लगा लिया... घोर आश्चर्य!

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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अंधविश्वास ही तो तोडना है । चाहे कोई भी धर्म हो।

@ आपका यह सूत्र हिंसा को बुरा बताकर सर्वधर्म सदभाव' पैदा करता है. पसंद आया.

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zeashan haider zaidi said...

इस्लामिक तरीके से जानवर को काटते समय उसे कोई दर्द नहीं होता. देखें यह रिसर्च

प्रतुल वशिष्ठ said...

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यूपीएससी के इंटरव्यू में इसलिए कम अंक इसलिए आए कि प्रश्न पूछा गया था कि कया गौ हत्या सही है या ग़लत और जवाब दिया था उन पूर्वोत्तर भारत की अध्यक्षा को कि ग़लत है तो उनका तर्क था कि यह तो हमारे यहां का एक महत्वपूर्ण डायट है, और प्रोटिनस भी। तुम तो रिलिजियस सेंटीमेंट से गाइडेड हो, प्रशासन क्या खाक करोगे।

@ मनोज कुमार जी ने एक व्यावहारिक सत्य को उदघाटित किया. किन्तु उन्होंने मूल्यों से समझोता न करके मानवता का इंटरव्यू हमारी दृष्टि में पास कर लिया. उन्हें साधुवाद.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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कुँवर कुसुमेश जी,

समरसता,सदभावना,सदविचार,सत्संग.
मानवता के प्रमुख हैं , यही चार ही अंग

आपका उपर्युक्त दोहा तब तक खोखला ही रहेगा, जब तक आपकी आपके स्वर में ओज (गरमाहट) नहीं आयेगी.

दिनकर जी कथन क्या भूल गये :
"स्वर में पावक यदि नहीं, वृथा वंदन है,
वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रंदन है.
सिर पर जिसके असीघाट, रक्त-चन्दन है.
भ्रामरी उसी का करती अभिन्दन है.

दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं.
ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ said...
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प्रतुल वशिष्ठ said...

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त्रुटि सुधार :
* असीघाट को असिघात समझा जाये.
भ्रामरी मतलब पार्वती
अभिन्दन को अभिनन्दन समझा जाये.

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रचना said...

किसी भी धर्म मे क्या होता हैं इसके लिये बहुत से "फैक्टर " जिम्मेदार होते हैं । किसी भी धर्मं के ऊपर लिख कर और उसकी कमियाँ बता कर हम कुछ सार्थक नहीं कर सकते जब तक अपनी निज कि पसंद ना पसंद को भी सही दिशा ना दे । अगर जीव हटाया "पाप " हैं तो पहले "पाप" को परिभाषित करे । हिन्दू धर्म मे पाप कि परिभाषा और मुस्लिम धर्म मे पाप कि परिभाषा इतनी भिन्न हैं कि दोनों धर्मो को हम तराजू पर रख कर नहीं तौल सकते । हां अपनी समझ से अवश्य हम दोनों धर्मो कि उन बातो को मान सकते हैं जो हमारी नज़र मे "पुण्य" हैं ।

बलि का बकरा काटना अगर पाप हैं तो निज के शौक और खान पान के लिये मासाहार लेना भी पाप ही हैं । बकरा केवल मुसलमान ही नहीं काटे हैं बल्कि नेपाल मे हिन्दू भी काटते हैं नेपाल मे तो ये मदिर मे भी चढ़ाया जाता हैं ।

हम को कोशिश करनी चाहिये कि हम अपने धार्म कि विकृतियों पर लिखे ना कि दूसरे धर्म की। हां बलि का बकरा और scapegoat दो अलग अलग धर्मो के प्रतीक हैं scape goat का कांसेप्ट इस्राएल और ईसाई धर्म से जुडा हैं

प्रवीण said...

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???

... :(


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संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

धार्मिक कृत्यों पर कुछ कहना ठीक नहीं ...धर्म अपनी जड़ों से जुड़ा होता है ...

ZEAL said...

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प्रवीण शाह जी,

कुछ लोगों ने , पूर्वाग्रहों के चलते मेरे ब्लॉग को भड़ास निकालने का स्थान बना लिया लिया है। अशिष्ट भाषा में गाली गलौज करते हैं तथा नीचा दिखाने का कुप्रयत्न करते हैं। विषय पर ना लिखकर व्यक्तिगत मुझ पर ही आक्षेप करते हैं। इसलिए मोडरेशन आवश्यक समझा। न चाहते हुए भी मोडरेशन लगाना पड़ा जिसका खेद है।

समाज कि भलाई सोचने के लिए खुद को भी तो जिन्दा रखना जरूरी है न ? जब मुझे गन्दी गालियाँ दे रहे थे ईर्ष्यालू लोग, तब तो किसी से सहानुभूति नहीं जताई। इसलिए अपनी इज्ज़त अपने हाथ। मोडरेशन का कोई तो लाभ होना चाहिए ।

अशिष्ट, अभद्र तथा अनावश्यक आक्षेपों वाली टिप्पणियां मोडरेट कर दी जायेंगी। यहाँ एक स्वास्थ्य बहस हो रही है , इसे कुरुक्षेत्र न बनने दिया जाए ये मेरा फ़र्ज़ है।

ये लेख धर्म पर चोट नहीं करता , बल्कि अंधविश्वास से बचने कि अपील कर रहा है। इस अंधविश्वास के शिकार लोग सभी धर्मों में हैं लेकिन बकरीद के दिन असंख्य निरीह पशु , गाय , भैंस , ऊंट , और बकरा हलाल होना , दिल देहला कर रख देता है।

इस हिंसा का विरोध होना ही चाहिए।

आशा है आप मेरी भावनाओं का सम्मान करेंगे , तथा मोडरेशन कि आवश्यकता को समझेंगे।

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ZEAL said...

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संगीता स्वरुप जी,

धर्म के नाम पर आज हमारे हिन्दू भाई बहन तो नर बलि तक दे रहे हैं। मासूम बच्चों कि जान ले रहे और देवी-देवताओं को प्रसन्न करने में ही अपने जीवन कि सफलता समझ रहे । क्या आप धर्म [हिन्दू, मुस्लिम दोनों ] से जुडी, ऐसी आस्थाओं को उचित ठहरायेंगी जो पशुओं तथा बच्चों कि बलि दे रहा है ?

धर्म के नाम पर देश तथा समाज में चाहे जो हो , हमें मूक दर्शक बने देखते रहना चाहिए ?

यदि लोग दिगभ्रमित हैं, चाहे वो किसी भी धर्म के हों, तो ये हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम उनका मार्ग दर्शन करें।

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ZEAL said...

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कभी-कभी अंध विश्वास कि जडें , हमारी संस्कृति तथा व्यवस्था को खोखला बना देती हैं। क्या समय के साथ थोडा बदलना नहीं चाहिए ? हर विषय पर शोध होती है तो हत्या तथा बलि जैसों विषयों पर क्यों नहीं ?

त्यौहार तो हंसी ख़ुशी से मनाना चाहिए। बंधू बांधवों को मिठाई तथा कपडे, उपहार किये जा सकते हैं। गरीबों को मांस कि जगह कुछ पैसा ही दे दिया जाए तो क्या त्यौहार ज्यादा सफल नहीं होगा ? क्या आत्म संतुष्टि नहीं मिलेगी उससे?

लोग अल्लाह और इश्वर का बहाना लेकर ऐसा करते हैं तो मन व्यथित होता है ।

इश्वर तो सर्व शक्तिमान है। हम हाथ उठाकर , जोड़कर और शीश नवाकर जिससे दुआ मांगते हैं और प्राथना करते हैं उसे प्रसन्न करने के लिए उसी के बनाए जीवों कि बलि देने वाली बात कुछ समझ से परे है मेरे।

मैं तो इश्वर से सदबुद्धि और मूक प्राणियों के प्रति दया भावना मांगती हूँ।

वो मनुष्य क्या जिसमें समस्त चराचर के लिए दया नहीं।

" जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं,
वो मनुष्य नहीं है पत्थर है, जिसमें दया का भाव नहीं । "


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प्रतुल वशिष्ठ said...

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इस्लामिक तरीके से जानवर को काटते समय उसे कोई दर्द नहीं होता.

zeashan zaidi G
@ तार्किक रूप से कुमार्गियों को पीटने में उन्हें तकलीफ नहीं होती. देखें मनु का न्यायशास्त्र.

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Bharat Bhushan said...

'गरीबों को मांस की जगह कुछ पैसा ही दे दिया जाए तो क्या त्यौहार ज्यादा सफल नहीं होगा?'

आपका कहना ठीक है. पैसा दे दिया जाए ताकि जब सभी त्योहार के दिन खरीददारी कर रहे हों तो वह भी खरीददारी का आनंद उठा सके. चिकन-विकन ले सके ;))

Unknown said...

दिव्या जी,
आपके सभी तर्क उचित हैं, लेकिन यह सिर्फ़ हिन्दुओं की समझ में आयेंगे… :) :)

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

Divya ji... mujhey behad khushi hai ki aapne yah vishay uthaya hai aaj kal mere bhaisahab Lucknow me hai ..vaha kee bajaar kee halaat dekh kar unka phone aaya thaa ki bahut dukhad hai ...masoom praniyo par boli lag rahi hai.. jo sundar hai jiske sare ang sahi hai .. vo jaldi bik rahe hai.. bahut dukhad hai...kabhi bhi allah aur ishwar bali nahi chahta hai...vo praniyo jagat palak hai..har prani /jeev ( insaan hee nahi bhed bakri gaay sher ped paudhey )uskee adbhut rachna hai - vo apni rachna ( apne baccho ) kaa kaa vinash nahi chahega ... ye aadmi kee modhbudhi kee soch hai jo is tarah kee bali kaa prayojan dharmo me hai...
pahado me devi ke liye bakre kee bali de jaati thee is prathaa ka bhi lagbhag khaatma ho gaya hai.nariyal/ coconut chadhaya jata hai..
aur aik mela lagta hai ..jise "athvaad " kehte hai ..vaha baggi matlab bheshon kee bali sekdo kee tadaad me dee jaati hai... iska bhi ab ghor virodh ho raha hai...aur kafi kam ho gaya hai..
shubhdiwas

पी.एस .भाकुनी said...

अहिंसा से बढकर कोई धर्म नहीं है.हालाँकि हिन्दू धर्म में भी कहीं -कहीं पर बलि की प्रथा अभी भी मौजूद है,लेकिन समय के साथ-साथ इसमें कमी आ रही है, कई उदहारण सामने आए हैं की जहां पर पहले पशु बलि दी जाती थी अब वहां पर इस अमानवीय प्रथा को बंद कर दिया गया है, हिन्दू धर्म में कहा गया है की सभी जीवों में ईश्वर का वास होता है,यदि आप ईश्वर में आस्था रखते हैं तो जाहिर है आप हर उस अंश को ईश्वर के रूप में देखते होवेंगे जिसमें उसका वास है, बहरहाल बृक्ष से जब कोई पत्ता अलग होकर गिरता है तो मुझे दर्द होता है, और आप हलाल कर जाते हैं, वाकई सोचने वाली बात है .....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

पशुवध के बहाने गहन चिंतन चल रहा है। सबके अपने-अपने तर्क हैं और सबकी अपनी-अपनी व्‍याख्‍या। कोई किसी की सुनता नहीं दिख रहा है। इस सम्‍बंध में मेरा निवेदन है कि यदि आप अपने आपको शाकाहारी समझते हैं, तो कृपया इसे ज़रूर पढ़ लें, हो सकता है कि आप अपनी सोच बदलने को मजबूर हो जाऍं।

Sunil Kumar said...

विषय गंभीर है ...और संवेदनशील भी .

प्रवीण पाण्डेय said...

मनुष्य की प्रभुता का प्रसाद जीवों पर दया कर दिया जा सकता है।

ethereal_infinia said...

Part 01 of 02

Dearest ZEAL:

A very fine presentation of thought it is.

Without prejudice to any religious sentiment, I can not but help ponder on this thing and I begin with enumeration of the process of Zabh [Slaughter]

01] Four arteries are to be cut whilst slaughtering leading to massive blood flow.
02] If the Zabh is done in such a way that the knife reaches the Haraam Magz [Spinal Cord] or if the head comes off, it is Makrooh [Undesireable]. Which means the animal must not be killed instantly but made to live till the bleeding kills it.
03] Most importantly, the person performing the Zabh must say Arabic Text [that is taking the name of Allah] else the animal is Haraam. If he forgot to take the name, then the animal is Halaal. [so convenient, zmiles]

I begin my view with this 03rd step.

It is but a sheer and sad irony that the Merciless Slaughter of the animal is to be done while saying “In the name of Allah – the most merciful, the most compassionate”

Now, what more can we say of this!

Anyways, going further, for a moment let us stand by the ‘rightfulness’ of Zabh. Walking that line, let us try and see the symbolism of offering which has been grossly forgotten by the people indulging into it.

The way the story goes is that Allah asked for the ‘sacrifice’ of the ‘dearest thing’ which Ibrahim interpreted to be delivered with the offering of his son. Allah intervened in time and conveyed that it was a Test of Faith.
Thus, the symbolism of the story is the test of willingness to sacrifice what is dearest to one.

In fact, in the religious texts, it is directed that the family offering Zabh must rear the animal by taking care of it and feeding it [just the way one does for the family] for over 6 months which results in the formation of an emotional bond with the animal. In essence, the animal is cared for so lovingly and nicely that it must be closest to the heart, the dearest.

Pitifully, we have markets on the day prior selling mute animals to the ones with money and the next day they are mercilessly slaughtered.

I ask to all who are in favor of this vicious custom – What affection or bond did the slaughterer share with the animal which could have been the symbolic representation of ‘sacrifice of the dearest thing’?

It is just like what we oft see in judiciary that the law is observed in letter but its spirit stands forgotten.

Is that of any worth?


[Contd. ----->]

ethereal_infinia said...

Part 02 of 02


[-----> Contd.]


Coming to the more important point as raised in the post, why slaughter in God’s name? It simply can not be justified. Practices of religion are derived by customary trends of humans only and with time, it ought to change.

One would be quick to point – Sacrifice of animals to appease Gods is found across all the civilizations and cultures.

Point taken.

But have not every other religion barring Islam moved on with the time and banished these gruesome rites? Then why does Islam lag?

The issue is in the narrow and close-minded outlook of the Muslim clergy. And this agoraphobia has resulted into keeping awareness away from the masses. The Muslim clergy truly dread its own folks getting educated because education will make people question practices and the last thing they want to do is to be taken to debate about things which are wrong.

This closed approach to growth has been the nemesis of Islam in every pursuit. Ignorance only gets blind obedience but it doesn’t bring enlightenment to any.

The point here is not about culinary preference [one may be an absolute vegetarian as I am or one may gorge on non-vegetarian food daily] but it is about the improper and unsuitable interpretation of religious texts and its blind, senseless adherence.

It is high time the Muslims wake up to this fact and come out of the Madresa-directed ‘bhed-chaal’. They offer sheep [bhed] but they themselves are used to ‘bhed-chaal’!!

As I conclude, the mute animal [who is being put to knife as people all around rush in glee to cook it up] might as well be singing to its own helpless self this couplet by Ameer Minai –

Woh bedardi se sar kaate aur main kahu unse
Huzoor, aahistaa-aahistaa, Janaab, aahistaa-aahistaa

I pray in the name of religion for salvation of the animals who were slaughtered in the name of the religion. Request all to join in, please.

On a lighter note, Saddam Hussein was 'slaughtered' on Bakr-Id. Zmiles.

Semper Fidelis
Arth Desai

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

वन्दे मातरम,
मेरे विचार से पशुओं को मारा जाना किसी भी कीमत पर पर उचित नहीं है.......
आपने सार्थक विषय का चयन कर अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान किया, सादर आभार |

वीरेंद्र सिंह said...

सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दूँ कि ये लेख किसी धर्म विशेष के लोगों के संदर्भ में न होकर हर उस व्यक्ति के संदर्भ में हैं जो मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या वली के लिए जानवरों की हत्या करते हैं और उसे सही ठहराने के लिए तरह-२ कुतर्कों का इस्तेमाल तर्कों के रूप में करते हैं. वो लोग किसी भी धर्म या समुदाय के हो सकते हैं.

दूसरी बात, मेरी नज़र में ऐसा करना एक बुराई है और इसके अलावा भी जो दूसरी बुराईयाँ हैं उन बुराईयों के प्रति भी मेरी कोई सहानुभूति नहीं है. इसलिए इस लेख से ये मतलब कतई न निकाला जाए कि दूसरी बुराई के ख़िलाफ़ नहीं लिखा केवल इसके ख़िलाफ़ क्यों लिखा? मेरी नज़र में बुराई, बुराई होती है. और हर बुराई के ख़िलाफ़ सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है.

पिछले दिनों धार्मिक कारणों से या मांस भक्षण के कारणों से जानवरों की वली/ कुर्बानी या हत्या के संदर्भ में लिखे कुछ ब्लोग्स के लेखों पर आई टिप्पड़ियों में कुछ ब्लोगर्स ने बड़े अजीब तर्क दे-देकर उसे सही ठहराने की कोशिश की है. शाकाहारियों पर तो और भी ज़्यादा हत्या करने का आरोप लगाया है. उनके मुख्य तर्क कुछ इस तरह से हैं .

1. क्या मृत शरीर के साथ करोड़ों जीवाणुओं का जला देना हत्या नहीं है?
२. पेड़-पौधों की हत्या क्यों करते हों?
३. अनजाने में हमें हानि पहुचाने वाले लाखों कीड़े-मकोड़ों की हत्या की बात क्यों नहीं करते?
4. मेरे धर्म के लोगों के बारे में ही क्यों, दूसरे धर्म के लोगों के बारे में क्यों नहीं?
५. वैज्ञानिक युग में भी कुर्बानी या वली का विरोध क्यों करते हैं?
६. दूसरी बुराइयों का ज़िक्र क्यों नहीं करते?
७. वैज्ञानिक जानवरों की हत्या करते हैं उसके बारे में क्यों नहीं लिखते हो?


पहली नज़र में ये सभी तर्क बड़े दमदार दिखाई देते हैं.

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? आईये देखते हैं. ज्ञानवान और सर्वगुणसंपन ब्लोगर्स के इन तर्कों में कितना दम हैं !

वीरेंद्र सिंह said...

पहला तर्क .........मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या वली के लिए जानवरों की हत्या करने वालों का कहना है कि मरे शरीर के साथ लाखों-करोड़ों जीवाणुओं को जिंदा जला दिया जाता इसका दर्द तुम्हें क्यों नहीं होता? इसे तर्क कहें या कुतर्क इसका फैसला आप पर है.

सबसे पहला सवाल तो ये उठता है कि क्या जीवाणु और विषाणु को उसी श्रेणी में रखा जा सकता है जिस श्रेणी में इंसान या कुर्बान कर या वली चढ़ा कर खाए जाने वाले जानवर को रखा जाता? क्या इनमें कोई अंतर नहीं हैं ? आपको इसके लिए बहुत ज़्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रुरत नहीं क्योंकि सच्चाई आप जानते हैं. हक़ीक़त में तो जीवाणुओं और विषाणुओं की तुलना उन जानवरों से की ही नहीं जा सकती जिनका ज़िक्र हम कर रहे है. अंतर इतना अधिक है कि उनके बारे में चर्चा करना ही अपने ब्लॉग पाठकों का मूल्यवान समय ख़राब करना है. एक सुई की नोक पर करोड़ों-अरबों जीवाणुओं और विषाणुओं को नंगी आँखों से देखना तक असंभव है. इनमे से कई पृथ्वी पर वास करने वाले अपने से अरवों गुना बड़े जंतुओं के अस्तित्व के लिए खतरा है. जाहिर है कम से कम मनुष्य जैसा चिंतनशील प्राणी अपने ऊपर मंडराते हुए इस ख़तरे से हर संभव बचेगा. ठीक वैसे ही जैसे मैं और आप बचते हैं. जैसे कि बिना किसी वाजिब कारण के यदि कोई हमारे लिए ख़तरा बने तो हर वैध या अवैध तरीके से हम उस खतरे से बचने का प्रयास करते हैं.

लेकिन मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या वली के लिए जिन जानवरों की हत्या की जाती है उन जानवरों से मानवजाति को कौन सा ख़तरा उत्पन होता है. ये समझ से बाहर है.

फ़िर भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि इंसान के अंदर रहने वाले इन जीवाणुओं को इसलिए जलना पड़ता है क्यों कि ये मृत शरीर को छोड़कर नहीं जा पाते और न ही इन्हें व्यवाहरिक रूप से बाहर निकालना संभव है. अगर ये मृत शरीर से अलग हो पाने में सक्षम होते तो लोग इनको पकड नहीं जलाया करते कि भई आओ तुम्हें भी जलाना है. तुम्हें भी कुर्बान करना है या तुम्हारी भी वली चढ़ानी है. भले ही ये हमारे लिए ख़तरनाक हैं. मृत शरीर को ज़लाते वक़्त इन्हें ज़लाने कि भावना कतई नहीं होती बल्कि मृत के अंतिम संस्कार की भावना होती है. ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में मरने वाले जीवाणुओं की हत्या का सवाल ही पैदा नहीं होता. फ़िर दर्द होने या न होने का सवाल भी ही नहीं उठता.

वीरेंद्र सिंह said...

इनका दूसरा तर्क ...कि पेड़-पौधों कि हत्या क्यों करते हों?


पूछ सकता हूँ कि आप पेड़ -पौधों की कुर्बानी या वली क्यों नहीं देते? यक़ीन मानिए इसमें किसी को कोई ऐतराज़ नहीं होगा. लेकिन आप ऐसा कभी नहीं कर सकते क्योंकि आप पेड़ -पौधों और जानवरों में अंतर अच्छी तरह जानते हैं. क्या ये सही नहीं है ? भई ...पेड़ पौधों और इन जानवरों में धरती आसमान का अंतर है ये सारी दुनिया जानती है. अगर नहीं होता तो पेड़ों को काटने से भी खून बहा करता. फ़िर शायद पेड़ हत्या और पौधें हत्या जैसे शब्द आम होते जैसे कि जीव हत्या. फ़िर इनको भी कुर्बानी और वली के लिए इस्तेमाल किया जाता. लेकिन नहीं की जाती क्योंकि अंतर है. एक पेड़ से अगर एक टहनी तोड़ ली जाए या किसी पौधे की हरी-भरी पत्तियों को उस पौधे से अलग कर दिया जाए तो नई टहनी और पत्तियां जल्द ही जा जाती हैं. लेकिन अगर किसी बकरे की टांग तोड़ अलग कर दी जाए तो खून की धारा बह निकलती है. उसकी टांग कभी नहीं आती. ये अन्तर तो सभी को पता है. ज़ाहिर इस कुतर्क में भी कोई दम नहीं है. वैसे तो और भी अंतर हैं. लेकिन इतने ही काफ़ी हैं.

तीसरा तर्क .....कि अनजाने में हमें हानि पहुचाने वाले लाखों कीड़े-मकोड़ों की हत्या की बात क्यों नहीं करते?

हत्या का सवाल ही पैदा नहीं होता. जब भी हम सड़क पर चलते हैं तो कीड़ों-मकोड़ों का मारना या कुचलना हमारा उदेश्य कभी नहीं होता. ये सब इंसान से अनजाने में ही मारे जाते हैं. जिस वक़्त हमे ये अहसास हो जाता है कि हमारे पैर के नीचे कोई जीव है तो हम तुरंत अपना पैर उठा लेते हैं ताकि वह जीव बच सके. अगर व्यवहारिक रूप से बिना किसी कीड़े -मकोड़े को मारे वगैर हम जी सकें तो ज़रूर जीना चाहिए . यहाँ पर ये बताना भी उल्लेखनीय होगा कि जानबूझकर कीड़े मकोड़ों को मारना भी पाप है जब तक की उनसे आप के जीवन को कोई ख़तरा हो.

वीरेंद्र सिंह said...

चौथा तर्क..... मेरे धर्म के लोगों के बारे में ही क्यों, दूसरे धर्म के लोगों के बारे में क्यों नहीं?

बिल्कुल बेकार और निराधार तर्क .........इस तरह की बुराई में जो लोग भी सम्मिलित हैं इस तरह के लेख उन सबके लिए हैं न कि किसी धर्म विशेष के लोगों के लिए ही. बुराई, बुराई होती हैं. इसका धर्म से लेना देना नहीं.


५ वाँ तर्क.... वैज्ञानिक युग में भी कुर्बानी या वली का विरोध क्यों करते हैं?

भई ......एक तरफ़ तो आप वैज्ञानिक युग की बात करते हो दूसरी और धार्मिक कारणों से कुर्बानी और वली चढाने की बात का समर्थन करते हो, ये विरोधाभास क्यों ? क्या आप ये नहीं जानते कि वैज्ञानिक सोच कुर्बानी और वली चढ़ाने की घटनाओं का समर्थन नहीं करती. मांस खाने से होने वाले फ़ायदों को लेकर वैज्ञानिक आज तक एकमत नहीं हैं . आए दिन शाकाहार के फ़ायदों का ज़िक्र भी उतना ही होता है जितना की मांसाहार के फ़ायदों को लेकर. ज़ाहिर है इस तर्क में भी कोई दम नहीं है.

६ वाँ तर्क ........दूसरी बुराइयों का ज़िक्र क्यों नहीं करते?

क्या इस तर्क को मांस भक्षण, धार्मिक कारणों से कुर्बानी या वली के लिए जानवरों की हत्या को सही ठहराने के लिए प्रयोग किया जा सकता है. आप ख़ुद फ़ैसला करें. मेरे हिसाब तो हरगिज नहीं . भला ये भी कोई बात हुई. क्या आप चाहते हैं कि इस बुराई पर पर्दा पड़ जाए. आप देख सकते हैं कि हम सब अलग -बुराइयों पर अपनी राय रखते हैं. कुछ लोगों का विषय एक भी हो जाता है.
लेकिन ऐसा तो कभी नहीं कि केवल इसी बुराई पर चर्चा होती है. आपके इस तर्क में भी कोई दम नहीं है.

वीरेंद्र सिंह said...

७ वाँ तर्क..... वैज्ञानिक जानवरों की हत्या करते हैं उसके बारे में क्यों नहीं लिखते हो?

सबसे पहले तो ये जान लो कि मांसभक्षण, जानवरों की कुर्बानी या वली चढ़ाने का विरोध करने वालों ने इसे कहीं भी सही नहीं ठहराया. इसलिए इस तर्क का उनका ख़िलाफ़ प्रयोग होना ही नहीं चाहिए.

दूसरी बात वैज्ञानिक जानवरों की हत्या मानव समुदाय के व्यापक हित में निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते हैं. ठीक वैसे ही जैसे देश कि भलाई के लिए हमारे सैनिक शहीद होते हैं लेकिन उन पर फक्र किया जाता है. क्योकि वो सैनिक देश, समाज और लोगों के व्यापक हित में शहीद होते हैं.

फ़िर भी अगर आपको ये ग़लत लगता है तो आप भी वैज्ञानिकों के संदर्भ में लिख सकते हैं अपनी बात रख सकते हैं. लेकिन इस तर्क का उपयोग आप मांसभक्षण, जानवरों की कुर्बानी या वली चढ़ाने का विरोध करने वालों के विरुद्ध करोगे तो एक तरह से उन्हीं की बात का समर्थन करोगे.

वैसे तो इन सभी (कु)तर्कों की काट में और भी तर्क हैं चूँकि समझदार के लिए इतना ही काफ़ी है इसलिए मैं अपनी बात यहीं खत्म करता हूँ .

लेकिन आप मेरे तर्कों के समर्थन में या फ़िर विरोध में अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र हैं.

DR. ANWER JAMAL said...

हिन्दू परंपरा में मांसाहार
वर्तमान में हिन्दू भाइयों की दृष्टि में कुरबानी करना धार्मिक रीति तो क्या, घोर पाप है, परंतु अतीत में बौद्धों और जैनियों के प्रभाव से पूर्व ऐसी किसी धारणा का अस्तित्व न केवल नहीं था बल्कि हिन्दू ग्रंथों में आज भी कुरबानी और मांस भक्षण का उल्लेख मौजूद है। मनु स्मृति जिसे समाज का एक वर्ग ब्राह्मणों द्वारा रचित विधान और व्यवस्था का नाम देता है, के पंचम अध्याय का अधिकतर भाग कुरबानी तथा मांस भक्षण पर ही आधारित है। उदाहरण के लिए -
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।। (मनु. 5,22)
अर्थात यज्ञ के लिए तो अवश्य तथा रक्षणीय की रक्षा के लिए शास्त्र-विहित मृग और पक्षियों का वध करे। ऐसा अगस्त्य ऋषि ने पहले किया था।
प्राणास्यान्नमिदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावर। जंगमं चैव सर्व प्राणस्य भोजनम् ।। (मनु. 5, 28)
अर्थात प्रजापति ने जीव का सब कुछ खाने योग्य कहा है। सब स्थावर (फल, सब्ज़ी आदि) तथा जंगम (पशु-पक्षी, जलचर आदि) जीव जीवों के खाद्य भक्ष्य हैं।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनात्तार एव च ।। (मनु. 5, 30)
अर्थात प्रतिदिन भक्ष्य जीवों को खाने वाला भी भक्षक दोषी नहीं होता है, क्योंकि सृष्टा ने ही भक्ष्य तथा भक्षक, दोनों को बनाया है।
नाद्यादविधिना मांस विधिज्ञोपनदि द्विजः । (मनु. 5, 33)
अर्थात विधान को जानने वाला द्विज बिना आपत्तिकाल में पड़े विधिरहित मांस को न खाए।
नियुक्तस्युक्त यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ।। (मनु. 5, 35)
अर्थात शास्त्रानुसार नियुक्त जो मनुष्य मांस को नहीं खाता है, वह मर कर इक्कीस जन्म तक पशु होता है।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टा स्वयमेव स्वयंभुवा ।
यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य यस्याद्यज्ञे वधोर्वधः ।। (मनु. 5, 39)
अर्थात सृष्टा ने यज्ञ के लिए पशुओं को स्वयं बनाया है और यज्ञ संपूर्ण संसार की उन्नति के लिए है, इस कारण यज्ञ में पशु का वध वध नहीं है।
उपरोक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि स्मृतिकार की दृष्टि में केवल विधिरहित वध का निषेध है। ईशदूतों की सिखलाई विधि के अनुसार ईश्वर का नाम लेकर कुरबानी करना उत्तम है और कुरबानी या यज्ञ का मांस न खाना पाप है।

DR. ANWER JAMAL said...

@ बहन दिव्या जी ! नामों के अंतर का सवाल अपने पूछा है , कृपया देखें -
बाइबिल का बयान
बाइबिल में उपरोक्त कुरबानी की घटना में यह मुख्य अंतर है कि उसमें इबराहीम अ. अपने छोटे पुत्र इसहाक़ अ. को कुरबानी के लिए लेकर निकलते बताए गए हैं। बाइबिल में नक़ल करने वालों के हाथों अनेकों ग़लतियां होना ईसाई शोधकर्ताओं को मान्य है। इसके अतिरिक्त स्वयं बाइबिल में एकलौते पुत्र की कुरबानी का उल्लेख है। एकलौते पुत्र तो 14 वर्ष की आयु को पहुंचने तक इस्माईल ही थे जैसा कि स्वयं बाइबिल भी बताती है।
‘‘जब हाजिरा ने अब्राम (अब्राहम) से यिश्माएल (इस्माईल) को जन्म दिया तब अब्राम छियासी वर्ष के थे (उत्पत्ति, 16,16)
‘‘अपने पुत्र इसहाक़ के जन्म के समय अब्राहम सौ वर्ष के थे।‘‘ (उत्पत्ति, 21,5)
आगे घटनाक्रम का जो उल्लेख उद्धृत किया जा रहा है, उसमें इकलौते पुत्र इसहाक़ का नाम है जबकि इकलौत इस्माईल थे (14 वर्ष तक)
http://vedquran.blogspot.com/2010/11/haj-or-yaj-by-s-abdullah-tariq.html

प्रतुल वशिष्ठ said...

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विरेन्द्र सिंह चौहान जी की मेधा को नमन.
मेरा भी चिंतन आपसे मिलता-जुलता है लेकिन आपने सवालियों से बिना शपथ-पत्र भरवाए उन सवालों को अपने दमदार तर्कों से न केवल हल किया अपितु कमाल की तर्कशक्ति का परिचय दिया. साधुवाद.
आपने अपने विचारों का समापन भी शानदार किया. उसके लिये पुनः साधुवाद.

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ZEAL said...

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भाई डॉ अनवर जमाल ,

हिन्दू धर्म हो या इस्लाम , पशु वध या बलि दोनों में ही सामान रूप से निंदनीय है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिन्दुओं में ये बलि शिक्षा से वंचित तथा अज्ञानी जनों के मध्य सिमित है जबकि मुस्लिम बिरादरी में ये बुद्दिजीवियों में भी प्रचलित है। समय के साथ गैर-ज़रूरी रुढीवादिताओं और मान्यताओं को त्यागते जाना चाहिए।

आपने नाम के सन्दर्भ में जो जानकारी दी , उसके लिए आभार।

एक निवेदन है आपसे --

मासूम जी असंतुष्ट हैं कि गलत इतिहास बताया गया है बकरीद पर्व का। यदि हो सके तो संक्षेप में इस त्यौहार के इतिहास से हमें अवगत करायें।


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ZEAL said...

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यहाँ पाठकों के बहुमूल्य विचारों से बहुत लाभ हुआ है। सभी का ह्रदय से आभार।

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G Vishwanath said...

वीरेन्द्र सिंह चौहान को मेरी हार्दिक बधाई

Anonymous said...

अरे वीरेन्द्र जी कहाँ आप भी अपना सर लेकर इस पत्थर में लड़े जा रहे हैं...
इन्हें तो इंसानों और जानवरों से ज्यादा कीटाणुओं, जीवाणुओं, मक्खियों , मच्छरों आदि की चिंता है ....
पता नहीं ये अपना जीवन कैसे व्यतीत करते होंगे |
मेरे प्यारे हास्य लेखक अनवर भाई आपसे कुछ सवाल.......
१ ) क्या आप सच में इन सूक्ष्म जीवों की इतनी चिंता करते हैं या फिर तर्क के अभाव में हर जगह अपना यही राग अलापते रहते हैं ????
२) आपके घर में तो ढेर सारे सूक्ष्म जीव आपके मित्र की तरह रहते होंगे, क्यूंकि उन्हें तो पता होगा की भले ही बकरों की कुर्बानी दी जा रही हो लेकिन उनसे पूरा सौहाद्र बरता जायेगा...
ऐसी स्थिति में तो आपका घर दुनिया का सबसे अनोखा चिड़ियाघर होगा |
३) आपसे एक सवाल पुछा था मैंने अमित शर्मा जी के ब्लॉग पर उसका उत्तर भी कृपया दें...
आपकी तबियत खराब होती है तो आप क्या करते हैं ??? दवाई का सेवन करने से तो बीमारी फैलाने वाले बेचारे कीटाणु मर जाते होंगे.....
४)एक और बात जहाँ तक है पेढों को काटने और जलाने की तो एक बात बताएं आपके मांसाहार में जो मसाले प्रयुक्त होते हैं वो भी किसी पेड़ की ही फसल होते हैं उन्हें काटने पर आपको बुरा नहीं लगता ????
अरे हाँ सबसे महत्वपूर्ण बात तो मैं कहना भूल ही गया.....

आप जो ऊपर मनु स्मृति के कुछ अंश लेकर आये हैं उनसे तो लगता है की आप सभी ग्रंथों का काफी गहन अध्यन करते हैं....

निश्चित रूप से आपने कुरआन भी कई बार पढ़ी होगी....
तो क्या उसमे लिखी हर एक आयत को आप अपनी ज़िन्दगी में निभाते हैं....????
उसमे कई अच्छी बातें भी तो होंगी इन हिंसात्मक बातों के आलावा...
१००% से कम उत्तर मैं सुनना नहीं चाहूँगा...

Dr. Yogendra Pal said...

यह सवाल ऐसा ही जिस पर कितनी भी बहस हो जाये दो मत सदैव रहेंगे, में तो बली देने वालों से यही कह सकता हूँ कि अपने बेटे की बली दो क्यूंकि ये वो कुर्बानी होगी जिसके लिए तुम्हारा दिल सारी उम्र रोयेगा, दो चार दिन काजू बादाम खिलाने से किसी भी जानवर के लिए तुम्हारे दिल में प्यार नहीं आता और बली में किसी प्यारे को माँगा जाता है

ZEAL said...

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निशांत जी ,

वह कहानी पढ़ी । बहुत प्रेरक प्रसंग है। सही कहा उस बालक ने--

लड़का बोला – “मछलियाँ और मेमने एवं पृथ्वी पर रहनेवाले सभी जीव-जंतु मनुष्यों की तरह पैदा होते हैं और मनुष्यों की तरह उनकी मृत्यु होती है। कोई भी प्राणी किसी अन्य प्राणी से अधिक श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण नहीं है। सभी प्राणियों में बस यही अन्तर है कि अधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणी अपने से कम शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणियों को खा सकते हैं। यह कहना ग़लत है कि ईश्वर ने मछलियों और मेमनों को हमारे लाभ के लिए बनाया है, बात सिर्फ़ इतनी है कि हम इतने ताक़तवर और चालक हैं कि उन्हें पकड़ कर मार सकें। मच्छर और पिस्सू हमारा खून पीते हैं तथा शेर और भेड़िये हमारा शिकार कर सकते हैं, तो क्या ईश्वर ने हमें उनके लाभ के लिए बनाया है?”

च्वांग-त्ज़ु भी वहां पर मेहमानों के बीच में बैठा हुआ था। वह उठा और उसने लड़के की बात पर ताली बजाई। उसने कहा – “इस एक बालक में हज़ार प्रौढों जितना ज्ञान है।”

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ZEAL said...

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योगेन्द्र पाल जी,

आपने बिलकुल सटीक बात लिखी है। बलि देना है तो अपनी संतान की दो। जब औलाद हलाल होगी , तभी निरीह पशुओं का क्रंदन और वेदना समझ में आएगी।

जब तक अपना कोई नुकसान नहीं होता तब तक कोई संवेदना नहीं जगती । जैसे आजकल के राजनीतिज्ञों को कोई वेदना नहीं होती जब किसी इमारत के ढ़हने से सैकड़ों मौतें हो जाती हैं।

असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है ये।

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ZEAL said...

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@--Rachna ji,

भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है। भारतीय होने के नाते प्रत्येक नागरिक का ये दायित्व है कि समाज में यदि कुछ गलत हो रहा है तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाएं। ये मेरा धर्म नहीं है ये सोचकर चुप नहीं बैठ जाना चाहिए। सभी धर्मों में कुछ न कुछ अंधविश्वास है। जिसके खिलाफ लोगों में जागरूकता लाने कि लिखना प्रत्येक व्यक्ति को हक है कि वो उस विषय पर लिखे , चाहे वो किसी भी धर्म का हो ।

क्या अब ये भी धर्म से जोड़ा जाएगा कि लेख का विषय किस धर्म का है ?

लेखक या का उद्देश्य क्या है ये जानना जरूरी नहीं है ? यही समाज के हित में कोई लेख लिखा जाये तो लेखक का धर्म देखा जायेगा ? बड़ी अजीब सी बात है।

हम सामाजिक प्राणी हैं, और समाज में क्या गलत हो रहा है , किस बात से हिंसा बढती है और मानवता शर्मसार होती है , उसके खिलाफ लिखना एक जिम्मेदार मनुष्य का कर्तव्य है।

लेख के विषयों को धर्म के आधार पर बांटना उचित नहीं लगता।

यदि कोई मुस्लिम हिन्दुओं के अंधविश्वासों पर लिखता है या फिर कोई हिन्दू अन्य धर्मों में प्रचलित अंधविश्वासों पर लिखता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

समाज में सुधार हो , और विकास हो, यही लेखक का उद्देश्य होना चाहिए।

आभार।

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Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...

चर्चा असली मुद्दे से भटक गयी. धर्म या मांसाहार बनाम शाकाहार कि चर्चा नहीं थी. एक छोटा सा अपना अनुभव बताना चाहता हूँ. मैं कुछ साल पहले तक मांस खाता था. लेकिन निठारी, नॉएडा कि घटना के बाद त्याग दिया. मांस नहीं खा के अच्छा लगता है.
एक छोटा सा सवाल और. जो लोग बागवानी करते हैं वो अच्छे से समझेंगे. जब आप कोई पौधा लगाते हैं चाहे फूल हो या सब्जी और उसे कोई बकरी घुस के खा जाति है तो बुरा लगता है...है ना? बकरी तो जानवर है उसे तो हरि पत्ती पर अपना अधिकार लगता है सो खा लेती. बकरी आपके पौधे को खाती है तो बुरा लगता है और उसी बकरी या उसके बच्चो को खा के आपको बुरा नहीं लगता?
मांसाहार करना या ना करना उस व्यक्ति विशेष को अच्छा या बुरा नहीं बनती ऐसा मैं मानता हूँ...
राजेश

zeashan haider zaidi said...

मजेदार बात है.
जब हम शाकाहारियों को छोटे जीवों और पौधों का तर्क देते हैं की उनमें भी जीवन होता है फिर आप उन्हें क्यों खाते हो तो वो कहते हैं की इन जीवों से बड़े जानवरों की कोई तुलना नहीं. तो फिर आप जानवरों की इंसानों से क्यों तुलना करते हो?

ZEAL said...

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राजेश जी,

बहुत सटीक उदाहरण दिया आपने !

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जीशन जी,

क्या पेड़ों में भी खून बहता है ?


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प्रतुल वशिष्ठ said...

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मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि डॉ. अमर सिंह ही नज़र रखे हुए हैं. वे लगातार टिप्पणियों और प्रति टिप्पणियों का परस्पर न्यायसंगत तालमेल देख रहे हैं. अच्छी बात है.
क्या वे ऐसा अन्य ब्लॉग पर भी करते हैं? जब कोई बेनामी बिना सबब के पुष्ट तर्कों से आहत होकर किसी टिप्पणीकर्ता को जानवर कह दे. मैं तो फिर भी अपने सम्पूर्ण परिचय के साथ कहता हूँ.
ना ही किसी बेनामी पहचान के माध्यम से और ना ही किसी और को उकसाकर कहलवाता हूँ. http://27amit.blogspot.com/2010/11/blog-post_17.html?showComment=1290158482257#c5367687288260681889
मेरा अनुरोध है कि आप एक बार अवश्य देखें बातचीत किस कोटि की हो रही है.
मैं तो फिर भी डाकू और जल्लाद पदवियों को न्यायसंगत ठहरा सकता हूँ.
डाकू .......... जो खुलेआम, डंके की चोट पर लूट करे. ....... यहाँ किस चीज़ की लूट थी ... ज़रा सोचें.
जल्लाद .......... तो एक व्यावसायिक पदवी है, जिसे मांस काटने और बेचने वाले के लिये लिया जाता है.
अब आप उसे अंग्रेजी का नाम देकर उसको सौम्यता दें तो बात तो वही है.
चर्मकार को चमार या शू-मेकर क्या कहना पसंद करेंगे आप?
मेरे प्रसंगवत क्रोध का भी ध्यान रखियेगा और सत्य से न बचने का भी.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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डॉ. अमर कुमार जी क्षमा आपको सिंह कहा
लेकिन एक बात रह गयी थी इसलिये लौटकर आया
मैंने तो भी उनका मध्य नाम अनवर लिया ......
..."वे जमाल साहब कैसे सिद्ध करेंगे कि वे 'अनवर' ही हैं .. जिस दिव्य प्रकाश में तमाम जीवाणु-विषाणु नष्ट हो जाया करते हैं."
वे उनके पक्षधर बनकर हिन्दुओं के यज्ञ कर्म को अवैज्ञानिक करार दे रहे हैं.

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zeashan haider zaidi said...

दिव्या जी,
इसका मतलब आपको एतराज़ है खून बहने से. अब खून तो अंडे से भी नहीं बहता. फिर शाकाहारी उसे खाने से क्यों मना करते हैं?

ZEAL said...

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जीशन जी,

ये तो वही लोग बता सकते हैं । मेरी आवाज़ तो पशु हत्या के खिलाफ है।

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सुज्ञ said...

विरेन्द्र जी,

बेहद सार्थक और तर्कपूर्ण टिप्पणी!!

प्रतुल जी से शब्द लेकर स्तूति करूंगा!!

विरेन्द्र सिंह चौहान जी की मेधा को नमन.
मेरा भी चिंतन आपसे मिलता-जुलता है लेकिन आपने सवालियों से बिना शपथ-पत्र भरवाए उन सवालों को अपने दमदार तर्कों से न केवल हल किया अपितु कमाल की तर्कशक्ति का परिचय दिया. साधुवाद.
आपने अपने विचारों का समापन भी शानदार किया. उसके लिये पुनः साधुवाद.
___________________________________
इसे तो आपकी स्वस्थ पोस्ट बनाईए॥
____________________________________

प्रतुल वशिष्ठ said...

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zeashan zaidi .. said
...अब खून तो अंडे से भी नहीं बहता...

# रक्त क्या केवल लाल ही होता है?
@ हाँ, रक्त लाल ही होता है. लेकिन उसकी बनने की प्रक्रिया जिन अवयवों से होती है वे भिन्न रंग के होते हैं.

एक ने किसी किसान के गेहूँ के खेत में आग लगा दी और कहा मैंने किसी की रोटी नहीं छीनी.
क्या उसने सच कहा? बताइए.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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zeashan zaidi said...
इसका मतलब आपको एतराज़ है खून बहने से. अब खून तो अंडे से भी नहीं बहता. फिर शाकाहारी उसे खाने से क्यों मना करते हैं?

# रक्त क्या केवल लाल ही होता है?
@ हाँ, रक्त लाल ही होता है. लेकिन उसकी बनने की प्रक्रिया जिन अवयवों से होती है वे भिन्न रंग के होते हैं.

एक ने किसी किसान के गेहूँ के खेत में आग लगा दी और कहा मैंने किसी की रोटी नहीं छीनी.
क्या उसने सच कहा? बताइए.

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zeashan haider zaidi said...

प्रतुल जी,
अंडा खाने से किसकी रोटी छिनती है---- मेरा मतलब अंडा खाने से कौन सी हत्या होती है?

zeashan haider zaidi said...

दिव्या जी,
आपकी आवाज़ केवल पशु हत्या के खिलाफ क्यों? और हत्याओं के खिलाफ क्यों नहीं?

ZEAL said...

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जीशन भाई,

मेरे पूर्व के लेख देखिये । हर तरीके की विसंगतियों पर आवाज़ उठायी है । यथाशक्ति और यथाबुद्धि प्रयास जारी है।

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सुज्ञ said...

जिशान साहब,

आप अंडे पर आ गये, चलो हत्या को तो बुरा मान लिया।
अब बताते हैं अंडे भी शुक्र-शोणित से ही बनते है, बिना रक्त के बनना सम्भव ही नाहिं(अरे आप तो स्वयं वैज्ञानिक है)अहो…
तब तो अगला आपका प्रश्न होगा दूध?

अह… पहले हिंसा से निज़ात पालें फ़िर कभी…

प्रतुल वशिष्ठ said...

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मैंने व्यंजना में कहा शायद समझ से बाहर था. माफी चाहता हूँ.

मैंने कहना चाहा था कि
एक किसान के गेहूँ का खेत जलता है तो तो तमाम लोगों को आटा [गेहूँ का चूर्ण] नसीब नहीं होगा और न उन्हें रोटी[आटे से चपाती] मिल पायेगी.
फिर जलाने वाला कहे कि मैंने आज़ तक किसी के मुँह से निवाला नहीं छीना.

उसी प्रकार 'अंडा' जीव बनने की प्राथमिक स्टेज है. क्या आप जानते नहीं.

खून भी विभिन्न स्थितियों से गुजर कर ही खून बनता है वह एकदम प्रकट नहीं हो जाता .

खून बनने की प्रक्रिया है
अन्न > रस > रक्त > मांस > मज्जा >अस्थि > वीर्य / रज > ओज
— अन्न जिसे आप भोजन कहते हैं. वह पहला पड़ाव है. पूरी प्रक्रिया जब जानेंगे तो पायेंगे कि खून केवल जो बहता है वही नहीं होता
— अब यदि गर्भवती महिला अपने गर्भ को समाप्त करने के लिये प्रारम्भ में उपक्रम करेगी तो वह भी तो ह्त्या कहलायेगी. बेशक उसमें रक्त का नामोनिशान न हो.

उपर्युक्त क्रम को आप विपरीत भी समझ सकते हैं.
ओज --- मेधा अथवा सूक्ष्म बुद्धि का जनक / अवयव.
वीर्य अथवा रज भी रक्त का पर्याय होता है.
समाज में कई कहावतें बोलचाल में प्रयोग भी की जा रही हैं.
कोई पिता अपने पुत्र को उसके कर्तव्यों का बोध कराते हुए बोलता है —
"तू मेरे खून से पैदा है" "तेरी नसों में मेरा ही खून दौड़ रहा है. आदि आदि ...

उसी सप्तम धातु से सृष्टि चलती है. उस क्रम को बिगाड़ने वाले गुनहगार ही कहे जायेंगे ना!

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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सुज्ञ जी
आपने बेहतर जवाब दिया जी-शान को. साधुवाद.

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zeashan haider zaidi said...

सुज्ञ जी और प्रतुल जी,
हत्या को हम हमेशा ही बुरा मानते हैं. लेकिन हम केवल मानव हत्या को ही हत्या मानते हैं.
अब बात करते हैं अंडे की. तो अंडे से किसी आगे किसी जीव का बनना असंभव है जब तक की उसका निषेचन न हुआ है. बिना निषेचित अंडा अगर आप नहीं भी खायेंगे तो वह किसी काम न आएगा.
और अगर आप ये दलील दे रहे हैं की चूंकि वह रक्त से बनता है इसलिए.....तो फिर मेरा सवाल की दूध भी रक्त से बनता है फिर तो उसे भी नहीं पीना चाहिए?

zeashan haider zaidi said...

दिव्या जी,
सवाल तो यही है की जबकि दुनिया की बहुसंख्यक आबादी मांसाहारी है तो आप पशु हत्या को विसंगति कैसे मान सकती हैं?

सुज्ञ said...

जिशान जी,

बिल्कुल आप पशुहत्या को हत्या नहिं मानते। इसिलिये सम्पूर्ण अहिंसा आप के लिये सम्भव ही नहिं।
जिसे आप हिंसा ही नहिं मानते तो आप प्रश्न कैसे कर सकते है कि वह क्यों नहिं खाते। हिंसा ही न मानने वाले के दिमाग में अहिंसा का तर्क कैसे प्रवेश करेगा? बताओ मुझे। इसलिये जो जिसे नहिं खाते वे इसे इस अहिंसा के सिद्धांत से नहिं खाते।
जिन चिजों में आप जीव मानते ही नहिं, उसका दूसरों को जीव के आधार पर दलील करके उल्हाना देना गलत और दुर्भावनापूर्ण है। और जानकर भी छोडते नहिं तो बताना व्यर्थ है।

सुज्ञ said...

दिव्या जी,

आपके मध्यम से…

बहुसंख्यक आबादी मांसाहारी है तो?… बहुसंख्यकता की दलील इस बात की आधार नहिं हो सकती वह काम सभी को करना चाहिए।
दुनिया में कंकरों की संख्या हीरों से ज्यादा है, इसी उदाहरण के न्याय से अच्छे लोगों की तुलना में बुरों की संख्या अधिक है तो क्या बुराई अनुकरणीय बन जाती है।

ZEAL said...

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सही उत्तर दिया आपने सुज्ञ जी

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Unknown said...

क़ुरबानी hamesa लाचार की होती

zeashan haider zaidi said...

सुज्ञ जी और दिव्या जी,
चलिए हम यह बात मान लेते हैं की जो काम बहुसंख्यक कर रहे हैं ज़रूरी नहीं वह अच्छा ही हो. लेकिन अगर आप चाहते हैं की उस काम से बहुसंख्यक रुक जाएँ तो रोकने का ठोस आधार तो होना ही चाहिए, जो आप नहीं दे पा रहे हैं.
अगर आप जीव हत्या को हिंसा कहते हैं तो यह हिंसा सभी करते हैं जैसा की इससे पहले कई बार बहस में आया है की पेड़ पौधे सभी जीव होते हैं.
अगर आप केवल जानवरों मारने को हिंसा मान रहे हैं तो और जीवों ने क्या कुसूर किया है?
हम जीव हत्या को हत्या मानने पर तय्यार हैं बशर्ते आप जीव हत्या और अहिंसा की कोई स्पष्ट परिभाषा दे सकें.
इस्लाम के अनुसार अहिंसा की परिभाषा यह है की बिना वजह किसी जीव को चोट न पहुंचाई जाए. यहाँ तक की बिना ज़रुरत एक पत्ती भी तोडना पाप है इस्लाम की नज़र में (हमारे रसूल की एक हदीस के अनुसार). अगर हमने जानवर का दूध लेकर अपना या किसी का पेट भरा तो यह जाएज़ है, लेकिन अगर यह दूध हमने नदी में बहा दिया तो यह भी हिंसा का ही एक रूप माना जाएगा. मैं जब अपनी बाईक घर से निकालता हूँ तो कोशिश करता हूँ की कोई चींटा पहिये के नीचे न आ जाए. लेकिन जब मुझे भूख लगती है तो मैं सामने रखी किसी भी हलाल चीज़ (चाहे वह सब्जी हो या मांस) से अपना पेट भर लेता हूँ.
हम आपको आपके शाकाहार के लिए कोई उलाहना नहीं दे रहे हैं बशर्ते की आप हमें मांसाहार का उलाहना न दें और न हमें जीव हत्या का पापी ठहराएं.

G Vishwanath said...

Just a reminder to those who ask whether plants don't have life and why it is okay to eat them but not animals.

Unlike animals, plants do not have a nervous system. I believe that they suffer no pain.

The original issue in this blog post has been side tracked.
It was not intended to be a religious controversy at all.
Sacrificing of animals was being deplored whether by Muslims or by Hindus or any other community.
The issue was not the merits and demerits of eating meat.
I am not convinced by any of the arguments presented that seek to justify the sacrificial killing of animals in large numbers on religious occasions.

Any way let us all agree to disagree and close this topic.
Glad to note that unlike in some other blogs, there were no personal attacks and the debate was dignified.

Regards to all.

ZEAL said...

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जीशान जी ,

कोई आपको पापी और हत्यारा नहीं कह रहा। जो धर्म ग्रंथों में लिखा है अथवा जो जो उसका अर्थ सदियों से समझा जा रहा है। उसमें बदलते वक़्त के साथ परिवर्तन कि जरूरत है। पशुओं का mass slaughter , बहुत ही निर्दयता का कृत्य लगता है। वैसे भी एक शब्द बना है 'कसाई' , जो बेदर्दी से हलाल करे। बस ऐसा ही कुछ महसूस होता है।

यदि आप बार बार धर्म कि दुहाई देंगे तो बात अपनी जगह रहेगी , कोई लाभ नहीं होगा। आपको जरूरत है अपने विवेक का उपयोग करने कि। आत्म चिंतन करिए कि क्या इसकी वास्तव में आवश्यकता है ? क्या वास्तव में अल्लाह प्रसन्न होते हैं पशु वध से ? क्या इश्वर खुश नहीं होंगे यदि मानवता कि सेवा कि जाए और पशुओं के साथ भी अहिंसा का रवैय्या अपनाया जाए तो ?

ये एक निर्दयी कृत्य है। इसे धर्म के साथ जबरदस्ती जोड़कर अन्धविश्वासी जनता को कुर्बानी के लिए मजबूर करते हैं। जो लोग नहीं मानेंगे उस्हें अधर्मी कह दिया जाएगा। पढ़े लिखे मुस्लिम लोगों को चाहिए कि वे इस अंधविश्वास कि जड़ों को दूर करें । लेकिन दर तो ये है कि आपके समाज में यदि कोई भलामानुष इसके खिलाफ आवाज भी बुलंद करेगा तो उसके खिलाफ 'फतवा' जारी हो जाएगा।

तो फिर 'फतवे' के डर से कौन बेचारा 'बलि का बकरा ' बनकर अंधविश्वास दूर करने कि जुर्रत करेगा ?

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ZEAL said...

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Vishwanath ji,

You nicely raised a very valid point . Plants do not have brains. They do not have sensory or motor nerves . They do not have pain receptors to feel pain.

Plants cannot be compared with animals by any means.

Plants without having the excretory , or circulatory or nervous system even, can make its own food, which no animal on earth can do. We animals depend on plants.

In a food chain , even from smallest [grasshopper] to Lion , they have to depend on plants.

Plants are Producers while , animals are consumers and predators.

So by any means plants cannot be compared with animals.

Animals [specially the tetrapods [mammals] are very much like us , they give birth to young ones. How on earth we , the most superior animal can think of mass killing or slaughter .

This act is quite disgusting and inhumane .

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ZEAL said...

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Mammals are no way close to plants. They are indeed much closer to human species. They are called mammals , because they do posses mammary glands like us , apart from many other similarities with human beings.

If we talk about classification of living beings. All the living beings are broadly classified into two as -

1-Plants
2- Animals.

Sheep, goat, cow, buffalo, camel , monkey , donkey , whale and human beings are all placed in one category called mammals.

How on earth one can compare these animals with plants ? I truly pity their though process .

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ZEAL said...

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Such killings must be considered as homicide and strict laws must be enforced for such barbaric killings.

I wonder what the hell people from animal rights are doing ?

Do they lack sense organs to see and feel what the savage crime is going on , in our society ?

We need to have compassion for the vulnerable animals because we are powerful and blessed with many other things , specially brains to enjoy our lives.

Otherwise we must stop looking for compassion from the almighty who is the most powerful in this universe.

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ZEAL said...

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I was not replying to Zeishan Zaidi , because of his kiddish arguments , but I hope he will understand now.

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zeashan haider zaidi said...

दिव्या जी,
कुर्बानी ज़बरदस्ती का सौदा नहीं है और न ही धर्म इसके लिए मजबूर करता है. यह तो व्यक्ति की इच्छा पर है की वह कुर्बानी दे या न दे. लेकिन अगर वह अपने स्वाद के लिए हर तीसरे दिन मांस खा रहा है, तो साल में एक दिन वह इस स्वाद को अपने पैसे से गरीबों में बाँट दे तो बुराई क्या है?

zeashan haider zaidi said...

विश्वनाथ जी और दिव्या जी,
यह गलत है की पौधों में नर्वस सिस्टम नहीं होता या वह दर्द महसूस नहीं करते.
Please Read at this link

Plant Brain: Each root apex harbours a unit of nervous system of plants. The number of root apices in the plant body is high and all brain-units are interconnected via vascular strands (plant nerves) with their polarly-transported auxin (plant neurotransmitter), to form a serial (parallel) nervous system of plants. The computational and informational capacity of this nervous system based on interconnected parallel units is predicted to be higher than that of the diffuse nervous system of lower animals, or the central nervous system of higher animals/humans.
And also read here


और अगर यह कहा जाए की जो जानवर इंसानों से समानता रखते हैं उन्हें नहीं खाना चाहिए, तो ऐसा नियम हमारे यहाँ मौजूद है. हम प्राइमेट्स (Primates) वर्ग के किसी जानवर को नहीं खाते. और साथ ही ऐसे जानवरों को भी नहीं खाते जो मनुष्य की तरह अपना भोजन हाथ से पकड़ कर खाते हैं.

ZEAL said...

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@-Zeashan ji,

No reputable study has ever shown that plants can "feel pain". They lack the nervous system and brain necessary for this to happen. A plant can respond to stimuli, for example by turning towards the light or closing over a fly, but that is not the same thing. It is also hard to see what purpose pain could serve for the plant, since they can hardly run away. I am aware however that similar arguments were put up in the past in favour of animals not feeling pain! Supposing you decide that it is cruel to eat plants, since they are alive and presumably have sensations of some sort, what are you going to eat? Not a lot left on the menu if meat, and veg are removed, is there? If it is alright so long as you "kill" them first, how is this to be done? Is boiling them alive acceptable? Perhaps it is alright to eat fruit, since the plant sheds these of its own accord, but seeds and nuts are out as they are embryos !

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ZEAL said...

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@ Zeashan ji,

Do plants and animals have the same rights as people (to be free from harm)? Do they have any rights at all?

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ZEAL said...

Zeashan ji,

When we eat plant products [fruits and vegetables] and animal products [ milk , egg, honey etc], then we are called consumers. Otherwise people fall in the category of predators. Feeding ourselves with meat puts them in the category of wild animals who eat meat for their survival .

But this act of wild animals can be excused because poor creatures cannot cook . We are way more superior than these helpless animals. We can cook far more delicious and nutritious meal with the help spices and stuff offered by our plants.

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ZEAL said...

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First of all, if you want to be religious about this think about how god gave humans free will, so we could make decisions about things. We can decide that we don't have to eat meat, and we can decide we aren't meant to eat meat,and we can decide to not practice everything in the bible. So don't justify it just because the bible, says to take the life of something else so you can eat it when there are other options to like eating plants. If you believe it's o.k. to eat meat then please do it in a matter that is respectful. SO many animals suffer being stuffed into small spaces, being crippled in transportation and overfeeding, if you are going to eat an animal at least give it the respect that it is a living being not just a product. Treat it like it's alive when its alive! And it doesn't say anywhere that you have to eat meat at every meal. You can easily reduce your meat intake to help the earth in the long run. Cows are being breed so that there are so many of them that the methane gas that cows produce in their poop contribute to global warming greatly.

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ZEAL said...

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Dear Zeashan ,


Everything in the process of producing a meat product takes up so many essential resources that we need like the water they drink(which is a lot for cows), the space where the animals are kept, the food they eat(again is a lot to get them big), the gas in the factories and in the transportation. At the very least be aware of everything you eat and where you get it to make sure that the companies that produce it are aware and care about the animals as beings because everyone of your dollars are a vote. If the meat is cheap then they usually don't take the time to make sure that the animals are treated like animals and there wastes are being taken care of properly.The big corporations just do it for the money and just treat them like a product. They pack them full of antibiotics so that they don't get diseases that they are exposed to from being stored in small spaces packed with poop and all of those antibiotics, you are ingesting when you eat meat. Grass fed humanely treated animals are the best. Do your own research and just don't be ignorant because ignorance kills. Plants do not feel pain because they do not have a nervous system and they don't have the neurons to carry pain signals.

So do not give funny arguments like plants have nervous system.

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ZEAL said...

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Just for those religious people out there who seemed to have forgotten. In the beginning, when Adam and Eve were in the Garden of Eden, they did not eat meat, for the lion would lay with the sheep and the man could approach the lion. There was no killing, until they disobeyed God and the Lion turned on the man and suffering came to be. God said that when the end came and people were judged, those who were good would go to heaven, or a paradise land where again, man could approach the lion in a friendly manner, and the lion would lay next to the sheep in peace once again. So for you to say God gave us animals for the benefit of eating is absolute BS. According to all the Abrahamic teachings, eating the flesh of another living creature is part of the punishment bestowed upon man for disobeying God, seeing as eating meat was not done in the Garden of Eden, making it a part of the devils world, not God's. I am not a religious person at all, but I was brought up in a religious home and taught the teachings and it seems to me as though people who try to use the "God gave us animals for the purpose of eating them" argument, leave out the bit of important information that clearly states that animals were originally made by God for man as companions. They seek to use the "God made animals for eating" argument to justify the cruelty inflicted on animals for our own selfish desires. And the contradictions of religion continues.

We should not be this much selfish . We must not cross all the limits to justify our cruel act in the name of God .

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सुज्ञ said...

@हम आपको आपके शाकाहार के लिए कोई उलाहना नहीं दे रहे हैं बशर्ते की आप हमें मांसाहार का उलाहना न दें और न हमें जीव हत्या का पापी ठहराएं.

ज़िशान साहब,

आपको उल्हाना कैसे लग सकता है? और वह भी पाप का? जिस जीव हिंसा को आप हिंसा ही नहिं मानते, तो उसे पाप का उल्हाना कैसे मान लिया। आपको तो ऐसे ज्ञानी उल्हाने पर हंस कर निकल लेना चाहिए।

और आपके मन में बाईक के नीचे आजाने वाले चींटे पर कोई सम्वेदना नहिं जगनी चाहिए।

जब बडे जानवर में आपके मंतव्य से जीव नहिं है, तो बहुत दूर सुक्ष्म जी्वाणु में 'जीव' है या नहिं,जानकर क्या करेंगे?

प्रतुल वशिष्ठ said...

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गलती के लिये ......... माफी मांगी जाती हैं.
पश्चाताप के लिये .......... प्रायश्चित किया जाता है.
अपराध के लिये .............. दंड मिलता है.
अहितकर सूक्ष्म जीवों की अनजाने में हुई हत्याओं के लिये ............. बलिवैश्य यज्ञ का विधान है.

चाहकर, योजनाबद्ध ढंग से, इरादतन हत्याओं का भारतीय क़ानून में जो विधान है ............. वही सर्वमत हो जाये
तो समाज के उपयोग में आ रहे सभी प्राणियों में भेद-भाव न रहे.

क्या समाज में खाए जा रहे जीवों की खाने के आलावा कोई अन्य उपयोगिता नहीं?
यदि मशीनी तकनीकी ने भारवाहक और कृषि उपयोगी जीवों की उपयोगिता ख़त्म कर दी है तो उन्हें जीने क्या पैदा ही होने दिया जाये?
केवल आक्रामक जीवों के लिये क़ानून बना करते हैं. निरीह पशुओं के लिये नहीं.
क़ानून भी सबल का सरंक्षक है. ........... अबल का नहीं. ........... वाह री मानवता!
फिर WHO और UNISEF जैसे विश्व सामाजिक संस्थान मानवता के पुजारी बनकर क्यों गरीब और लाचार लोगों के लिये स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ-साथ उनकी अन्य जरूरतों के लिये काम किये जा रहे हैं? क्या उनके जैसे कार्य हमारे स्तर उन निरीह पशुओं के लिये नहीं होने चाहिए.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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त्रुटि सुधार :
उन्हें जीने क्या पैदा ही होने दिया जाये?

@ मैं कहना चाहता हूँ की "..उन्हें जीने क्या पैदा ही नहीं होने दिया जाये."

सुज्ञ said...

@"आपकी आवाज़ केवल पशु हत्या के खिलाफ क्यों? और हत्याओं के खिलाफ क्यों नहीं?"

जिशान साहब,

@@जिस प्रकार सामाजिक अन्याय विषय में मात्र दलितों के उत्थान की बात की जाती है, स्वर्ण जातियां अपना अपने आप फ़ोडे…
@@जिस प्रकार धार्मिक असमानता के विषय में मात्र अल्पसंख्यकों के हित की बात की जाती है, बहुसंख्यक अपना, स्वतः फ़ोडे…

उसी प्रकार हिंसा के विषय में हिंसा से शोषित जीवो के संरक्षण की, अहिंसा की बात की जाती है, मानव तो अपने खिलाफ़ हिंसा के कई दंड प्रावधान किये बैठा है।

उन निरिह जीवों के लिये भला 'मानव' के अतिरिक्त कौन बोलेगा?

zeashan haider zaidi said...

दिव्या जी,
आपने कहा ‘पौधों में दर्द का एवीडेंस नहीं मिलता।’ हम कहते हैं, ‘पौधों में दर्द नहीं होता, इसका भी कोई एवीडेंस नहीं मिलता।’
आपने कहा ‘क्या जानवरों का कोई अधिकार होना चाहिए।’ मैं कहता हूं बिल्कुल। उसे अपनी जिंदगी आराम से खाते पीते गुजारने का अधिकार होना चाहिए। जो कि इंसान का भी होता है। लेकिन इंसान के पास अपनी मरज़ी से मरने का अधिकार नहीं है। तो जानवर के पास भी मरने का अधिकार नहीं।
आपने कहा, ‘मनुष्य को मांस की ज़रूरत नहीं।’ जबकि ठंडे देशों में कोई मांस के बगैर नहीं रह सकता? और समुन्द्र के किनारे रहने वाले अगर मछली छोड़कर सब्जियां खाने लगे तो उनकी जेब पर बोझ कितना बढ़ जायेगा इसे आसानी से समझा जा सकता है।
बहरहाल किसी बहस का कोई अन्त तो होता नहीं। अत: मैं आपकी कुछ बातों से सहमत होते हुए अपनी तरफ से बहस यहीं समाप्त करता हूं। खास तौर से आपकी यह बात मुझे काफी पसंद आई,
if you are going to eat an animal at least give it the respect that it is a living being not just a product. Treat it like it's alive when its alive!

zeashan haider zaidi said...

@सुज्ञ जी,
आप तो मेरी बात दिल पर ले गए. अगर मेरी बातों से आपको कोई तकलीफ हुई है तो इसके लिए मैं आपसे माफ़ी मांगता हूँ. मैंने यह तो कभी नहीं कहा की मैं जानवरों को जीव नहीं मानता. सच्चाई ये है की हम तो जानवरों के साथ पौधों को भी जीव मानते हैं. पेट भरने के अलावा अगर हम जानवरों को किसी भी तरह की तकलीफ पहुंचाएं तो यह पाप है हमारे लिए. और सच कहा जाए तो यही पृकृति का नियम भी है. बिल्ली का पेट अगर भरा है तो चूहा उसके सामने से निकल जाता है और वह कुछ नहीं बोलती. अगर हमें ज़रुरत नहीं है और पेड़ से फल हमने तोड़ लिया तो यह मेरी और मेरे धर्म की नज़र में एक हत्या है. दूसरी तरफ हमारा बच्चा कुपोषण से मारा जा रहा है और शाकाहारी होने के कारण हम उसे अंडा नहीं खिला रहे हैं तो यह भी एक प्रकार की हत्या ही होगी.
मेरा विचार तो यह है की अति हर चीज़ की बुरी है. हद से ज्यादा मांसाहार भी बुरा है और बिलकुल छोड़ देना भी गलत है.
आजकल यू पी में नील गायों का आतंक है. किसान परेशान हैं. सरकार प्लान कर रही है की उनकी नसबंदी कर दी जाए. हम कह रहे हैं की उनका मांस खाने की आज्ञा दे दी जाए. नसबंदी करने से तो नील गायों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा. जबकि उन्हें खाने की इजाज़त देने पर वह बहुमूल्य जानवर हो जाएगा और लोग उसे पालने लगेंगे.
मैंने देखा है की गाये का बच्चा अगर मादा होता है तो पशुपालक उसे प्रेम से रखते हैं और उसपर पूरी तवज्जो देते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है की बड़ा होकर उससे उन्हें दूध मिलेगा. लेकिन यही बच्चा अगर नर होता है तो उसे यूं ही छोड़ देते है ताकि वह रास्ता भूलकर कहीं भी चला जाए और छुट्टा हो जाए. इसलिए क्योंकि वह उन पशुपालकों के लिए किसी काम का नहीं. क्या यही अहिंसा और जीवों पर दया है? की वह भटकते भटकते एक दिन पोलिथीन खाकर तड़प तड़प कर अपना जीवन त्याग दे? आप ऐसे छुट्टा जीवों के लिए कितनी गौ शालाएं बना सकते हैं?
जबकि वह लोग जिहें आप कसाई कहते हो, अपने जानवरों को अच्छा खान पान देते हैं अच्छी तरह पालते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है की अच्छे खान पान से ही उसका मूल्य बढेगा. जानवर मज़े से अपनी जिंदिगी गुज़रता है और फिर मर कर दूसरों के काम आ जाता है.

प्रतुल वशिष्ठ said...

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मित्रो !
मेरे मस्तिष्क में एक विचार कौंधा है :

— क्या आटे को दोबारा चक्की में डालकर पीसना समझदारी कहा जाना चाहिए ? ..... निकलेगा क्या ....... आटा ही ना !
— क्या तेल को पुनः कोल्हू में डालकर पेरना समझदारी कहा जाना चाहिए ? ......... निकलेगा क्या ......... तेल ही ना !
— एक दुधारू पशु को उसका ही दूध पुनः पिला दिया जाये .. तो होगा क्या ? .... वह क्या मक्खन देने लगेगा? ......... देगा तो दूध ही ना !
— क्या किसी के मांस को अपने मांसल शरीर में डालना [खाना] समझदारी कहा जाना चाहिए ? ......... क्या वह मांस दूसरा रूप अख्तियार कर लेगा? ........... बढ़ेगा/ रहेगा तो मांस ही ना !

यदि
— एक वस्तु एक प्रक्रिया से गुजर कर दूसरा रूप पाती है तो उसे विकास कहते हैं.
— एक वस्तु एक प्रक्रिया से निकलकर अपने अवशिष्ट छोड़ती हुई दूसरा रूप ग्रहण करती है तो उसे उन्नति कहते हैं. इसे ही ऊर्जा की सार्थकता भी कहते हैं.
अन्यथा
— घृत से घी का निर्माण करना मूर्खता है.
— दुग्ध से दूध बनाना बनाना मूर्खता है.
— आटे से आटा बनाना मूर्खता है.
— मांस से मांस बनाना मूर्खता है.
....... मूर्खता मतलब निरर्थक प्रयास करने वाला.
....... द्वितीयक पदार्थों की पुनः प्राप्ति के लिये वही क्रिया बार-बार दोहराना सरासर वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं. यह एक पिछडापन कहलायेगा. इसे शिक्षा की कमी भी कह सकते हैं. गंवारूपन भी.


..

अन्य दृष्टिकोणों से विचार बाद में .........

ZEAL said...

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प्रतुल जी,

एक बिलकुल नए दृष्टिकोण से समझाया आपने। प्रशंसनीय एवं अनोखा स्वरुप आपके दृष्टिकोण का। सरल उदाहरणों से समझाया आपने। शायद लोग समझें।

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दिवस said...

दिव्या दीदी आपका यह आलेख छूट गया था...मुझे याद आ रहा है कि इस समय अवधि में मैं अपने ऑफिस के काम से Field Work में व्यस्त था...इसलिए इसे नहीं पढ़ सका...
आपका लेख पढ़कर अच्छा लगा...इस पर आने वाले भाँती भाँती के विचारों को भी पढ़ा...यहाँ एक बहस छिड़ गयी है...मुझे पछतावा हो रहा है कि मैं इस बहस में शामिल क्यों नहीं हो सका...अपने विचारों को रखने का यहाँ अवसर मिलता...बहुत से कुतर्की यहाँ आए, जिन्हें उत्तर देने में मुझे बड़ा आनद आता...हालांकि आपने, भाई सुज्ञ जी, भाई प्रतुल जी व भाई वीरेंदर सिंह चौहान जी सभी की बोलती बंद कर दी है...किन्तु शायद मैं भी अपनी तरफ से कुछ कह पाता...
बाकी सभी कुतर्कों के उत्तर तो आपने दे ही दिए हैं, किन्तु भाई अनवर जमाल जी ने हिन्दू धर्म ग्रंथों व मनुस्मृति में मांसाहार की चर्चा छेड़ी है...जहाँ तक मैं देख पाया हूँ उन्हें इस कुतर्क का उत्तर नहीं मिला है...
यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि मैंने भी मनुस्मृति व अन्य हिन्दू वेदों का अध्ययन किया है, मैंने तो कभी इस प्रकार के श्लोकों को नहीं पढ़ा...मैं फिर से दोहराना चाहता हूँ कि यदि ब्राह्मणों द्वारा भारत में मांस भक्षण होता था तो आज के ब्राह्मण समाज में यह वर्जित कैसे हो गया? जिस देश में महान ऋषियों ने अपने ज्ञान से हमें लाभान्वित किया, जिस देश में ईश्वर ने बार बार अवतार लिया, उस भारत में सभी साधू, सन्यासी व अवतारों ने निर्दोष पर अत्याचार को गलत बताया है, फिर वहां के धर्म ग्रंथों में यह ढकोसले कहाँ से आ गए? आयुर्वेद के अनुसार तो मानव शरीर मांसाहार के योग्य ही नहीं है तो फिर मनुस्मृति में मांसाहार की चर्चा कहाँ से आ गयी?
भाई अनवर जमाल ही जाने कि उन्होंने इन श्लोकों को कहाँ से पढ़ लिया?
दरअसल कुछ मैकॉले मानस पुत्रों ने भारत व भारतीयों को तोड़ने के लिए गलत इतिहास रच डाला था| शायद ये पंक्तियाँ वहीँ से आई हैं...
इसके अतिरिक्त बहुत सी जगह पर शब्दों के अपभ्रंश के कारण भी इन कलियुगी इतिहासकारों ने बहुत सी गलतियां कर डालीं व अर्थ का अनर्थ हो गया...जैसे "नरकीय जीवन" को "नारकीय जीवन" बता देना, देववंद को देवबंद कह देना, ब्रह्म को भ्रम कह देना या ब्रह्माइच को बहराइच बोलना आदि अनेक उदाहरण हैं जो इस समय याद नहीं आ रहे...
यहाँ चर्चा धर्म की नहीं निर्दोष जीवों पर होने वाले अत्याचारों पर हो रही है, फिर भी कुछ कुतर्की इसे धर्म से जोड़ रहे हैं, जब कमजोर पड़ने लगे तो हिन्दू धर्म को भी इसमें घसीट लिया...उनके लिए मैं यही कहना चाहूँगा कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में मांसाहार पूर्णत: वर्जित था, वर्जित है और वर्जित रहेगा...इस सम्बन्ध में यहाँ पर कोई परिवर्तन नहीं होने वाला...वर्तमान में कुछ अंधविश्वासियों ने धर्म के नाम पर हिन्दुओं में बलि प्रथा को जन्म दे दिया...जो कि एक घृणित कृत्य है...यह सनातन धर्म का मूल सत्य नहीं है...
दिव्या दीदी आपके इस आलेख को पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई...मुझे ख़ुशी है कि आप इस पाप की विरोधी हैं...मेरी तरफ से आपसे असहमति का कोई प्रश्न ही नहीं है...आप एक संवेदनशील नारी हैं व साथ ही एक संवेदनशील लेखक भी...आप मेरे लिए सम्माननीय हैं| मुझे ख़ुशी है कि आपने मुझे भाई कहा...आप जैसी बहन पाना मेरे लिए गर्व की बात है...

ZEAL said...

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भाई दिवस ,
आप होते इस चर्चा में तो बात ही कुछ और होती । लेकिन देर आयद , दुरुस्त आयद।

@--यहाँ चर्चा धर्म की नहीं निर्दोष जीवों पर होने वाले अत्याचारों पर हो रही है...

काश इतना समझ जाते लोग , तो जीव हत्या भी बंद हो जाती शायद।

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Tomieytom said...

आप को जरूर उस घटना का समरण होगा जब जब आदम ने हव्वा को सेब खाने से इंकार किया था तो हव्वा तो क्या अल्लाह ने हव्वा को उस फल खाने की वजह से कहा की दोजख मिलेगी हव्वा ने उस फल में खा के अल्लाह का फरमान ठुकराया तो क्या सेब खान वर्जित हे यह दिखती हे क़ुरान यही बल हठ सीता माता ने किया और अपनी पति के बात को ठुकराया तो क्या हिरन की इसमें गलती थी की बल्कि उसे खाया जाये ये येह तो केवल उसहका "बाल हठ" था जिसकी वज़ह से रामायण में यही कहा की पत्नी को अकेले नही घूमना चाहिएये जो की लिखा था दोहे में Tanu Dhanu Dhamu Dharani Pura Raju. Pati Bihina Sabu Soka Samaju.. Bhoga Rogasama Bhusana Bharu. Jama Jatana Sarisa Samsaru
बल्कि क्या वो मृगा में भी तो स्वर्ण मृगा हो सकता हे सीता ने जैसे कहा राम को क्या नहीं पता था उशकी माया पर केवल सीता के कहने में उसने मृगावध किया का ! दिव्या में भी तो स्वर्ण का प्रतीक में दिव्या कहा गया हैं पूर्ण ठीक हैं जो मेने ये नही कहाँ के हमें क्या खाना हे लेकिन जानवरो को खाना न समझके हम फिर भी उनके भोजन खाते हे ताकि वो हमें शेर न समझे हम वो नहीं हे उन्हें खाना बघवान ने पत्तो के रूप में दिया हैं लेकिन तुम्हे उन्ह्को खाना भी गॉड अल्ल्लाह ईश्वर से दिया लगता हे तो तुम्हे पता हैं बुचेरखने में जानवर को बेझना भी अल्ल्लाह ने ही बेझा था ये शेर को दांत अल्लाह ने दियें हे तुम्हे उनको बुचरखाने में जाने के लिए अल्लाह क्यों कैसे उन्हका करम हे खाना हम काट के खाने वाले धरम से नफरत करते हे चाहे वो हिन्दू हो राम ही कु न कह दे उसने कहा नहीं कहा नहीं हैं केवल सीता माता के बाल हठ का पालन किया हैं लेकिन अगर वो कहे तो भी राम को ऊपर से दिखा सकते हो रामायण इसीलिए लिखी गयी थी की सीता की गलती कॅया हुई थी उसने हिरन अपने पति से हठ से माँगा उसखी हठ थी उसने वनवास झेला हमें अगर वनवास झेलना होगा तो हम भी खा सखेंगे मुसलमानो में गौ कि क़ुरबानी क्यों कि जाति हे इसके लिए हमें इतिहास कि घटना पे जरूर एक नज़र डालनी चाहिहए इब्राहिम एक जिसको संतान यानि औलाद नहीं होती हैं उसको रब ने कहा कि सबसे प्यारी वसतु कि क़ुरबानी कर दें तो उसने अपने बेटे इस्साक को सोचा जेसे कि उसके दिल में था लेकिन मुस्लमान ये कहते हैं वो बच्चा एक बकरे में बदल गया था करिश्मा हुआ था लीजिये अब में एक और घटना का उलेख करती कि आखिर तो यह भी एक दिव्या मृगा था न की असली का बल्कि मायावी मायावी यानि ब्रह्म वहम इसीलिए वहम के लिए क़ुरबानी नहीं देते


Tomieytom said...

आप को जरूर उस घटना का समरण होगा जब जब आदम ने हव्वा को सेब खाने से इंकार किया था तो हव्वा तो क्या अल्लाह ने हव्वा को उस फल खाने की वजह से कहा की दोजख मिलेगी हव्वा ने उस फल में खा के अल्लाह का फरमान ठुकराया तो क्या सेब खान वर्जित हे यह दिखती हे क़ुरान यही बल हठ सीता माता ने किया और अपनी पति के बात को ठुकराया तो क्या हिरन की इसमें गलती थी की बल्कि उसे खाया जाये ये येह तो केवल उसहका "बाल हठ" था जिसकी वज़ह से रामायण में यही कहा की पत्नी को अकेले नही घूमना चाहिएये जो की लिखा था दोहे में Tanu Dhanu Dhamu Dharani Pura Raju. Pati Bihina Sabu Soka Samaju.. Bhoga Rogasama Bhusana Bharu. Jama Jatana Sarisa Samsaru
बल्कि क्या वो मृगा में भी तो स्वर्ण मृगा हो सकता हे सीता ने जैसे कहा राम को क्या नहीं पता था उशकी माया पर केवल सीता के कहने में उसने मृगावध किया का ! दिव्या में भी तो स्वर्ण का प्रतीक में दिव्या कहा गया हैं पूर्ण ठीक हैं जो मेने ये नही कहाँ के हमें क्या खाना हे लेकिन जानवरो को खाना न समझके हम फिर भी उनके भोजन खाते हे ताकि वो हमें शेर न समझे हम वो नहीं हे उन्हें खाना बघवान ने पत्तो के रूप में दिया हैं लेकिन तुम्हे उन्ह्को खाना भी गॉड अल्ल्लाह ईश्वर से दिया लगता हे तो तुम्हे पता हैं बुचेरखने में जानवर को बेझना भी अल्ल्लाह ने ही बेझा था ये शेर को दांत अल्लाह ने दियें हे तुम्हे उनको बुचरखाने में जाने के लिए अल्लाह क्यों कैसे उन्हका करम हे खाना हम काट के खाने वाले धरम से नफरत करते हे चाहे वो हिन्दू हो राम ही कु न कह दे उसने कहा नहीं कहा नहीं हैं केवल सीता माता के बाल हठ का पालन किया हैं लेकिन अगर वो कहे तो भी राम को ऊपर से दिखा सकते हो रामायण इसीलिए लिखी गयी थी की सीता की गलती कॅया हुई थी उसने हिरन अपने पति से हठ से माँगा उसखी हठ थी उसने वनवास झेला हमें अगर वनवास झेलना होगा तो हम भी खा सखेंगे मुसलमानो में गौ कि क़ुरबानी क्यों कि जाति हे इसके लिए हमें इतिहास कि घटना पे जरूर एक नज़र डालनी चाहिहए इब्राहिम एक जिसको संतान यानि औलाद नहीं होती हैं उसको रब ने कहा कि सबसे प्यारी वसतु कि क़ुरबानी कर दें तो उसने अपने बेटे इस्साक को सोचा जेसे कि उसके दिल में था लेकिन मुस्लमान ये कहते हैं वो बच्चा एक बकरे में बदल गया था करिश्मा हुआ था लीजिये अब में एक और घटना का उलेख करती कि आखिर तो यह भी एक दिव्या मृगा था न की असली का बल्कि मायावी मायावी यानि ब्रह्म वहम इसीलिए वहम के लिए क़ुरबानी नहीं देते

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Unknown said...

अल्लाह नाम किसका है किसकी राह मेँ ये कुरचबानी है
हिन्दू धर्म सनातन है
और ईन हत्याओँ का मतलब धर्म से भई है क्योँकि ईस्लाम धर्म को जानने के लिये आपको कुरान पढना होगा जिसमेँ लिखा हुआ है कि गैर मुसलमान काफिर होते हैँ उन्हे जान से मार दो तुम्हे अल्लाह के बगल मेँ तख्तोताज पर बिठाकर 72 हुरोँ से नवाजा जायेगा
अब बताईये जिस धर्म मेँ हत्या करने की हिदायत दी हो वह धर्म नहीँ शैतानी हरकते करने वालोँ का हुजुम है

Unknown said...

अल्लाह नाम किसका है किसकी राह मेँ ये कुरचबानी है
हिन्दू धर्म सनातन है
और ईन हत्याओँ का मतलब धर्म से भई है क्योँकि ईस्लाम धर्म को जानने के लिये आपको कुरान पढना होगा जिसमेँ लिखा हुआ है कि गैर मुसलमान काफिर होते हैँ उन्हे जान से मार दो तुम्हे अल्लाह के बगल मेँ तख्तोताज पर बिठाकर 72 हुरोँ से नवाजा जायेगा
अब बताईये जिस धर्म मेँ हत्या करने की हिदायत दी हो वह धर्म नहीँ शैतानी हरकते करने वालोँ का हुजुम है